रोशनी के रास्ते पर : अनीता वर्मा

Roshni Ke Raste Par : Anita Verma


हृदय

इसकी भाषा सपनों की है चला जाता है दूर दूसरे हृदयों की खोज में अदृश्य खिड़कियाँ खोलता हुआ दुख की छाया में बैठकर सुस्ताता हवा में पिरोता रोशनी के फूल अभी यह मेरे भीतर था ब्रह्मांड से एकाकार बजता हुआ टिक-टिक टक-टक मेरा समय अब यह टेबल पर रखा है मुझसे बाहर और अलग कुछ अनजान हाथों में दिल के माहिर रफ़ूगरों के बीच जीवन की आभा दमकती है इसके रक्तहीन मुख पर इस तरह वह जीता है मेरे बग़ैर खुली हवा में साँस लेता हुआ देखता हुआ रंग स्पर्श और चेहरे किसी टेबल पर रखा है मेरा अकेलापन मैं एक कोने में वह एक दूसरे कोने में बेसुध होते हुए भी मैं इंतज़ार करती हूँ उसके लौटने का अँधेरे में टटोलती हूँ अपना आसपास वह भेजता है अपनी धड़कन दूर कहीं ब्रह्मांड से ।

अपने घर

बहुमंज़िला इमारत में बत्तीस घर बत्तीस बैठकें उतनी ही रसोइयाँ एक जैसी क़ालीनें सोफ़े टी.वी. और फ़्रिज लहराते हुए पर्दों के साथ-साथ दो-चार तस्वीरें बालकनी में थोड़ी-सी हरियाली पाँच-सात फूल शीशे की अलमारी में सजे हुए गिलास और प्लेटें थोड़ी किताबें जिन्हें कोई पढ़ता नहीं कुछ अख़बार रद्दी बनते हुए इन सबके बीच बैठा हुआ एक जीवन शाम को सबसे पहले दिखने वाला तारा किसी चतुर बच्चे की तरह यहाँ अपने पाँव नहीं फैलाता भोर के तारे की मंद मुस्कान नहीं पहुँचती रसोईघर में वह घास यहाँ नहीं है जिसकी ओस में नंगे पाँव चलकर बढ़ाई जा सके आँखों की रोशनी हवा-पानी-धूप से सुरक्षित है यह जगह रोके रहती है ऋतुओं के प्रभाव को श्रीमान अ श्रीमान ब और श्रीमान स क्या आपका वैसा ही मेलजोल है जैसा ज्यामिति के तीन कोणों का होता है या फिर अ, ब, स को उठाकर क, ख, ग पर रख दिया जाए तो वे समान सिद्ध हो जाएँगे गणित की कक्षा की तरह वे सब एक जैसा मुस्कुराते हैं कहते हैं कुछ संकोच से क्या मैं छोड़ दूँ आपको घर उस बहुमंज़िला इमारत में जहाँ बत्तीस फ़्लैटों की उदासी है किसी पुनर्जीवन की प्रतीक्षा में?

बूढ़ानाथ की औरतें

जिस रास्ते से मैं कॉलेज जाती थी वहाँ पर खड़ी दिखती थीं वे जहाँ बूढ़ानाथ का मंदिर था गंगा जहाँ से बस थोड़ी दूर पर बहती थी चमकीले लिबास सस्ते पाउडर -पुते चेहरे उलझे चिकने केश और काजल की मोटी रेखा दूर से ही दिख जाती थीं वे कठपुतलियों जैसी खपरैल की छतों पर सूखते दिखते थे कुछ कपड़े नल के पास क़तार में रखे डिब्बे और पानी भरने के बरतन आसपास घूमते कुछ पेशेवर से लोग लड़कों का एक आवारा झुंड मचा रहा होता शोर रास्ते पर खड़े रहने की नौकरी और पीछे एक पूरी गृहस्थी जो अभी बच्चियाँ ही थीं और बड़ी हो रही थीं वे अक्सर आँखें झुका लेतीं या देखने लगतीं दूसरी ओर एक दिन जब मुझे उस रास्ते से जाने के लिए मना किया गया तभी मैं जान पायी कि वे कौन थीं मैं उनके घरों में जाकर देखना चाहती थी शायद वहाँ उनकी मुस्कान की काली दीवारें होंगी बिस्तर पर फैली बेबसी और आईने से भाप उठती होगी उखड़ी ईंटों वाला कोई आँगन होगा शायद पशुओं के खुरों से खुदी कोई ज़मीन होगी कभी-कभी वे मंदिर के आसपास भी दिखती थीं यह पता करना कठिन था कि वे उनकी बेरोज़गारी के दिन थे या मनौती मानने के दिन बूढ़ानाथ ही था उनका सब कुछ उस शहर में और यह ख़याल तो बहुत बाद में आया कि जिस देह की रक्षा धर्मों का उपदेश रही है और जो इसके पार का माध्यम है उसका यह कैसा उपयोग कि मुझे याद आये कबीर 'माटी खाये जनावरा महा महोत्सव होय' मैं अब उस सड़क से नहीं गुजरती इसी बीच कई चमकीली सड़कें बन गयीं शहर में जो शानदार मकानों में जाती हैं या वहाँ से आती हैं उन सड़कों पर दिखती हैं जो औरतें बताती हैं ख़ुशी से अपने मूल्य और हँसती-खिलखिलाती हैं बाज़ारों और पर्दों पर वे कठपुतलियों जैसी नहीं दिखतीं आँखें नहीं झुकातीं और उनमें बूढ़ानाथ की औरतों को खोजना संभव नहीं है।

सभागार में

धुले-पूँछे सजीले कपड़े पहने सब बैठे हैं सभागार में कुर्सियाँ कम ही ख़ाली हैं यहाँ किसी का जीवन है जो फ़िलहाल पकड़ में नहीं आता दूर से चमकता है एक बूँद की तरह कुछ लोग बीच से ही उठकर चले आए हैं कहना कठिन है कि वे यहाँ किसी चीज़ से छूटने आए हैं या किसी चीज़ को पाने यह एक फ़ुटपाथ की तरह है जहाँ कोई छत नहीं या जहाँ बेघरों की नींद है शायद बचपन की कोई हवा बैठी है ख़ाली कुर्सियों पर किसी निर्जन कोने में छिपकर सुन रहा है अकेलापन यातना के खुरदरे फ़र्श पर आराम कर रहे हैं पैर धुँधली कुछ शक्लें बेतरतीब यहाँ-वहाँ उड़ती हैं क्या यह विचार व्यक्त करने और सोचने की जगह है या मुक्ति की कोई जगह कोई आईना है हमारे पास जिसमें समय का सही चेहरा दिखाई दे वहाँ हत्यारे फूलों के मुखौटे लगाते हैं और आत्मा का सिक्का ख़ूब चलता है धर्म के बाज़ार में कोई अपने बारे में सीख नहीं पाता कुछ किसी विज्ञान या तकनीक की तरह ख़ुद से मुकरते हुए समर्थन और निंदा से भरे हुए अतीत की राख की तरह बिखरते हुए एक पालतू आदमी में लगातार बदलते हुए अंततः सबको उठकर बाहर जाना होता है इस सभागार से

भय

भय एक आकार है चाँदनी रात में एक सूना पेड़ जो एक तंबू की तरह तना हुआ है स्त्रियों के ऊपर बचपन से गृहस्थी तक उनका भय बड़ा होता रहता है। उनके साथ-साथ शरीर और आत्मा को बचाने की कला वे शुरू से सीखती आई हैं भीड़ में कुहनियों को अपनी ढाल बनाए दफ़्तरों में सख़्त चेहरे लिए वे अपने भय की रखवाली करती हैं उनके प्रेम में भी भर दिया गया है भय और तुम जहाँ उन्हें निर्भय देखते हो जहाँ वे बेखटके चली आती हैं झुंड की झुंड वहाँ भी उन्होंने भय के ही बनाए हैं हथियार उनकी सज्जा भी एक भय है जो कपड़ों की तह में अँधेरे की तरह बैठा है खुले केशों की तरह रेशे-रेशे दिखता है हँसी को भी अपना भय छिपाने की जगह बना लेती हैं स्त्रियाँ जहाँ वे इस दुनिया से इनकार करती हैं उनका रोना कभी किसी ने देखा-सुना नहीं उनके नाख़ून ख़ूबसूरती से तराश दिए गए हैं जिन पर मीठी पॉलिश चढ़ी है कँटीली आँखों में उपेक्षा जैसा कुछ है जिसे घायल करने के क़सीदे में बदल दिया गया है जब वे अपना सब कुछ दे डालती हैं और कोई उम्मीद नहीं रखतीं तब भी उन्हें अपने भ्रम का पता नहीं होता वे विरोध नहीं करतीं चुनौती नहीं देतीं उन्हें याद है सिर के टुकड़ों में बिखरने की पुरानी चेतावनी वे शायद अपने आपसे पूछती हैं क्यों उनकी आत्मा कभी साँस नहीं लेती चिड़ियों की तरह पंख नहीं फैलाती उनके समुद्र में क्यों सिर्फ़ नमक है चाँदनी रात उनके लिए भी सुंदर हो सकती थी लेकिन उसमें अक्सर एक काला पेड़ उगा रहता है और एक क्रूर हँसी उन्हें दूर तक गूँजती सुनाई देती है

स्त्री का चेहरा

इस चेहरे पर जीवन भर की कमाई दिखती है पहले दुख की एक परत फिर एक परत प्रसन्नता की सहनशीलता की एक और परत एक परत सुंदरता कितनी किताबें यहाँ इकट्ठा हैं दुनिया को बेहतर बनाने का इरादा और ख़ुशी को बचा लेने की ज़िद एक हँसी है जो पछतावे जैसी है और मायूसी उम्मीद की तरह एक सरलता है जो सिर्फ़ झुकना जानती है एक घृणा जो कभी प्रेम का विरोध नहीं करती आईने की तरह है स्त्री का चेहरा जिसमें पुरुष अपना चेहरा देखता है बाल सँवारता है मुँह बिचकाता है अपने ताक़तवर होने की शर्म छिपाता है इस चेहरे पर जड़ें उगी हुई हैं पत्तियाँ और लतरें फैली हुई हैं दो-चार फूल हैं अचानक आई हुई ख़ुशी के यहाँ कभी-कभी सूरज जैसी एक लपट दिखती है और फिर एक बड़ी-सी ख़ाली जगह

अस्पताल डायरी

शीशे के बाहर शीशे के बाहर बैठा है एक कबूतर और उसका बच्चा यह अस्पताल बीमारों को जीवन देता है कबूतर को भी देता है जगह मृत्यु चली गई मृत्यु चली गई पुरानी चप्पलें पहनकर मैं एक बार फिर लौट आई अपने आप से कोई समझौता करने दूर सड़क पर दूर सड़क पर गाड़ियों की रोशनी वहाँ गति है जीवन है यहाँ दर्द की आँखें उन्हें देखती हुईं वह मुझे उठाती है वह मुझे उठाती है ज़मीन पर गिरे हुए एक फूल की तरह हमारे बीच दर्द की आवाज़ है। मिज़ोरम की वह नर्स मिज़ोरम की वह नर्स नीलांचली मेरी हर बात दोहराती है मैं कहती हूँ- बत्ती बन्द कर दीजिए वह कहती है- बत्ती बन्द कर दीजिए और बुझा देती है बत्ती मैं कहती हूँ- दूसरे बिस्तर की मरीज़ को लगती है ठण्ड ए० सी० बन्द कर दीजिए और वह बन्द कर देती है ए० सी० मैं कहती हूँ- मुझे दर्द है वह कहती है- दर्द है और ला देती है दवा बारिश भीतर उतरती रही बारिश भीतर उतरती रही ज्यों ही उसे सुना वह गुम हो गई। रात की तरह मृत्यु रात की तरह मृत्यु की परछाईं नहीं होती वह सिर्फ़ हमें आग़ोश में ले लेती है हम छटपटाते हैं सिर धुनते हुए वापस लौटने को तत्पर सुरंग के दूसरे छोर पर दिखता है एक हल्का प्रकाश कुछ प्रिय चेहरे गड्ड-मड्ड हमें वहीं जाना होता है बार बार उन चेहरों का हिस्सा बनने। वह रात भर रोता रहा वह रात भर रोता रहा लौट आए उसकी प्रिया लौट आए फिर एक बार। मैं हर समय उसे याद करती हूँ मैं हर समय उसे याद करती हूँ जो इस नए संसार में बेहद शामिल है जो कभी मुड़कर नहीं आएगा मेरी तरफ़ मैं अपने ही विरुद्ध मैं अपने ही विरुद्ध खड़ी थी अपने विश्वासों के साथ उनसे बचने को आतुर।

उदासी

तेरी उदासी तपते हुए दिनों का सामना करती है ढलती हुई शाम के सूरज तक पहुँच जाती है चन्द्रमा उसका पुराना घर है बिना किसी पहचान के वह घूमती है यहाँ-वहाँ फूलों, तितलियों और तालाबों के काँपते हुए पानी में वह सरसराती हुई दिखती है खुशी से उसका मेल दो रंगों के सुन्दर मिलन की तरह है पहले से ज़्यादा एक नया चमकता रंग उभरता है आत्मा पर और फिर कुछ न सोचना न प्रेम के बारे में न खोई हुई चीज़ों के बारे में यह सब जीवन का एक नया स्वाद है मेरी स्मृति पर लगातार परतें चढ़ाती मेरी शांत उदासी ।

देखते हुए

देखना, सोचना, समझना यही मैंने सीखा है यही मेरे मनुष्य होने की विशेषता है पर कई बार देखते हुए सोचना कठिन होता है और सोचते हुए समझना भी उतना ही कठिन सोचती हूँ एक फूल को कैसे समझा जाए क्या यह सम्भव है फूल में बदले बिना कैसे महसूस किया जाए उसकी पंखुरियों का झरना एक-एक कर मैं अगर झरी हुई पत्तियों वाला एक पेड़ हो पाती तो समझ पाती उसका लुटा हुआ वैभव देखती ख़ुद उसकी वीरानी को देखने, सोचने, समझने में लौटना फिर उनसे दूर जाने की तरह है मैं बाहर हो जाती हूँ फूल से और पेड़ से सोचती हूँ उसके रंग उनकी क़िस्मों के बारे में बसंत के बारे में जब पंखुरियाँ फिर फूल तक लौट आएंगी कोमल हो जाएगा पेड़ अपने हरे पत्तों में फिर मैं जागूंगी अपनी निश्छलता में और प्रेम करूंगी उतना जितना वह है मेरे भीतर ।

ठोस सूरज

बर्फ़ की बेआवाज़ चादर फ़ैली हुई है जीवन से मृत्यु तक पृथ्वी ख़ामोश है और धीरे-धीरे घूमती है इच्छाओं की तरह तारे चमकते हैं धीमे-धीमे उन्हें कोई जल्दी नहीं है एक ठोस सूरज मेरे भीतर जमी हुई शक्ल में है मैं सोचती हूँ और नहीं सोचती ख़याल सिर्फ़ मकड़जाल हैं मस्तिष्क में चुपचाप अपने तार फैलाते हुए दिन भर के कामों में उलझी हुई मैं पाँव सिकोड़ती हूँ उनके भीतर सो जाने के लिए

गिरना

रहस्यों को समझने से ज़्यादा ज़रूरी है चीज़ों के होने को समझना मज़बूती से खड़े हैं पहाड़ समुद्र में आता है ज्वार पृथ्वी घूमती है लट्टू की तरह मनुष्य गिरता जाता है गर्त्त में इनके कुछ कारण और जवाब हैं हमारे पास हमें रहना और होना होता है इनके बीच पृथ्वी की घूमती चक्की में कोई रुकावट नहीं है समुद्र उछाल ही लेता है अपना पानी पहाड़ गंजे होने के बावजूद खड़े हैं अपने आदिम पत्थरों के साथ लेकिन मनुष्य वह लेटा है पेट के बल पैसे बटोरता हुआ भागता खोया हुआ बाज़ारों में एक साथ खुश और डरा हुआ जैसे कोई बीमार अपनी ही तीमारदारी करता हुआ वह पहचानता है दुश्मन को उसके हज़ार हाथों के साथ अपने घरों में बैठ उससे दोस्ती करता है मिलाता है हाथ आओ रहो हमारे घर अभी हम और गिरने को तैयार हैं ।

झारखंड

हमने अल्बर्ट एक्का को चौराहे का पहरेदार बना दिया है वह देखता रहता है दिन-रात भीड़, जुलूस, धरने और प्रदर्शन उसकी आत्मा वहीं ज़मीन पर बैठी सुनती रहती है नेताओं के झूठे बोल और आश्वासन धूल, गर्द, गर्मी और पसीने के बीच वह देखता है हमारी धरती का गौरव बड़े-बड़े होर्डिंग्स और पोस्टर लालची और बेईमान चेहरे गाँवों-जंगलों से हाँककर लाए गए आदिवासियों की भोली निष्पाप सूरतें वे कुछ नहीं समझते उनके हक़ में क्या है न्याय क्या है लड़ाई क्या है वे तो बस हथियार और जयजयकार हैं शाम होते लौट जाते हैं अपने गाँव दिन-भर गुड़, चना, सत्तू, दाल-भात खाकर फिर सोचते भी नहीं कोई करेगा उनका भला रोज़ रात वे सब मिलते हैं एक जगह बैठते हैं सब बिरसा मुंडा, अल्बर्ट एक्का, जतरा, बुधू भगत, सिद्धू कान्हू, तिलकामाँझी, नीलांबर पीतांबर मशालों के बीचों-बीच बैठे करते हैं गुफ़्तगू फिर धीरे-धीरे इकट्ठे होते हैं ढेरों जा चुके लोग अपने-अपने ताबूतों को उठाए तीर-धनुष हथियारों से लैस गाते हैं कई पुराने गीत, जिनमें आज की कोई ख़ुदग़र्ज़ आवाज़ नहीं वे सब अब लौटकर नहीं आएँगे और हममें ऐसा कुछ नहीं रह गया कि हम उनके गीतों के पीछे-पीछे जा सकें कुछ दूर तक

दर्द

मैं उसे दफ़न करती हूँ समुद्र की गहराइयों में मूँगे की चट्टानों और मछलियों के बीच सूरज की गहन भट्ठी में फेंक देती हूँ जल कर ख़ाक हो जाने के लिए लेकिन पता नहीं किन गहराइयों और आसमानों से निकलकर वह हमेशा सिरहाने आ बैठता है पहले प्यार की तरह मेरी देह सहलाता हुआ करवटों में छिपता और प्रकट होता है मुझसे खेलता कोई लुकाछिपी का खेल समय की हथकड़ियाँ उसे बाँध नहीं पातीं वह आ बैठता है नाश्ते की मेज़ पर माँगता हुआ अपना हक़ हमेशा याद दिलाता है दुनिया में सबसे बड़ा है उसका वजूद उसकी गोद से निकलकर हँसते हैं बच्चे स्त्रियाँ अपने घर सँभालती हैं पकी हुई फ़सल और अनाथ बच्चों पर वह साए की तरह डोलता है अस्पतालों में बिछी है उसकी बिसात वह ग़रीब की फटी आस्तीन में सिर छिपाता है पूरी दुनिया उसके भीतर है और वह मेरे भीतर

शान्त रात

मैं पहाड़ी हवा थी बादलों के नीचे पत्तों की गोद में बहती हुई नीली रोशनी पर सवार पानी में अपने पैर टिकाए रहती थी | गाती थी मूँगे और पंखों के गीत सफ़ेद घोड़ों के अयाल सहलाती किसी पुरानी गुफ़ा की आँच में डूबी हाथ की अँगूठी चुम्बनों की बनी हुई | अब जबकि कोई नहीं है मेरे साथ बँटी हुई है वह हवा दो खण्डों में पूर्वी और पश्चिमी मधुमक्खियों ने बिखेर दिया है सारा शहद समुद्र से उड़ती रहती है भाप और बादल नहीं बनता समय के पैरों में चकाचौंध की बेड़ियाँ हैं मैं देखती हूँ अपने उत्सव की नदी को बहते हुए इस शान्त रात में

खोज

जितना जिया जाता है जीवन उतने ख़तरों को पीछे छोड़ चुका होता है उसके हाथ समय के भीतर प्रकट होते हैं किसी झाड़ियों वाली पगडण्डी पर काँटों से बनी हुई है यह देह जिसकी ताक़त का अन्दाज़ा लगाना अब भी कठिन है वह छीन लेती है ख़ुशी का कोई पल जैसे यही हो सृष्टि की पहली खोज सभी अकेले हैं एक गोल घेरे में करते हुए क़वायद जहाँ वे अपनी ढालें खोजते हैं वे छिपते हैं शान्ति या संघर्ष के पीछे एक पहाड़ पूछता है दूसरे पहाड़ का दुःख एक विचार अपने ही बोझ से दबा हुआ रहता है यहां कोई खिड़की नहीं है फिर भी खुला रह जाता है कोई न कोई दरवाज़ा

कहीं और

मनुष्य की पूरी कथा जीवन से छल की कथा है बहुत दूर प्रकट होते हैं इसके सरोवर उनमें खिले दुर्लभ कमल बहुत दूर रहते हैं इसके अदृश्य पहाड़ हरियाली और ढलानें कहीं और बसता है सुबह का आलोक बीरबहूटियों की लाल रेशमी कतार कोई तारा पहुँच के ऊपर शान्त चमकता है ठण्डी रेत पर प्यार और धूप के बिना ज़हर के पौधे पनपते हैं बन्दूकों के घोड़े बजते हैं कानों में सूरज हलकान पक्षी की तरह गिरता है नदी की गोद में सो गई हैं समुद्र की मीठी मछलियाँ पृथ्वी जैसे काले जादू बाज़ार की पिटारी

तभी

जब पहाड़ और झीलें तरंगित होने लगें समुद्रों में पेड़ चिड़ियों के मित्र बन जाएँ और उन्हें काटने की कुल्हाड़ियाँ बननी बंद हो जाएँ दुनिया भर की बन्दूकें किसी अतल में दफ़ना दी गई हों फौजी बूटों के मिट जाएँ कारख़ाने बच्चों की हँसी से दमक उठें युवाओं के चेहरे पृथ्वी बीजों का उत्साह गाने लगे थकान और पसीने से भरी हो मिट्टी कलुष और ईर्ष्या मरें अपने ही विष से तभी मैं जागूँगी धूप रोशनी और प्रेम के बीच आऊँगी इस दुनिया में

मंच पर

मैं खड़ी हूँ वहाँ अपनी पूरी तैयारी के साथ मुझे जो बोलना है करना है वह सब कुछ पहले से तय है मैं सीख चुकी हूँ मौन और कथन के प्रभाव सभी उतार-चढ़ाव और भंगिमाएँ माथे पर पड़े बल और चेहरे की शिकनें सब दुरुस्त हैं सिर्फ़ वह सब करना है मुझे बेहतर तरीक़े से ताकि मैं वह दिखा सकूँ जो उन्हें देखना है शब्दों में हो सकता है थोड़ा-बहुत उलटफेर लेकिन उन्हें भी कई बार दोहराकर ठीक-ठीक याद किया जा सकता है कोई भी दृश्य दोबारा नहीं लौटता जैसे पहला प्रेम जो अनचाहे जीवन में प्रवेश कर जाता है और सिवाय उत्सुकता और नएपन के उसमें कुछ भी नहीं होता प्रेम जैसा या वियोग का वह समय जो हर पल मिलन में बदल जाता है दोस्ती जो अक्सर बग़ल में बैठी होती है ख़ुशी, दर्द, छटपटाहट, दोषमुक्ति या व्यर्थ की उठापटक हर बार बदले हुए रूप में आते हैं दूसरा आँसू भी पहले आँसू की तरह नहीं बहता आकाश दोबारा नीले की जगह हो सकता है भूरा या लाल हो सकता है अगली बार मैं काली पोशाक में दिखूँ अवसाद से भरा हो मेरा चेहरा लकीरें नहीं दिखें जिन्हें मैंने यत्न से साधा था जितना ज़्यादा मैं समाती जाऊँगी अपने भीतर उतना ही बढ़ता जाएगा मंच पर प्रकाश वहाँ दर्शकों के बीच मैं बैठी हुई हूँ इस जीवंत अभिनय का प्रमाण बनकर वे सब देखते हैं मेरी ओर जैसे वे सब मंच पर दिख रहे हैं मेरे साथ हम लगातार त्रासदी और प्रहसन के बीच कोई जगह ढूँढ़ते हैं और दर्शक दीर्घा से अपने को देखते हैं मंच पर प्रस्तुत होते हुए हमारी आँखों में एक समझदारी है एक दूसरे को सराहने का भाव एक ईमानदार कोशिश जो हमने की हम नहीं पूछते एक दूसरे से इसमें कौन कितना रहा सफल

दोष

जब मैं पैदा हुई तो मुझमें दोष था क्योंकि मैं लड़की थी जब थोड़ी बड़ी हुई तब भी दोषी रही क्योंकि मेरी बुद्धि लड़कों से ज़्यादा थी थोड़ी और बड़ी हुई तो दोष भी बड़ा हुआ क्योंकि मैं सुंदर थी और लोग मुझे सराहते थे और बड़ी होने पर मेरे दोष अलग थे क्योंकि मैंने ग़लत का विरोध किया बूढ़ी होने पर भी मैं दोषी रही क्योंकि मेरी इच्छाएँ ख़त्म नहीं हुई थीं मरने पर भी मैं दोषी रही क्योंकि इन सबके कारण असंभव थी मेरी मुक्ति।

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