Satti Tarar Timir : Jibanananda Das

सातटि तारार तिमिर (সাতটি তারার তিমির) : जीवनानंद दास

अनुवादक - समीर वरण नंदी/सुशील कुमार झा


अनुवादक - समीर वरण नंदी

आकाशलीना

सुरंजना, मत जाना वहाँ उस लड़के से नहीं बतियाना, तारों की रुपहली आग भरी रात में, तुम लौट आओ सुरंजना, दूर-दूर बहुत दूर उस लड़के के साथ नहीं जाना लौैट आओ, लहरों पर-इस मैदान में- मेरे हृदय में, आकाश में आकाश की आड़ लेकर क्या बातें करती हो? क्यों साथ रहती हो? अरे, उसका प्रेम तो केवल मिट्टी है: जिसमें केवल उगती है घास। सुरंजना! हवा से परे की हवा- आकाश के उस पार का आकाश। उसी तरह तुम्हारा हृदय भी है आज महज़ घास।

घोड़ा

मर नहीं गये हैं आज भी हम लोग-पर केवल दृश्य की तरह जन्मते हैं: महीन1 के घोड़े घास खाते हैं कार्तिक की ज्योत्सना के प्रान्तर में। प्रस्तर युग के घोड़े लगते हैं-सब-अभी भी चारे के लोभ में चरते हैं-पृथ्वी के विचित्र डाईनामों के ऊपर। अस्तबल की गन्ध तैर आती है एक गहन रात की हवा में, सूखे विषण्ण खर के शब्द झरते हैं इस्पात की चारा मशीन पर, चाय की कई ठंडी प्यालियाँ खीर के रेस्तरां के पास बिल्ली के बच्चे की तरह नींद में- खाजवाले कुत्ते के साम्राज्य में आते ही हिल उठीं। समय की निओलिथ स्तब्धता की ज्योत्स्ना की प्रशान्त फूँक से पैराफिन लालटेन बुझ जाती है घोड़ों के गोल तबेले में। 1. महीन=एक जगह का नाम

समारूढ़

अच्छा तो फिर तुम्हीं लिखो एक कविता- बोला-म्लान हँसी के साथ, छाया पिण्ड ने दिया नहीं उत्तर, समझा कवि तो वह है नहीं, हास्यास्पद है यह: पाण्डुलिपि, भाष्य, टीका, स्याही और क़लम ऊपर बैठा है सिंहासन पर कवि नहीं- अजर, अक्षर दंतहीन अध्यापक, जिसकी आँख में विवशता भरी कीच हज़ार रुपये महावार और डेढ़-एक हज़ार मृत कवियों का हाड़-मांस खोदकर कमाने वाला, जबकि वे सारे कवि भूख प्रेम और आग की सेंक चाह कर शार्क की लहरों पर हुए थे लोट-पोट।

निरंकुश

मलय सागर के पार एक बन्दर है श्वेतांगनियों का इस पर कि मैंने समुद्र पृथ्वी पर बहुत देखा है- नीलाभ पानी की धूप में क्वालालम्पुर, जावा, सुमात्रा, इण्डोचीन, बाली बहुत घूमा मैं-उसके बाद यहाँ देखता हूँ बादामी मलयाली समुद्र की नील मरुभूमि देखकर रोते हैं पूरे दिन। सादे-सादे छोटे घर-नारियल कुंज के भीतर दिन के वक़्त और गाढ़े सफे़द जुगनू की तरह झिलमिलाते हैं श्वेतांग दम्पत्ति वहाँ समुद्री केकड़े की तरह समय पुहाते हैं, मलयाली डरते हैं भ्रान्तिवश सागर की नील मरुभूमि देखकर रोते हैं पूरे दिन। कारोबार से बातें कर-शताब्दी के अन्त में अभ्युत्थान शुरू हुआ यहाँ नीले सागर के कमर के हिस्से पर, व्यापार के विस्तार में एक रोज़ चारों ओर पाम के पेड़-दारू का घोल-वेश्यालय, सेंकों, किरासन, समुद्र की नील मरुभूमि रोकता रहता है पूरे दिन। पूरे दिन सुदूर धुएँ और धूप की गरमी से चिढ़कर उनचास पवन फिर भी बहती है मस्त होकर, विकर्ण हवा- नारिकेल कुंज में सफे़द-सफे़द घरों को रहती ठंडा किए लाल कंकर का पथ, गिर्जा का रक्तिम मुण्ड दिखाई देता है हरे फाँक से समुद्र की नील मरुभूमि देखती है नीलिमा में लीन।

गोधूलि सन्धि का नृत्य

दर-दालान की भीड़ में पृथ्वी के छोर पर जहाँ खामोशी टूटी पड़ी है वहीं ऊँची-ऊँची हरित लताओं के पीछे हेमन्त की साँझ का गोल-गोल सूर्य-उगता है रंगीन- आहिस्ते-आहिस्ते डूबता है-चाँदनी में पीपल के पेड़ पर बैठकर अकेला उल्लू रहता है देखता-सोने की गेंद की तरह सूर्य और चाँदी के डिब्बे से चाँद का जाना-पहचाना चेहरा हरित की शाखा के नीचे जैसे हीरे का स्फुलिंग और स्फटिक की तरह साफ़ जल का उल्लास, नरमुण्ड की अवछाया-निस्तब्धता- बादामी पत्तों की गंध-कधुकूपी घास। कई एक स्त्रियाँ दिव्य और दैवी पुरुष उनके, कर्म रत नवीन के लिए जूड़े के बालों में-नरक के नवजात मेघ, पाँव तले हांगकांग की घास रौंदने का स्वर, वहाँ एकान्त जल म्लान होकर फिर हीरा बनता है, पत्तों के गिरने का कोई शब्द नहीं, फिर भी वे टेर पाते हैं तोप के स्थविर गर्जन से हो रहा है तबाह शंघाई। वहाँ यूथचारी कई एक नारी गहरे चाँद के नीचे आँख और केश के संकेत सोचती हैं मेधाविनी, कि देश और विदेश के पुरुष युद्ध और व्यापार के खून में, अब नहीं डूबेंगे। प्रगाढ़ चुम्बन क्रम से खींच रहे हैं उन्हें रूई के तकिये पर सर रखकर मानवीय नींद में- कोई स्वाद नहीं है, इस झुकी पृथ्वी की मैदानी तरंग में उस चूर्ण भूखण्ड हवा में-वरुण में। क्रूर पथ ले जाती है हरीतकी वन में-ज्योत्स्ना में। युद्ध और व्यापार की चहल-पहल भरे धूप के दिन बीत गये हैं सब, जूड़े में टँका है नरक का गूँगा मेघ, हर क़दम पर-वृश्चिक-कर्क-तुला-मीन।

एक कविता

एक पृथ्वी और प्रवीणा हो गयी है मेरुजन नदी के किनारे विवर्ण प्रासाद अपनी छाया डालता है जल में। उस प्रसाद में कौन रहते हैं? कोई नहीं-एक सुनहरी आग पानी की देह पर हिलती-डुलती है किसी मायावी के जादूबल से। वह आग जलती है। वह आग जलती जा रही है। वह आग जलेगी-पर कुछ भी नहीं जलता उसी निर्मल आग में मेरा हृदय मृत एक सारस की तरह है। पृथ्वी का राजहंस नहीं- निबिड़ नक्षत्र से समागत संध्या नदी के जल में एक झुंड हंस-और उनमें अकेला यहाँ कुछ नहीं मिलने पर करुण पंख लिए वे चले जाते हैं सादा, निःसहाय एक मूल सारस से वहाँ हुई थी मेरी मुलाकात। दो रात के बुलावे पर नदी जितनी दूर चली जाती है- अपना अभिज्ञान लेकर मेरी नाव में भी उतनी बाती जलती है, लगता है यहाँ जनश्रुति का आँवला पा गया हूँ अपनी हथेली में सारी किरासन आग बन कर पानी में बहा जाती है आभा किसी मायावी के जादूबल से। पृथ्वी के सैनिकगण सो रहे हैं राजा बिम्बिसार के इंगित पर- बहुत गहरी अपनी भूमिका के बाद सत्य, सारा समय सोने की वृषभ मूर्ति बना भागता-फिरता है सारे दिन जैसे हो गया हो पत्थर, जो युवा सिंहीगर्भ में जन्म पाकर कौटिल्य का संयम पाये वे सब के सब मर गये। जैसे सब पर चले गये नींद में जैसे नगर ख़ाली कर सारी गंदगी बाथरूम में फेंककर, गम्भीर निसर्ग आभास देकर सुने हुए विस्मृति की निस्तब्धता तोड़ देता, अगर एक भी मनुष्य पास होता, जो शीशे पार का व्यवहार जानता है, वही द्वीप, पैराफिन- रेवा मछली तली जाती है तेल में, सम्राट के सैनिकगण प्यारी और नमकीन चीज़ खायेंगे जग कर, उठकर संवेदनशील कुटुम्बी जानते हैं- आदमी अपने बिछौने पर बीच रात मनमौजी खोपड़ी में कहाँ आघात करेगा किस जगह? हो सकता है निसर्ग से महारानी आकर कभी बतायें पानी के भीतर अग्नि का अर्थ।

नाविक

नाव चली गयी है क्षितिज पर-यही सोचकर निद्रासक्त होने जाकर भी वेदना से जाग उठता है परास्त नाविक, सूर्य और भी परम पराक्रम हो उठा है-सैकत के पीछे बन्दरगाह का कोलाहल, सीधे खड़े ताड़ के पेड़ फिर उसके पार सब कुछ स्वाभाविक। स्वर्गीय पक्षी के अण्डे-सा सूरज, सुनहले केश वाली नन की आँख में गौ झुंड चरते खेत दर खेत, आम किसानों के खेलने की चीज़ इसके बाद अंधेरे कमरों में थके हुए नरमुण्डों की भीड़ बल्लम की तरह तेज़ चमक के भीतर निराश्रय पड़े रहते हैं। आश्चर्य, सोने की तरफ़ तकता रहता-निरन्तर द्रुत उन्मीलन से जीवाणु उड़े जाते हैं-देखते रहते हैं-किसी एक विस्मय के देश में- हे नाविक, हे नाविक तुम्हारी यात्रा सूर्य को कहाँ तक लक्ष्य करती है? बेबीलोन, निनेभ, मिस्र, चीन के मन दरपन में फँसकर। एक और समुद्र में चले जाते हो-दोपहर वैशाली से वायु-गेत्सिमिन-सिकन्दरिया मोम की लौ है पीछे पड़े हुए कोमल संकेतों की तरह वे भी सैकत। फिर भी तृप्ति नहीं। और भी दूर हृदय में चक्रवात की चाह रह गया है प्रयोजन, जितने दिन पथराये पँख खोले ततैयों की भीड़ उड़ जाते हैं लाल धूप में, हवाई जहाज़ से तेज गति से रसीले सारस भ्रम का बुना हुआ नीला पर्दा हटा दे तो स्वयं मानव हृदय का उज्ज्वल घड़ी है-नाविक-बहता हुआ अनन्त पानी।

खेत प्रान्तर में

एक बेहिसाब सम्राटों के राज्य में रहकर अन्त में एक दिन जीव ने देखा-दो तीन युग के बाद कहीं कोई सम्राट नहीं, विप्लव नहीं, हल खींचने वाले बैल की निःशब्दता छायी रहती है खेतों की दुपहरी में। बंगाल के प्रान्तर में अपराह्न आकर नदी की खाड़ी में धीरे-धीरे घुलता है- बेबीलोन, लन्दन का जन्म-मरण उनके पीछे मुड़-मुड़कर देख रहा है बंगाल। शाम को ऐसा कहकर एक कामुक यहाँ मिलने आया अपनी कामिनी से, मानव मरण पर उसकी ममी का गह्वर एक मील तक धूप में बिखरा हुआ है। दो फिर शाम सिमट जाती है नदी की खाड़ी में खेत में एक किसान पूरे दिन अपने बैलों के साथ जुता है, शताब्दी तीक्ष्ण हो जाती है। तमाम पेड़ों की लंबी छाया बंगाल की भूमि पर पड़ रही है इधर का दिनमान-इस युग की तरह अस्त हो गया है, अनजान किसान चैत-बैशाख की संध्या विलम्ब देखकर देखता रुकी हुई शाम उन्नीस सौ बयालीस-सी लगती है लेकिन क्या यह उन्नीस सौ बयालीस-सी ही है? तीन कहीं शान्ति नहीं, उसकी उदीप्ति नहीं, एक दिन मरण है, इसलिए जन्म है, सूर्योदय के साथ आया था खेत में- सूर्यास्त के साथ चला गया है। सूर्य उदित हेागा यह सोचकर गहरी नींद ले रहा है- आज रात शिशिर का जल प्रागैतिहासिक यादें लेकर खेल रहा है- किसान का विवर्ण हल हल के फाल से उभरे मिट्टी का अन्धेर ढेर। एक चौथाई मील की तरह हो गयी है दुनिया सारे दिन अन्तहीन काम करते हैं बंजर खेत पड़ा हुआ है सत्य और असत्य। चार खून की विपुल धारा से अन्धा होकर भी किसी ने पाया नहीं यहाँ त्राण, बैशाख में दरार-सा पृथ्वी भी आसमान और कोई प्रतिश्रुति नहीं केवल भूसे की टौरियाँ बिछी हैं दो-तीन मील दूर तक फिर भी वे सोने की तरह नहीं, केवल हँसुआ के शब्द पृथ्वी प्रक्षेषणों को भूलकर करुण, निरीह, निराश्रय है। और कोई प्रतिश्रुति नहीं। जलचींटी के चली जाने पर शाम की नदी कान पातकर अपने ही पानी का शब्द सुनती है, जीवाणु से लेकर किसान, मनुष्य ने विकास किया है क्या? निज विस्तार के लिए भ्रान्ति और विलास छाये सम्पूर्ण नीले सागर में? चैत, क्रूज, नाईन्टी थ्री और सोवियत वार्ता युगान्तर का इतिहास पूँजी देकर वही कुलहीन महासागर का प्राण जान-जानकर या नचिकेता-प्रचेता से लगातार पहला और अन्तिम आदमी का प्रिय प्रतिमान हो जाता है स्वाभाविक जनमानव का सूर्य लोक।

रात्रि

हाईड्रेन्ट खोलकर कोढ़ी चाट लेता है पानी हो सकता है वह हाईड्रन्ट वहीं फँस जाए। अब दोपहरी और रात में भीड़ किये आते हैं नगरी में। एक मोटर कार में बैठे उल्लू की तरह खाँसकर चला गया। लगातार पेट्रोल झरता रहता है, सतत चौकसी के बावजूद कोई जैसे भयावह भाव से गिर गया है जल में। तीन रिक्शे तेज़ी से गैस लैम्प में खो गये किसी मायावी की तरह। मैं भी फेयर लेन छोड़कर-हठवादिता से मील दूर मील पथ चलकर-दीवार के पास रुका, बेंन्टिक स्ट्रीट जाकर चिरेटी बाज़ार में, चल पड़ा मूँगफली की तरह शुष्क हवा में। मदिर रोशनी की ताप चूमती है गाल पर। किरासन, लकड़ी, लाख घुन लगा जूट, चमड़ी की गंध डाईनामो के गूँज के साथ मिलकर तनी रहती धनुष की डोर। खींचे रहता है मृत ओ जाग्रत पृथ्वी को। ताने रखता है जीवन धनुष की डोर को। श्लोक रटती रह गयी कब से मैत्रेयी, राज विजय कर गयी है अमर आतिला1 तब भी नितान्त अपने स्वर में ऊपर के जँगले से गीत गाती है अधजगी यहूदी रमणी, पितृलोक हँसता सोचता है, गीत किसे कहते हैं और किसे कहते हैं सोना, तेल, काग़ज़ के खान। कुछ फिरंगी युवक चले जा रहे सज-धजकर खम्भे से लगकर एक लाल नीग्रो हँसता है हाथ से ब्रायर पाईप साफ़ करता है- किसी गुरिल्ला के आत्म-विश्वास से नगरी की गहन रात, उसे लगती है लीबिया के जंगल की तरह। फिर भी जन्तु की तरह अति वैतालिक, दरअसल कपड़े में शर्मिन्दा। 1आतिला=एक प्राचीन साध्वी स्त्री का नाम

लघु मुहूर्त

अब जाके दिन के अन्त में तीन अधेड़ बूढ़े भिखमंगे का अत्यंत प्रशान्त हुआ मन, धूल माटी गाल भर हवा खाकर-रास्ते किनारे धूसर हवा से कर लिया नीला मुख आचमन। क्योंकि अब ये जहाँ जायेंगे उसे कहते हैं लाल नदी जहाँ धोबी के गधे आकर पानी में जादुई ढंग से एक-दूसरे की पीठ पर चढ़कर मुख देखते हैं। फिर भी जाने से पहले तीन भिखारी मिलकर गोल होकर बैठे, तीन मग चाय पर, एक वज़ीर, दूसरा राजा, बाक़ी तीसरा नौकर आपस में किया तय फिर एक भिखारिन, तीन लँगड़े बूढ़े समधी होने के चक्कर में- याकि चाय के प्याले पर कुटुम्ब बने हैं जानकर मिलजुल गये वे चारजोड़ कानों में हाईड्रान्ट से चाय की ख़ातिर थोड़ा कुछ पानी लेकर जीवन को कुछ पुख्ता कर लेने के लिए साधुभाव से वे व्यवहार करने लगे सौंधी फुटपाथ पर बैठकर, सर हिलाकर दुःख प्रकट किया-पानी-वानी नहीं चेतलाहाट के हौदे के जल का नल, आज, काश! ऐसा होता- महाराज! भिखारी को एक पैसा देने पर हो गई जेठ-भादो बहू नाराज़। कहकर वे दढ़ियल बकरे की-सी रूखी दाढ़ी हिलाकर एक बार लड़की की तरफ़ आँख डालकर अनुभव किया यहाँ चाय के न्यौते पर लायी गयी है एक चुड़ैल। हो सकता है यही लड़की पहली बार हँस रही हो या अभी हुई है हँस-हँस कर दोहरी। गिलास से निकालकर दिया और एक गिलास हम लोगों के पास सोना-चाँदी नहीं पर हममें से कोई नहीं किसी के क्रीतदास। इन सब बातों की गाज़ सुनकर एक निशाचर कीड़ा कूद-कूद कर चलने लगा उनकी नाक पर, नदी के पानी पार बैठकर वे जैसे बेंन्टिक स्ट्रीट में गिन गये इस पृथ्वी के न्याय-अन्याय बालों की जूँ मारकर गिन गये न्याय-अन्याय कहाँ निकला है-कौन ख़रीदता है क्या-क्या लेन-देन होता है, कौन किसे देता है। कैसे धर्म का पहिया घूमता है बारीक हवा में। एक आदमी मर जाए फिर कोई दवा दे दे फ्री में-तो फ़ायदा किसे- इसे लेकर चार जने कर गये गोष्ठी। क्योंकि अब वे जिस देश में जायेंगे उसे कहते हैं उरो नदी जहाँ खाँसने पर हाड़ की हड्डियाँ बाहर निकलकर पानी में चेहरा देखने लगती हैं, जितने दिन दिखाई दे।

नाविकी

हेमन्त ख़त्म हो गया है पृथ्वी के भंडार में, और ऐसे कई हेमन्त ख़त्म हो गये हैं समय के कुहासे में, बार-बार फ़सल घर ले जाते-जाते, समुद्र पार के बंदरगाहों पर पहुँच जाते हैं। आकाश के मुखामुखी उस तरफ़ की मिट्टी जैसे सफ़ेद बादलों की प्रतिमा इधर कर्ज़, खून, नुक़सान, गन्दगी, भूख और कुछ नहीं-फिर भी अपेक्षातुर हृदय में स्पन्दन है, तभी रहता है डर पाताल की तरह देश को पीछे छोड़कर नरक की तरह इस शहर में कुछ चाहता है, क्या चाहता है? जैसे कोई देखा था-खण्डाकाश जितनी बार परिपूर्ण नीला हुआ जितनी बार रात आकाश भरे स्मरणीय नक्षत्र हैं उगे और उनकी तरह जितनी बार नर-नारियों जैसा जीवन चाहा था, जितने थे नीलकंठ पक्षी, उड़ गये हैं धुपैले आकाश में नदी और नगरी की मनुष्य की प्रतिश्रुति की राह पर जितना निरुपम सूर्यलोक जल उठा है-उसका क़र्ज़ चुकाने को छाया हुआ है इसी अनन्त धूप का अन्धकार। मानव का अनुभव ऐसा ही है। बहुत सही हो तो भय होता है? पहले मृत्यु व्यसन लगती थी? अब कुछ भी व्यसन नहीं रहा। आज सभी इस शाम के बाद तिमिर रात्रि में समुद्री यात्रा की तरह अच्छे-अच्छे नाविक और जहाज़ों से दिगन्त घूमकर दुनिया भर के तमाम मुल्कों के बेसहारा सेवक की तरह परस्पर को हे नाविक, हे नाविक कहकर- समुद्र ऐसा साधु, नीली होकर भी महान मरुभूमि, वैसे ही हम लोग भी कोई नहीं- उन लोगों का जीवन भी वर्ग, लिंग, ऋण, रक्त, द्वेष और धोखाधड़ी ऊँच-नीच, नर-नारी, नीति-निरपेक्ष होकर आज मानव समाज की तरह एकाकी हो गया है। चुप्पा नाविक होना ही अच्छा, हे नाविक, हे नाविक, जीवन अपरिमेय है क्या?

उत्तर प्रवेश

पुराने समय का सुर बहुत टूट गया है। यदि कहा जाय: समुद्र के पार कट गया है, सोने की गेंद की तरह सूर्य या पूरब के आकाश पर- उसकी पटभूमि में बहुत फेन भरी लहर, उड़ते फेन की तरह सारे आकाश में पक्षी देश का पुराना साल बहुत पीछे छूट गया है धूप के घेरे में, घास में सोकर पोखर के पानी से किशोर के तृप्त हाथ में ठंडा सिंघाड़ा-पानी उछालते-उछालते युवक की पलकों पर मृगनाभि की तरह महानगर के रास्ते पर किसी एक सूर्य जगत में आँखे बन्द हो गई थीं। वहाँ फिर सूर्य अस्त होता है। पुनरोदय होता है भोर का मनुष्य हृदय का अगोचर गुम्बद के ऊपर आकाश में मँडराता है। इसे छोड़ दिन का कोई स्वर नहीं है बसन्त का दूसरा कोई रूप नहीं है रह गये हैं हवाई जहाज़ और आकाश पर मँडराते अनगिनत हवाई अड्डे। चारों ओर ऊँचे नीचे अन्तहीन नीड़- अपने रहने पर भी वह हो उठता था चिड़ियों की तरह कोमल उसके आनन्द से मुखर, फिर भी वहाँ क्लान्ति है- क्लान्ति-क्लान्ति, क्यों है यह क्लान्ति, इसी सोच में हैरान वहाँ भी मृत्यु, है यही- यही, चाँद आता है अकेला, फिर झुंड में आते हैं नक्षत्र दिगन्त के सागर से पहली बार आवेग से बहती आती हवा अस्त हो जाती है, भोर उदय के साथ फिर लौैट आती है असंख्य मनुष्यों के हृदय में अगोचर रक्त के ऊपर आकाश में खून से लिखी हेडलाइन। ये सब छोड़कर पक्षियों का कोई स्वर- बसन्त का कोई अता-पता नहीं है। निखिल और नीड़ के जन मानवों के समस्त नियमों से सज्जन निर्जन बने रहते हैं। भय, प्रेम ज्ञान-अज्ञान हमारी मानवतावादी भूमिका अनन्त सूर्यों को अस्त करके विगत शोक, है अशोककालीन इतिहास, इसके बाद प्रवेश करते हैं और बड़े चेतना लोक में- ये, भोर ही नवीन है मान लेना पड़ता है, इसलिए अभी तीसरा ही अंक है आग के आलोक से ज्योतिर्मय।

सृष्टि के तट पर

साँझ में से रोशनी क्रम से निस्तेज होकर बुझ गयी- फिर भी बहुत-सा स्मरणीय काम हो चुका है: हरिण खा चुके अपने आमिष शिकारी का हृदय फाड़, सम्राट के इशारे पर कंकाल की पसलियाँ सैनिक हो गईं फिर कंकाल सचल हो उठा, विलोचन गया था विवाह रचाने और रसिकों ने बिताया सारा समय गणिका के कोठे पर सभाकवि दे गये पटु वाक्यों में गाली। समस्त आच्छन स्वर ओंकार करते हुए विस्मृति की ओर उड़ गये। यह शाम मनुष्य और मक्खियों से गुंजायमान युग-युग से मनुष्य का अध्यवसाय दूसरों को सुविधा-सी लगती है। क्विस लिंग ने अपना नाम ऊँचा क्या किया-हिटलर सात कानी कौड़ी दे उसे ख़रीद बन गया जनरल फिर मनुष्य के हाथों मनुष्य की नोची गयी ख़ाल दुनिया में बिना शोषण कोई नौकरी नहीं। यह कैसा परिवेश बन गया है- जबसे वाक्पटु ने जन्म लिया है। जबकि सामान्य जन धीरे-धीरे मन्थर गति से जाना चाहते थे स्वाभाविक पथ पर, तब कैसे और क्योंकर वे परिहास करते-करते पाताल में फिसल गये- हृदय के जन परिजनों को लेकर। या फिर जो लोग अपनी प्रसिद्धि को प्यार कर द्वार पर चूल्हा न पकाकर जान नहीं पाये कोई लीला या फिर जो नाम अच्छा लगा था आपिला-चापिला रोटी की चाह में ब्रेड बास्केट खायी उन्होंने अन्त में। ये सभी अपनी-अपनी गणिका, दलाल, जमाख़ोर और दुश्मन की तलाश में इधर-उधर की सोचकर सनिर्बन्धता में उतर गये, यदि कहा जाय, वे लोग तुमसे सुखी हैं, ग़लत आदमी के साथ तब उस अन्धविश्वास के चलते बात की तो, दो हाथ सत्य को गुमटाये भर उठे किसी उचाटपन से। कुत्ते के क्रन्दन जैसा: पोंछे का चीथड़ा अचानक नाली में घिसने पर जैसी करता है आवाज़। घर के भीतर कोई लाई भूँज रहा है तो दरवाजे़ पर लगा जंग रद्द नहीं होता अपनी क्षय के व्यवसाय से, चाहे आगे-पीछे घर ही बैठ जाय। गन्धी कीड़े की बदबू नरक की सराय की चाय से धीरे-धीरे बहुत फ़ीका हो आता है तरह-तरह ज्यामितिक खिंचाव के अन्दर स्वर्ग-मृत्यु पाताल के कुहासे की तरह मिलकर एक गंभीर छाया जाग उठती है मन में। या कि वह छाया नहीं-जीव नहीं, सृष्टि की दीवार के पार सिर से पाँव तक-मैं उसी की ओर देख रहा हूँ, वानगॉग की पेंटिंग की तरह-पर गॉग जैसे कुशल हाथ से निकलकर वह नाक से आँख में शायद खिले हैं कई-कई बार बुझता-खिल उठता, छाया, राख, दिव्य योनि-सा लगता है। स्वातितारा, शुक्रतारा, सूर्य का स्कूल खोलता है वही मनुष्य नरक या मृत्यु में तब्दील हो जाता है- वृष, मेष, वृश्चिक, सिंह का प्रातःकाल चाहने जाता है कन्या, मीन, मिथुन के कुल में।

तिमिर हरण का गीत

किसी हृदय में कहीं नदी की लहर से किसी सागर के जल में परस्पर रूप के साथ दो क्षण जल की तरह धुले हुए एक भोर की बेला में शताब्दी के सूर्य के पास रहती है हमारे जीवन की हलचल या शायद जीवन को ही सीखना चाहा था- आँखों में एक दूसरा आकाश लिए। हम लोग हँसे, हम लोग खेले, याद रह गयी घटनाओं के लिए कोई ग्लानि नहीं, एक दिन प्यार करते गये। फिर, वह सब रीति आज मृतक की आँख की तरह- तारे आलोक की ओर देखते हैं-निरलोक। हेमन्त के प्रान्तर में तारों की रोशनी उसी रोशनी को खींचकर आज तक खेलता हूँ। सूर्यलोक नहीं है-फिर भी- सूर्यलोक मनोरम होगा, यह सोचकर प्रसन्न होता हूँ। स्वतः विमर्श होकर कुलीन और साधारण देखता है फिर भी उसी विषाद से वही बहुत काली-काली छायाएँ लंगरख़ाने के अन्न खाकर मध्यवर्गीय लोगों की पीड़ा और हताशा का हिसाब-किताब छोड़कर नर्मदा पर झूलते ओवरब्रिज पर बैठकर नर्मदा में उतरकर- फुटपाथ से दूर निरुत्तर फुटपाथ में जाकर नक्षत्र की ज्योत्स्ना में सोना या मरना जानते हैं। ये लोग इस पथ पर वे लोग उस पथ पर-फिर भी- मध्यवर्गियों की दुनिया में हम लोग वेदनाहीन-अन्तहीन वेदना के पथ पर। कुछ नहीं है-तब भी पूरे दम से खेलता हूँ सूर्यलोक के प्रज्ञामय लगने पर हँसता हूँ, जीवित या मृत रमणी की तरह मैं अन्धकार में सोचता हुआ महानगरी की मृगनाभि को प्यार करने लगा हूँ तिमिरहरण के लिए अग्रसर होकर हम लोग क्या तिमिर विलासी हैं? नहीं हम लोग तिमिर-विनाशी होना चाहते हैं? हाँ, हम लोग तिमिर विनाशी ही हैं।

जूहू

शान्ताक्रूज से उतरकर अपराह्न जूहू के समुद्र किनारे जाकर कुछ सतब्धता भीख में माँगी थी सोमेन पालित ने सूर्य के क़रीब रुककर, बंगाल से इतना दूर आकर-समाज, दर्शन, तत्त्व विज्ञान भूलकर पश्चिम के समुद्र तीर पर प्रेम को भी यौवन की कामाख्या की तरफ फेंककर सोचा था रेत के ऊपर सागर की लघु आँख, केकड़े जैसी देह लिये शुद्ध हवाख़ोरी करेगा पूरे दिन, जहाँ दिन जाकर साल पर लौटता है उम्र आयु की ओर-निकेल घड़ी से सूर्य घड़ी के किनारे घुल जाती है-वहाँ उसकी देह गिरती हुई रक्तिम धूप के सहारे। औरेंज स्क्वैश पीयेगा या ‘बम्बई टाइम्स’ को हवा के गुब्बारों में उड़ायेगा वर्तुल माथे पर सूर्य रेत, फेन अवसर अरुणिमा उँड़ेल हवा के दैत्य जैसे हाथी, क्षण में खींच लेगा चिन्ता के बुलबुलों को। पीठ के उस पार से फिर भी एक आश्चर्य संगत दिखाई दिया। लहर नहीं, बालू नहीं, उनचास वायु, सूर्य नहीं कुछ उसी रलरोल के बीच तीन-चार धनुष दूर-दूर एरोड्रम का शोर लक्ष्य मिलगया थोड़ी देर कौतूहल से बिला गये सारे सुर फिर घेर लिया उसे वृष,ख् मेष, वृश्चिक की तरह प्रचुर, सबकी झिक आँख में-कन्धे पर माथे के पीछे कोई असमंजस सरदर्द की बात सोचने पर अपने ही मन की भूल से कब उसने क़लम को तलवार से भी प्रभावी मान कर लिखी भूमिका, एक किताब सबको सम्बोधित कर। उसने कब बजट, मिटिंग, स्त्री, पार्टी, पोलिटिक्स, मांस, मार्मलेड छोड़कर वराह अवतार को श्रेष्ठ मान लिया था, टमाटर जैसे लाल गाल वाले शिशुओं की भीड़ कुत्तों के उत्साह, घुड़सवार, पारसी मेम, खोजा, बेदुईन, समुद्रतीर जूहू, सूर्य, फेन-रेत, सान्ताक्रुज में सबसे अलग रतिमय आत्मक्रीड़ा उसे छोड़ है कौन और? उसके जैसे निरुपम दोनों गाल पर दाढ़ी के अन्दर डाल दो विवाहित उल्लू त्रिभुवन खोज कर घर में बैठे हुए हैं, मुंशी, सावरकर, नरीमन, तीन-तीन कोणों से उतरकर देख गये, महिलाएँ मर्म की तरह स्वच्छ कौतूहल भर कर अव्यय सारे शिल्पी: मेघ को न चाह इस पानी को प्यार करते हैं।

जनान्तिक

तुम्हें देख सकूँ-ऐसी आँख नहीं है मेरे पास, फिर भी, गहरे विस्मय में, मैं-तुम्हारा एहसास पाता हूँ- आज भी पृथ्वी में रह गयी हो। कहीं सांत्वना नहीं पृथ्वी पर बहुत दिनों से शान्ति नहीं नीड़ नहीं चिड़ियों की तरह, किसी हृदय के पार पक्षी नहीं। अगर मनुष्य के हृदय को जगाया न जाये तो उसे सुबह की चिड़िया या कि बसन्त आया कहकर कैसे पहचान करा सकता है कोई। चारों ओर अनगिनत मशीनें, मशीन के देवता के पास खुद को आज़ाद समझकर मनुष्य हो गया है नियमहीन। दिन की रोशनी की तरफ़ देखते ही दिखाई देता है आहत होने, मरने और स्तब्ध रहने के सिवाय लोगों के लिए और कोई जननीति नहीं रही। जो-जिस देश में रहता है वहीं का व्यक्ति हो जाता है। राज्य बनाता है-साम्राज्य की तरह भूमि चाहता है। एक व्यक्ति की चाहत एक समाज को तोड़कर फिर उसी की प्यास लिए गढ़ता है। उसे छोड़ किसी और राजनीति पर अमल करना हो तो उसे उज्ज्वल समय óोत में खो जाना पड़ता है। और वह óोत इस शताब्दी के भीतर नहीं किसी के भीतर नहीं इन्सान टिड्डियों जैसे चरते हैं और मरते हैं। ये सारे दिनमान मृत्यु, आशा, प्रकाश चुनने में व्याप्त होना पड़ता है। मन जाना चाह रहा है नवप्रस्थान की ओर...। बगै़र आँख हटाये फिर अचानक किसी भोर के जनान्तिक की आँखों में रहती है-एक और आभा इस पृथ्वी की धृष्ट शताब्दी के हृदय में नहीं- मेरे हृदय की अपनी चीज़ होकर रह गयी हो तुम। तुम्हारे सिर के केश, ताराविहीन व्यापक विपुल रात की तरह, अपने एक निर्जन नक्षत्र को पकड़े हुए हैं। तुम्हारे हृदय की देह पर हमारे जन मानविक रात नहीं है हमारे प्राणों में एक तिल देर बीती रात की तरह हम लोगों का मानव जीवन प्रचारित हो गया है, इसलिए नारी वही एक तिल कम आर्तरात्रि हो तुम। केवल अन्तहीन ढलान, मानव बना पुल केवल अमानवीय नदियों के ऊपर नारी कंठ तुम्हारी नारी तुम्हारी ही देह घिरे, इसलिए उसके उसी सप्रतिम आमेय शरीर पर हमारी आज की परिभाषा से अलग और भी औरतें हैं। हमारे युग के अतीत का एक काल रह गया है। अपने कंकड़ पर पूरे दिन नदी सूर्य के सुर की वीथी फिर भी एक क्षण के लिए भी नहीं पता चलता-पानी किस अतीत में मरा है। पर फिर भी नई नाड़ी, नया उजला जल ले आती है नदी, जानता हूँ, जानता हूँ मैं आदिनारी शरीरिणी की स्मृति को (आज हेमन्त की भोर में) वह कब की अंधेरों की, सृष्टि की भीषण अमा क्षमाहीनता में मानव हृदय की टूटी नीलिमा में बकुल पुष्प के वन में मन में अपार रक्त ढलता है ग्लेशियर के जल में असती न होकर भी स्मरणीय अनन्त ऊँचाई में प्रिया को पीड़ा देकर, कहाँ नभ की ओर जाता है।

समय के पास

क्या किया और क्या सोचा यह सब समय के पास गवाही देकर जाना पड़ता है। वो सब एक दिन हो सकता है किसी सागर के पार आज की परिचित किसी नील आभा वाले पहाड़ पर अन्धकार में हाड़-मांस की तरह सोया हो फिर भी अपनी आयु के दिन -गिनता रहता है मानव चिर दिन नीलिमा से बहुत दूर हटकर सूर्यलोक में अन्तर्हित होकर पपीरस में-उस दिन प्रिटिंग प्रेस ने कुछ नहीं कहा प्राचीन दिनों के बाद नयी शताब्दी का चीन खो गया उस दिन। आज मनुष्य हूँ मैं फिर भी सृष्टि के हृदय में हेमन्ती स्पन्दन के पथ की फ़सल और मानव का अगला कंकाल और नव- नव-नव मानव के भीतर केवल अपेक्षातुर होकर पथ पहचानना पहचान लेना चाहता और उस चाहने के रास्ते पर बाधा बना अन्न की असमाप्त भूख (क्यों है भूख- क्यों है वह असमाप्त) जो सब पा गये उनका लुटाना जो नहीं पाये उनके जी का जंजाल मैं, यह सब। समय के सागर पार कल की सुबह और आज के अन्धकार में सागर के विशाल सफे़द पक्षी की तरह छाती में दो डैने फैलाये कहीं उच्छल प्राण शिखर जलाता है साहस, साध, स्वप्न है, सोचता है। सोच लेने दो-यौवन की जीवन्त प्रतीक, अपनी जय-जयकार फिर प्रौढ़ता की ओर पृथ्वी के जाने की उम्र के आगे आ किसी आलोक पक्षी को देखा है? उसकी जय-जयकार युग-युग में जय-जय। डोडो चिड़िया नहीं है। बार-बार मनुष्य पृथ्वी की आयु में जन्मा है नये-नये इतिहास के नाव से भिड़ा है तब भी कहाँ है उस अनिवर्चनीय सपनों की सफलता-नवीनता-शुभ मानवता की भोर? नचिकेता, जराथु, लाओत्से, एन्जिलो, रूसो, लेनिन की चाहत भरी दुनिया हाँककर ले आ पाये हैं हमारे लिए स्मरणीय शतक जितना भी शान्त स्थिर होना चाहते हैं उतना ही अन्धकार में इतिहास पुरुषों को दृढ़ आघात लगती है। कहीं भी बिना आघात-आघातरहित अग्रसर सूर्यलोक नहीं। हे काल पुरुष तारा, अनन्त द्वंद्व की गोद में चढ़ा रहना होगा केवल गति का गुणगान करते-नाव खोली है स्वच्छन्द उत्सव में मैंने नई तरंग पर रौद्रविप्लव में मिलन सूर्य पर मानविक युद्ध क्रम से निस्तेज हो जाता है, क्रम से गंभीर हाता है, मानव जाति मिलन? नयी-नयी मृत्यु ध्वनि, रक्त ध्वनि, भय बोध जीत कर, मनुष्य के चेतना के दिन घोर चिन्ता में राख होकर फिर भी इतिहास महल में नवीन होगी क्या मानव की पहचान-फिर भी हर आदमी साठ बसन्तों के भीतर यह सब सुन्दर निबिड़ की आवाज़ है....है....है....उसी बोध के भीतर चल रहा है नक्षत्र, रात, सिन्धु रीति, मानव का कामी हृदय जय हो अस्त सूर्य, जय अलख अरुणोदय जय।

सूर्यतामसी

कहीं से चिड़ियों की आवाजें सुनता हूँ किसी दिशा से समुद्र का स्वर, कहीं भोर रह गई है-तब भी अगगन मनुष्य की मृत्यु होने पर-अंधकार में जीवित और मृत का हृदय विस्मृति की तरह देख रहा है। मरण का या जीवन का? कैसी सुबह है यह? अनन्त रात की तरह लगता है। एक रात भयंकर पीड़ा सह समय क्या अन्त में ऐसे ही भोर का आता है अगली रात के काल पुरुष की छाती से जाग उठता है? कहीं डैने का शब्द सुनता हूँ किसी दिशा से समुद्र का स्वर दक्षिण की ओर उत्तर की ओर पश्चिम के प्राण से माने सृजन की ही भयावहता तब भी बसन्त के जीवन की तरह, कल्याण से सूर्यालोकित सारे सिन्धु-पक्षियों के शब्द सुनता हूँ भोर के बदले तब भी वहाँ रात्रि का उजाला वियेना, टोकियो, रोम, म्युनिख-तुम? बहो-बहो, उस ओर नीले में सागर के बदले, अटलान्टिक चार्टर निखिल मरुभूमि पर। विलीन नहीं होता मायामृग-नित्य दिक्दर्शित अनुभव पर मनुष्य का क्लान्त इतिहास जो जाने हैं, सीखें नहीं जो उसी महाश्मशान की गर्म कोख में धूप की तरह जलकर गिद्ध के करुण क्रंदन के कोलाहल में जागता है क्या जीवन-हे सागर।

विभिन्न कोरस

एक पृथ्वी में बहुत दिन जीवित रहती है हमारी आयु दिनमान सुनते हैं मृत्यु के बाद मन की आँख बन्द किये नींद में सोकर हो सकता है दुर्योग से तृप्ति पाये कान, ऐसा ही एक दिन महसूस किया था, आज बहुत क़रीब वही घोर घनाया हुआ है जितनी ऊँची दीवार या जितना गट्ठा उतने ही अधिक गुनाह भरे काम करते जाते हैं, घर से उचट कर संतापित मन विभीषण, नृसिंह से अभ्यर्थना करते भोर के भीतर से शाम गुज़र जाती है, रात की उपेक्षा कर पुनराय भोर में लौट आता है, फिर भी उसका कोई बास स्थान नहीं है, फिर उस पर विश्वास किए बनाया है घर बहुत पहले एक दिन-कौर खाने तक को जब नहीं था फिर भी माटी की ओर मुख किये पृथ्वी में धान रोपते रहे-दूसरी सब बातों को भूलकर मन उसका चिन्ताओं की दुनिया में भटक कर थोड़ी-सी रोशनी से बड़ी-बड़ी चिन्ताओं को जीतकर कहीं भविष्य की ओर-पीछे खोने को कुछ नहीं के बीच एक ख़ामोशी उतर आयी है हमारे घरों में। हम लोग तो बहुत दिन लक्ष्य धरे शहरों में चलते गये काम करते गये पैसा कमाते गये। वोट देकर शामिल कर लिये गये जनतंत्र में ग्रन्थों को ही सत्य मानकर सहधर्मियों के साथ जीवन के अखाड़े मंे उतर पड़े साक्षरों के अक्षर की तरह मानकर बहुत पाप कर, पाप कथा उच्चरित करके, विश्वास भंग हो जाने पर भी जीवन में यौन एकाग्रता नहीं भूला, फिर भी कहीं कोई प्रीत नहीं इतने दिन पर भी शहर के प्रमुख पथों के मोड़-मोड़ पर नाम खुदे हैं एक मृत की देह दूसरे शव का आलिंगन किये- आतंक से ठंडा पड़कर या फिर किसी और बात पर मौत के क़रीब हमारा अनुभव, ज्ञान, नारी, हेमन्त की पीली फ़सल में इतस्ततः बीत जाता है अपने-अपने स्वर्ग की खोज में किसी के मुख पर दो शब्द नहीं-उपाय नहीं है कहकर स्थिति बदलने की चाह में उसी स्थिति पर रह जाते हैं, शताब्दी के अन्त तक ऐसे आविष्ट नियम उतर आते हैं, शाम के बरामदे से सारे जीर्ण नर-नारी तकते रहते हैं उतरती धूप के पार सूर्य की ओर खण्डहीन मंडल की तरह, काँच की तरह के। दो पास में मरु की तरह महादेश बिखरा हुआ है जितनी दूर तक आँख देखती है-अनुभव करता हूँ फिर उसे समुद्र का तीक्ष्ण प्रकाश मानकर हमारे जँगले पर बहुत से लोग देखते रहते हैं दिनमान, नफ़रत से उनके मुख प्राण की ओर देखकर लगता है शायद वे समुद्र का स्वर सुन रहे हों, भयभीत मुखश्री पर ऐसा अनन्य विस्मय- मिला हुआ है। वे सब बहुत दिनों हमारे देश में घूमे-फिरे शारीरिक वस्तु की तरह पुरुष की हार देख गये वास्तविक देव के साथ रण में, या फिर यथार्थ को जीत लिया प्रज्ञावश, या शायद देव की अजय क्षमता- या खुद उसकी क्षमता भी इतनी अधिक कि सुनता गया है बहुत दिनों हमारे मुँह का हिलना फिर भाषण समाप्त होता है ज़ोरदार तालियों के साथ। ये लोग, वह सब कुछ जानते हैं। हमारे अंधेरे में परित्यक्त खेतों की फ़सल झड़ गये हैं, अपरूप हो उठते हैं फिर विचित्र छवि के माया बल से। बहुत दूर नगरी की नाभि के भीतर आज भोर में जो थका नहीं उनका अविकार मन नियम से उठकर काम करते हैं- परिचित स्मृति की तरह रात में सोते हैं तभी से कलरव, छीना-झपटी, अपमृत्यु, भ्रात-युद्ध अन्धकार संस्कार, ब्याज स्तुति, भय, निराशा का जन्म होता है। तब समुद्र पार से स्मृति चक्षु रूपी नाविक आते हैं। ईश्वर से अधिक स्वर्णमय आक्षेप में प्रस्तुत होता है अर्ध नारी स्वर तराई से लेकर बंग सागर तक सुकुमार छाया डालकर सूर्य मामा के नाविक की लिविडो को रेखांकित करते हैं। तीन घास के ऊपर से बह जाती है हरी हवा या घास ही हरी होती है। या कि नदी का नाम मन में लेने पर चारों ओर प्रतिभासित हो उठती है नदी- जो दिखाई देती है शाम तक, असंख्य सूर्यों की आँख में तरंग के आनन्द से दायें और बायें लोटकर देखता रहता हूँ मनुष्य का दुःख क्लान्ति, दीपित, अध्ःपतन की सीमा साल उन्नीस सै बयालीस में टकराकर नई गरिमा से एक बार फिर पाना चाहता है, धुआँ रक्त, अन्ध अन्धकार के गह्वर से निकलकर जितनी घास है उससे भी अधिक लड़की, नदी से भी अधिक उन्नीस सौ तैंतालीस, चवालीस में पुरुषों का हाल, उत्क्रान्त है मिसाईल के ऊपर धूप में नीलाकाश में दूधिया हंस हिन्द सागर छोड़कर उड़ जाते हैं झट समुद्र की चाह में- मेघ की बूँद की तरह स्वच्छ लुढ़कते साफ़ हवा काटकर वे पंख वाले पक्षी, फिर भी, वे आये हैं सहसा धूप में पथ में अनन्त पारुल(एक फूल) से स्यात का शुचिमुख खिल उठता है उनके कंधे पर नीलिमा के नीचे, अनंत में जागरूक जनसाधारण आज चलते हैं? द्वेष, अन्याय, रक्त, उकसाने, कानों पर घूँसे और डर चाहा है प्यार भरा घर, बिना चोरी ज्ञान और प्रणय? महासागर के जल कभी क्या सत्जिज्ञासा की तरह हुई है स्थिर- अपने ही पानी के ग़ाज पर भीड़ को पहचाना था तनुरा नीलिमा के नीचे? नहीं तो उच्छल सिन्धु मिटता है? तब भी झूठ नहीं: सागर की रेत, पाताल की स्याही उड़ेल समय सुख्यात गुण से अन्ध होकर, बाद में आलोकित हो जाए। अनुवादक - सुशील कुमार झा

आकाशलीना

सुरंजना! वहाँ मत जाओ, बात भी ना करो उससे! चांदनी से दग्ध इस रात में, लौट आओ, सुरंजना! लौट आओ, मेरे दिल में! मत जाओ इतनी दूर, कि लौट ही ना पाओ! तुम हो नर्म नम जमीन जैसी, और उसी पर उगे हुए घास की तरह ही है प्यार! आज तुम्हारे मन में पनप रहा प्यार ही है शायद , क्या कुछ और भी कहना है उससे? हवाओं के अंदर मंडराती एक और हवा, आकाश के उस पार एक और भी आकाश! लौट आओ, सुरंजना!

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