साखी - बिरह कौ अंग : भक्त कबीर जी

Sakhi - Birha Ka Ang : Bhakt Kabir Ji in Hindi


रात्यूँ रूँनी बिरहनीं, ज्यूँ बंचौ कूँ कुंज। कबीर अंतर प्रजल्या, प्रगट्या बिरहा पुंज॥1॥ अबंर कुँजाँ कुरलियाँ, गरिज भरे सब ताल। जिनि थे गोविंद बीछुटे, तिनके कौण हवाल॥2॥ चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति। जे जन बिछुटे राम सूँ, ते दिन मिले न राति॥3॥ बासुरि सुख नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माँहि। कबीर बिछुट्या राम सूँ ना सुख धूप न छाँह॥4॥ बिरहनि ऊभी पंथ सिरि, पंथी बूझै धाइ। एक सबद कहि पीव का, कब रे मिलैगे आइ॥5॥ बहुत दिनन की जोवती, बाट तुम्हारी राम। जिव तरसै तुझ मिलन कूँ, मनि नाहीं विश्राम॥6॥ बिरहिन ऊठै भी पड़े, दरसन कारनि राम। मूवाँ पीछे देहुगे, सो दरसन किहिं काम॥7॥ मूवाँ पीछै जिनि मिलै, कहै कबीरा राम। पाथर घाटा लोह सब, (तब) पारस कौंणे काम॥8॥ अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेसो कहियाँ। कै हरि आयां भाजिसी, कै हरि ही पासि गयां॥9॥ आइ न सकौ तुझ पै, सकूँ न तूझ बुझाइ। जियरा यौही लेहुगे, बिरह तपाइ तपाइ॥10॥ यहु तन जालौं मसि करूँ, ज्यूँ धूवाँ जाइ सरग्गि। मति वै राम दया, करै, बरसि बुझावै अग्गि॥11॥ यहु तन जालै मसि करौं, लिखौं राम का नाउँ। लेखणिं करूँ करंक की, लिखि लिखि राम पठाउँ॥12॥ कबीर पीर पिरावनीं, पंजर पीड़ न जाइ। एक ज पीड़ परीति की, रही कलेजा छाइ॥13॥ चोट सताड़ी बिरह की, सब तन जर जर होइ। मारणहारा जाँणिहै, कै जिहिं लागी सोइ॥14॥ कर कमाण सर साँधि करि, खैचि जू मार्‌या माँहि। भीतरि भिद्या सुमार ह्नै जीवै कि जीवै नाँहि॥15॥ जबहूँ मार्‌या खैंचि करि, तब मैं पाई जाँणि। लांगी चोट मरम्म की, गई कलेजा जाँणि॥16॥ जिहि सर मारी काल्हि सो सर मेरे मन बस्या। तिहि सरि अजहूँ मारि, सर बिन सच पाऊँ नहीं॥17॥ बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्रा न लागै कोइ। राम बियोगी ना जिवै, जिवै त बीरा होइ॥18॥ बिरह भुवंगम पैसि करि, किया कलेजै घाव। साधू अंग न मोड़ही, ज्यूँ भावै त्यूँ खाव॥19॥ सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त। और न कोई सुणि सकै, कै साई के चित्त॥20॥ बिरहा बिरहा जिनि कहौ, बिरहा है सुलितान। जिह घटि बिरह न संचरै, सो घट सदा मसान॥21॥ अंषड़ियाँ झाई पड़ी, पंथ निहारि निहारि। जीभड़ियाँ छाला पड़्या, राम पुकारि पुकारि॥22॥ इस तन का दीवा करौं, बाती मेल्यूँ जीव। लोही सींचौ तेल ज्यूँ, कब मुख देखौं पीव॥23॥ नैंना नीझर लाइया, रहट बहै निस जाम। पपीहा ज्यूँ पिव पिव करौं, कबरू मिलहुगे राम॥24॥ अंषड़िया प्रेम कसाइयाँ, लोग जाँणे दुखड़ियाँ। साँई अपणैं कारणै, रोइ रोइ रतड़िया॥25॥ सोई आँसू सजणाँ, सोई लोक बिड़ाँहि। जे लोइण लोंहीं चुवै, तौ जाँणों हेत हियाँहि॥26॥ कबीर हसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौं चित्त। बिन रोयाँ क्यूँ पाइये, प्रेम पियारा मित्त॥27॥ जौ रोऊँ तो बल घटे, हँसौं तो राम रिसाइ। मनही माँहि बिसूरणाँ, ज्यूँ घुंण काठहि खाइ॥28॥ हंसि हंसि कंत न पाइए, जिनि पाया तिनि रोइ। जो हाँसेही हरि मिलै, तो नहीं दुहागनि कोइ॥29॥ हाँसी खेलौ हरि मिलै, तौ कौण सहे षरसान। काम क्रोध त्रिष्णाँ तजै, ताहि मिलैं भगवान॥30॥ पूत पियारो पिता कौं, गौंहनि लागा धाइ। लोभ मिठाई हाथ दे, आपण गया भुलाइ॥31॥ डारि खाँड़ पटकि करि, अंतरि रोस उपाइ। रोवत रोवत मिलि गया, पिता पियारे जाइ॥32॥ टिप्पणी: ख-में इसके अनंतर यह दोहा है- मो चित तिलाँ न बीसरौ, तुम्ह हरि दूरि थंयाह। इहि अंगि औलू भाइ जिसी, जदि तदि तुम्ह म्यलियांह॥ नैना अंतरि आचरूँ, निस दिन निरषौं तोहि। कब हरि दरसन देहुगे सो दिन आवै मोंहि॥33॥ कबीर देखत दिन गया, निस भी देखत जाइ। बिरहणि पीव पावे नहीं, जियरा तलपै भाइ॥34॥ कै बिरहनि कूं मींच दे, कै आपा दिखलाइ। आठ पहर का दाझणां, मोपै सह्या न जाइ॥35॥ बिरहणि थी तो क्यूँ रही, जली न पीव के नालि। रहु रहु मुगध गहेलड़ी, प्रेम न लाजूँ मारि॥36॥ हौं बिरहा की लाकड़ी, समझि समझि धूंधाउँ। छूटि पड़ौं यों बिरह तें, जे सारीही जलि जाउँ॥37॥ कबीर तन मन यों जल्या, बिरह अगनि सूँ लागि। मृतक पीड़ न जाँणई, जाँणैगि यहूँ आगि॥38॥ बिरह जलाई मैं जलौं, जलती जल हरि जाउँ। मो देख्याँ जल हरि जलै, संतौं कहीं बुझाउँ॥39॥ परबति परबति में फिर्‌या, नैन गँवाये रोइ। सो बूटी पाऊँ नहीं, जातें जीवनि होइ॥40॥ फाड़ि फुटोला धज करौं, कामलड़ी पहिराउँ। जिहि जिहिं भेषा हरि मिलैं, सोइ सोइ भेष कराउँ॥41॥ नैन हमारे जलि गये, छिन छिन लोड़ै तुझ। नां तूं मिलै न मैं खुसी, ऐसी बेदन मुझ॥42॥ भेला पाया श्रम सों, भौसागर के माँह। जो छाँड़ौ तौ डूबिहौ, गहौं त डसिये बाँह॥43॥ नोट: ख-में इसके आगे यह दोहा है- बिरह जलाई मैं जलौं, मो बिरहिन कै दूष। छाँह न बैसों डरपती, मति जलि ऊठे रूष॥46॥ रैणा दूर बिछोहिया, रह रे संषम झूरि। देवलि देवलि धाहड़ी, देखी ऊगै सूरि॥44॥ सुखिया सब संसार है, खाये अरु सोवै। दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवै॥45॥112॥

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