साखी - बेलि कौ अंग : भक्त कबीर जी

Sakhi - Beli Ko Ang : Bhakt Kabir Ji in Hindi


अब तौ ऐसी ह्नै पड़ी, नाँ तूँ बड़ी न बेलि। जालण आँणीं लाकड़ी, ऊठी कूँपल मेल्हि॥1॥ आगै आगै दौं जलैं, पीछै हरिया होइ। बलिहारी ता विरष की, जड़ काट्याँ फल होइ॥2॥ टिप्पणी: ख-दौं बलै। जे काटौ तो डहडही, सींचौं तौ कुमिलाइ। इस गुणवंती बेलि का, कुछ गुँण कहाँ न जाइ॥3॥ आँगणि बेलि अकासि फल, अण ब्यावर का दूध। ससा सींग की धूनहड़ी, रमै बाँझ का पूत॥4॥ कबीर कड़ई बेलड़ी, कड़वा ही फल होइ। साँध नाँव तब पाइए, जे बेलि बिछोहा होइ॥5॥ सींध भइ तब का भया, चहूँ दिसि फूटी बास। अजहूँ बीज अंकूर है, भीऊगण की आस॥6॥806॥ टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह दोहा है- सिंधि जू सहजै फुकि गई, आगि लगी बन माँहि। बीज बास दून्यँ जले, ऊगण कौं कुछ नाँहि॥7॥

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