रजनी दिन नित्य चला ही किया : हजारीप्रसाद द्विवेदी

Rajani Din Nitya Chala Hi Kiya : Hazari Prasad Dwivedi


खड़ीबोली की कविताएँ

एक. काली घटा बढ़ती चली आती है

काली घटा बढ़ती चली आती है गगन पर, झुक झूम-झूम पेड़ हैं अलमस्त मगन, पर- साहित्य का सेवक किसी मसले में है उलझा, सुलझाना चाहता है पै पाता नहीं सुलझा। ऐसे ही समय आके कोई डाकिया हरिहर, ‘पंडित जी’ कह पुकार उठा रूम के बाहर। बुकपोस्ट के बंडल हैं कई, पाँच-सात-दस। इन पोथों में शायद ही हो रस का दरस-परस। फिर एक-एक को समालोचक है खोलता, कुंचन ललाट पर है और होंठ डोलता। उँह, मारिए गोली, वही अनुरोध लेख का, कुछ देख-रेख का तथा कुछ मीन-मेष का।’ फिर खोलता है एक सुविख्यात सा परचा, सर्वत्र धूम जिसकी है सर्वत्र ही चरचा। पहला ही पृष्ठ देख के कुछ उन्मना हुआ, दो-चार और देख के दिल चुनमुना हुआ। फिर एक पृष्ठ और, हाथ माथे पै गया, आँखें गईं पथरा जो पृष्ठ खोले है नया। पढ़-पढ़ के ले रहा है उसाँसें हजारहा, आकाश मगर शान से बरसे ही जा रहा। पारे का सा दरियाव चहुँ ओर उछलता, बच्चों का दल उसे है लूटने को मचलता। टूप-टाप टूप-टाप टूप-टाप टूप-टाप, बच्चे क्या, मचल जाएँ जो बच्चों के बड़े बाप। सारी उमर लेखक ने की ज्योतिष की पढ़ाई, पर बम्बईवाले ने फतह कर ली लड़ाई। शुभलाभ, मेष-वृष-मिथुन-फल सबका हाँकता, साहित्य का सेवक मगर है धूल फाँकता। बंगाल के इस बोलपुर में कटी उमर, खजाना मगर तिलिस्म का पहुँचा है अमृतसर। वह छप गई किताब बिक गई भी बीस हाँ, पै टापते ही रह गए लिक्खाड़जी हहा। मैस्मर से लेके फ्रायड और युंग की पोथी, चाटी है मगर सब हुई बेकार और थोथी। वह मेस्मरिज्म का जो करामाती है दर्पन, अल्लीगढ़ी जादूगरी का हो गया भूषन। दिन तीन ही में काले हो जाएँ सफेद केश, ऐसा गया का एक करामाती है दरवेश। वह भी न मिला हाथ अभागे लिक्खाड़ को, वह झोंकता ही रह गया किस्मत के भाड़ को। मस्तानी दवा जो है इटावे से चल पड़ी, क्या वह भी न मिल सकती है लेखक को इस घड़ी। चटकीले बहुत से पड़े विज्ञापनों के ठाट, मैनेजरों ने हैं दिए पन्ने सभी ही पाट। देख इश्तिहार चूर्ण का मोदक वरास्त्र का, दिलखुश का, सेंट-सोंप का और कोकशास्त्र का। यह झीनसीन गेंद का आश्चर्य मलहम का, सब चूर-चूर हो गया अभिमान कलम का। चूरन कहीं है और मोदक बहारदार, गुटिका वही वटिका वही देश, इश्तिहार षष्ठ-सप्त मदनास्त्र का।

दो. यदि मैं होता रसिक बिहारी कवि के युग में

[1] यदि मैं होता रसिक बिहारी कवि के युग में ललित कलित अलि पुंज रहे जब, मिलित मालती कुंज रहे जब, यमुना पुलिन सुवासित होता था बसंत के संग में ! षोडषियाँ शोभा से मंथर, जगमग करतीं गृह-वन-प्रांतर, जहाँ-तहाँ मिल जातीं सत्वर, चपल अपांगों से कहीं देतीं तनिक निहार, काननचारी नयनमृग नागर नयन शिकार, किया करते जब उनके लक्ष्य मैं बनता ठन के । [2] पाख उजेला होता या कि अँधेरा काला निसदिन पूनो ही रहती तब आनन ओप उजास मनोभव- भाव जगाया करती ही नित यौवनज्वाला ज्योत्स्ना में गोरी छिप जाती छाया में साँवलिया साथी, गलबहियाँ डाले इतराती जाती जोड़ी झमकती सबकी आँख बचाय दुहूँ, दुहूँ के हृदय में चुभते नैन नचाय आँख बरसाती मदिरा, झनकती शिरा उपशिरा । [3] बतरस रसिक लता गृह वन में तरुण किशोर-किशोरी हँस-हँसकर बतियाँ बहरातीं प्रेम पवन में नित लहरातीं नित जब ऊधम करती रहतीं नवल प्रेम रस बोरी अलसौंहे सोहैं मद निर्भर किए हँसी हैं नैन मनोहर कहीं पा लिया जो नित अवसर बतरस लालच लाल के मुरली धरी लुकाय सौंह करै भौंहनि हँसै दैन कहै नट जाय, प्रेम पीयूष नयन में, गुदगुदी प्रियतम मन में ! [4] काहू पुन्यन जो मिलती वयसंधि नवेली छुटी न सिसुता झलक रसीली झलक्यो जोबन झलक नसीली दीप्ति उभय की मिलित ताफता-सी अलबेली लाती प्यारी पान सजाकर रखती प्रिय के हाथ लजाकर साँवलिया उठ जाते अड़कर हँसि ओठन बिच करै उँचै किए निचोहैं नैन खड़े अरे पिय की प्रिया लगती बीटी दैन हारती लाज प्रीति से, प्रबल अनुराग रीति से । [5] हाय, हुआ मैं नहीं बिहारी कवि के युग में जब रस रसिक तमाल शाल थे सोनजुही मालति प्रियाल वे अलिमन आस बँधाते अपनेहूँ गुलाब के जग में ! अमल लहलही बेलि नवेली सुरभित करती विपिन अकेली, रसिक पवन करता रँगरेली सघन कुंज छाया सुखद शीतल मलय समीर मन है जात अजौ वहै वा जमुना के तीर सुशीतल बीच कुंज में, अलि मलिन नलिन पुंज में !

तीन. सफलता के प्रति

ये प्रेम पियाला छाकी अँखिया मेरी मतवाली, तुझको है खोज रही जीवन की जीवनवाली । स्मित सरस अधर मृदुलालीवाली मोहन गतिशाली, मेरी दुनिया की देवी मेरे सनेह की प्याली । सुंदरि ! तेरे दर्शन से हम धन्य भाग होएँगे, कृतकृत्य- सुहागिनि ! होकर तेरा सुहाग ढोएँगे । प्रेयसी, हमारी आशा तेरे तक जड़ी हुई है, कोमल पदतल पाने को आतुर हो पड़ी हुई है । वह कौन भला हतभागा होगा जो पा पद तेरा, देगा न दुलार लुटा ऐ मेरे दुलार की घेरा । ये लता गुल्म नव पादप पाने को कोमल पद को, कुछ बने साध्य है प्यारी ! छोड़े स्वाभाविक मद को । अब तो बसंत आता है सब कलियाँ किलक उठेंगी, अयि तन्वि ! तुम्हें लख करके वीरानी बिलख उठेगी । मृदु पथ पर बिछा हुआ है यह पलक पाँवड़ा मेरा, सुस्मित मुखकंजे ! कर दो कि धन्य यह डेरा ।

चार. इधर झरता है मधुर प्रपात

इधर झरता है मधुर प्रपात, सखि, वे तेरे किसलय- कोमल लाल-लाल-से हाथ आह, तरसती हैं ये आँखें झरती है बरसात और शुभ शेफालिका सुमन नाल पिंगलित गात इंगुर गौर, गोल, लोलुप लालसा लसित भुज देश ! कलित कलाई की स्मृति से है जाग रहा रस शेष । हृदयेश्वरि, हियहीन तुम्हारा वह निष्ठुर व्यवहार, हा ! प्रेयसि पहनाया ही था क्यों अपना हिय हार ! अरे दुनिया ही है जंजाल जिसको समझा था कि हृदय पा होएगा सुविशाल ! मिला, किंतु मलयागिरि में कितना जहरीला काल ! पूछ रही हो हृदयेश्वरी ! क्या हुआ तुम्हारा हाल । कोमल कमल मसलने में भी होता है क्या स्वाद ? कौन बताएगा कि जगत् में किसकी क्या बुनियाद ? ऐ उत्फुल्ल मालिका, हँसना ही न सदा अनुकूल, देख, खिले हैं इस उपवन में और अनेकों फूल ! बिलखना ही जीवन का सार, हृदय समर्थ मंजुल वातायन से बहती न बयार ।

पाँच. कहाँ मलय नव गंधवाहि सुख

कहाँ मलय नव गंधवाहि सुख, कहाँ वियोग किवाड़ ? बहुत हो चुका ऐ मतवाले ! अब मत कर खिलवाड़ ! हा, इस मंदिर में सुधबुध खो खेल रहा यह कौन बोल-बोल, ऐ मुग्ध खिलाड़ी, अनुचित है यह मौन । अरे बुलाके कोई कह दे कि ऐ खिलाड़ी वीर ! हृदय है न यह पत्थर का यों, दौड़ न ऐ बेपीर ! दूसरा सुनने वाला कौन, चुप ऐ रसने, सुन लेंगे वे, भला यही है मौन ! नीचे जलती हो यह भट्ठी ऊपर मधुर प्रपात अच्छा है, लपटें न उठेंगी और जलेगा गात ! देख सजनि, यह तेरी ही स्मृति मुझे चबाए जाती है, अयि मयंकमुखि ! तुझे याद कर छाती जलती जाती है, हा, वह दिन था कि लिया था कोमल किसलय-कर हाथों में ! और था अधर अधरों पर दूसरे दिवस मृदु बातों में ! किंतु तीसरा दिन जब आया कितना घोर अँधेरा था चिंता शोक क्लेश-सबका ही सुंदरि ! कुत्सित घेरा था । [ चै० शु० 11, सं० 1987]

छह. और कहाँ तक ऐ जीवनधन !

और कहाँ तक ऐ जीवनधन ! जीना ही यदि जीवन है तो जीवन भी है बंधन ! रोते ही बीती है अब तक आयु, हाय, यह मेरी ! और 'तनिक ठहरो' कह कहकर तुमने कर दी देरी ! प्यारे आओ हाथ पकड़कर अब दो लगा किनारा । क्या तुमको अवहेलापूर्वक हँसना ही है प्यारा ? अरे निठुर ! तेरी निठुराई भी कितनी है प्यारी ! मोहक है कितनी काँटेवाली है गुलाब की क्यारी ! पागल, हँसने का न समय, हँसना मौका पाके, झूम-झूम प्यारे मतवाले पर टुक रूप दिखाके ! अरे यह भला न अत्याचार ! अरे जमाने से हमने है देखा सुख संसार मुकुटों की आभा से अब जगमग उषा बहार ! कभी चरण धोता था वारिधि लेकर कंचन थाल अरे भूप कहलाने वाले, हम भी थे भूपाल ! ठुकराते हो क्यों चरणों से भला न यह व्यवहार प्यादे से फर्जी होने का क्या यह ही उपहार ! देख बुरा दिन कहीं किसी का कोई मत अपमान करे कह सकता है कौन कि उसके गले कहीं न विपत्ति पड़े ।

सात. निठुर यह कैसा चरण-प्रहार !

निठुर यह कैसा चरण-प्रहार ! तुम्हें देखते ही खुलता है मेरा हृदय किवाड़ । फिर भी तुम लापरवाही से फिर-फिर करते वार । मित्र, तुम्हारे पदस्पर्श से मम अनंत उपकार ।। सभी हृदय गर कमल नहीं ऐ मेरे परम पियार । ठुकराओ पर धीरे जिसमें लखे नहीं संसार । है प्रहार उपहार नहीं सर्वत्र न वा पुचकार- क्योंकि दुनिया है माया जाल । हँसना ही क्या सुख और दुख रोना हो बेहाल भूल रहे हो प्यारे हँसना- रोना सब जंजाल । कितने हैं सत्पुरुष कि जो हँसने से हैं खुशहाल ! हँसने पर बिकने वालों की संख्या है दो-चार और रुदन पर मरने वाले मित्र हजार-हजार ।

आठ. तेरी आशा ही के बल पर

तेरी आशा ही के बल पर मैंने डाँड़ सँभाला है । नहीं जानता आगे क्या है— अंधकार कि उजाला है । है मेरी नौका छोटी-सी इस पर तेरी छाया है । भीषण झंझा के आने का भीषण भय भी छाया है । पाल हमारा फटा-चिटा-सा छिद्रपूर्ण जर्जर अतिशय । मानो मेरी शक्ति-सुंदरी का करता है मृदु अभिनय । है पतवार बुद्धि-सा छोटा, मन-सी वेगवती सरिता तू ही आज सँभाल, नहीं तो डूबेगी हे जगत्-पिता । प्यारे, तेरे दर्शन के हित ये आँखें तरस रहीं जाने कब से बूँद-बूँद करके बादल-सी बरस रहीं । कब तक आओगे, कब तक ये आँखें बरसेंगी मोहन ! अभिलाषा बढ़ती जाती है, कहाँ छिपे हो जीवनधन । यह कमनीय कामना मेरी सूनी होती जाती है । फिर भी रुकती नहीं निगोड़ी दूनी होती जाती है । परबस हूँ मैं-किंतु अहो अनुराग हुआ दुर्लभ जन से । हृदय ! सँभलकर आगे बढ़ना केवल मन ही मधुवन से ।

नौ. कुछ दे दो जी कुछ दे दो

इस झोली में कुछ दे दो ! यह भिक्षुक दीन बड़ा है, जो सम्मुख आज खड़ा है, यह एक सवाल छिड़ा है, इस झोली में कुछ दे दो ! कुछ... ममता आगे आती है, 'मत दो' यह कह जाती है, ( किंतु ) वैभव विभु की थाती है, इस झोली में कुछ दे दो । कुछ... यह कब तक राज रहेगा-यह कब तक ताज रहेगा, यह कब तक साज रहेगा ? इस झोली में कुछ दे दो! कुछ... ( मुझे ) दुनिया पागल कहती है- वह उल्टी ही बहती है, बस यही सिद्धि महती है, इस झोली में कुछ दे दो ! कुछ... मत दो निज राज खजाना-उसको क्या 'निज' सा माना ? ऐ भोले ! हो न दीवाना, इस झोली में कुछ दे दो ! कुछ... यह रूप और यह बाना, तुमने क्या अपना जाना ? यह बात न मन में लाना-इस झोली में कुछ दे दो ! कुछ... कुछ नहीं यहाँ अपना है, सब दो दिन का सपना है, (केवल) अपना-अपना जपना है-इस झोली में कुछ दे दो ! कुछ... यह छोटी-सी झोली है, सम्मुख तेरे खोली है, ( यहाँ पर) वह वस्तु मोल जो ली है, इस झोली में कुछ दे दो ! कुछ... अनुराग भीख में देना, वैराग्य सीख में लेना, (फिर) झोली ले फेरी देना-इस झोली में कुछ दे दो ! कुछ...

दस. जीवन-धन, जीवन लो अपना भार

जीवन-धन, जीवन लो अपना भार नहीं सकता हूँ मैं । फटा हुआ हृदयांचल मेरा, स्नेह नहीं रख सकता हूँ मैं । देखो दया और पै करना मैं उसका सत्पात्र नहीं हूँ । कीर्ति बढ़ाए गुरु की जग में मैं ऐसा सत्-छात्र नहीं हूँ । दिया दया दिखलाकर तुमने जो कुछ दुनिया में मुझको है- अरे अनोखे ! धन्यवाद शत बार हृदय निःसृत तुझको है । दिया विशाल हृदय, खाली कर, आँख बड़ी दुनिया छोटी-सी । मान बहुत, सम्मान अल्प, इच्छा विशाल, करणी खोटी-सी ।

ग्यारह. किसे सुनाऊँ निज संदेश !

किसे सुनाऊँ निज संदेश ! सोने वालो सोते रहना भी न बुरा है लेश । धूमकेतु अंबर में उपजा और हुआ निःशेष । डरे जागने वाले, सोतों को क्या अंदेश, आग लगी थी जब पड़ोस में चिंतित वे विशेष । और हमारे सोने वालों को न भीषिका-लेश ! किस प्रकार ऐ मेरे दोस्तो, तुम्हें कहूँ संदेश । सुनने से तो जगना पहले जिसमें अतिशय क्लेश ।

बारह. किंतु प्रियतमे ! कैसे भूलूँ ?

किंतु प्रियतमे ! कैसे भूलूँ ? किसी अगोचर में गोचर को संविलीन कर कैसे तूलूँ ? हा किसलय कोमल कर को मैं स्वयं प्रकाशित कैसे जानूँ ? पद-पल्लव नूपुर- रुन-झुन को नाद अनाहत कैसे मानूँ ? प्यारी, तुम्हीं बताओ मेरी आँखों पर पट्टी कैसी है ? मधुर मूर्ति आँखों देखूं, विश्वास करूँ न दशा ऐसी है ! माया हो, बनी रहो, क्या हानि भला यदि तुम हो माया । अलख अलख ही बने रहे, प्रियतमे ! तुम्हें है मैंने पाया । वे भी कैसे हैं भोले, बिक जाते जो न मुसकुराहट पर ? देते नहीं दुलार लुटा पद शब्दों की धीमी आहट पर ?

तेरह. रही होगी कुछ ऐसी बात ?

रही होगी कुछ ऐसी बात ? जिस पर मेरे हृदयेश्वर ने विरचा यह उत्पात ! क्यों हृदयेश्वर तुमको क्या यह अंधकार न सुहात ? छलिया, फिर क्यों बिना बिताए यों झुलसाते गात ? क्यों न जलाते हो प्रदीप ? वह क्या न तुम्हारे पास ? बनते हो, ऐ बनने वाले, खोते हो विश्वास ! नहीं यह मेरी ही थी भूल, क्या न खिले हैं सुंदर-सुंदर वनस्थली में फूल ? भीतर को पाने जाने में बाहर की यह धूल सूक्ष्म खोजने जाकर पाता बाहर परम स्थूल है अनंत अंतर में तुम हो-है यह कैसी भूल लता पुष्प फल में हो मेरे प्रिय कि रहे तुम झूल । [ रामनवमी, सं० 1988 ]

चौदह. अरे यह कैसा अल्हड़पन !

अरे यह कैसा अल्हड़पन ! मसली जाकर भी अयि सखि, तू लुटा रही तन-धन ! रसिया ये मतलब की यारी वाले हैं अलि गन ! छिन भर बाद करेंगे सजनी और और निज मन ! हितू तुम्हारा सच्चा जग में यह मृदु मलय पवन । बिना बताए तेरे यश को फैलाता वन-वन । मधुमालिके, भ्रमर केवल हैं क्षण भरके परिजन । भोली पर निरपेक्ष कि तेरा प्रणयी मलय पवन । हाँ सखि, हँसी-खुशी दिन चार, कौन सहा करता है निसि दिन यह संसृति का भार । प्यार, प्यार के लिए सजनि करते होंगे दो-चार । शलभ, चकोर, हरिण तिमि प्रणयिनि, हैं न हजार-हजार । दूर किया कर अरी छबीली अलियों का न जुहार । हाय, सत्य क्या है न कि इनमें भी है कुछ-कुछ प्यार । चंपक- नंदिनि, तू तलासती आदर का व्यवहार ? आदरकारक यदि मनुष्य, फिर कौन कि हत्याकार ?

पंद्रह. एक बार फिर से छूने दो

एक बार फिर से छूने दो । ऐ चिर नूतन, परम पुरातन यही विनय होने दो- कि प्यारे, एक बार छूने दो । क्या, कैसे, किस हेतु ?-न पूछो यह पँवार जाने दो मधुर, मधुरता की सौं, मुख में यही विनय आने दो- कि प्यारे, एक बार छूने दो । है गुलाब-सा कोमल छूने ही से मुरझाएगा किंतु मृदुल, मृदुभाव हमारा यहीं कि रह जाएगा ? कि प्यारे, एक बार छूने दो । देखो मेरी व्याकुलता को जरा तरस खा जाओ नहीं करो मत, और न यह ही बार-बार कहवाओ- कि प्यारे, एक बार छूने दो । सचमुच अंगुलियाँ कलुषित हैं, पर वह कलुष कि होगा ? प्रेममार्ग का चिर अनुरोध न है प्रिय चिरतर होगा । कि प्यारे, एक बार छूने दो ! 'रहने दो' यह बहुत पुराना प्रेमिक का अनुनय है- और इसी के चिर विरोध में प्रेमी का परिचय है- कि प्यारे, एक बार छूने दो ! हे अनादि अनुरोध, अनंत निषेध तुम्हारी माया ! प्रथम प्रणय तुमसे उठता है सुखद सुशीतल छाया- कि प्यारे, एक बार छूने दो । अहे खिलाड़ी, बड़ी पुरानी यह है जग की क्रीड़ा नोक-झोंक विव्वोक सभी में है यह शाश्वत क्रीड़ा कि प्यारे, एक बार छूने दो । छूने दो हाँ प्रियतम, मुझको एक बार छूने दो कह दो संभ्रम त्याग नकारो नहीं नाथ सूने को कि प्रियतम, एक बार छूने दो । [ चैत्र शु० 10, सं० 1988 ]

सोलह. भूला रे, सब जग भकुआ भूला रे

भूला रे, सब जग भकुआ भूला रे । मधुर रूप लखकर भी सजनी, अहंकार से फूला रे अंतरतर की व्यर्थ कल्पना के झूले में झूला रे भूला रे, सब जग भकुआ भूला रे । मृदुल मनोहर सुंदर मूरत को न हृदय में लाया रे निराकार अव्यक्त बताकर सारा जग भरमाया रे माया रे-कहाँ किसी ने पाया रे किंकिणि कंकन नूपुर रुनझुन पर सरबस न लुटाया रे नाद अनाहत से आहत हो दुनिया को भटकाया रे काया रे-मिथ्या ज्ञान कमाया रे । श्याम गौर रसलीन नहीं, मुरली सुरलीन न भाया रे त्रिगुणरहित के गुण में फँसकर अनमिल काल गँवाया रे भाया रे-दुनिया में न समाया रे । [ चैत्र शु० 11, सं० 1988 ]

सत्रह. रुकोगे क्या न एक दिन और ?

रुकोगे क्या न एक दिन और ? जलकण से अवरुद्ध झुके, लालसा लसित युग नैन फिरा दियो रात भुजपाशों में शिथिल देह बेचैन उन अधरों से प्राणप्रिया के बिना शब्द के बैन- कि रुकोगे क्या न एक दिन और ? जिसने कभी नहीं समझा था कैसी चीज वियोग शब्दराशि में जिसके कुछ इसका नहीं नियोग कल्याणी ने तुलना कर पीछे से किया प्रयोग कि रुकोगे क्या न एक दिन और ? माता ने रख स्नेहसिक्त कर सिर पर होकर व्यग्र प्रेमराज्य की आज्ञा में मानो दे शक्ति समग्र कहा अश्रुकातर मुख से पीयूष मसृण बचन व्यग्र- कि रुकोगे क्या न एक दिन और ? तरंगिणी के प्रति तरंग को ले रखकर निज कोल अति उदास होकर प्रवाह ने खोकर सब कल्लोल जकड़ भुजों से कलकल स्वर में कहा मंद मृदु बोल- कि रुकोगे क्या न एक दिन और ?

अट्ठारह. आत्मा की ओर से

उठता हुआ अभी यौवन था मदमाती थीं आँखें परियों की रानी-सी मैं उड़ती थी ले चित्रित पाँखें नशा ! रूप का नशा अहा वह भी कितना मतवाला था ! कहाँ खबर थी यह कि जमाना पलटा खाने वाला था ! इन सड़कों पर रूपराशि का पुनः पुनः अभिसार झाँक-झाँक से ही सज्जित हो करता था गुंजार कि जिसकी एक-एक झंकार हृदय में अब भी है साकार ! सावन की थी रात मेघ मेदुर था अंबर घोर कोकिल का था मौन किंतु भीषण उलूक का शोर रह-रह के बिजली की कौंधें लाती थीं चकचौंध किंतु न ये सूने थे मेरे सड़क वीथियाँ सौध ! कहाँ भयानक काल मेघ से चपला का अभियान मिस्सी मंडित सुदनी दसनों का कि कहाँ मुसुकान । प्रतिस्मित में मनोज-ललकार हृदय में अब भी है साकार ! अश्रु गान था हास्य दान था अनुनय मदिरा प्याली लड़ने को ही प्यार समझती थीं आँखें मतवाली । साँप लोटते थे- बिजली गिरती थी चल चितवन में !! इस खँडहर में भरा हुआ था यौवन का वरदान धानी और कुसुंभी में था छिपा हुआ अरमान कि जिसका एक-एक मृदुतार हृदय में अब भी है साकार ! घिरी विपत् की घोर घटाएँ पलटा खाया काल इन सड़कों पर पहले देखी मैंने फौजी चाल छाती फटती थी सुन-सुनकर नूतन जै-जैकार उस दिन, केवल उस दिन मैंने समझा यह व्यवहार कि जिसको समझा मैंने यौवन था वह निपट किशोर बाली वय में मैंने देखे सुख के दोनों छोर ! कि उस दिन का वह करुण विचार हृदय में अब भी है साकार ! जुम्मे-जुम्मे आठ दिनों की ही कुल मेरी आयु (रही ) यह कैशोर अवस्था क्या सहने को झंझावात (रही) दिल्ली ने दिल खोल-खोलकर अपना साध बुझाया (था) लखनौ के यौवनमद ने भी कुछ तो शौक निभाया ( था) हतभागिन मुर्शिदाबाद-लाड़िली हाय असहाय ! हुई अचानक बाली वय में विधवा बन निरुपाय कि उस दिन की असहाय पुकार हृदय में अब भी है साकार ! तरु कोटर में घर्घर रव से घुग्घू ध्वनि विकराल ( उठी) उठीं दहल साथ ही दिशाएँ सुन वीर व्रीटन (?) जयकार (उठी) चौंक उठी, 'या नवी' (?) उसी दिन आया मुख के पास देख विशाल प्रचंड मरुस्थल दबी प्यार की प्यास सपना-सा हो गया तभी से, झाँझ साँझ का नाज ! और उमंगों के बदले था कायरता का राज ! कि विधु वदनों का करुण विकार हृदय में अब भी है साकार ! सुंदरियों के क्रीड़ागृह पर बैठा मत्त फिरंगी ( था ) नागर रसिकों के महलों पर कर्कश शासन जंगी (था) सिराज का ताज मीर जाफर के सिर पर आया जिसमें कुछ अपमान रहा कुछ लोभ रहा विक्षोभ रहा । जिसकी अति अपमान-क्षोभ-विक्षोभ-कलुष थी काया । क्रूर काल के अट्टहास से काँपा पुनः दिगंत ! सिहर उठा मेरा मर्मस्थल हंत विधे हा हंत ! कि अबलाओं का वह चीत्कार हृदय में अब भी है साकार !! देना था इनाम दुश्मन को नरक कीट वे दौड़े ! आह, मृणाल नालों पर पड़ने लगे कि वज्र हथौड़े ! जेवर छीना गया बेगमों का नरपशु के कर से कुसुमकलाई कामिनियों के क्रूर वृकों से परसे ! कटा रसाल, गिरी मालतियाँ मुरझाकर सुख भूल तोड़े गए कुचलकर निर्ममता से सुंदर फूल ! कि उनका रोना हो बेज़ार हृदय में अब भी है साकार !! क्रूर काल, वे किसलय कोमल लाल-लाल से हाथ ! और, शुभ शेफालिका सुमन नाल सदृश मृदु गात इंगुर गौर, गोल, लोलुप लालसा- लसित भुजपाश तुमको पिघला न सके वे रे निष्करुण विलास । थे निस्तब्ध हर्म्य वातायन रोके श्वास-प्रश्वास केवल फटता था जब-तब क्रंदन-ध्वनि से आकाश कि सन्नाटे का वह व्यापार हृदय में अब भी है साकार ! विधुरे सुथरे अलक मुनव्वर से मुखड़े पर छिटके टकते थे नरगिस नयनों की दुरवस्था मर मिटके हाय, किंतु फिर भी बहती थी निर्मम निष्ठुर धारा जिसमें प्रतिबिंबित होता था बिछुड़ा प्रेम सहारा ।। जिन पर कुरबाँ होते थे उनका ही है यह हाल हे सिराज ! आ एक बार लख क्रूर काल की चाल कि जिसका एक-एक संचार हृदय में अब भी है साकार ! ऐ वादे-सबा, लौट जा तू इस गुलशन में अब फूल कहाँ ? बुलबुल गिरफ्तार होगी गाना तेरा माकूल कहाँ ? भूल गई सारी गजलें तूती गाती है विपत्कथा- एक-एक पद में प्रतिबिंबित अंतःपुर की घोर व्यथा । देख रही हो उस मैना को फिरती हैं बेचैन बुलबुल उसके कल कण्ठों में वे सुमधुर पद हैं न- कि जिनके कोमल कंठ बहार हृदय में अब भी है साकार ! अनंत आकाश, शून्य तुम सचमुच हो अलबेले ! कितने खेल धरित्री के संग में तुमने हैं खेले कल तक तो वीणा के ही संग छेड़ी तुमने तान ! आज फिरंगी के सँग करते भीम तोप घमसान !! इन महलों के सुमधुर संगीतों का वह संकाश याद नहीं क्या कुछ भी तुझको हे निर्मम आकाश ! कि जिनका एक-एक मधुधार हृदय में अब भी है साकार ! हे निष्ठुर विधि, क्या अनंत है तेरा उत्कट हास ? किया तलब नूतन नवाब ने गीत, शराब विलास ! यम के शासन में रतिपति ने डरकर साजे वाण ! कहाँ, किंतु, क्षण-क्षण में आने-जाने वाले प्राण ? स्मित पर बिकने वाले हृदयों का न यहाँ लवलेश ! दिल पर चलने वाले निसि-दिन चरण कहाँ अब शेष ? कि उनका भीतयुक्त संचार हृदय में अब भी है साकार ! कोमल पद थे वही, वही थे रसमय वृक्ष अशोक ! किंतु न खा आघात सुमनमय होने का था शौक कहाँ आज गंडूष सेक से बकुल कंटकित होते ? जबकि हृदय के पद्म पत्र ही सूख कंटकित होते ? श्यामाओं के कोमल तन से ग्रीष्म शीत उपचार कहने-भर को ही बाकी थे -सूने थे बाजार कि उनका विवश प्रीति अभिसार हृदय में अब भी है साकार !! प्रलय घटा की घहराहट है या कि चंड तांडव की रोर ! बज्र टूटता है कि गगन फटता कर भीषण शोर ! अरे फिरंगी, रख दे टुक प्याले को कर किलकारी बंद ! देख दुखी मुझको हँसता है जो अविजित, स्वच्छंद ! ऐ अतीत, लख एक बार आ वर्त्तमान की चाल इस उन्मत्त हँसी में अपनी मादक नजरें डाल कि जिसकी एक-एक किलकार हृदय में अब भी है साकार ! ओ मुर्शिदाबाद की लक्ष्मी ! लौट लौट खीमे से, अब जीवन अभिलाष हटा दे सदा हेतु जी में से ! देख फिरंगी लिखता है अपने घर को संदेश ! हुई मुर्शिदाबाद- लाड़िली अब मेरी-सविशेष । राज नहीं है ताज नहीं है साज नहीं न सिराज केवल एक बची है अब तक प्रिय सिराज की लाज कि जिसका एक-एक व्यवहार हृदय में अब भी है साकार ! ठहर कल्पने ! कौन झाँप देता है सुर-सरिता में ! अलक लोल शव किसका वह हाथों से छाती थामे !! निठुर, वहाँ क्या नहीं जायगी ? लख उस हतभागी को कैसे बढ़ सकती है सरले, बिना सम्हाले जी को ? जिसे देखने को होते थे बहु नरपति बेचैन हा, उस सुंदर मुखड़े में अब एक रक्तकण है न- कि जिसका सरस उदार विहार हृदय में अब भी है साकार ! हा मयंकमुख, हा अतृप्त सुख, हा-हा कुंतल श्याम ! हा सरोज पद, हा मनोज मद, हा-हा तनु अभिराम !! हा कोमल कर, हा मोहन बर, हा-हा मधुकर नैन ! हा उज्ज्वल सत, हा कठोर व्रत, हा-हा मृदु वर बैन ! हा कण्टक वृत्त सुमन पत्र, हा मार्दव वृत्त कठोर अहे कृपणता वृत्त उदारते, प्रेमावृत वृत्त चोर कि कल्पना का तब साक्षात्कार हृदय में अब भी है साकार ! [8 अगस्त, 1931]

उन्नीस. स्वागत स्वागत मेरी माया !

स्वागत स्वागत मेरी माया ! मैंने तुममें सब कुछ पाया ! निविड़ नीलिमामय प्रशांत अद्भुत आडंबर शून्य ! मेघों का क्रीड़ास्थल बिजली के सुलास्य की भूमि यह विराट सुविशाल चंडतम व्योम तुम्हारी चिकुर छाया स्वागत स्वागत मेरी माया ! क्षुब्ध विलोल लहर आलोड़ित यह गभीरतम सिंधु वज्रनादमय कोलाहलमय भयमय जयमय अंध यह लावण्य समुद्र, फेनमय भी है तेरी कायच्छाया स्वागत स्वागत मेरी माया ! व्याघ्र-विहार, सिंह-संक्रांत, वराह-वाह अति भीम रम्य मृगाध्यासित शाद्वलग्मय कलभ-करंवित भीम एक साथ वरदान-शापमय, यह बन भृकुटि युगों की छाया ! स्वागत स्वागत मेरी माया ! यह निश्चल कि धवल, सुप्त सुविशाल गिरीश्वर देह निर्झरमय मृदु लता गुल्ममय रसप्रवाह का गेह सदा हासमय रसस्रोत उसी तेरी बत्तीसी का जाया स्वागत स्वागत मेरी माया ! अहे, निमेष मात्र में परिवर्तित यह वायु विलोल जिस पर फेन पुंज से वारिद शाव रहे हैं डोल गतिमय, नतिमय, चकित चावमय पवन तुम्हारी श्वासच्छाया स्वागत स्वागत मेरी माया ! कूक उठी सहकार कुंज में से वह कोकिल-बाल चहक उठी गुलशन में कोने से बुलबुल की डाल मधुर गीति झंकृत होती वह वेणुकुंज के मन की माया । स्वागत स्वागत मेरी माया !

बीस. यहाँ तुम्हारी आशा प्यारे

यहाँ तुम्हारी आशा प्यारे, यहाँ तुम्हारी आशा । हाय, निराशा की धारा में बहता है संसार । संभव है हो मुक्ति कहीं प्यारे तेरा प्यार- इसीलिए यह तप यह ध्यान किंतु निराशा का सम्मान ! हाय प्यारे, यह कैसी बात तेरे रहते यह उत्पात ! बहता हो संसार अगर आशा में उसको बहने दो मैं भी बहता हूँ लेकिन विश्वास न है-यह कहने दो । यद्यपि आशा कुछ क्षण तक है आगे किंतु निराशा ही है तेरा नाम कभी ले-ले खुश होना एक तमाशा ही है । फिर भी कहता हूँ यह बात भाव हृदय को तुम्हें न ज्ञात ? यहाँ तुम्हारी आशा प्यारे, यहाँ तुम्हारी आशा । अब तक लाज बचाई तुमने अब तक लाज बचाई हमने हमने तुमने, तुमने हमने किंतु विपत्ति लगी है जमने । किंतु तुम्हारी आशा प्यारे, यहाँ तुम्हारी आशा । बाहर का तो सुलझाया है तुमने कितनी बार- भीतर का सुलझाने में क्या याद न रहता प्यार ! प्यारे, तुमसे नहीं छिपाया अब तक जो सिर आया हाय, तुम्हारी माया- प्यारी जाया । लो तुम अपनी माया तुम्हें बहुत तरसाया पर मैंने क्या पाया ? मेरी तेरी माया-हाँ विभु, तेरी माया । किंतु है यहाँ तुम्हारी आशा प्यारे, यहाँ तुम्हारी आशा । बाहर भी है भीतर भी है घोर छिड़ा संग्राम मैं घुलता जाता हूँ निसिदिन तुमको है क्या काम । जैसे हो न जान पहचान हाँ गुरु अच्छे हो उस्ताद बंधन है प्रिय ! बंधन ज्ञान ! जहाँ ज्ञान कैसा वाँ स्वाद ? और तुम्हारी माया बड़ी छबीली माया सखे कहाँ बहकाया ? मेरी प्यारी माया ! हाय, निराशा की दरिया ही बहती है इस पार शायद आशा के तरंग टकराते हों उस पार ! मुझे लिवा चल ऐ उस्ताद आशा का भी दे कुछ स्वाद यहाँ तुम्हारी आशा प्यारे, यहाँ तुम्हारी आशा । तू कैसा है मूर्ख और तुम बड़े सुजान ? मैं भी तो, ले, मूर्ख नहीं, धूर्त ऐ प्राण ? सुनो अमृत का नाद सुनाई देगा तुमको देख रहे हो वह हरियाली वह आशा का बाग । हाँ प्यारे, मैं सुनता हूँ तेरा वह मंगलगान । सुनेगा अधिकाधिक रे प्राण ! क्षण-भर में ही जाते भूल क्षण-भर में झर जाते फूल प्यारे, यहाँ तुम्हारी आशा । मंगलगानों का यह ताँता बँधता जाता यार, किंतु बताओ, झूठमूठ क्यों मान रहा संसार ? सुनाई यद्यपि देता नहीं किंतु कहता है-है यह सही न कुछ भी इसमें साधन मृत्यु ही क्या संजीवन ? और माया आराधन ? आह, प्रियतमा के हाथों का यह मंगल उपहार तुम्हें समर्पण करता हूँ बढ़ आओ मेरे प्यार ! खुशी में फूल उठोगे नहीं यह साधारण उपहार ! पर अब लाज बचाना प्रियवर अधिक न अब तरसाना यही तुम्हारा गोकुल प्यारे, यही कि वह बरसाना भूल न जाना कभी-कभी प्रेमाश्रु यहाँ बरसाना कि प्यारे अब न अधिक तरसाना कि प्यारे यहाँ तुम्हारी आशा तुम्हारा मंगलगान तुम्हारा मंगलगान । लोग न जाने क्या-क्या कहते ! 'कहने दो' यह तुम हो कहते । ठीक जान पड़ता है हमको एक यही सिद्धांत प्रेम प्रेम में ही समाप्त है उसका अन्य न प्रांत पर मुझमें वह प्रेम नहीं है । (इसका) पक्का कोई नेम नहीं है । छिछला है यह निस्संदेह पर प्यारे, मेरा क्या दोष ? प्रकृति निगोड़ी ऐसी ही कुछ रूखी स्वादविहीन कि उसको लेकर लज्जित होना पड़ता है हो दीन । जो कहना चाहिए न कहता चुप होने में भी न निबहता हूँ संतुष्ट बिना संतोष असंतुष्ट हूँ किंतु न रोष फिर भी कहता हूँ क्या दोष ? पर, प्यारे मेरा क्या दोष ? होता और उपाय अगर तो करता नहीं गुहार कुछ बन पड़ता कर देता प्यार हेतु ही प्यार । कहाँ किंतु हो पाया ऐसा ? अच्छा कहो कि कहो अनैसा । मेरा है ऐसा ही प्यार मैं मतलब का ही हूँ यार । लोग कहा करते हैं प्यारे, यह भी कोई प्यार ! किंतु बताओ कर ही क्या सकता हूँ और विचार ? मैं भी कहता हूँ यह तो है प्यार का बुरा स्वाँग स्वाँग अगर हो तो वह ही हो पर है सच्चा स्वाँग । अब है लाज बचाना, प्यारे, अब है लाज बचाना । सुनता हूँ मगन संगीत मधुर मनोहर सुखमय गीत हरा-भरा सुंदर उद्यान देख रहा हूँ मेरे प्राण बजाओ मुरली मीठी । सुनूँ मैं तान सुरीली सुनूँ मंगलमय गीत सुनूँ सुखमय संगीत । यहीं कहीं वंशीवट होगा वृंदावन में आना मधु मुरली की मधुर तान से मेरा मन भरमाना कि प्यारे एक बार आ जाना । [काशी, रंगभरी एकादशी, सं० 1989 ]

इक्कीस. बहुत सोई अब उठ ऐ प्राण !

बहुत सोई अब उठ ऐ प्राण ! विजन निद्रिते ज़रा सजग हो आज नहीं सुनसान वेणुकुंज के पत्र आज करते मर्मर मृदु गान हरसिंगार बिना ही ऋतु के फूल कर रहा दान बता सयानी, इनके मन की पीड़ा गूढ़ गंभीर तेरे बिना कौन बतलाएगा यह पीड़ा वीर ! बहुत सोई अब उठ ऐ प्राण !

बाईस. रजनी-दिन नित्य चला ही किया

रजनी-दिन नित्य चला ही किया मैं अनंत की गोद में खेला हुआ; चिरकाल न वास कहीं भी किया किसी आँधी से नित्य धकेला हुआ; न थका न रुका न हटा न झुका, किसी फक्कड़ बाबा का चेला हुआ; मद चूता रहा, तन मस्त बना अलबेला मैं ऐसा अकेला हुआ । पिक कूका किए, अलि गूँजा किए, नव बल्लरियाँ लहराती रहीं; हँसके वश में करने को रसाल और मालतियाँ मुसकाती रहीं; कुलों ने बिछाए प्रसून नए नवमाधवी नित्य रिझाती रही; न रुका मैं कहीं न प्रलुब्ध हुआ, कलियाँ मुझे नित्य बुलाती रहीं । मलयानिल आया कहा कि रुको कुछ मंदी सुगंधी का ले लो मजा, लहरों ने कहा, ठहरो तो ज़रा, तू भगा भगा मेरे बटोही न जा । लिए चाँद-सा कुम्भ सुधारस का रजनी ने कहा यह जानता जा । दिल मेरा बना पै अड़ाल रहा कहा, फक्कड़ कोप सजा-ही-सजा । विरही गज देखके रोते रहे, प्रिय प्रेमी निजत्व को खोते रहे, कवि वस्तुलता से सने से बने वृथा कल्पना के रस ढोते रहे, वन बाग नए अनुराग भरे रस राशि से प्राण भिगोते रहे, कोई रोते रहे कोई खोते रहे, अपना रथ पै हम जोते रहे । [ वसंतोत्सव, संवत् 1994 ]

तेईस. अरे ओ सत्यार्थी भइया !

अरे ओ सत्यार्थी भइया ! “पवलों तोरी चिठिया, बजवलों वधौ सतार्थी भइया रे ! तोरी डगर अकेल कि सतार्थी भइया रे ! एक हम देखलों सरगवा बिचवा रे पाई तुम्हारी चिट्ठी, बजाया बधाव, अरे ओ सत्यार्थी भैया ! तेरा रास्ता अकेले का रास्ता है, अरे ओ सत्यार्थी भैया !! एक मैंने देखा सरग आकाश के बीच एक सूर्य अकेले चला करता है आकाश के बीच दूसरा मैंने देखा आकाश के बीच एक चाँद अकेला चला करता है आकाश के बीच तेरा मैंने देखा दुनिया के बीच तीरा रास्ता अकेला है, अरे ओ सत्यार्थी भैया ! "तोरी डगरी अकेल कि सतार्थी भइया रे ! पुरुब में गइलों, पुछलों हाथ जोरि के पुरबैया भैया रे कहीं देखले कवनो दिलगीर कि पुरबैया भइया रे ! पछिम में गइलों पुछलों हाथ जोरि के पछिबा भैया रे कहीं देखले कवनो दिलगीर कि पछिबा भइया रे ! दुनो कहे हँस के बटोही भइया रे कि बटोही भैया रे खाली एक दिलगीर से सतार्थी भइया रे ! ओकर डगरी अकेल कि सतार्थी भइया रे ! उतर में गइलों हिमालैजी सों पुछलों हिमालै भइया रे कहीं देखले कवनो दिलगीर कि हिमालै भइया रे ! दखिन में गइलों समुंदरजी से पुछलों समुंदर भइया रे कहीं देखले कवनो दिलगीर कि समुंदर भइया रे ! दुनो कहें लाख ढूढ़ें जियका, करोड़ ढूढ़े नौकरी सतार्थी भइया रे देखलों सहस्सर बिलाला भइले रे कि सतार्थी भइया रे लाख ढूढ़ें धरम करोड़ ढूढ़ें करम सतार्थी भइया रे ! केहू नाही गइले आरतवा की डगरी सतार्थी भइया रे ! तोरी डगरी अकेल कि सतार्थी भैया रे !” [18 जनवरी, 1940]

चौबीस. हमसे तुमसे नहीं बनेगी

सखि, हमें न आया रोना; सखि, तुम्हें न आया टोना, सखि, हमें न भाता घूँघट; सखि, तुम्हें अनावृत होना । फिर बोलो किस भाँति छनेगी हमसे तुमसे नहीं बनेगी ! सखि, तुम गुपचुप रहती हो, अस्फुट बातें कहती हो, अपने अनुराग-सरित में, निर्द्वद्व बहा करती हो । ना सजनी, यों नहीं बनेगी हमसे तुमसे नहीं बनेगी ! तव प्रेमपत्रिका प्यारी होती दुनिया से न्यारी, कुछ पल्लव- मर्मर डाली, कुछ राग-रंग की क्यारी । सखि, पहेली ना सुलझेगी हमसे तुमसे नहीं बनेगी ! तुम गान अनूठे गातीं, कितनों ही को ललचातीं, कुछ कू-कू, चिक् चिक्, फुर-फुर, ये कला हमें सुहातीं । मेरी आत्मा नहीं सुनेगी हमसे तुमसे नहीं बनेगी ! सखि, लगीं अभी तुम रोने ? मेरा यह वक्ष भिगोने, तब कहाँ सजनि वे अँखियाँ, जिनके ये चाँदी-सोने । मोतीलड़ियाँ अगर छनेंगी हमसे तुमसे नहीं बनेगी ! सखि, लगीं हमारी बातें ? क्यों तुम रोती अधरातें ? सजनी तुम बनी पहेली-अचरज हैं सारी बातें ! रोओगी तो नहीं बनेगी हमसे तुमसे नहीं बनेगी ! सखि, हरी तुम्हारी साड़ी, रँग-सँग के सुमन सँवारी, घूँघटपट पै शशि वारूँ — पर हाय मम प्यारी ! छिपी रहे छवि छिपी रहेगी हमसे तुमसे नहीं बनेगी ! तुम हो रहस्यमय नारी, मैं हूँ विज्ञान पुजारी, हम जितना पता लगाते-उतनी ही बढ़ती सारी । जो आवृत छवि ना निकलेगी हमसे तुमसे नहीं बनेगी ! जब मैं मतवाला बनकर, वासंती वसन पहनकर, चाहता कि तुमसे मिल लूँ तुम उठी खड़ी हो तनकर । नहीं सखी अब नहीं बनेगी हमसे तुमसे नहीं बनेगी ! मैं समझ नहीं सकता हूँ—बकता-झकता पकता हूँ, तुम प्रेममयी या निष्ठुर तुमसे सदैव छकता हूँ । ना सजनी, अब नहीं निभेगी हमसे तुमसे नहीं बनेगी ! पाऊँ रहस्य मैं तेरा, कर प्रयोगशाला डेरा, दिन-रात व्यस्त रहता हूँ-दिन-संझा- रात-सबेरा । कब तक यह रफ्तार चलेगी हमसे तुमसे नहीं बनेगी ! तातील एक दिन की है, प्राणाधिक, यह विनती है, उस दिन मत घूँघट तानो, हे चंडि, बात सुनती है ! नहीं तो सजनी नहीं निभेगी हमसे तुमसे नहीं बनेगी ! कल एतबार आता है, संकेतवार आता है, कल क्या घूँघट खोलोगी, सखि, एतबार जाता है । ना तो सजनी, नहीं बनेगी हमसे तुमसे नहीं बनेगी ! छोड़ो प्रयोगशाला को छोड़ो चिंताज्वाला को जो विकलता न पहिचाने-छोड़ो उस प्रिय बाला को । तुम्हीं या कि तव टेक रहेगी हमसे तुमसे नहीं बनेगी ! अह, निठुर आज तुम आईं, छुट्टी के दिन तुम आईं, सारी जग की सुंदरता, वारूँ तेरी परछाईं । अगर गई तो नहीं बनेगी हमसे तुमसे नहीं बनेगी ! कमल चरन तनु वल्लरी, सुमन सलोने हाथ, तेरे हाथ बिके सखी, हूँगा आज सनाथ । तेरी एक कटाक्ष पर, होता हृदय निहाल, तुझको माया कहे वह निष्ठुर ऐ बाल ! शैशव में ही रीझकर जिसे किया स्वीकार, उसी प्रकृत सौंदर्य पर हो जा आज निसार !

पच्चीस. उठ उठ अरी कराल ज्वाल

उठ उठ अरी कराल ज्वाल तू लाल लाल अंगारे बन ! धक-धक धधक-धधक उठ हिय में री प्रलयंकरि ! तारे बन जला चुकी अब हृदय भीषणे ! अब लपटों को बाहर काढ़ दहक चिता-सी लहक पिपासी ! ला दे चिनगारी की बाढ़ ! प्रलय मचा दे, विश्व नचा दे गला-पचा दे सब अभिताप नाप नाप संसार हठीली ! लोल लपट से जगती नाप !

छब्बीस. मार्ग बहुत सुंदर है

मार्ग बहुत सुंदर है। गाड़ियां, घोड़े, पदातिक सभी के उपयुक्त। सुना है उसको पकड़कर चल सके कोई, पहुंचता लक्ष्य तक निर्भ्रान्त। जानता हूँ, मानता हूँ लक्ष्य तक निर्भ्रान्त जाना चाहता हूँ। सड़क पक्की और छायादार यह है। किन्तु मैं मजबूर हूँ। कंकड़ों में, कण्टकों में दूर जंगल में- भटकना है बदा। नहीं तो जी नहीं सकता। इस तरफ कोई न चलता यान, है कोई न देता ध्यान। मैं भटकता बढ़ रहा हूँ लक्ष्य से अनजान। सोचता हूँ क्या यही है लक्ष्य जीवन का जीते जाव, पीते जाव अपने क्षोभ को ही। दूरवाले समझते हैं आदमी यह प्राणवन्त महान् कंकड़ों पर चल रहा है, कण्टकों को दल रहा है, किन्तु मैं हूँ जानता इस रास्ते की मार और मैं हूँ जानता पक्की सड़क के नहीं पाने का भयंकर घाव। सोचता हूँ रौंदकर क्या एक बन सकता न सुंदर मार्ग? जिसे जीने की ललकवाले करें उपयोग! (9 फरवरी 1966)

मेरा स्वप्न

[जतारेके 'मदन सागर' की एक झलक] स्वप्न देखा है, अभी मैं हूँ खड़ा गिरि-दुर्ग वेष्टित एक शोभन ताल के तट पर कि जिसके इर्द-गिर्द विशाल गिरि- कांतार में लहरा रहे हैं घन वेणु-निकुंज, बदरी-गुल्म, खदिर-वनस्थली, वनपनस के बहुझाड़, जो कुछ योजनों तक एक लंबी पाँत में चलते गए हैं, और उस हद के मनोहर विमल घन मुकुराभ सुंदर वारि पर मँडरा रहे टिट्टिभ कहीं, तट पर बिलखते चक्रवाक कहीं, कहीं जलकेलि करते हैं। नवल कलहंस, और सुदूर उस तट पर उतरते स्वर्णमृग के झुंड अति निश्चिंत, मानो है नहीं भय का कहीं भी लेश । संध्या है उतरती आ रही, गिरि शृंखला के निम्न तट को छू रहा है जरठ भास्कर का थका रथचक्र, होता जा रहा है लाल विस्तृत ताल मैं हूँ मुग्ध, चकित, अवाक् ! - फिर हैरान होकर सोचता हूँ, क्या कहीं वन-देवियाँ हैं क्लांति-वारण के लिए उतरीं मनोहर नीर में जिनके मृदुल पद की महावर फैलकर ही गाढ़ इतना कर सकीं इस रंग को या दिग्वधू-जन की कुसुम्भी साड़ियों की कांति इसमें मिल गई है, या कि संध्या सुंदरी ही इस मुकुर में देखती निज रूप ! काली हो रही है रात । ऊपर व्योम में है चमकती तारावली, शनि और गुरु के बिंब, सुंदर रोहिणी का शकट, निर्मम काल-पुरुष-व्यूह, नीचे झिलमिलाती ज्योति के संग झूमते हैं लहरियों पर सप्त ऋषि निश्चित । वन्य वराहगण द्रुत वेग से हैं आते, कुतरते पंक पर के मुस्त, पीते विमल जल, अलमस्त से वे फिर लौटते हैं देख छिछले स्थान- यह लो ! लहरियाँ हिल गईं, डूबे सप्त ऋषि के वृंद, फिर उठकर गिरे, फिर उठे, वृक्षों की हरिततर छाँह कट-कट कर जुटी सौ बार ! - वह मछली उछलकर एक क्षण के ही लिए कर गई इस निस्तब्धता को भंग एक छपाक से, मानो किसी जलजाप्सरा ने देखना चाहा मनोहर दृश्य था गिरिपृष्ठ का पर देखकर मुझको अचानक लाज से गड़ गई ! - मैं हैरान हूँ, इतना मनोहर दृश्य भी भू-पृष्ठ पर होगा कहीं ? - वह दूर के अति जम्बू वृक्ष के नीचे मयूर-मयूरियों का यूथ करता जा रहा है और घनतर नील वन के तिमिर को । मैं जाग उठता हूँ अचानक सुन मधुर केका- कहाँ जाने न वे उड़ गए सुंदर ताल, गिरि के श्रृंग, वन के वृक्ष, जल की अप्सरा, तारावली की ज्योति !! क्या कभी देखा कहीं है यह मनोहर ताल, मैं हूँ सोचता जगकर । अचानक याद आता है जताराका 'मदन सागर' कि जिसकी लोल लघु-लघु उर्मियों में स्नेह-आवाहन कभी अनुभव किया था बिंध्य गिरि के श्रृंग पर चढ़ कर, - कि जिसके शिशिर-सीकर-सिक्त मृदुल समीर से था प्राण शीतल हो गया, मन में अजब मस्ती, हृदय में एक नवल उमंग बिजली की तरह थी छा गई- अभिभूत-सा होकर लगा था सोचने कितने हज़ारों वर्ष का संघर्ष गरबीले बुंदेले और चंदेले नरेशों का, कि जिसके नीर के प्रतिबिंदु में था झलक उट्ठा वक्ष वेष्टित वर्म दृढ़तर मुष्टि-बद्ध कृपाण, कंधारूढ़ खरतर कुंत, बेपरवाह मस्तक पर सजे उष्णीष, मुख पर हास्य, तनु पर क्लांति, निर्मल भाल पर श्रमविंदु, आँखों में अमर करुणा, भृकुटि में तरल आकुंचन, छबीले नौजवानों के ! लहू में जग उठा था एक झंझावात, मेरी कल्पना ने जब कि देखा पत्थरों को फोड़ मृदुल तृणांकुरों के रूप में मानो बुंदेली भूमि बारंबार है यह घोषणा करती कि देखो ये हमारे पुत्र हैं जो छेदकर छाती कठिन पाषाण की हैं फूटते, जो खींच लाते भोग्य अपना ताल से पाताल के जिनके कुसुम के मुकुट पर कितनी निकल आँधी गईं, पानी गया, वाया गई, झंझा गई. पर ये सदा उन्नत शिरा हैं, अदमनीय, अडोल ! आज मेरा चित्त बहुत उदास है । मैंने कि देखा है मनोहर काव्य का बस एक छिटका छंद, चिर सौंदर्य नद की एक भंगुर उर्मि नव-आनंद-नाटक का क्षणिक विष्कंभ- मेरा स्वप्न । [स्थान-शांति निकेतन, समय-8 जनवरी, 1941 का ब्राह्ममुहूर्त ] [एक अनुपलब्ध रचना–जो पहली बार 'भारतीय साहित्य' के वर्ष 2, अंक 14 में सन् 1977 ई० में प्रकाशित]

मा सुर भारति

मृदुल-मलय मारुत बहता है लेकर तेरा वास मा! कितना है मधुर मधु हा आज बरस मृदु हास । लोनी-लोनी लोल लगाएँ लाती हैं क्या रंग, नव कलिकाएँ किलक रही हैं, कल किसलय के संग । इस वसंत की मृदु सुषमा में यह कैसा आनंद ! मा ! क्या तेरे मुख- कैरव का यह है स्मित मकरंद ! 'मधुकर कुलकलंक काली कृत' कल कोकिल का उपचार, विकसित कालेयक प्रसून परिमल परिगुंजित भृंग भीनी-भीनी महक मत्त-सी दोलित लता लवंग तेरी वीणा के ही स्वर से बने सभी हैं मत्त, री मा ! ठहर साँस लेने दे, थमने दे यह नृत्य ! चुन-चुन चुने चारु सुमनों से मेरी भरी हुई यह डाल पद्म पराजित पग पराग को पा होवेंगे जननि ! निहाल फबती नहीं पड़ी फीकी है तेरी फुलवाई में साज पर क्या पुत्र-प्रेम प्रवीणे ! ग्रहण नहीं कर लोगी आज तो मचलूँगा रोऊँगा मैं, न चलूँगा हयाँ से पग एक । या तेरा ही या मेरा ही आज रहेगा माता टेक । [ फाल्गुन शुक्ल 3, संवत् 1985 ]

किसका क्या सम्मान ?

अलबेली शेफालिका न कर तू इतना अभिमान जाने किनके क्या होंगे छिपे हुए अरमान सखि हैं सबके हृदय नहीं इस सुरसिक भृंग समान बहता क्या समीर रिमझिम है सदा अरी अनजान पिंगल-नाल लालिमा से क्या उषा न होगी रुष्ट ? कौन कहेगा कि तुझे सजनी, गिरा न देगी दुष्ट ? ऐ अठिलाने वाली भोली सभी नहीं हैं संत भोली सूरत में भी घातक मिलते यहाँ अनंत । ऐ अनंत ! ऐ मधुर, अनुप । ऐ मानव मानस सरोज रवि, ऐ सुंदर शुचिरूप । ऐ मानव मानस सरोज रवि, ऐ सुंदर शुचिरूप ? किसी तरह हृदय गुफा के तमः पूर्ण कटु-कक्ष- मध्य पहुँच जाते करुणामय, करते दूर वलक्ष । तो प्रकाशमय दिखलाई देते कुवृत्ति के ढूह अविश्वास की शिला आत्मवंचना टील के व्यूह चक्रहस्त, मालिन्यग्रस्त यह हृदय देश विध्वस्त करते और स्नेह धारा से सींच-सींच ओ शस्त, हरा-भरा कर देते तो फिर क्यों रहता अभिताप ? पाप काँप उठता अवश्य संताप तापता ताप !

बोलो, काव्य के मर्मज्ञ

आज मेरा हृदय कहता, क्यों न लिख दो एक कविता; आग बरसा दो न क्यों तुम, ताकि होवे भस्म यह मर्दानगी जिसने कि है अंधेर ढाया । आज लाशों से धरित्री पट रही है और कायर वीरता का स्वाँग भर-भरकर बनाते हैं जगत को मत्त दानव, और निष्पेषित पिशाची सैन्य लेकर रौंदते हैं। विश्व का जो कुछ कि है सौंदर्य या शालीनता ! सुन रहा हूँ दूर से सौ-सौ हजारों करुण कंठों की सिसकती आह और कराल हाहाकार ध्वनि; मैं सुन रहा हूँ चटचटाती दीप्त-दावानल-सरीखी आग में झुलसे वीरान गाँवों की भयंकर करुण चुपकी; और फिर मैं सुन रहा हूँ चीखते अधमरे अपने ही दलों के वीर पुरुषों से उपेक्षित दीन सैनिक- अंतड़ियों को नोचती जिनकी सियारों और गिद्धों की जमातें और कल तक के सुहृद मुँह फेरकर चलते बने हैं ! हाय, सुनता हूँ कि दानव को लजा दें जो परुष मर्दानगी, वह शून्य गाँवों में पहुँचकर रोग जर्जर वृद्ध जन को मारती कोड़े सपाक् सपाक् और असूर्यम्पश्या रमणियों के साथ अति वीभत्स दुर्व्यवहार मेरे कान तक लाल हैं सारी शिराएँ, छूटता है खून खौला आज फव्वारा सरीखा; हाय, क्या मैं देखता हूँ दैत्य देते ताव मूँछों पर उचरते वीरता के शब्द, चलते हैं अकड़ते हुए छाती फूली, ग्रीवा वक्र । हा, मैं देखता प्रत्यक्ष-सा हूँ यह परम वीभत्स पौरुष नृत्य ! मैं उन्मत्त हूँ, बेहोश हूँ, मुझको न छेड़ो आज मेरे वाक्य से अंगार झड़ने जा रहे हैं, वज्र पड़ने जा रहे हैं, नाश हो मर्दानगी यह और जो कुछ शांत कोमल मधुर या सुकुमार वह पनपे- धरित्री शांत हो, विश्रांति पाए ! क्रांति आवे और कर दे चूर इन उन्मुक्त रणबाँके जवानों की नशीली खोपड़ी को; जाग उठे छिन्नमस्ता शक्ति ले देवत्व का हथियार, कुछ सौंदर्य का मदधार, कुछ माधुर्य-पारावार कुछ मातृत्व का वरदान- हो अवतार उस अद्भुत छबीली ज्योति का, जिसके वदन के तेज से झुलसे अहमिका और महिष-समान निघृंण क्रूर वन्य नरत्व मदमाते पिशाचों का; जगत् हो शांत, हो निर्भ्रात नारी का अमर वरदान जागे । किंतु फिर मैं सोचता हूँ क्या कभी संभव हुआ है एक कविता से जला देना जगत् की घृणित बर्बरता नशीला जोश, नव उद्दाम यौवन लालसा, निष्ठुर पिशाची कृत्य ? मैं हैरान होकर सोचता हूँ क्या कभी कुछ कर सके हैं अश्रु दुर्बल के करुण अभिशाप ब्राह्मण के, मधुर हुंकार कविजन के ? हुआ क्या जबकि करुण पदावली निकली अचानक आदिकवि के दृप्त- द्रुत अभिभूत कोमल कंठ से ? क्या रुका तब से निषादों का कहीं भी शल्य-पातन दीन क्रौंचों पर ? कहा था क्या न सारे जन्म देकर भी सरस संदेश धर्माचार उस वृद्ध कविवर व्यास ने "मैं उर्ध्वबाहु विरोदन कर रहा हूँ, किंतु कोई है नहीं सुनता !” निराशा से भरा यह वाक्य सुनकर भी कभी कोई उठाएगा नुकीली लेखनी, जिस पर कि हो अभिमान उसका, छेद डालेगी हृदय को क्रूर और कठोर मानव वृंद के ? और फिर मैं सोचता हूँ, क्या न गाया है जगत् का श्रेष्ठ महिमागान नारी शक्ति का उस कालिदास समान कवि ने जो दुलारा भारती का अंत तक ऐसा रहा कि उसे उतारा ही न अपनी गोद से श्री शारदा ने; हास्य से जिसके कि झड़ते फूल रोदन से सुमुक्ता- जाल, जिसके कंठ का माधुर्य अब भी दिग्वधुजन के हृदय में व्याप्त है; अब भी हवालाती उसी के गान की मृदु तान, जब मैं हूँ सुना करता कहीं एकांत में बैठा हुआ, अब भी अदृश्य प्रकाश की लहरें दिखा जातीं वही छवि जो कि देखी थी महाकवि ने चटुल सिप्रातरंगों से धुले तट पर - कहीं कैलास की हिमधवल चुड़ा पर नमेरू जमाया शम्भु ने वैराग्य का आसन कि जिसका अर्थ नारी त्याग, जिसका अर्थ बंधन मुक्ति, जिसका अर्थ कुछ कल्याण आत्मा का विनश्वर देह का ! पर हाय, क्या उससे हुआ विध्वंस दानव शक्ति का, उत्कर्ष दैवी संपदा का, हर्ष मानव जाति का, अपकर्ष या औद्धत्य का ? संचारिणी-सी एक पल्लिविनी लता आई वहाँ जिसके हृदय में प्रेम का पीयूष, आँखों में अमर वरदान, आँचल में अचल सौभाग्य मन में एक दृढ़ निश्चय कठिन पाषाण-सा, पर पीठ पर जिसकी अज्ञात देव अनीकिनी थी, मदन अलबेला बना था कुसुम के शर तान छाया-छविल नम्र-नमेरु-तरु के बीच । और वसंत जाग उठा अचानक फूट-फूट अशोक उसकी घोषणा करने लगा बिल्कुल न की परवाह असिंजित मधुर ध्वनि नूपुरों की; काम-वश हो गए पागल- चक्रवाक करेणु, लतिका-वृक्ष, किन्नर यूथ, हारे देवता की बुद्धि । तूने इसे समझा सहायक प्रेम का, नारीत्व का मातृत्व का !! वह डिग उठा वैराग्य व्यापारित किया जब लोचनों को बिंबा धरोष्ठ मयंक मुख पर पार्वती के । किंतु वह अविवेक शिव के हृदय का चांचल्य, काम अनीकिनी की जीत क्षण भर में हुई बरबाद, करवट लिया फिर वैराग्य ने मानो न उसको काम है कुछ भी मृदुल सौंदर्य, पावन प्रेम, कोमल भाव मंथर गमन, बंकिम नयन से मानो हजारों बार उसका दर्प, नारी के नयन से टकरा हुआ जो चूर्ण है वह कुछ नहीं सी बात, मानो वह सदा अविकार था अविकार ही होता रहेगा और मानो जीतता ही रहा उसका त्याग, उसका ज्ञान, उसका धर्म । नारी हटी; मानो हारना ही भाग्य में उसके बदा है। और मानो हार ही है जीत । किंतु है साक्षी सकल संसार भिक्षा पात्र ले वैराग्य बारंबार आया है। यही रमणी हृदय के पास; योगी जुटे जाते रहे सौ बार, भोगी रगड़ते ही रहे सिर के बाल ज्ञानी ज्ञान के कंकाल; तपसी हुए हैं बेहाल । आज मैं हूँ सुन रहा कवि की अमर वाणी मनोहर । देखता हूँ चूर होता रहा वैराग्य का मद परुष पौरुष; और फिर मैं देखता हूँ तपोनिरता पार्वती का शांत स्निग्ध मनोज्ञ सुंदर रूप, जिसके निकट शंभु सतृष्ण अपने को छिपो आए बने याचक दीन ! कौन है जिसने कि गाया हो मनोहर गान ऐसा ? किंतु क्या उस ज्ञान से है परुषता उठ गई या क्रूरता धुल गई बोलो-काव्य के मर्मज्ञ बोलो शारदा के भक्त ! तुम क्या कहीं देखा कि उस कवि का विदग्ध-विलास कोमल भाव, कांत पदावलि, सुंदर सृष्टि, मधु संदेश सहृदय हृदयहारी काव्य कुछ भी छू सके निर्घृण लुटेरों के हृदय की छाँह ? कोई हूण या कि तुखार, कोई यवन या कांबोज, कोई मिहिर कुल चंगेज, कोई तुर्क या अफगान- उससे है ज़रा भी पिघलकर कोमल मृदुल हो गया ? फिर क्यों काव्य का अभिमान ? फिर क्यों व्यर्थ अभिसम्पात ? फिर क्यों यह अरण्य-निनाद ? फिर क्यों कमल- कंडूयन, वृथा वाग्जाल, व्यर्थ प्रयास ? [आरती- मई-जून, 1941]

रे कवि, एक बार सम्हल

आज मेरी कल्पने! उड़ चल पुनः उस देश में, जिसमें मलय-मकरंद वासित वायु के हिल्लोल से हैं हिल रहे दुर्ललित कांचन पद्म इठलाते नवीन मराल दंपति परम उत्सुकता सहित अर्द्धोपमुक्त-मृणाल कवलों से परस्पर को समादृत कर रहे चिक्कन-मसृण सुस्निग्धवपु गजशाव लेकर मैं सुगंधित वारि देता प्यार से ढरका करेणु विलासिनी के भाल पर, उन्मुद-चटुल कुक्कुटों की पाँति नाना भाँति कल कल्लोल से करती हृदय अभिभूत; मैं हूँ ऊब उठा इस अनर्गल वंचना के लोक से जिसमें कहीं भी है न रस का लेश; केवल मार-काट गुहार, केवल स्वार्थ का संघात केवल क्षुद्रता की अहमिका और केवल त्राहि-त्राहि पुकार ! मेरे सामने अति शुष्क दूर्वा-धवल यह मैदान है फैला सुदूर दिगंत तक मानो किसी प्राचीन पंडित का पसारा विरस विद्याजाल जिसका आदि अंत कहीं न ! मेरा चित्त व्याकुल है कि मैंने बाँध रक्खा है स्वयं को आत्मनिर्मित ढोंग के जंजाल से । मन में रमे हैं पूर्व युग के स्वर्ण मणिमय सौध, मरकत खचित क्रीड़ा शैल लालसा-लसित कुहिम भूमि, कंकण-मुग्ध नवल मयूर सित गजदत्त शायि विपंचिका कुवलय मनोहर नयन बाल- मराल मंथर गमन, कंकण-किंकिणी का क्वणन मृदुला चारुता शालीनता का अति अपूर्व विधान; आँखें देखती हैं ठठरियों के ठाठ, चिथड़ों के घृणास्पद दूह गंदे रेंगते शव से ठिठुरते प्राण रुग्ण-विशीर्ण भद्दी कांति, मैं हूँ स्वयं निज प्रतिवाद करती हैं हृदय में भावधाराएँ सुखाती हैं परस्पर को, कि मैं बन गया धोबी के जुगुप्सित जंतु सा घर- घाट से विच्छिन्न; मैं हूँ उभयतो विभ्रष्ट, अधर-कलंक रंक त्रिशंकु | मैं उन्मुक्त हूँ इन नाड़ियों में प्रलय का-सा विकल व्याकुल, एक आलोड़न मुझे चंचल बनाए है, धमनियों में धधकती है भयंकर आग मेरी कल्पने ! अब उड़ न प्यारी चूक । कौन कहता है मणिमय सौध केवल पूर्व युग के चिह्न हैं, गजदत्तशायि विपंचिका अज्ञात है, मृदुलता-चटुलता- चारुता मिलती नहीं इस देश में, सौभाग्य लहराता नहीं बंकिम-वचन गमन- चंचल दृगंचल में यहाँ ? यह कौन कहता है कि केवल सिसकते शिशु ही यहाँ दिखते, बिलखती जननियाँ मिलतीं अकुंठ विडंब- रसिकों की जुगुप्सित वासना की वलि रमणियाँ ही बसीं इस लोक में घिसटते-दीन-हीन किसान, केवल मूक-दुर्बल-पंगु मानव यूथ, केवल अन्न की मार, केवल दमन का चीत्कार केवल हाय-हाय पुकार ? मैं प्रतिवाद करता हूँ समूची शक्ति से, यह तथ्य का अपलाप है, यह झूठ है । इस देश में संपत्ति इतनी है कि कवि की कल्पना हैरान है, किस भाँति बतलाएँ उमड़ते- दुग्ध पारावार-धन की वृष्टि, धारासार- सरस विलासिता संभार के भंडार को; किस भाँति बतलाएँ सुकोमल भावनाभावित दया- वात्सल्य-करुणा प्रीति के उत्कर्ष को माधुर्य के सम्मान को, संगीत-शिल्प कला सरस साहित्य-संरक्षण-जनित उत्साह को गांभीर्य को, वैदुष्य को, वैदग्ध्य को; किस भाँति बतलाएँ नवल विज्ञान- विरचित आभरण-संभार चित्र-विचित्र वसन विहार-अभिनव अंगराग सुहाग; मैं हैरान होकर सोचता हूँ क्या कभी कवि कालिदास महान की भी कल्पना इतनी मधुरता लख सकी होगी, अरे सौभाग्य वंचित क्यों बिलखता-झींकता है 'ते हि नो दिवसा गताः;' दिन आज भी वे जी रहे साकार पर उन पर पहुँचना कठिन है, वे हैं अगम दुर्लङ्घ्य । हाँ, उन तक पहुँचना है नहीं आसान । हैं ये, सामने कानून के घनघोर वन विकराल, शम-दम-नियम-विधियों पर सनातन से प्रतिष्ठित श्रृंखला के व्यूह नूतन शासकों के गढ़े दुर्गमतर व्यवस्था शैल, जिनकी नियत रक्षा कर रही है कोटि वीरों की वाहिनी ले मारणास्त्रों के भयंकर बंब । प्यारी, लौट आ तू ओ दलित की कल्पने, फिर एक बार निहार अपनी पोथियों की नियत नीरस महस्थलिका में कहीं मिल जाए शायद अमृत का संधान- ये धनधान्य केवल चार दिन की चाँदनी है, फेन बुदबुद से विनश्वर हैं, न इनमें है कहीं आनंद का आभास, ये सारे कि माया के क्षणिक विस्फोट ! माया के क्षणिक विस्फोट ये संपत्ति के संभार ये धनधान्य के आगार ये दुर्ललित मानव के हृदय के सत्य-करुणा- प्यार, ये ऊँची हवेली के नियम-कानून विधि व्यवहार; पर माया न शोषित की करुणतर आह, शिशुओं के ललकते झुंड दलित निरन्न लोगों के मरण अभियान बहुओं-बेटियों की लाज मेरे कान तक सारी शिराएँ लाल हैं, निर्लज्जता की भी कहीं है हद रे कवि ! भागकर तू किधर जाएगा ? लगा दे आग इस मायापुरी में, ध्वस्त हो कृत्रिम जटिल-जंजाल, मथकर, रगड़कर व्याकुल पसलियों की दहकती हड्डियों को तू जला ले वज्र-धर्म मशाल; सत्यानाश हो उस विधि-व्यवस्था का जिसने चूसना ही सिखाया मनुज को नर-रक्त का; विध्वंस हो उस नीति का जिसने की झूठी मानसिक उन्मादना को नाम दे-देकर महामहिमा-समन्वित बाँध रक्खा है मनुज को दीनता के पाश में, तू धधक उठ खुद आप अपनी आग से ! ये पोथियाँ तेरी मनुज की विजय यात्रा की निशानी हैं बताती हैं कि लाखों वर्ष से निरंतर हारता ही आ रहा है और मानव जीतता ही जा रहा है, क्षुद्र स्वार्थ विलीन होते जा रहे हैं। और उत्तम धर्म पाते जा रहे सम्मान; ये बतला ही रही हैं बार-बार परास्त होकर भी सदा पशुता शीश चरने को उदार विचार पर एक निश्चित सत्य है- “धर्मो हि रक्षति रक्षितः " जिस ओर धर्म उदार है उस ओर विजय अवश्य ! क्या कहा ? दुर्बल-दलित-अवनमित हूँ मैं ! कर सकूँगा क्या प्रचंड पशुत्व से संग्राम ? रे कवि, एक बार सम्हाल निज प्रलयंकरी वीणा, जगा दे वह अमर संगीत जिससे मूक मूढ़ अबोध जन-संघट्ट केवल जान ले, कि सिर्फ परपीड़न जगत का पाप है, पर पाप उससे भी बड़ा है सहन करना पाप होना दलित पर के हाथ रहना दूसरों की दया पर शोषित बना रहना । अरे इन खुफ्त गाने खाक को तू क्या समझता है ? कि ये जड़ खोद सकते हैं हिमालय की, पटा सकते जलधि को, और धसका भी सके ब्रह्मांड ! इनकी अस्थि से ही बन सका रे देवता का वज्र, इनके भेद से ही शक्तिमय भगवान ने थी भेदिनी विरची कि इनकी नाड़ियों में है प्रलय तूफान ! कवि ! तू भाग मत जा इस अनर्गल वंचना के लोक से इसको बना दे कल्प- लोक उदार । [जनवाणी, जून, 1947]

मजदूर का गान

आज जीवन भार दैया । चारुचंद मरीचि चुंबित नवल जल की धार दैया तरल तुंग तरंग लंबित में पड़ी मझधार दैया, दुःख ही आहार दैया । अंब, धनिक कदंब श्रित परिरंभरभस हुलास दैया रत्नखचित विदूर्परचित निचित महार्घ विलास दैया, प्रणय का मधुमास दैया मैं हताश निराश दैया । कंठ कुंठाकुलित गृह वैकुंठ लुंठनशोभ दैया क्षुब्ध मानसलहरि विलुलित अधरलांमित लोम दैया, विजय का यह क्षोभ दैया हृदय मेरा स्वेभ दैया । अघदमित विदग्ध विरहित हृदय का अनुशोच दैया पोचमन संकोच परवश दे नयन मुक्तोच दैया, है रहा कुछ घोंच दैया हाय रे मैं चोंच दैया । - अभिनव तुकाराम [द्विवेदी जी ने कुछ कविताएँ 'अभिनव तुकाराम' के नाम से भी लिखी थीं ।]

ब्रजभाषा की कविता

तज-नीरद साँवरो..

तज-नीरद साँवरो श्याम लला सजनी जिन भूल बबूलनि में मनमोहन पै मन वारे नहीं रहे रात विवाद को मूलनि में । न लखे युग मूरति वाग-तड़ागनि कुंज लताद्रुम फूलनि में तिन झूले हा दुख झूलनि में रगेरे विगरे चख धूलनि में । जिन कै आँखियाँ व्रज सुंदरि ते, सुमोहिनी मूरति फीकी लगे जिनकी स्तुति को कल केलिकला तेरो स्याम लला की न नीकी लगे । जिनकी वा वसाइन लोहे की लेखनी में न विधा विरही की लगे परो पौप लला तिनकी अँखियाँ रजनेकु तेरी पन ही की लगे । जिन गोपी-गुपाल की रासकला में, विलास की वास बताया करें जिन बाँसुरी के सुर में न कहूँ, रस की सरिता लख पाया करें । जिन राधिकारानी की वानी सलोनी में गंदगी-गान दिखाया करें नित राधिका मोहन नेह चुए तिन की अँखियाँ भरु आया करें । बिन बूझे विचारे विसासिन लौ जो जबान को वान चलाया करें । ठकुराइनि रावरी प्रीति प्रतीति में जोजन धूरि उड़ाया करें । जिन की कटुभाषिनी नाशिनी जीह तिहारी अकीरति गाया करें । छवि मोहन की रस चासनी में तिनकी रसना चचपाया करें !! जिन साँवरे मीत की प्रीति न जोए, न रोए अहीरिन के विरहा जिन भूले नहीं सु, अहीर की छोहरियान की नेह-कला पै हहा । मनमोहन ऐसे अभागनि को अनुराग-तड़ारा में दीजो बहा । जिन रावरे साँवरे लाल को नेह में थोथी विलासिता पावते हैं जिन प्रेम भिखारिन की कविता को चुड़ैल की चेली बतावते हैं । जिन वा व्रज वामी सुधारस सानी में गाली की नाली बहावते हैं। व्रज सुंदरि रावरे पाँय परौं, कहो कैसे कृपा- कन पावते हैं ? ए व्रज चंद निहोरो करो रस हीननि को सरसाओ न जी फिरते वै विलासिता को भसमा इन पै करुना बरसाओ न जी । व्रजरानी की वानी विभारते ए टुक प्रेम-व्यथा परसाओ न जी पर हाहा विचारे गरीबनि कौ तरसाओ न जी, तरसाओ न जी । [ ब्रजभाषा में हस्तलिखित उपर्युक्त कविता में बहुत अधिक काट-छाँट की गई है। पेज फट गए हैं। कहीं-कहीं तो पढ़ने में कठिनाई हो रही है। जितना संभव हो सका है, उसके सही रूप को यथासंभव उतारने का प्रयास किया गया है ।]

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