साखी - सूषिम मारग कौ अंग : भक्त कबीर जी

Sakhi - Sushim Marg Ko Ang : Bhakt Kabir Ji in Hindi


कौंण देस कहाँ आइया, कहु क्यूँ जाँण्याँ जाइ। उहू मार्ग पावै नहीं, भूलि पड़े इस माँहि॥1॥ उतीथैं कोइ न आवई, जाकूँ बूझौं धाइ। इतथैं सबै पठाइये, भार लदाइ लदाइ॥2॥ टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है- कबीर संसा जीव मैं, कोइ न कहै समुझाइ। नाँनाँ बांणी बोलता, सो कत गया बिलाइ॥3॥ सबकूँ बूझत मैं फिरौं, रहण कहै नहीं कोइ। प्रीति न जोड़ी राम सूँ, रहण कहाँ थैं होइ॥3॥ चलो चलौं सबको कहे, मोहि अँदेसा और। साहिब सूँ पर्चा नहीं, ए जांहिगें किस ठौर॥4॥ जाइबे को जागा नहीं, रहिबे कौं नहीं ठौर। कहै कबीरा संत हौ, अबिगति की गति और॥5॥ कबीरा मारिग कठिन है, कोइ न सकई जाइ। गए ते बहुडे़ नहीं, कुसल कहै को आइ॥6॥ जन कबीर का सिषर घर, बाट सलैली सैल। पाव न टिकै पपीलका, लोगनि लादे बैल॥7॥ जहाँ न चींटी चढ़ि सकै, राइ न ठहराइ। मन पवन का गमि नहीं, तहाँ पहूँचे जाइ॥8॥ कबीर मारग अगम है, सब मुनिजन बैठे थाकि। तहाँ कबीरा चलि गया गहि सतगुर कीसाषि॥9॥ सुर न थाके मुनि जनां, जहाँ न कोई जाइ। मोटे भाग कबीर के, तहाँ रहे घर छाइ॥10॥302॥

  • मुख्य पृष्ठ : काव्य रचनाएँ : भक्त कबीर जी
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)