साखी - गुरुदेव कौ अंग : भक्त कबीर जी

Sakhi - Gurudev Ko Ang : Bhakt Kabir Ji in Hindi


(टिप्पणियों के संबंध में स्पष्टीकरण : 'क' - संवत् 1561 में लिखी हस्तलिखित प्रति, 'ख' - संवत् 1881 में लिखी गयी प्रति) सतगुर सवाँन को सगा, सोधी सईं न दाति। हरिजी सवाँन को हितू, हरिजन सईं न जाति॥1॥ बलिहारी गुर आपणैं द्यौं हाड़ी कै बार। जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार॥2॥ टिप्पणी: क-ख-देवता के आगे ‘कया’ पाठ है जो अनावश्यक है। सतगुर की महिमा, अनँत, अनँत किया उपगार। लोचन अनँत उघाड़िया, अनँत दिखावणहार॥3॥ राम नाम के पटतरे, देबे कौ कुछ नाहिं। क्या ले गुर सन्तोषिए, हौंस रही मन माहिं॥4॥ सतगुर के सदकै करूँ, दिल अपणी का साछ। सतगुर हम स्यूँ लड़ि पड़ा महकम मेरा बाछ॥5॥ टिप्पणी: ख-सदकै करौं। ख-साच। तुक मिलाने के लिऐ ‘साछ’ ‘साक्ष’ लिखा है। सतगुर लई कमाँण करि, बाँहण लागा तीर। एक जु बाह्यां प्रीति सूँ, भीतरि रह्या सरीर॥6॥ सतगुर साँवा सूरिवाँ, सबद जू बाह्या एक। लागत ही में मिलि गया, पढ़ा कलेजै छेक॥7॥ सतगुर मार्‌या बाण भरि, धरि करि सूधी मूठि। अंगि उघाड़ै लागिया, गई दवा सूँ फूंटि॥8॥ हँसै न बोलै उनमनी, चंचल मेल्ह्या मारि। कहै कबीर भीतरि भिद्या, सतगुर कै हथियार॥9॥ गूँगा हूवा बावला, बहरा हुआ कान। पाऊँ थै पंगुल भया, सतगुर मार्‌या बाण॥10॥ पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि। आगै थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि॥11॥ दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट। पूरा किया बिसाहूणाँ, बहुरि न आँवौं हट्ट॥12॥ (टिप्पणी: क-ख-अघट, हट।) ग्यान प्रकास्या गुर मिल्या, सो जिनि बीसरि जाइ। जब गोबिंद कृपा करी, तब गुर मिलिया आइ॥13॥ (टिप्पणी: क-गोब्यंद।) कबीर गुर गरवा मिल्या, रलि गया आटैं लूँण। जाति पाँति कुल सब मिटै, नांव धरोगे कौण॥14॥ जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध। अंधा अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत॥15॥ (टिप्पणी: क-चेला हैजा चंद (? है गा अंध)।) नाँ गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव। दुन्यूँ बूड़े धार मैं, चढ़ि पाथर की नाव॥16॥ चौसठ दीवा जोइ करि, चौदह चन्दा माँहि। तिहिं धरि किसकौ चानिणौं, जिहि घरि गोबिंद नाहिं॥17॥ टिप्पणी: ख-चाँरिणौं। ख-तिहि...जिहि। निस अधियारी कारणैं, चौरासी लख चंद। अति आतुर ऊदै किया, तऊ दिष्टि नहिं मंद॥18॥ भली भई जू गुर मिल्या, नहीं तर होती हाँणि। दीपक दिष्टि पतंग ज्यूँ, पड़ता पूरी जाँणि॥19॥ माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पड़ंत। कहै कबीर गुर ग्यान थैं, एक आध उबरंत॥20॥ सतगुर बपुरा क्या करै, जे सिषही माँहै चूक। भावै त्यूँ प्रमोधि ले, ज्यूँ वंसि बजाई फूक॥21॥ टिप्पणी: ख-प्रमोदिए। जाँणे बास जनाई कूद। संसै खाया सकल जुग, संसा किनहुँ न खद्ध। जे बेधे गुर अष्षिरां, तिनि संसा चुणि चुणि खद्ध॥22॥ (टिप्पणी: ख-सैल जुग।) चेतनि चौकी बैसि करि, सतगुर दीन्हाँ धीर। निरभै होइ निसंक भजि, केवल कहै कबीर॥23॥ सतगुर मिल्या त का भयां, जे मनि पाड़ी भोल। पासि बिनंठा कप्पड़ा, क्या करै बिचारी चोल॥24॥ बूड़े थे परि ऊबरे, गुर की लहरि चमंकि। भेरा देख्या जरजरा, (तब) ऊतरि पड़े फरंकि॥25॥ टिप्पणी: ख-जाजरा। इस दोहे के आगे ख प्रति में यह दोहा है- कबीर सब जग यों भ्रम्या फिरै ज्यूँ रामे का रोज। सतगुर थैं सोधी भई, तब पाया हरि का षोज॥27॥ गुरु गोविन्द तौ एक है, दूजा यह आकार। आपा मेट जीवत मरै, तो पावै करतार॥26॥ कबीर सतगुर नाँ मिल्या, रही अधूरी सीप। स्वांग जती का पहरि करि, घरि घरि माँगै भीष॥27॥ टिप्पणी: इसके आगे ख प्रति में यह दोहा है- कबीर सतगुर ना मिल्या, सुणी अधूरी सीष। मुँड मुँडावै मुकति कूँ, चालि न सकई वीष॥29॥ सतगुर साँचा सूरिवाँ, तातै लोहिं लुहार। कसणो दे कंचन किया, ताई लिया ततसार॥28॥ (टिप्पणी: ख-सतगुर मेरा सूरिवाँ।) थापणि पाई थिति भई, सतगुर दीन्हीं धीर। कबीर हीरा बणजिया, मानसरोवर तीर॥29॥ टिप्पणी: इसके आगे ख प्रति में यह दोहा है- कबीर हीरा बणजिया, हिरदे उकठी खाणि। पारब्रह्म क्रिपा करी सतगुर भये सुजाँण॥ निहचल निधि मिलाइ तत, सतगुर साहस धीर। निपजी मैं साझी घणाँ, बांटै नहीं कबीर॥30॥ चौपड़ि माँडी चौहटै, अरध उरध बाजार। कहै कबीरा राम जन, खेलौ संत विचार॥31॥ पासा पकड़ा प्रेम का, सारी किया सरीर। सतगुर दावा बताइया, खेलै दास कबीर॥32॥ सतगुर हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग। बरस्या बादल प्रेम का भीजि गया अब अंग॥33॥ कबीर बादल प्रेम का, हम परि बरष्या आइ। अंतरि भीगी आत्माँ हरी भई बनराइ॥34॥ (टिप्पणी: ख-में नहीं हैं।) पूरे सूँ परचा भया, सब दुख मेल्या दूरि। निर्मल कीन्हीं आत्माँ ताथैं सदा हजूरि॥35॥ (टिप्पणी: ख-में नहीं है।)

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