साखी - परचा कौ अंग : भक्त कबीर जी

Sakhi - Parcha Ko Ang : Bhakt Kabir Ji in Hindi


कबीर तेज अनंत का, मानी ऊगी सूरज सेणि। पति संगि जागी सूंदरी, कौतिग दीठा तेणि॥1॥ कोतिग दीठा देह बिन, मसि बिना उजास। साहिब सेवा मांहि है, बेपरवांही दास॥2॥ पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान। कहिबे कूं सोभा नहीं, देख्याही परवान॥3॥ अगम अगोचर गमि नहीं, तहां जगमगै जोति। जहाँ कबीरा बंदिगी, ‘तहां’ पाप पुन्य नहीं छोति॥4॥ हदे छाड़ि बेहदि गया, हुवा निरंतर बास। कवल ज फूल्या फूल बिन, को निरषै निज दास॥5॥ कबीर मन मधुकर भया, रह्या निरंतर बास। कवल ज फूल्या जलह बिन, को देखै निज दास॥6॥ टिप्पणी : ख-कवल जो फूला फूल बिन अंतर कवल प्रकासिया, ब्रह्म बास तहां होइ। मन भवरा तहां लुबधिया, जांणैगा जन कोइ॥7॥ सायर नाहीं सीप बिन, स्वाति बूँद भी नाहिं। कबीर मोती नीपजै, सुन्नि सिषर गढ़ माँहिं॥8॥ घट माँहे औघट लह्या, औघट माँहैं घाट। कहि कबीर परचा भया, गुरु दिखाई बाट॥9॥ टिप्पणी: क-औघट पाइया। सूर समांणो चंद में, दहूँ किया घर एक। मनका च्यंता तब भया, कछू पूरबला लेख॥10॥ हद छाड़ि बेहद गया, किया सुन्नि असनान। मुनि जन महल न पावई, तहाँ किया विश्राम॥11॥ देखौ कर्म कबीर का, कछु पूरब जनम का लेख। जाका महल न मुनि लहैं, सो दोसत किया अलेख॥12॥ पिंजर प्रेमे प्रकासिया, जाग्या जोग अनंत। संसा खूटा सुख भया, मिल्या पियारा कंत॥13॥ प्यंजर प्रेम प्रकासिया, अंतरि भया उजास। मुख कसतूरी महमहीं, बांणीं फूटी बास॥14॥ मन लागा उन मन्न सों, गगन पहुँचा जाइ। देख्या चंदबिहूँणाँ, चाँदिणाँ, तहाँ अलख निरंजन राइ॥15॥ मन लागा उन मन सों, उन मन मनहि बिलग। लूँण बिलगा पाणियाँ, पाँणीं लूँणा बिलग॥16॥ पाँणी ही तें हिम भया, हिम ह्नै गया बिलाइ। जो कुछ था सोई भया, अब कछू कह्या न जाइ॥17॥ भली भई जु भै पड्या, गई दशा सब भूलि। पाला गलि पाँणी भया, ढुलि मिलिया उस कूलि॥18॥ चौहटै च्यंतामणि चढ़ी, हाडी मारत हाथि। मीरा मुझसूँ मिहर करि, इब मिलौं न काहू साथि॥19॥ पंषि उडाणी गगन कूँ, प्यंड रह्या परदेस। पाँणी पीया चंच बिन, भूलि गया यहु देस॥20॥ पंषि उड़ानी गगन कूँ, उड़ी चढ़ी असमान। जिहिं सर मण्डल भेदिया, सो सर लागा कान॥21॥ सुरति समाँणो निरति मैं, निरति रही निरधार। सुरति निरति परचा भया, तब खूले स्यंभ दुवार॥22॥ सुरति समाँणो निरति मैं, अजपा माँहै जाप। लेख समाँणाँ अलेख मैं, यूँ आपा माँहै आप॥23॥ आया था संसार में, देषण कौं बहु रूप। कहै कबीरा संत ही, पड़ि गया नजरि अनूप॥24॥ अंक भरे भरि भेटिया, मन मैं नाँहीं धीर। कहै कबीर ते क्यूँ मिलैं, जब लग दोइ सरीर॥25॥ सचु पाया सुख ऊपनाँ, अरु दिल दरिया पूरि। सकल पाप सहजै गये, जब साँई मिल्या हजूरि॥26॥ टिप्पणी: ख-सकल अघ। धरती गगन पवन नहीं होता, नहीं तोया, नहीं तारा। तब हरि हरि के जन होते, कहै कबीर बिचारा॥27॥ जा दिन कृतमनां हुता, होता हट न पट। हुता कबीरा राम जन, जिनि देखै औघट घट॥28॥ थिति पाई मन थिर भया, सतगुर करी सहाइ। अनिन कथा तनि आचरी, हिरदै त्रिभुवन राइ॥29॥ हरि संगति सीतल भया, मिटा मोह की ताप। निस बासुरि सुख निध्य लह्या, जब अंतरि प्रकट्या आप॥30॥ तन भीतरि मन मानियाँ, बाहरि कहा न जाइ। ज्वाला तै फिरि जल भया, बुझी बलंती लाइ॥31॥ तत पाया तन बीसर्‌या, जब मुनि धरिया ध्यान। तपनि गई सीतल भया, जब सुनि किया असनान॥32॥ जिनि पाया तिनि सू गह्या गया, रसनाँ लागी स्वादि। रतन निराला पाईया, जगत ढंढाल्या बादि॥33॥ कबीर दिल स्याबति भया, पाया फल सम्रथ्थ। सायर माँहि ढंढोलताँ, हीरै पड़ि गया हथ्थ॥34॥ जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाँहि। सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥35॥ जा कारणि मैं ढूंढता, सनमुख मिलिया आइ। धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ॥36॥ जा कारणि मैं जाइ था, सोई पाई ठौर। सोई फिर आपण भया, जासूँ कहता और॥37॥ कबीर देख्या एक अंग, महिमा कही न जाइ। तेज पुंज पारस धणों, नैनूँ रहा समाइ॥38॥ मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं। मुकताहल मुकता चुगैं, अब उड़ि अनत न जाहिं॥39॥ गगन गरिजि अमृत चवै, कदली कंवल प्रकास। तहाँ कबीरा बंदिगी, कै कोई निज दास॥40॥ नींव बिहुणां देहुरा, देह बिहूँणाँ देव। कबीर तहाँ बिलंबिया करे अलप की सेव॥41॥ देवल माँहै देहुरी, तिल जेहैं बिसतार। माँहैं पाती माँहिं जल, माँहे पुजणहार॥42॥ कबीर कवल प्रकासिया, ऊग्या निर्मल सूर। निस अँधियारी मिटि गई, बाजै अनहद तूर॥43॥ अनहद बाजै नीझर झरै, उपजै ब्रह्म गियान। अविगति अंतरि प्रगटै, लागै प्रेम धियान॥44॥ आकासै मुखि औंधा कुवाँ, पाताले पनिहारि। ताका पाँणीं को हंसा पीवै, बिरला आदि बिचारि॥45॥ सिव सकती दिसि कौंण जु जोवै, पछिम दिस उठै धूरि। जल मैं स्यंघ जु घर करै, मछली चढ़ै खजूरि॥46॥ अमृत बरसै हीरा निपजै, घंटा पड़ै टकसाल। कबीर जुलाहा भया पारषू, अगभै उतर्‌या पार॥47॥ ममिता मेरा क्या करै, प्रेम उघाड़ी पौलि। दरसन भया दयाल का, सूल भई सुख सौड़ि॥48॥170॥

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