साखी - सुमिरण कौ अंग : भक्त कबीर जी

Sakhi - Sumiran Ko Ang : Bhakt Kabir Ji in Hindi


कबीर कहता जात हूँ, सुणता है सब कोइ। राम कहें भला होइगा, नहिं तर भला न होइ॥1॥ कबीर कहै मैं कथि गया, कथि गया ब्रह्म महेस। राम नाँव सतसार है, सब काहू उपदेस॥2॥ तत तिलक तिहूँ लोक मैं, राम नाँव निज सार। जब कबीर मस्तक दिया सोभा अधिक अपार॥3॥ {ख-में नहीं है।} भगति भजन हरि नाँव है, दूजा दुक्ख अपार। मनसा बचा क्रमनाँ, कबीर सुमिरण सार॥4॥ कबीर सुमिरण सार है, और सकल जंजाल। आदि अंति सब सोधिया दूजा देखौं काल॥5॥ चिंता तौ हरि नाँव की, और न चिंता दास। जे कछु चितवैं राम बिन, सोइ काल कौ पास॥6॥ पंच सँगी पिव पिव करै, छटा जू सुमिरे मन। मेरा मन सुमिरै राम कूँ, मेरा मन रामहिं आहि॥7॥ मेरा मन सुमिरै राम कूँ, मेरा मन रामहिं आहि। अब मन रामहिं ह्नै रह्या, सीस नवावौं काहि॥8॥ तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही न हूँ। वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूँ॥9॥ कबीर निरभै राम जपि, जब लग दीवै बाति। तेल घट्या बाती बुझी, (तब) सोवैगा दिन राति॥10॥ कबीर सूता क्या करै, जागि न जपै मुरारि। एक दिनाँ भी सोवणाँ, लंबे पाँव पसारि॥11॥ कबीर सूता क्या करै, काहे न देखै जागि। जाका संग तैं बीछुड़ा, ताही के संग लागि॥12॥ कबीर सूता क्या करै उठि न रोवै दुक्ख। जाका बासा गोर मैं, सो क्यूँ सोवै सुक्ख॥13॥ कबीर सूता क्या करै, गुण गोबिंद के गाइ। तेरे सिर परि जम खड़ा, खरच कदे का खाइ॥14॥ कबीर सूता क्या करै, सुताँ होइ अकाज। ब्रह्मा का आसण खिस्या, सुणत काल को गाज॥15॥ केसो कहि कहि कूकिये, नाँ सोइयै असरार। राति दिवस के कूकणौ, (मत) कबहूँ लगै पुकार॥16॥ {ख-में नहीं है।} जिहि घटि प्रीति न प्रेम रस, फुनि रसना नहीं राम। ते नर इस संसार में, उपजि षये बेकाम॥17॥ (क-आइ संसार में।) कबीर प्रेम न चाषिया, चषि न लीया साव। सूने घर का पाहुणाँ, ज्यूँ आया त्यूँ जाव॥18॥ पहली बुरा कमाइ करि, बाँधी विष की पोट। कोटि करम फिल पलक मैं, (जब) आया हरि की वोट॥19॥ कोटि क्रम पेलै पलक मैं, जे रंचक आवै नाउँ। अनेक जुग जे पुन्नि करै, नहीं राम बिन ठाउँ॥20॥ जिहि हरि जैसा जाणियाँ, तिन कूँ तैसा लाभ। ओसों प्यास न भाजई, जब लग धसै न आभ॥21॥ राम पियारा छाड़ि करि, करै आन का जाप। बेस्वाँ केरा पूत ज्यूँ, कहे कौन सूँ बाप॥22॥ कबीर आपण राम कहि, औरां राम कहाइ। जिहि मुखि राम न ऊचरे, तिहि मुख फेरि कहाइ॥23॥ टिप्पणी: ख- जा युष, ता युष जैसे माया मन रमै, यूँ जे राम रमाइ। (तौ) तारा मण्डल छाँड़ि करि, जहाँ के सो तहाँ जाइ॥24॥ लूटि सकै तो लूटियो, राम नाम है लूटि। पीछै ही पछिताहुगे, यहु तन जैहै छूटि॥25॥ लूटि सकै तो लूटियो, राम नाम भण्डार। काल कंठ तै गहैगा, रूंधे दसूँ दुवार॥26॥ लम्बा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहु मार। कहौ संतो क्यूँ पाइये, दुर्लभ हरिदीदार॥27॥ गुण गाये गुण ना कटै, रटै न राम बियोग। अह निसि हरि ध्यावै नहीं, क्यूँ पावै दुरलभ जोग॥28॥ कबीर कठिनाई खरी, सुमिरतां हरि नाम। सूली ऊपरि नट विद्या, गिरूँ तं नाहीं ठाम॥29॥ कबीर राम ध्याइ लै, जिभ्या सौं करि मंत। हरि साग जिनि बीसरै, छीलर देखि अनंत॥30॥ कबीर राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ। फूटा नग ज्यूँ जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ॥31॥ कबीर चित्त चमंकिया, चहुँ दिस लागी लाइ। हरि सुमिरण हाथूं घड़ा, बेगे लेहु बुझाइ॥32॥67॥

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