शरीर कविता फसलें और फूल : भवानी प्रसाद मिश्र

Sharir Kavita Faslein Aur Phool : Bhawani Prasad Mishra



गीत-आघात

तोड़ रहे हैं सुबह की ठंडी हवा को फूट रही सूरज की किरनें और नन्हें-नन्हें पंछियों के गीत मज़दूरों की काम पर निकली टोलियों को किरनों से भी ज़्यादा सहारा गीतों का है शायद नहीं तो कैसे निकलते वे इतनी ठंडी हवा में !

आँखें बोलेंगी

जीभ की ज़रूरत नहीं है क्योंकि कहकर या बोलकर मन की बातें ज़ाहिर करने की सूरत नहीं है हम बोलेंगे नहीं अब घूमेंगे-भर खुले में लोग आँखें देखेंगे हमारी आँखें हमारी बोलेंगी बेचैनी घोलेंगी हमारी आँखें वातावरण में जैसे प्रकृति घोलती है प्रतिक्षण जीवन करोड़ों बरस के आग्रही मरण में और सुगबुगाना पड़ता है उसे संग से शरारे छूटने लगते हैं पहाड़ की छाती से फूटने लगते हैं झरने !

देखो कि

रात को दिन को अकेले में और मेले में तुम गुनगुनाते रहना क्योंकि देखो गुनगुना रही हैं वहाँ मधुमक्खियाँ नीम के फूलों को चूसते हुए और महक रहे हैं नीम के फूल ज़्यादा-ज़्यादा देकर मधुमक्खियों को रस !

कला-1

कला वह है जो सत्य के अनुरूप हो और उठानेवाली हो हमारी पीढ़ियों को यों तो हर लापरवाह साधन बना सकता है गिरने का सीढ़ियों को !

कला-2

कोई अलौकिक ही कला हो किसी के पास तो अलग बात है नहीं तो साधारणतया कलाकार को तो लौकिक का ही सहारा है लौकिक के सहारे लोकोपयोगी रचना ही करनी है और ऐसा करते-करते जितनी अलौकिकता आ जाए उतनी अपने भीतर भरनी है कई लोग लोगों को किसी खाई की तरफ़ ले जाएँ ऐसी कुछ चीज़ें अलौकिक कला कहकर रचते हैं मगर इस तरह न लोक बचता है न वे बचते हैं सब कुछ विकृत होता है उनकी कृतियों से ख़ुद भी मरते-मरते भयभीत होते हैं वे अपनी रचना की स्मृतियों से !

संगीत

अमरूद से आम पर जा रही है गिलहरी आते-जाते गा रही है गिलहरी इस किचकिच को संगीत हाँ कह सकते हैं भाव है इसमें भावना है भय है चिंता है स्नेह है लय है !

अकर्ता

तुम तो जब कुछ रचोगे तब बचोगे मैं नाश की संभावना से रहित आकाश की तरह असंदिग्ध बैठा हूँ !

ममेदम

मेरे चलने से हुए हो तुम पथ और रथ हुए हो तुम मेरे रथी होने से रात बनोगे तुम मेरे सोने से और प्रभात मेरे जागने से !

चुपचाप उल्लास

हम रात देर तक बात करते रहे जैसे दोस्त बहुत दिनों के बाद मिलने पर करते हैं और झरते हैं जैसे उनके आस पास उनके पुराने गाँव के स्वर और स्पर्श और गंध और अंधियारे फिर बैठे रहे देर तक चुप और चुप्पी में कितने पास आए कितने सुख कितने दुख कितने उल्लास आए और लहराए हम दोनों के बीच चुपचाप !

क्यों टेरा

मेरा लहरों पर डेरा तुमने तट से मुझे धरती पर क्यों टेरा दो मुझे अब मुझे वहाँ भी वैसी उथल-पुथल की ज़िन्दगी आदत जो हो गई है डूबने उतराने की तूफ़ानों में गाने की लाओ धरो मेरे सामने वैसी उथल-पुथल की ज़िन्दगी और तब कहो आओ मेरा लहरों पर डेरा तुमने मुझे तट से धरती पर क्यों टेरा !

पीताभ किरन-पंछी

दूसरे सारे पंछी अपने सारे गीत गा चुके हैं रक्त और नील सारे फूल मेरे आँगन में आ चुके हैं सुनाई नहीं दी एक तुम्हारी ही बोली ओ पीताभ किरण पंछी ओ ठीक कविता की सहोदरा फूल और गीत और धरा सब जैसे धाराहत हैं इस घटना से अनुक्षण रत हैं सब तुम्हारी प्रतीक्षा में !

आश्वस्त

हम रात-भर तैरेंगे और अगर डूब नहीं गए सवेरे तक तो कोई न कोई डोंगी छोटी या बड़ी कोई नौका फिर देगी हमें मौक़ा धरती पर पहुँचकर उठल-पुथल करने का !

संगाती

नहीं रामचरण नहीं था न मदन था न रामस्वरूप कोई और था उस दिन मेरे साथ जिसने सतपुड़ा के जंगलों में भूख की शिकायत की न प्यास की जिसने न छाँह ताकी न पूछा कितना बाक़ी है अभी ठहरने का ठिकाना और

सिर्फ़ दो

होने को सिर्फ़ दो हैं हम मगर कम नहीं होते दो जब चारों तरफ़ कोई और न हो !

स्वप्न-शेष

सपनों का क्या करो कहाँ तक मरो इनके पीछे कहाँ-कहाँ तक खिंचो इनके खींचे कई बार लगता है लो यह आ गया हाथ में आँख खोलता हूँ तो बदल जाता है दिन रात में !

अंदाज़

अंदाज़ लग जाता है कि घिरने वाले हैं बादल फटने वाला है आसमान ख़त्म हो जाने वाला है अस्तित्व सूर्य का इसी तरह सुनाई पड़ जाता है स्वर परिवर्तन के तूर्य का कि छँटने वाले हैं बादल साफ़ हो जाने वाला है फिर आसमान और गान फिर गूँजने वाले हैं पंछियों के और हमारे !

भले आदमी

भले आदमी रुक रहने का पल अभी नहीं आया बीज जिस फल के लिए तूने बोया था वह फल अभी नहीं आया तेरे वृक्ष में टूटती हुई साँस की डोर को अभी जितना लंबा खींच सके खींच सींच चुका है तू वृक्ष को अपने पसीने से अब अपने ख़ून से सींच !

समझो भी

कई बार लगता है अकेला पड़ गया हूँ साथी-संगी विहीन क्या हाने हनूँगा तुम्हारे मन के लायक़ मैं कैसे बनूँगा शक्ति तुमने दी है मगर साथी तो चाहिए आदमी को आदमी की इस कमी को समझो उसके मन की इस नमी को समझो जो सार्थक नहीं होती बिन साथियों के !

सावधान

जहाँ-जहाँ उपस्थित हो तुम वहाँ-वहाँ बंजर कुछ नहीं रहना चाहिए निराशा का कोई अंकुर फूटे जिससे तुम्हें ऐसा कुछ नहीं कहना चाहिए !

घर और वन और मन

हवा मेरे घर का चक्कर लगाकर अभी वन में चली जाएगी भेजेगी मन तक बाँस के वन में गुँजाकर बाँसुरी की आवाज़ एक हो जाएँगे इस तरह घर और वन और मन हवा का आना हवा का जाना गूँजना बंसी का स्वर !

आत्म अनात्म

समझ में आ जाना कुछ नहीं है भीतर समझ लेने के बाद एक बेचैनी होनी चाहिए कि समझ कितना जोड़ रही है हमें दूसरों से वह दूसरा फूल कहो कविता कहो पेड़ कहो फल कहो असल कहो बीज कहो आख़िरकार आदमी है !

मित्रता और पवित्रता

आडम्बर में समाप्त न होने पाए पवित्रता और समाप्त न होने पाए मित्रता शिष्टाचार में सम्भावना है इतना-भर अवधान-पूर्वक प्राण-पूर्वक सहेजना है मित्रता और पवित्रता को !

पूर्णमदः

हर बदल रहा आकार मेरी अंजुलि में आना चाहिए विराट हुआ करे कोई उसे मेरी इच्छा में समाना चाहिए !

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