साखी - सबद कौ अंग : भक्त कबीर जी

Sakhi - Sabad Ko Ang : Bhakt Kabir Ji in Hindi


कबीर सबद सरीर मैं, बिनि गुण बाजै तंति। बाहरि भीतरि भरि रह्या, ताथैं छूटि भरंति॥1॥ सती संतोषी सावधान, सबद भेद सुबिचार। सतगुर के प्रसाद थैं, सहज सील मत सार॥2॥ सतगुर ऐसा चाहिए, जैसा सिकलीगर होइ। सबद मसकला फेरि करि, देह द्रपन करे सोइ॥3॥ सतगुर साँचा सूरिवाँ, सबद जु बाह्या एक। लागत ही में मिलि गया, पड़ा कलेजे छेक॥4॥ टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है- सहज तराजू आँणि करि, सन रस देख्या तोलि। सब रस माँहै जीभ रत, जे कोइ जाँणै बोलि॥5॥ हरि रस जे जन बेधिया, सतगुण सी गणि नाहि। लागी चोट सरीर में, करक कलेजे माँहि॥5॥ ज्यूँ ज्यूँ हरिगुण साभलूँ, त्यूँ त्यूँ लागै तीर। साँठी साँठी झड़ि पड़ि, झलका रह्या सरीर॥6॥ ज्यूँ ज्यूँ हरिगुण साभलूँ, त्यूँ त्यूँ लागै तीर। लागै थैं भागा नहीं, साहणहार कबीर॥7॥ सारा बहुत पुकारिया, पीड़ पुकारै और। लागी चोट सबद की, रह्या कबीरा ठौर॥8॥618॥ टिप्पणी: ख प्रति में यह दोहा नहीं है।

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