साम्प्रत मैं चिरंतन : राजेन्द्र शाह

Samprat Main Chirantan : Rajendra Shah


अकेला

घर को छोड़कर जाने वाले को मिलती विशालता विश्व की; पीछे अकेले छूटने वाले को निगलती शून्यता घर की। मिलन में उरयोग आनन्द में लगा ही नहीं कभी, कि जुदाई थी या होगी कभी, हुआ पल भर का मिलन स्वप्नवत् । सरकते युग के-से पल लगते सब सिर्फ खाली, हृदय में जड़ा पल नन्हा-सा स्मृति से भरा-भरा पल में स्मृति के मैं जीता समूचा युग, युग जैसे युग को पलट देता पल में। रूपान्तर : ज्योत्स्ना मिलन

अन्तरिक्ष में

खबर हुई न हुई और भभूत वर्ण के अछिद्र बादलों से छा गया पूरा यह आकाश। धूप नहीं और न छाया नहीं थी सान्धेय रंगों की माया पर्ण के दोनों तरफ सम रहता अभंग उजाला। गतिशान्त लगता अब बादल तन्द्रिल और नीरव : हवा में अचल पवन एकल बिन्दु का कहीं बहना। भूमि की धूलि और तृण, पात, मेरा उत्तरीय सब ही अकम्प पलक विहीन जैसे आँख, केवल फैलाकर निज पाँख अन्तरिक्ष में रेखा खींचकर श्यामल तैरते रहते विहंग। तरल सरल तैरते अचल विहंग रूपान्तर : सत्यपाल यादव

आयुष्य जो अवशिष्ट रहा

1. घर की ओर खड़खड़ाती लँगड़ाती जाती लढ़िया पुरानी घने अन्धकार में, विजन पथ की लीक पर दृगों में अंजन स्वप्न-मधुर निद्रा का भरते मीठी झंकार से, घुँघुरू बैल के। हल्के समीर में घुलती ठण्डक चरम प्रहर में। मुझे व्यापते स्मृतिदुःख-सी फैल जाती सब कहीं सुप्त सीमा को लघुदीप की देख होते सजग पुनः ओढ़ तम को, बदल लेती करवट उझकते पथ-तरु-नीड़ से पक्षी कहीं या कभी टूटता कोई तारा बूझता बस इतना ही, गहन मन से वहाँ भी इन्द्रियाँ तमाम रह जाती निहारती, कण-कण में इस मिट्टी के पाता झलक जन्म-स्थान की आयु की अवधि में भरा था जब घर उसकी स्मृति में घूमता सूने घर में। 2. प्रवेश भरा पूरा था घर, उसके सूने रजोमय प्रांगण में रख छोटी-सी गठरी आयु के अवशेष की कि उभरी गगन में तभी रक्तिम रेख कुहर-छाये विषण्ण उजास की जागी अनुकम्पन में दिशाएँ हालचाल पूछते, बड़े-बूढ़े जो थे बचे थोड़े-से नजर डाल बहुएँ पुनः जुट जाती काम में अपने आ घेरा कुतूहल-प्रेरित शिशुओं ने सारे, पल भर भौंक, सँघ लिये चरण मेरे श्वान ने मुँह-से खुले ताले, द्वारों ने किया क्रन्दन तनिक-सा अचल स्थिति में थे जड़ीभूत गात्र; मौका पाते ही दौड़ पड़ी भीतर की भीगी, बासी हवा पाया हो मानो किसी प्रेत ने उन्मोचन! पैर धरते ही घर में, समेट ली तहें अँधेरे ने किरण-स्पर्श में देखा पुनः पुराने पात्रों को! 3. स्वजनों की स्मृति दीवार पर झुकी-सी खड़ी जीर्ण-शीर्ण खटिया अब भी रात ढले बिछाकर जिसे, सुनाते पिताजी जीवन बलदायी, रस-भरी कथाएँ पुराण की घरेलू नेह से बौराया सारा शहर प्रकोष्ठ में मुदित मुख माँ का, स्वरों से उसके गूंजता घर नित्य ही परोसती वह अमिय अपने बिलौने का, सुरभि थी वहाँ, इच्छाएँ थीं फलती सभी की झूलता अब यहाँ खाली छींका दधिहीन झूरता। ऊपर यहाँ बरसाती यह कैसी बिलखती उमगते दो हृदयों का प्रिय, हुआ था संगम कभी पूर्णिमा की रात उमड़े थे वे ज्वार-से गगन को समेटती जाली अब अन्धी, जालों से। गिरिसर का-सा, बहाता यह हंस ध्वनियों को झींगुर भी जहाँ न बोल पाता आज, गूंगी व्यथा से। 4. परिवर्तन शिशु-हृदय के-से उल्लास से खड़ा निकट झरोखे के निहारता लीक को, दृष्टि की गति बंकिम खेलता-छिपता पल-पल, जाता अनन्त सृष्टि में छोड़ जाता पीछे भ्रमण को विमुग्ध मुझको। आतुर कितना हृदय विहार को! सुदूर के अगम पथ पर, अपूर्ण कथा के कुहर पर होती अंकित रंगारंग कल्पना मेरी, निहारते स्वयं रचित आनन्द में दुग भवितव्य को। अभी भी वही झरोखा, वही मैं और यह पथ आ घेरती चौगिर्द, स्मृतियाँ बीते दिनों की : मूक हो चुकी बीन, सुनता फिर भी झंकार विविध समयों के स्वर समग्र मिलते वृन्द में। सरल मन की चंचलताओं का नहीं अब कोई क्रीड़न : हृदय के शून्य में प्राप्त अब निमज्जन प्रशान्त। 5. जीवन विलय देखता अब स्वयं को विलीन होते हृदय के शून्य में : नहीं अब कोई संकल्प, न इच्छाएँ, फिर भी मेरे कर्मों की वह प्रफुल्लित सृष्टि चारों दिशाओं से गूंजती आद्यन्त जय जीवन की उपजा शब्द जैसा होता शमित भी वैसे ही असीमित जगत् में व्याप्त होती उसकी अनन्त प्रतिध्वनि; नहींवत् हो रहता मिट्टी में, फिर भी तरुपर्णों पर कैसी खेलतीं शत शत एषणाएँ बीज की! तनिक दूरी से करता दर्शन यहाँ जीवन का, उदय या अन्त को भी किसी के न देखता रूप-रमणा में देखता किसी तत्त्व चिरन्तन को निज आनन्द में रहना पाकर परिवर्तन। गहन निधि मैं, लहर भी मैं और घनवर्षा भी, अभिनव रूपों में पाता मैं सदा ही विसर्जन। -रूपान्तर : ज्योत्स्ना मिलन

उल्टी लगन

अनदेखे पर प्यार निछावर दिल की उल्टी लगन। पतली डगर पर पाँव धरूँ, उसका आये कहीं न अन्त। मारग मेरा एकदम सूना नहीं कोई साथी-संगी इधर-उधर मुड़ती-गुड़ती जरा भी सीधा नहीं है ढंग; तो भी आँखों में है रंग.... मन मेरा लीन निज में फिर भी लगता : करे कोई पीछा पतली डगर पर पाँव धरूँ उसका आये कहीं न अन्त। मेरा मन केवल एक में ही रमा है उसका राग उछलता चौगिर्द मेरा आयुष्य ऋतुमय फागुन की फाग की तरह अंग-उमंग सुहाग। हाथ में पतवार लिये बिना तानता हूँ पाल पतली डगर पर पाँव धरूँ, उसका नहीं कोई अन्त। रूपान्तर : डॉ. जिलेदार सिंह

एक और अनन्त

अपनी इस गवाक्ष-गोष्ठी का एक साक्षी है आकाश। खुले न-खुले होठ की भले हो तो भी नेत्र में पल-पल चमकती वर्ण की फैलती है किरण जो कुछ दिखता है वह है शब्द का प्रकाश। तुम्हारे मेरे होठों पर, देखो प्रिय भीगी झलक। नाभि के गहन नीर में स्फुरित तरंग की हिलोर का तट को हुआ स्पर्श। हम दो एक और अनन्त। उसके निःसीम आनन्द से परिणत देखो उत्कर्ष । शून्य की सभरता को, अहो नेत्र पाए अपलक। नेत्र से संलग्न नेत्र, अधर से अधर... इस आनन्त्य में अब यहाँ कौन है अपर... अनुवाद : डॉ. मृदुला पारीक

ओस से भीने वन में

ओस से भीने वन में बुलबुल गाये सुबह-सवेरे, समा देख महुआ बौराया, झरे फूल पियरे। दिल की भोली कोई किशोरी भरती अपनी झँपि, नभ के किनारे मुस्काये हैं अरुन सूर्य की अँखियाँ, तरुन बदन तेज में दमके, बेसर लुरकी सोहे, समा देख महुआ बौराया, झरे फूल पियरे। गन्ध के आसवपान छकी मारुत की क्या चाल! लड़खड़ाता भी चूमना चाहे उसका पल्लव लाल। देखो न कमर के ऊपर अपनी बाँधे वह भी पल्लू, मन ही मन में झनक के बोले 'हट रे हट लल्लू'। सुरभूमि का मस्ताना वह आप यहाँ अकुलाये, समा देख महुआ बौराया, झरे फूल पियरे। उर का आना-जाना लखके नैन भये युतिपूल, बिनबोले बैन के मर्म को बूझें, करें न उसमें भूल; पुष्प के नाजुक दिल में जगता अलक्षित अग्निज्वाल, झुलसाती फिर भी पनपाती जीवन की उसमें डाल, युवादेह में मन्मथ के शर की चोट लगे, समा देख महुआ बौराया, झरे फूल पियरे। रूपान्तर : डॉ. श्रीराम त्रिपाठी

और वही तू?

वह तू ही? जिसकी हथेली तो नागरवेल के खिले किसी नव पर्ण-सी छू गयी थी शीतल लालिमा भरी? और वही तू? जो कँटीला देखू यह शतशत शूल से बींधता थूहर? वह तू ही? जिसकी वाणी में संगीतकिन्नरी का मैंने आनन्द लिया था (गुनगुनाता बहा ध्वनि तरंग आवृत्त अनन्त शान्ति में)? और वही तू- जिसके गरजते मौन ने निखिल सकल को कोलाहल से व्यग्र किया? वह तू ही? जिसकी आँखें सुधा बरसाती पूर्णचन्द्र की अँधेरे को भी मिली जिसकी शुभ्रता, समष्टि की अन्तर गूढ़ संमुद्रा? और वही तू जो विद्युत-से अशान्त भ्रमण में करे सबकुछ भस्मसात्? रूपान्तर : सुल्तान अहमद

कविता

कोई लो आँख का अंजन! नहीं कलूटा काजल, सुरमा नहीं, नहीं समुद्रजल, अरे आँजने को नहीं शलाका, नहीं अंगुली नहीं चाहिए बादल ऐसा इसका इलम पानी का मीन बने नभ-खंजन। उसके अमल में कुछ नहीं दूर विराट वह वट-पर्ण, यहाँ- सपने समय से परे- शाश्वत पूर्णिमा का वर्ण; देखो प्रेम का छन्द, मधुर बेचैनी और मनरंजन। रूपान्तर : हर्षद त्रिवेदी

कहाँ

तुम नहीं तो... प्रिय समूची सृष्टि यह धूप-छाँह का चितकबरा चलचित्र न रेखा, न आकृति, न पहचान कोई विक्षुब्ध समुद्र का चारों ओर व्याप्त गहन गर्जन। शब्द नहीं, कूक भी नहीं, न कोई गान आँखें सिर्फ तुम्हें देखती, खोजतीं हृदय में सिर्फ तुम्हारा नाम...धुन बहती। कहाँ हो तुम ?.... प्रिय! रेगिस्तान, रेत लहर में न कोई पगडण्डी भटकता मन यहाँ शून्य क्षितिज पर बिलखते कभी तो उठते आसमान भर घनघोर बवण्डर आशंका के। आर्त हृदय का गूंजता सुर तुम्हारे कानों में? हे सुदूर, तुम्हें पाकर पा लूँगा मैं खोए हुए अपने आपको, तुम बोलो तो मृदु स्वर में कहाँ हो तुम? प्रिय? कहाँ? कहाँ? रूपान्तर : ज्योत्स्ना मिलन

कोई सुर का सवार

कोई सुर का सवार आके उतरा अरव मेरे उर के दुआर कोई सुर का सवार। उसके अंगों से माटी की गन्ध महके रे नयनों में तेज का रंग पानी के झरने किल्लोलते क्या उसकी उछले उमंग उसकी उछले उमंग; मेरी सूनी मन्दिरिया में हो रे संचार वह तो अनदेखी भूमि दिखलाये रे भाखे अगम के बोल, खाली दिन ज्यों साँझ का चढ़े झोंकों हिंडोल, चढ़े झोंकों हिंडोल; मेरी जोत रे प्रगटी उसका तेज है अपार। मेरे पग में नूपुर, कान में लोर सजा फूलों कलेवर सपनों के सुख से ही आज की आधी रात है सुन्दर आधी रात है सुन्दर; कोई परसे जन्तर मेरा झरे झंकार। कोई सुर का सवार। रूपान्तर : सुल्तान अहमद

कोर लग गयी

जरा कोर की चोट लग गयी। मालती का कोमल फूल तो भी लगी उसकी टुनगी। थल में जल फिर जल पर व्योम एक घड़ी में देखे मैंने हजार सूरज-सोम गुंथाती गयी सपनों के दौर में नयी दुनियाँ। डंख का हो जहर तो होते हैं उतारनेवाले, एकटक देखते बहने दिया नयन जलधार; मोहित करने वाले मुख की जागी भूख। जरा कोर लग गयी। रूपान्तर : डॉ. जिलेदार सिंह

खाली घर

(1) गोधूलि वेला में घर आता हूँ मैं तब बन्द देखता हूँ द्वार। खुले किवाड़ों के भीतर से अब झाँकते-मँडराते अन्धकार के बीच टिमटिमाती चमकीली दो तारिकाओं का समुत्सुक स्वागत...नहीं, बन्द हैं द्वार। मेरे ही हाथों कुण्डी पर लगाया गया ताला नकारता है, शेष समय कहाँ बिताऊँ? विश्व का मेला बिखर गया है बाहर, दूर के दिगन्त में मद्धिम रव का शमन, छा रही केवल शून्यता। सकल विलुप्त स्वयं में ही निलय होता! खोलता हूँ किवाड़। (मुख खोलने से फूटती नहीं वाणी) खोखला तिमिर, मृत्यु की निविड़ मौन छाया में भर रहा हूँ डग; मैं नहीं, देखते हैं नेत्र, घूमता है सदेह मेरा प्रेत। जलाता हूँ दीपक; टाँड पर टिकी हुई पात्रों की परछाइयाँ मुँह फेरकर करती हैं चिक चिक, गूढ हँसती हैं। व्यतीत कंकाल का जाग रहा कोलाहल, रुक जाती है हृदय की धड़कन, पल सरकना भूल जाए! सामने के आईने में जरा पड़ती है नजर : कोई प्रतिबिम्ब नहीं, केवल नि:सीम सन्नाटा खाली घर। (2) पूरबी खिड़की से एक समय आयी हुईं वे चन्द्र की किरणें पश्चिम के झरोखे हो आती हैं फिर एक बार। अन्धकार में जो सकल होता लुप्त उसकी उनींदी आँखों के सामने रख दे कतार। न कोई आवाज, आलोक और छाया-भस्म मलकर जैसे घूमे भूतदेह, नीविबद्ध वासना का अपलक मौन श्वेत श्वेत! हवा में अंग में ठण्डक गत अनागत स्मृति स्वप्न का न तनिक स्पर्श जाग्रत अंग को बिछाकर मानो पड़ा है सन्नाटा। गतिमय निखिल-निरति परिवार एक अतीन्द्रिय सुन्नबिन्दु में पाता रहता है विलय। (3) मकड़ी के जाल की अविचल बृहत् छाया घेर रही है पूरी दीवार और छत। शत शत पाश में बद्ध छोर पर एक भरा हुआ जो दाग, दूसरा कुछ नहीं, छायामय मैं ही, मैं ही। अविचल में गतिशील उछलती मेरी भुजा : नहीं कोई निरोध जाल रहता है अटूट। कहीं से वहाँ आता रे कबन्ध अन्ध, हर तारे पर गति से घूमे आठों पैरों से मानों जकड़ रहा मुझे। नहीं कोई दबाव, नहीं दंश, एक दूसरे में ओतप्रोत और फिर भी अवकाश वहाँ अनन्त। दक्षिण की खिड़की से बाहर छाया अन्तहीन अन्धकार। दीप नहीं, अ ब नहीं भेद, लयलीन सब; केवल अभाव। रुक जाए कालरात्रि में नाड़ी की मन्द धड़कन। कुछ नहीं, नहीं। (4) लाख-लाख तारक अंगारभरी श्यामल शर्वरी जैसा मन। झीनी-झीनी रोम-रोम ज्वाला (कजलाई नहीं, कहीं नहीं लिपटा है राख-आवरण)। स्वयं ही दिखे एक इतना ही तेज, नहीं ताप। लाख-लाख तारक अंगार शीतल श्यामल शर्वरी! अन्तहीन का यदि हो आकलन, रखे सीमा। अविच्छिन्न आँच यदि बनी रहे एक तो यह रात्रि सहस्र सूर्य की दीप्ति से शोभित रहे रे स्वयम्! आकाश में अनदेखे हर ग्रह पर उसके उष्मापूर्ण रंग की सुषमा बहती रहे; अन्तहीन का यदि हो आकलन... यहाँ तो सोया है शव अचेतन गात (अबाधित काल) अंग अंग में खेल रहा स्पन्दन एक ऐसा इनकार सम्पात- (गति चाल) के बिना शान्त शान्त सोया यहाँ शव...