साखी - कुसंगति कौ अंग : भक्त कबीर जी

Sakhi - Kusangat Ko Ang : Bhakt Kabir Ji in Hindi


निरमल बूँद अकास की, पड़ि गइ भोमि बिकार। मूल विनंठा माँनबी, बिन संगति भठछार॥1॥ मूरिष संग न कीजिए, लोहा जलि न तिराइ कदली सीप भवंग मुषी, एक बूँद तिहुँ भाइ॥2॥ हरिजन सेती रूसणाँ, संसारी सूँ हेत। ते नर कदे न नीपजै, ज्यूँ कालर का खेत॥3॥ नारी मरूँ कुसंग की, केला काँठै बेरि। वो हालै वो चीरिये, साषित संग न बेरि॥4॥ मेर नसाँणी मीच की, कुसंगति ही काल। कबीर कहै रे प्राँणिया, बाँणी ब्रह्म सँभाल॥5॥ टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है- कबीर केहने क्या बणै, अणमिलता सौ संग। दीपक कै भावैं नहीं, जलि जलि परैं पतंग॥6॥ माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंष रही लपटाइ। ताली पीटै सिरि धुनै, मीठै बोई माइ॥6॥ ऊँचे कुल क्या जनमियाँ, जे करणीं ऊँच न होइ। सोवन कलस सुरे भर्या, साथूँ निंद्या सोइ ॥7॥469॥

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