Ruposhi Bangla : Jibanananda Das

रूपसी बांग्ला (রূপসী বাংলা) : जीवनानंद दास; अनुवादक - समीर वरण नंदी/सुशील कुमार झा


रूपसी बांग्ला : अनुवादक - समीर वरण नंदी

मैंने देखा है बंगाल का चेहरा

मैंने देखा है बंगाल का चेहरा इसलिए पृथ्वी का रूप देखने कहीं नहीं जाता, अँधेरे में जगे गूलर के पेड़ तकता हूँ, छाते जैसे बड़े पत्तों के नीचे बैठा हुआ है भोर का दयोल पक्षी-चारों ओर देखता हूँ पल्लवों का स्तूप जामुन, बरगद, कटहल, सेमल, पीपल साधे हुए हैं चुप्पी। नागफनी का छाया बलुआही झाड़ों पर पड़ रही है मधुकर(सौदागर, सती बेहुला की कथा का पात्र) के नाव से न जाने कब चाँद, चम्पा के पास आ गया है ऐसे ही सेमल, बरगद और ताड़ की नीली छाया से भरा पूरा है बगाल का अप्रतिम रूप। हाय, बेहुला ने भी देखा था एक दिन गंगा में नाव से नदी किनारे कृष्ण द्वादशी की चाँदनी में सुनहले धान के पास हज़ारों पीपल, बरगद वट में मन्द स्वर में खंजनी की तरह इन्द्रसभा में श्यामा(लोक संगीत) के कोमल गीत सुने थे, बंगाल के नदी कगार ने खेत मैदान पर घुँघरू की तरह रोये थे उसके पाँव।

आकाश में सात तारे

जब खिल उठते हैं आकाश में सात तारे तब मैं यहाँ घास पर बैठे रहता हूँ, पीले फल-सा लाल मेघ, मृत उज्ज्वलता की तरह गंगासागर में डुबोकर ले आती है जैसे शान्ति अनुगत बंगाल की नीली संध्या में-जैसे कोई केशवती कन्या चली आयी आकाश पर: मेरी आँखों में-बसा है वह चेहरा, जिस पर केश बिखरे हैं पृथ्वी की किसी भी राह ने देखी न होगी कभी ऐसी कन्या- उसके काले केशों का चुम्बन, सेमल, कटहल, जाम पर झरते अविरल, कोई नहीं जानता होगा कि इतनी स्निग्ध गन्ध झरती है रूपसी के केश-विन्यास से: पृथ्वी की किसी राह पर नहीं होगी कच्चे धान की गन्ध-कलमी(पानी साग की एक किस्म) की बास हंस के पंख, खर, पोखर के जल, चाँद, पुँठिया मछली की सोंधी गंध चावल धोई किशोरी की भीगी कलाई, ठंडा-सा हाथ किशोर के पाँव में चिपकी मोथी घास, लाल-लाल बटफल की दुखद गंध छायी नीरवता-इसी में है बंगाल का प्राण जब खिल उठते हैं आकाश में सात तारे तब पा जाता हूँ मैं संकेत।

फिर आऊँगा लौटकर

फिर आऊँगा मैं धान सीढ़ी नदी के तट पर लौटकर-इसी बंगाल में हो सकता है मनुष्य बनकर नहीं-संभव है शंखचील या मैना के वेश में आऊँ हो सकता है भोर का कौवा बनकर ऐसे ही कार्तिक के नवान्न के देश में कुहासे के सीने पर तैर कर एक दिन आऊँ-इस कटहल की छाँव में, हो सकता है बत्तख़ बनूँ-किशोरी की -घुँघरू होंगे लाल पाँव में, पूरा दिन कटेगा कलमी के गंध भरे जल में तैरते-तैरते फिर आऊँगा मैं बंगाल के नदी खेत मैदान को प्यार करने उठती लहर के जल से रसीले बंगाल के हरे करुणा सिक्त कगार पर। हो सकता है गिद्ध उड़ते दिखें संध्या की हवा में, हो सकता है एक लक्ष्मी उल्लू पुकारे सेमल की डाल पर, हो सकता है धान के खील बिखेरता कोई एक शिशु दिखाई दे आँगन की घास पर, रुपहले गंदले जल में हो सकता है एक किशोर फटे पाल वाली नाव तैराये, या मेड़ पार चाँदी-से मेघ में सफे़द बगुले उड़ते दिखाई दें- चुपचाप अंधकार में, पाओगे मुझे उन्हीं में कहीं न कहीं तुम।

गोल पत्तों के छप्पर की छाती चूमकर

गोल पत्तों के छप्पर की छाती चूमकर नीला धुआँ सुबह-ओ-शाम उड़कर घुल जाता है कार्तिक के कुहासे के साथ अमराई में। पोखर की छोटी-छोटी लाल काई हल्की लहर से बार-बार चाहती है जुड़ना करबी के कच्चे पत्ते, चूमना चाहते हैं मच्छीखोर पक्षी के पाँव एक एक ईंट धँसकर-खो कहाँ जाती है गहरे पानी में डूब कर टूटे घाट पर आज कोई आकर चावल धुले हाथों से गूँधती नहीं चोटी सूखे पत्ते इधर-उधर नहीं डोलते-फिरते कौड़ी खेल की मस्ती में-यह घर हो गया है साँप का बिल। डायन की तरह हाथ उठाये-उठाये भुतहा पेड़ों के जंगल से हवा आकर क्या गयी-समझ नहीं पाया समझ नहीं पाया-चील क्यों रोती है दुनिया के किसी कोने में मैंने नहीं देखा ऐसी निर्जनता सीधे रास्ते-भीगे पथ-मुँह पर घूँघट डाले बाँस चढ़ गया है विधवा की छत। श्मशान के पार सहसा जब संध्या उतर आती है, सहज की डाल पर कार्तिक का चाँद निकलने पर रोते हैं उल्लू-नीम, नीम...नीम।

यहाँ का नीला आकाश

यहाँ नीला है आकाश, नीले आकाश में खिले हैं सहजन के फूल खिले हैं-हिम धवल-अश्विन के प्रकाश की तरह उनका रंग, आकन्द फूल का काला भौंरा करता है यहाँ गुंजन धूप की दोपहरी को भरता है-बार-बार धूप उसके सुचिक्कण रोम कटहल और जामुन की छाती पर लोटता है-चंचल अंगुली से उसे थामे हल्का-हल्का फिरता है यहाँ जामुन, लीची, कटहल के वन में धनपति, श्रीमन्त; बेहुला, छलना के छूता है चरण(सती बेहुला कथा के पात्र) मधुर राह में समाई है कौवे और कोयल के देह की धूल। कब की कोयल जानते हो? जब मुकुन्दराम(उपरिवत) हाय- लिखने बैठे थे दूसरे पहर एकाग्र चित्त से ‘चण्डी मंगल’ तो कोयल की कूद से रुक-रुक जाता था लिखना और जब बेहुला अकेली चली गंगा की धार तैरकर संध्या के अँधेरे में धान खेत और अमराई के झुरमुट से कोयल की पुकार सुन-सुनकर उसकी आँख में छा गई थी धुंध।

दूर पृथ्वी की गंध से

आज रात, दूर पृथ्वी की गंध से भर उठा है मेरा बंगाली मन। एक दिन मौत आकर यदि दूर नक्षत्र तले अनजानी घास के सीने पर मुझे सो जाने के लिए कहे तब उस घास में, बंगाल की अविरल घास की सौंफ-सी मृदु गंध भरी रहेगी, किशोरी के स्तनों में पहली बार जननी होने पर जैसे मक्खन तैरता है पृथ्वी के चारों ओर वही शान्ति रहती है, घास-आँख, सफ़ेद हाथ स्तन। कहीं भी आये मृत्यु-कहीं की हो हरी कोमल घास मुझे रखेगी छिपाकर-भोर, रात, दोपहर में पक्षी के हृदय की तरह छाया रहेगा मुझ पर रात का आकाश नक्षत्र का नीला फूल खिला रहेगा, क्या बंगाल का नक्षत्र नहीं? नहीं जानता, तब भी उनके शान्त स्थिर चित्त में-शान्ति लगी रहेगी: आकाश के सीने पर जैसे-आँख, सफ़ेद हाथ-ज्यों स्तन घास।

चतुर्दिक-नीरवता भरी संध्या में

चारों ओर शान्ति और नीरवता भरी संध्या में मुँह में खर पतवार लिए चुपचाप एक मैना उड़ती जा रही है, परिचित राह पर धीरे-धीरे एक बैलगाड़ी जा रही है सुनहरी फूस के ढूहों से पटा हुआ है आँगन। दुनिया भर के उल्लू पुकारते हैं सेमल में, घास में धरती की सारी सुन्दरता दिखाई दे रही है, संसार का सारा प्यार हम दोनों के मन में- आकाश फैला है शान्ति के लिए आकाश-आकाश में। रूपसी बांग्ला : अनुवादक - सुशील कुमार झा

सात तारे आकाश में

उग आते हैं वो सात तारे आकाश में और यूँ ही बैठा रहता हूँ मैं यहीं इसी घास पर, गुलमुहर से लाल मेघों तले; गंगासागर की लहरों में मृत मनिया की भाँति सूर्य के डूब चुकने के बाद – आती है शांत अनुगत नीली संध्या, मानो उतर रही हो लहराती अपनी अलकों को अम्बर से कोई अप्सरा; मेरी आँखों पर, मेरे चेहरे पर बल खाती हुई - उसकी पाद चुम्बित काकुली मानो इस धरती की नहीं हो, कहीं देखा नहीं कभी ऐसे अजश्र प्रवाहमान केश अविरत चुम्बन को लालायित जिसके पलाश, कटहल, जामुन के झड़े-बिखरे पत्ते जाना नहीं था एक स्निग्ध महक भी होती है केश-विन्यास में किसी रूपसी के यूँ ही कभी किसी राह में गुजरती; नरम धान की गंध – सेमलवन की महक, वनतुलसी, बैंगनी पुटुस की झलक, खेतों की ओर बहते पानी, बादलों के ओट से चाँद की भीनी-भीनी खुश्बू, चावल धो चुकी किशोरी के ठंडे भींगे हाथ – किशोरों के पाँवों से दलित घास – वट के लाल लाल फलों के व्यथित महक से क्लांत नीरवता – तभी तो पता चलता है, उग आते हैं जब सातों तारे आकाश में; और इसी में तो बसता है मेरे गाँव का प्राण।

मेरा गाँव

देखी है मैंने अपने गाँव की सुन्दरता, तभी तो चाह भी नहीं बची है देखने की किसी और सौन्दर्य की इस धरा पर; नीरव रातों में जाग कर देखा था गूलर के छतराये पत्तों के छाये तले बैठे भोर के नीलकंठ को – और चारों ओर देखा था, जामुन, बरगद, कटहल और पीपल के सूखे पत्तों के ढेर का ढेर, और जहाँ तहाँ बिखरे झड़बेरियों पर पड़ती उनकी छाया; चाँदनी के रथ से ही चाँद ने भी न जाने कब देखा था चंपा तले बरगद की नीली छाया में मेरे इस गाँव के अथाह रूप को। देखा था एक दिन बेहुला ने भी नदी में बहती हुई अपनी डोंगी से – जब कृष्ण पक्ष के द्वादशी का चाँद भी डूब चुका था उसी नदी में – लहलहाते सुनहले धान के खेतों के पार झूमते पीपल और बरगद के असंख्य पेड़ों को, हाय, और सुना था शामा-चकेवा के कारुणिक गीतों को – एक दिन गाँव की अमराई से गुजरते हुए जब वह नाची थी इन्द्र की सभा में खिन्न खंजन की भाँति - तब रोये थे इसी गाँव के घाट और पुटुस लिपट कर उसके पांव में घुँघरू की भाँति।

चाहे जहाँ जाओ

तुम जहाँ चाहे जाओ – रहूँगा मैं तो इसी गाँव में, देखूँगा सुबह की ठंडी हवा से झरते पत्तों को, शाम की ठंड से बर्फ़ होते मैना के सांवले डैनों को, और उसके चमकते पीले पंजों पर थिरकते उसे , घास पर, अंधकार में – एक बार – दो बार – कि, हठात – पुकार लेगी जंगल की पलाश उसे अपने अंक में, देखूँगा उन उदास हाथों को, उन उदास चूड़ियों को, रोती हुई खड़ी है जो उस तालाब के किनारे; ले जाएगी इस बादामी हंस को किसी परीलोक में, उड़ाती हुई अपने मुलायम शरीर से लिहाफ़ की गंध, शायद यहीं किसी कमलदल पर पैदा हुई, चुपके से धो कर अपने पाँवों को – चली जाती है जो निरुद्देश्य – किसी घने कुहासे की ओट में, मालूम है ढूँढ ही लूँगा मैं उसे फिर किसी दिन, रहती तो होगी इसी गाँव में।

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