राही चल : अनिल मिश्र प्रहरी
Rahi Chal : Anil Mishra Prahari


जीवन की कटुता को पल में हरने वाले राम।

टूटा मन है हारा - हारा भवसागर का नहीं किनारा, जग की आँधी में बल इतना जोर लगाऊँ अब मैं कितना? अनजानी राहों में मंजिल धरने वाले राम जीवन की कटुता को पल में हरने वाले राम। जग वैरी सर कहाँ छुपाऊँ स्नेह जगत् का कैसे पाऊँ? शोणित की धारा दिख जाती बूझ रही जीवन की बाती। हारे हुए पथिक में फिर दम भरने वाले राम जीवन की कटुता को पल में हरने वाले राम। जीवन से वैराग्य नहीं दे अश्क भरे वो भाग्य नहीं दे, सुख-दुख में सम हमें बनाना कृपा देव अपनी बरसाना। अँधियारी रातों को जगमग करने वाले राम जीवन की कटुता को पल में हरने वाले राम। तन में दाता जान नहीं है अज्ञानी हम, ज्ञान नहीं है, मूढ़ मनुज हम, राही भटके जीवन में झटके-ही-झटके। पापी, दुष्ट, खलों से डटकर लड़ने वाले राम जीवन की कटुता को पल में हरने वाले राम।

राही तू चल।

पंथ नहीं आसान तुम्हारा गहरी सरिता, तंग किनारा, अम्बर से बरसेंगे ओले रवि पथ डाले दहके शोले, अँधियारों से लड़ते जाना पर्वत से खुलकर टकराना। कहता जीवन का हर -एक - पल। राही तू चल। कंकड़, पत्थर, रोड़े देगा जग काँटे न थोड़े देगा, मोड़ मिलेगा नया- पुराना राहों में मत तू भरमाना, लक्ष्य न धूमिल होने पाये दुर्दिन के जब लिपटें साये। संचित करके रखना है बल। राही तू चल। शाम हुई तो सो जा पथ में तू नहीं नृप जो जाये रथ में, बाधाओं के अम्बारों पर निडर चलो असि की धारों पर, तीव्र प्रभंजन पर सवार तू विघ्न विकट पर कर प्रहार तू। हर विपदा का निकलेगा हल। राही तू चल। मस्ती का आलम जग देखे रुके न पग जो खाये धोखे, गिरकर भी उठ जाना होगा मंजिल तुझको पाना होगा, तन अपना पाषाण बना ले चलकर पथ आसान बना ले। बढ़ता जा दिन जाएगा ढ़ल। राही तू चल।

अब तो मेघ करो बौछार।

झुलस गये तृण-पात, विकल जन नदी, सरोवर, तप्त निखिल वन, व्यग्र कृषक- मन नित्य पुकारे बरस मेघ, हर तम, अंगारे। हरित, तृप्त कर दे संसार अब तो मेघ करो बौछार। ह्रदय - ह्रदय में व्याप्त सघन - डर तृषित, क्षुधित जग आकुल, जर्जर, विस्फारित दृग गगन निहारे सलिल अमित ले मेघा आ रे। सर, सरिता भर और कछार अब तो मेघ करो बौछार। जलद, मरुत संग जल भर लाना नीर अपरिमित फिर बरसाना, हर दिश मंजुल, तृप्त धरा हो कुसुम सुरस मकरंद भरा हो। धरती सुख का हो आगार अब तो मेघ करो बौछार।

आशाओं के दीप जलाना।

घोर अँधेरा घिरे डगर में बाधित पथ हो गली-नगर में, सूरज थका- थका दिखता हो भाग्य धरा का तम लिखता हो। अम्बर पुलकित मारे ताना आशाओं के दीप जलाना। जीवन देगा प्रश्न अनोखे देगा तुझको अगणित धोखे, तोड़ेगा निर्दय वह पर भी चैन न लेने दे पलभर भी। मुश्किल में घर और घराना आशाओं के दीप जलाना। बरबस तेरा सपना टूटे प्यार भरा घर अपना छूटे, आसमान से बरसें शोले साथी ही मधु में विष घोले। सुख करता नित नया बहाना आशाओं के दीप जलाना।

दीप बुझा मत तम गहरा है।

बिछी निशा की काली चादर मरुथल, सरिता, पर्वत, सागर, शशि पथ में चलकर भरमाया लगता अम्बर तम बरसाया। दिशा- दिशा उसका पहरा है दीप बुझा मत तम गहरा है। नभ दीपित अगणित तारों से धरा व्यथित तम के वारों से, उषा न जाने क्यों सोई है या अनन्त नभ में खोई है। अरुण बना बैठा बहरा है दीप बुझा मत तम गहरा है। दीपशिखा अब भी जलने दे थोड़ी याम और ढलने दे, रात जमी गहरी, घनघोर रोके कब रुकता है भोर। तिमिर घना कबतक ठहरा है? दीप बुझा मत तम गहरा है।

हिम्मत वालों की हार नहीं।

चलने वाला ही तो गिरता पग-पग बाधाओं से घिरता, मंजिल लेकिन धूमिल तबतक विघ्नों पर जबतक वार नहीं। हिम्मत वालों की हार नहीं। राहों में तबतक अँधियारा ओझल आँखों से उजियारा, जबतक छिटकी यह चिनगारी बनती दाहक अंगार नहीं। हिम्मत वालों की हार नहीं। पर्वत से सरिता जब चलती ऊपर उठती, नीचे गिरती, पर दुर्लभ सागर से मिलना जबतक उच्छल जलधार रहीं। हिम्मत वालों की हार नहीं।

दीन-हीन की बस्ती से चल पीर चुराने।

मैं दुखियों की कलम दर्द है मेरी भाषा, अश्रु हमारे शब्द करुण मेरी परिभाषा। मैं जन की पीड़ा को ह्रदय लगाता हूँ उनके स्वर में गीत व्यथा का गाता हूँ, उजड़े दिल के तारों पर लय नव्य सजाने दीन-हीन की बस्ती से चल पीर चुराने। सजल नयन के अश्रु सहज ही चुन लेता, कहें या न वे कहें रुदन मैं सुन लेता। परछाई बन उनका साथ निभाता हूँ उनके अश्क बहें, मैं बह-बह जाता हूँ, पहचाने कुछ दर्द, कई अब भी अनजाने दीन-हीन की बस्ती से चल पीर चुराने। मजबूरी कैसी भी उनकी मैं हर लूँ, ले उनका परिताप मगन उर भी भर लूँ। इसीलिए व्रण उनका मैं सहलाता हूँ बन पावस-सीकर मैं प्यास बुझता हूँ, चलो, समय के मारों को मिल गले लगाने दीन-हीन की बस्ती से चल पीर चुराने।

फूल हो या शूल तुझको चूमना है।

आँधियों के वेग को सहना नहीं आसान है, वक्त के निष्ठुर चरण से काँपते तक प्राण हैं। जिन्दगी हरदम यहाँ ओढ़े हुए भी है कफन, क्या पता कब मौत आ जाये तुझे करने दफन। जिन्दगी या मौत तुझको झूमना है, फूल हो या शूल तुझको चूमना है। हर दिशा में ज्वाल है उड़ती हुईं चिनगारियाँ, शाख पर अंगार जिनको पालतीं खुद क्यारियाँ। इन दरख्तों पर न नीले फूल के अम्बार हैं, पात तक झर जाएँगे ऐसे बने आसार हैं। इन सुलगती वादियों में घूमना है फूल हो या शूल तुझको चूमना है। लग रहा है बिजलियों को छू धरा विश्राम लेगी, जिन्दगी को भूल शायद मौत के कर थाम लेगी। ढह रहे पर्वत- शिखर उद्विग्न थल है डोलता, अग्नि के स्वर में ढला ज्वालामुखी नित बोलता। और पथ में खड्ग जो लोहू सना है फूल हो या शूल तुझको चूमना है।

चलो भगायें दूर अँधेरा।

नभ में सूरज आने वाला तम घनघोर मिटाने वाला, धीरे- धीरे गयी रात अब तारों की न रही पाँत अब। जीवन हर्षित देख सवेरा चलो भगायें दूर अँधेरा। ह्रदय बीच अज्ञान नहीं हो सद्गुण का अवसान नहीं हो, दूर करें हम घोर निराशा बूँद मिले जब चातक प्यासा। पावस का भू बने बसेरा चलो भगायें दूर अँधेरा। तिमिर बीच एक दीप जलाकर दीन-हीन का और भलाकर, शुभ्र - चाँदनी की लहरी हो ज्योति-सरित चंचल, गहरी हो। मिटे धरा से धूम घनेरा चलो भगायें दूर अँधेरा।

यह सागर कितना प्यासा है!

जिसको जितना मिलता रत्न और अधिक का करता यत्न, अगणित नद पीकर सागर की बुझती नहीं पिपासा है। यह सागर कितना प्यासा है! मिला न जग को अबतक तोष विभव, रत्न हो या मणिकोष, बाहर की सुषमा अनन्त पर अंदर अमित हताशा है। यह सागर कितना प्यासा है! शमित न होता उर का ज्वार अंतर्मन में तृषा अपार, उड़ने को ले पंख गगन में खड़ी सदा अभिलाषा है। यह सागर कितना प्यासा है!

क्या रोना बीती बातों पर।

तज बीती बातों की गठरी कल की पीड़ा अब भी ठहरी, विगत क्लेश, तम अब भी पूजे नयन तुम्हारे रहते सूजे। मत रो बीते आघातों पर क्या रोना बीती बातों पर। सोच -सोच मन भर जाएगा खुशियों से भी डर जाएगा, सुखमय तेरा आज न होगा मधुमय जीवन-साज न होगा। कल की आँधी, बरसातों पर क्या रोना बीती बातों पर। आने वाला कल प्यारा हो पथ में बिखरी उजियारा हो, दुखदायी पल दफनाना है खुशियों को दर पर आना है। अँधियारी, काली रातों पर क्या रोना बीती बातों पर।

मानना कभी न हार।

वक्त राह रोक दे या असीम शोक दे, रुद्ध जो बहे पवन शत्रु दे असह जलन। पंथ दे कलुष अपार मानना कभी न हार। आँधियों में पर गया नीड़ भी बिखर गया, बाग बदहवास हो कली- कली उदास हो। विघ्न हो खड़ा कतार मानना कभी न हार। क्या हुआ गिरे अगर? हौसला रहे, जिगर, नवीन फिर प्रयास हो बढ़ो, नहीं हताश हो। गिरो-उठो हजार - बार मानना कभी न हार।

रवि किरणों को पुनः बिखेरा।

उठे लोग अब नींद त्यागकर कर्मनिष्ठ जग हुआ जागकर, चूँ- चूँकर कुछ गाने गाये नीड़ छोड़ खग पर फैलाये। धरती से अब दूर अँधेरा रवि किरणों को पुनः बिखेरा। स्वर्णिम ज्योति रची कण-कण में मादकता अनुपम मधुवन में, कलियों ने घूँघट - पट खोला मधुप बावरे का मन डोला। अलि- अवलि का बाग बसेरा रवि किरणों को पुनः बिखेरा। दूर करे तम भाग्य - विधाता ले किरणें वह दर -दर जाता, दरवाजे, घर बन्द न हों अब गति जीवन की मन्द न हो अब। शुभ्र - ज्योत्सना का यह घेरा रवि किरणों को पुनः बिखेरा।

पाया, जिसने जो है बोया।

घृणा, क्लेश का बाग लगाकर धवल शील पर दाग लगाकर, द्वेष पालकर नित्य ह्रदय में जीता- मरता सदा अनय में। देख तिक्त फल क्यों अब रोया? पाया, जिसने जो है बोया। संस्कार से वंचित पीढ़ी गह्वर अतल पहुँचती सीढ़ी, लोकलाज का मिटता पहरा व्यसन जख्म देता अति गहरा। सदियों का संचित धन खोया पाया, जिसने जो है बोया। कदम किसी का जब भी बहका घर, समाज है तब-तब दहका, समय न आता लौट द्वार पर रोता नर उसके प्रहार पर। खोया वही, रहा जो सोया पाया, जिसने जो है बोया।

तुझे मुस्कराना होगा।

सारे ख्वाब यहाँ पूरे नहीं होते पर सभी आधे-अधूरे नहीं होते, आशा के दीप जलाये रख अँधेरों को दूर भगाये रख, उजाले का इंतजार तो कर, दुर्दिन पर प्रहार तो कर। होठों पर गीत सजाना होगा तुझे मुस्कराना होगा। तूफान में किनारे टूटने न दे हाथों से साहिल छूटने न दे, मत डर दरिया की रवानी से आतप, अंधड़ या गहरे पानी से, बुलबुलों की औकात कबतक सघन, मनहूस रात कबतक! विकल मन को समझाना होगा तुझे मुस्कराना होगा। सुख-दुख का सिलसिला चलेगा रात के बाद दिन भी ढलेगा, खुशियों के सदा नहीं लगते मेले राह दुर्गम, बढ़ते भी झमेले, अपने कदमों को डगमगाने न दे उम्मीद की कोपलें मुरझाने न दे। हताशा के गर्त को हटाना होगा तुझे मुस्कराना होगा।

अब तो जीने भी दे यार।

डाली - डाली पत्ता तोड़ा कलियों को आहतकर छोड़ा, बागों की लूटी हरियाली क्रूर, अभय लगता वनमाली। करता जाता अत्याचार अब तो जीने भी दे यार। तरुवर जिसको दिया सहारा आया वही सम्भाले आरा, भूला फूलों की सित माला जिससे अबतक था तन पाला। किया वही है पहला वार अब तो जीने भी दे यार। दुनिया का यह रंग पुराना अपना ही होता बेगाना, वह पानी जो ठहरा होगा तल भी उसका गहरा होगा। मुश्किल पाना इससे पार अब तो जीने भी दे यार।

चिंता में मत तू जल जाना।

चलता हरदम अंगारों पर शोकाकुल, भय- अम्बारों पर, रुज, पीड़ा के भँवर बीच तू रथ जीवन का रहा खींच तू। खलता वय का यूँ ढल जाना। चिंता में मत तू जल जाना। अनजानी विपदा में रत है कितनी बुरी, भयानक लत है, चेहरे पर रखता तनाव तू मार कुल्हाड़ी रहा पाँव तू। सोच-सोच तन का गल जाना चिंता में मत तू जल जाना। जीवन जो यदि दुख का सागर सुख भी देता नटवर - नागर, गिरे हुए को वही उठाता दामन में मोती बरसाता। सूखे तरु का भी फल जाना चिंता में मत तू जल जाना।

मंजिल तेरी राही तू चल।

खा-खा ठोकर राहों पर चल बाधाओं से राही मत टल, देंगे मंजिल पग के छाले तिमिर बीच प्रस्फुटित उजाले। विघ्न सकल खुद ही जाते जल मंजिल तेरी राही तू चल। कहना नहीं, न होगा काम मिहनत का होता अंजाम, जहाँ हारता घड़ी - घड़ी है आगे उसके जीत खड़ी है। कदम बढ़ाओ निकलेगा हल मंजिल तेरी राही तू चल। खाक बनेंगे दुख - अंगार सुख के मोती के अम्बार, बढ़ने का उद्देश्य एक हो और इरादा स्वच्छ, नेक हो। यत्न न होगा तेरा निष्फल मंजिल तेरी राही तू चल।

सोच में ही आदमी की जीत है।

सोच तेरी जीत साथी, सोच तेरी हार है सोच ही करती भँवर के पार है, जिन्दगी तेरी समर, है जीतना अनगिनत बाधा रहे या तम घना। हारने की सोच से तू भीत है सोच में ही आदमी की जीत है। क्या पता किस राह पर अवसर मिले किस दिशा में मंजिलें सत्वर मिलें, बंदकर रखना नहीं निज खिड़कियाँ, दर हार भी आती कभी सौभाग्य लेकर। दुर्भाग्य में सुन जो छुपा संगीत है सोच में ही आदमी की जीत है। सोच ले जाती अमीकर के पटल हार जाता सिन्धु जो गहरा, अतल, सोच- से पर्वत - शिखर झुकता रहा आँधियों का वेग तक रुकता रहा। फिर नया बनता विजय का गीत है सोच में ही आदमी की जीत है।

हार सहज स्वीकार नहीं है।

यह कैसी है घिरी निराशा ? भटक रहा तू दर-दर प्यासा, बाधा अडिग खड़ी पथ होती सागर के तल मिलता मोती। जीवन मृदु - रसधार नहीं है हार सहज स्वीकार नहीं है। विविध रंग में जीवन ढलता शान्त कहीं तो कहीं उबलता, है विचित्र जीवन की धारा तम आता लेकर उजियारा। पथिक गिरा हर बार नहीं है हार सहज स्वीकार नहीं है। गिरने को तू हार न मानो गिरे बिना उद्धार न मानो, जीवन गिरके उठ जाना है गिर -गिरके हमने जाना है। बिन जीते जयकार नहीं है हार सहज स्वीकार नहीं है।

पहुँचे बहुत दूर हम चलके ।

भव के पार कई पहचाने जो नूतन थे हुए पुराने, जिन मोड़ों से था रिश्ता अब लगते वही दूर अनजाने। अगणित दीप बुझे हैं जलके पहुँचे बहुत दूर हम चलके । बीते दिन के धुंधले चेहरे रात जगाते हैं भिनसहरे, यादों के सपने लहराते जैसे होते सागर गहरे। भावविभोर करें क्षण कल के पहुँचे बहुत दूर हम चलके । वो गलियाँ, वह राह निराली स्नेह - सुधा बरसाने वाली, अपनापन से भरा हुआ वह आँगन कितना खाली - खाली। कहाँ गये वो दिन अब ढलके पहुँचे बहुत दूर हम चलके ।

जाग-जाग री सुप्त भाग्य की रेखा।

सोई – सी तकदीर जाग अब छेड़ मृदुल नवगीत- राग अब हारे में भर आस और दम कर न उन्हें अनदेखा। जाग-जाग री सुप्त भाग्य की रेखा। यत्न सभी करके देखा है बनती नहीं भाग्य - रेखा है, भाग्यहीन नर के माथे रच विभव, हर्ष की लेखा। जाग-जाग री सुप्त भाग्य की रेखा। सुख-सुविधा से जो वंचित नर उनकी भी तू करुण –व्यथा हर, दीन -हीन की पर्णकुटी में भी भर दे विधुलेखा। जाग-जाग री सुप्त भाग्य की रेखा।

सपना तेरा टूटा कोई बात नहीं।

भावों की नम सतह स्वप्न जो आने वाले लाली भर, अंतर अनुरंजित करने वाले, मन बहलाते, आँखों में कर नृत्य जगाते दिल के तारों को बरबस झंकृत कर जाते। सपना पर आता लेकर सौगात नहीं सपना तेरा टूटा कोई बात नहीं। सपना तो उड़ते मन की बस छाया है चाहा था कुछ जिसे नहीं वह पाया है, कुछ सपने अपने बनकर कल लूटेंगे स्वप्न कई सजकर पलकों पर, टूटेंगे। टूटे तारों पर रोती है रात नहीं सपना तेरा टूटा कोई बात नहीं।

सपने क्या होते आँखों से आँसू बन बह जाने को?

जो देखा मैंने सपना था मेरा भी कोई अपना था, स्वप्न हमारा टूटा जब था सुमन-हार पहनाने को। सपने क्या होते आँखों से आँसू बन बह जाने को? हरियाले उपवन, बागीचा फूलों का रंगीन गलीचा, पर मेरे हिस्से ही आया काँटे ही उपजाने को। सपने क्या होते आँखों से आँसू बन बह जाने को? सागर - सा कुछ लहराता है जब-जब सपना गहराता है, सपनों का यह रंगमहल क्या होता है ढह जाने को? सपने क्या होते आँखों से आँसू बन बह जाने को?

सपना तेरा कभी न टूटे।

सपने हों धधकी ज्वाला - सी या दृग में बहकी हाला - सी, इच्छाएँ भी प्रबल ह्रदय में और कदम भी बढ़ता लय में। बियाबान में लक्ष्य न छूटे सपना तेरा कभी न टूटे। दुनिया में है वह नर छाया भय गिरने का जो न खाया, ढूँढ, नहीं कम जग में अवसर ले जा मोती मुट्ठी भर - भर। कभी निराशा तुझे न लूटे सपना तेरा कभी न टूटे। हार - जीत से जीवन बनता जीवन में लय, तभी सघनता, सुख - दुख का है चक्र अनोखा दोनों - ही विधिना के लेखा। भाग्य न बनकर तेरा फूटे सपना तेरा कभी न टूटे।

वक्त सुन कुछ बोलता है।

हर कदम निर्भय बढ़ाना दृष्टि मंजिल पर गड़ाना, राह की उलझन अमित से मन विकल क्यों डोलता है? वक्त सुन कुछ बोलता है। बीच नद तूफान आये शत्रु असि कर तान आये, विघ्न आ पथ में मनुज के धैर्य- बल को तौलता है। वक्त सुन कुछ बोलता है। छुट गया जो भी रुका है हार विपदा से झुका है, यह धरा उसकी नहीं जो अश्रु में तन घोलता है। वक्त सुन कुछ बोलता है। शान्त अम्बुधि का किनारा शान्त, नीरव नीर - धारा, ज्वार की बेचैनियों में भी न सागर खौलता है। वक्त सुन कुछ बोलता है।

परिवर्तन से न घबराना।

शहर- ग्राम्य जीवन में आया उथल-पुथल का निष्ठुर साया, छीना- झपटी, लूट, यंत्रणा और किसी का निलय जलाना। परिवर्तन से न घबराना। कुछ हाथों में रक्त सना भी आशंका, डर, द्वन्द्व घना भी, समरसता, सद्भाव, दया का हुआ तिरोहित मृदुल तराना। परिवर्तन से न घबराना। कहते जन- कल्याण करेंगे भय, शोषण से त्राण करेंगे, दीन-हीन का भाग्य न बदला पर रहबर का बढ़ा खजाना। परिवर्तन से न घबराना।

भाग्य आज तू कुछ तो बोल।

दूर देश लेकर आये हो स्वप्न दिखा शत भरमाये हो, देने ही थे कंटक-पथ तो आशाओं का क्या फिर मोल? भाग्य आज तू कुछ तो बोल। दिखलाया सुख, कंचन-डेरा अँधियारों ने पर आ घेरा, धधकाके सपने रज-कण से सत्व दिया तू मेरा तोल। भाग्य आज तू कुछ तो बोल। वादा था तू प्यास हरेगा जब- जब हारूँ आस भरेगा, भटकाके तपती राहों पर मंजिल का दर सका न खोल। भाग्य आज तू कुछ तो बोल। साँसों में महकाया चंदन पर ललाट लिख डाला क्रंदन, कथनी-करनी के अंतर की खुल जाएगी एक दिन पोल। भाग्य आज तू कुछ तो बोल।

सीख लिया है मैंने जीना।

उसने जब भी वार किया है चुपके - से हर बार किया है, छोटी - सी इक चिनगारी को फूँक - फूँक अंगार किया है। जग के पर इस घोर हलाहल को जाना हँस कैसे पीना। सीख लिया है मैंने जीना। दुनिया का तब ज्ञान नहीं था छल, प्रपंच का भान नहीं था, रखेंगे मस्तक पर मेरे क्रूर कदम संज्ञान नहीं था। उनकी निष्ठुरता से छलनी बार - बार है मेरा सीना। सीख लिया है मैंने जीना। अब कोई भी गहन पीर दे या हिय को सौ - बार चीर दे, जीवन को या तार - तार कर वो अजस्र भर नयन नीर दे। क्रूर जगत् ने निर्दयता से पूछ नहीं है क्या-क्या छीना! सीख लिया है मैंने जीना।

अतृप्त - तृष्णा।

यह माया या अतृप्त तृष्णा या सचमुच की प्यास है- कभी दरिया की ख्वाहिश कभी समन्दर की तलाश है। यदि दरिया मिल भी जाए तो कितना पी लोगे इसतरह घुट- घुटके क्या जिन्दगी जी लोगे? हर पल भटकने से भी खुशी पास नहीं आती तरसती हुई जिन्दगी कभी रास नहीं आती। सबकुछ पाकर भी तू कितना उदास है, कभी दरिया की ख्वाहिश कभी समन्दर की तलाश है। रेगिस्तान के उद्भ्रान्त मृग की कहानी सामने है कौन आता ही यहाँ भटके का हाथ थामने है, जो पास, उसी से दग्ध ह्रदय सिक्त कर तृष्णा के अनन्त प्रलोभन से खुद को रिक्त कर। जिन्दगी कभी तृप्ति नहीं तृप्त होने की एक आस है, कभी दरिया की ख्वाहिश कभी समन्दर की तलाश है।

संग हमारे चलने का तू वादा कर।

काँटे चुन दामन में मृदु - रस मैं भर दूँ, हरित, सान्द्र उपवन-सा सुरभित मन कर दूँ। जहाँ मधुप गुनगुन की तान सुनाता है और पुष्प -दल को हर्षित सहलाता है, तू धरती का नूर, निरखते अपलक नभचर संग हमारे चलने का तू वादा कर। कर दूँ पथ आच्छादित कोमल पंखुड़ियों से, पग- पग करूँ सँवार मुदित, नव -वल्लरियों से। जहाँ कोकिला मधुमय कूक सजाती है डाली- डाली फुदक सुधा बरसाती है, अपने अंचल की छाया दे - दे मेरे सर संग हमारे चलने का तू वादा कर। तू मेरी सांसों की माला का सुवास है, मेरे प्राणों की तू अनबुझ दिव्य प्यास है। मेरा मन - चातक प्यासा रह जाता है तेरा जब लावण्य जलद बन छाता है, मेरे दग्ध ह्रदय की तपन अरी तू हर संग हमारे चलने का तू वादा कर।

हौसला।

हौसला टूटे न टूटी जो अगर पतवार है, कश्तियाँ होतीं उन्हीं की मौज के उस पार है। जो अगर हिम्मत ह्रदय में रोक ले तूफान को, लड़खड़ाते भी मगर होती न उनकी हार है। राह की गर्मी न देती है तपन, बेचैनियाँ, मंजिलों की चाह देती थपकियाँ सौ - बार है। हो विकट चाहे सफर या शूल दे धरती- गगन, हौसला ही जिन्दगी में जीत का आधार है।

बच- बचके चल मेरे यार।

यहाँ जिसे अपना जताओगे ठोकर भी उसी से खाओगे, मुस्कुराता, मासूम चेहरा छलेगा यह विष-बेल जहर ही फलेगा, बन्द आँखों से मत कर सफर अपना बनाके तुझे देंगे जहर। पैरों के नीचे सुलगता अंगार बच- बचके चल मेरे यार। ये आशियाँ में आग तक लगा देंगे हँसकर ही तुझे दगा देंगे, मत रोना किसी के सामने कोई नहीं आता गिरते को थामने, दुनिया की रफ्तार बड़ी तेज है हर तरफ बिछी काँटों की सेज है। राहों में रोड़ों के फैले अम्बार बच- बचके चल मेरे यार। ये बीच मझधार तुझे छोड़ देंगे अपने ही विश्वास तेरा तोड़ देंगे, हर मोड़ पर हैं धोखे के बाजार सजे तुम लुटो और उनके हैं मजे, उन्हीं के कानून और लगे पहरे भी दफ्तर, अदालत, सदन सब बहरे भी। पथ बीच दिखती है तीखी कटार बच - बचके चल मेरे यार।

कैसे - कैसे शौक पाले हैं।

एक-एककर चरागों को बुझाते रहे तना और जड़ों को हिलाते रहे, पेड़ों का सूख जाना तय था अँधेरा घना और अभय था। जुगनुओं में ढूँढते उजाले हैं कैसे - कैसे शौक पाले हैं। वैर ने आँगन को टुकड़ों में बाँट डाला प्रेम की घनी अमराई को काट डाला, सूखा, दहकता नील गगन लगता सुकून दूर, सहमा अमन लगता। दिलों के दर पर लगे ताले हैं कैसे - कैसे शौक पाले हैं। इन आँखों में अब सपने नहीं आते पूछने हाल कभी अपने नहीं आते, रिश्ते कैद हैं दर व दीवारों में वह सहजता नहीं प्रेम की फुहारों में। खिड़कियों पर सजाये जाले हैं कैसे - कैसे शौक पाले हैं। कैसे जोडूँ टूटे रिश्तों के तार को घर की छत और गिरती दीवार को, मस्तिष्क हावी और ह्रदय हुआ मौन है कंधे पर हाथ रख पूछता ही कौन है ! ह्रदय के टीसते छाले हैं कैसे - कैसे शौक पाले हैं।

जीवन -जाम।

चलते-चलते आखिर वो मुकाम आया हाथों में छलकता हुआ जाम आया, जिन्दगी एक नशा, मुझे पी लेने दे कल का क्या पता आज जी लेने दे। दो - घूँट पीकर पग लड़खड़ाने भी दे सोयी-सी जिन्दगी को जगाने भी दे, चुपके-से मौत आएगी तेरे जाम पीने को तू तरसेगा खुद की जिन्दगी जीने को। अब तो शाम आयी, पीकर बहकने तो दे बीमार दिल को फिर से धड़कने तो दे, आओ, पुनः मयखाने में हम झूमने चले हैं सरकती हुई जिन्दगी को चूमने चले हैं।

नहीं माँगता दाता कभी अमरता।

दीन -हीन की भूख मिटाना खाली झोली में भर दाना, तृषित कंठ की मिटे प्यास भी नई किरण की जगे आस भी। दूर करो नर की कुंठा, बर्बरता नहीं माँगता दाता कभी अमरता। दे हिम्मत जो पथ पर हारा बेकसूर को मिले न कारा, धरती से निर्मूल अनय हो निष्ठुरता का पल-पल क्षय हो। बूँद तुम्हीं हो, हहराती भी सरिता नहीं माँगता दाता कभी अमरता। जिन आँखों में अश्रु भरे हैं विकल कफन की कोर धरे हैं, धैर्य भरो तुम उनके उर में बल, साहस निर्बल के सुर में। जीवन में तुम ही तो दम है भरता नहीं माँगता दाता कभी अमरता।

कहीं दूर लेकर चल यारा।

ले चल मुझको दूर गाँव में बट, पीपल की घनी छाँव में, बागों में नित कोयल कूके शीतल पवन बहे तन छूके। सरिता की हो निर्मल - धारा कहीं दूर लेकर चल यारा। जहाँ धरा की सुषमा न्यारी फूल खिले हों क्यारी - क्यारी, मस्ती में हों भ्रमर झूमते कलियों को हो मग्न चूमते। मंजर लगता हो अति प्यारा कहीं दूर लेकर चल यारा। रजनी का हो शीतल अंचल शबनम की कुछ बूँदें चंचल, शुभ्र -चाँदनी का डेरा हो हर दिश सौरभ का घेरा हो। बरसाता अमृत ध्रुव - तारा कहीं दूर लेकर चल यारा।

मुझको लेकर दूर वहीं चल।

जहाँ घृणा का जोर नहीं हो अंतर्मन में चोर नहीं हो, नहीं देखकर हो जग जलता रवि सुनीति का जहाँ न ढलता। जहाँ ह्रदय में भरा न हो छल मुझको लेकर दूर वहीं चल। जहाँ खलों की खैर नहीं हो पल-पल पलता वैर नहीं हो, हो न द्वेष की चिनगारी भी जगे शक्ति जग की हारी भी। जहाँ गिरे को मिलता संबल मुझको लेकर दूर वहीं चल। जहाँ प्रेम की पुरवाई हो करुण - घटा अम्बर छाई हो, दया - वृष्टि से प्लावित हों जन स्नेह, सुमंगल ही वसुधा -धन। जहाँ पाप, अपकर्म गये ढल मुझको लेकर दूर वहीं चल।

जा रहा हूँ अनवरत किस ओर मैं?

ले चली यह किस दिशा को राह है पथ दिया कब मंजिलों की थाह है, रास्ता अनजान, दुर्गम भी मगर कोशिशें करता अथक, पुरजोर मैं। जा रहा हूँ अनवरत किस ओर मैं? राह में गिरता मगर गिरकर चला मैं सहस्रों विघ्न में घिरकर चला, सब चले, यह कारवाँ बढ़ता रहा पर चला हूँ किसलिए चहुँओर मैं? जा रहा हूँ अनवरत किस ओर मैं? मौत के आगोश में बढ़ते रहे हम इसी को जिन्दगी कहते रहे, कामना उज्ज्वल प्रभा थी भोर की पर चला नित मृत्यु की धर पोर मैं। जा रहा हूँ अनवरत किस ओर मैं ?

संग हैं चले।

चाँद और चाँदनी की रात है टिमटिमाते तारों की बारात है, छेड़ती हवा मधुर है रागिनी भव्यता लिएनिशा सुहागिनी। सुवासिनी, हसीन आज रात न ढले। संग हैं चले। खिल चुके असंख्य पुष्प बाग में मग्न हैं भ्रमर नवीन राग में, दे रही दुआ लता भी झूमकर प्रेममयी डालियों को चूमकर। मेरे हृदय के तार से प्रिय तेरे मिले। संग हैं चले। साथ है तुझे, मुझे तेरा मिला स्नेह -सिक्त यह सफर नहीं गिला, उम्र भर मिलन प्रिय बना रहे डालियाँ हरित, हरा तना रहे। दूर तम घना डगर में दीप हैं जले। संग हैं चले।

यौवन मदिरा का प्याला।

मदमस्त जवानी है आई रग-रग में मस्ती है छाई, सतरंगी दुनिया रच-रचके मन फुल्ल फिरे मतवाला यौवन मदिरा का प्याला। सौरभ अनन्त भरके लाया महकी साँसें, बहकी काया, जैसे मिलिन्द हो मत्त फिरे पी मादक- रस की हाला। यौवन मदिरा का प्याला। प्रिय अतिशय लगती है यारी तन-मन यारों पर बलिहारी, निर्मुक्त, मदिर यह यौवन मधुमास सजाने वाला। यौवन मदिरा का प्याला। शत नूतन स्वप्न दिखाता बिन मेघ बरस है जाता, चढ़ता यह नशा रगों में, छलकी जैसे मधुशाला। यौवन मदिरा का प्याला।

आओ तुझको कोई गीत सुनाऊँ।

बिखरी साँसें जोड़ बना संगीत मेरा ले आँखों से अश्रु रचा है गीत मेरा, दर्द भरे कुछ क्षण फिर से सुलगाऊँ आओ तुझको कोई गीत सुनाऊँ। कुछ जीते, कुछ हारे पल भी जोड़े दे न सकी तकदीर उसे हम छोड़े, विचलित मन को चल थोड़ा समझाऊँ आओ तुझको कोई गीत सुनाऊँ। मुट्ठी से गिरती रेतों को देखा ऐसे ही बन मिटती जीवन - रेखा, जीवन की गुत्थी को चल सुलझाऊँ आओ तुझको कोई गीत सुनाऊँ। सुख तो है पर दुख का सागर गहरा सुख झिलमिल, दुख देता अविकल पहरा, सुख के रागों से तुझको भरमाऊँ आओ तुझको कोई गीत सुनाऊँ। अधरों पर अब वो मुस्कान नहीं है कंठों से फुटती मृदु - तान नहीं है, तू मेरा, मैं तेरा दिल बहलाऊँ आओ तुझको कोई गीत सुनाऊँ।

मंजिल तुझे बुलाये राही।

पग- पग घायल होते सपने वैर निभाते भी हैं अपने, वक्त निठुर को पड़ता सहना तिमिर सघन दुर्दिन का गहना। शत बाधा नित आये राही मंजिल तुझे बुलाये राही। मन - व्याकुल, पग तेरा रोके उग्र पवन दृग में रज झोंके, अरिजन बढ़ बारूद बिछायें हर दिश मेह कलुष के छायें। पग चुभ कील, जगाये राही मंजिल तुझे बुलाये राही। मंजिल का तू समझ इशारा- तम बिन व्यर्थ अगर उजियारा, गिरते - उठते तू चल जाना अँधियारों को है ढल जाना। पीर अगर सह जाये राही मंजिल तुझे बुलाये राही।

अब क्या होगा बार- बार पछताने से?

जब आये नव पर्ण, पुष्प इन डालों पर हरियाली बिखरी थी द्रुम मतवालों पर, कोयल के स्वर मधुर गूँजते इन बागों में सुधा - सरस बरसती वह अपने रागों में। माली तब रुक सका न चमन लुटाने से अब क्या होगा बार- बार पछताने से? अम्बर जब तोड़े खुद - ही कोई तारा या सरिता खुद रोक रही अपनी धारा, पवन चले पर खुद ही चल रुक जाता हो अपने घर में कोई आग लगाता हो। हासिल क्या होगा इनको समझाने से अब क्या होगा बार - बार पछताने से? तेरे जीवन में भी सब अवसर आये नाजुक इन डैनों में नूतन पर आये, सीख न पाया तूने नील गगन में उड़ना तूफानों में उड़ - उड़ दायें- बायें मुड़ना। लौट न आता अवसर अश्रु बहाने से अब क्या होगा बार - बार पछताने से?

मुश्किल है छुपाना गुनाहों को।

तेरे दामन पर लगा जो दाग है शहर से बस्ती तक लगी जो आग है, इन कुकृत्यों को छुपाना आसान नहीं लोग प्रबुद्ध हैं नादान नहीं। सहना आसान नहीं होता आहों को। मुश्किल है छुपाना गुनाहों को। निर्दयता से तूने नीड़ों को दबोचा था मासूम तक के पंखों को नोचा था, तिनके- तिनके बिखरे सब बदहवास थे कुछ लहूलुहान, कुछ मौत के पास थे। कैसे कुचलोगे इन गवाहों को? मुश्किल है छुपाना गुनाहों को। आज उन्हीं गुनाहों का बोझ ढोते हो वही काटते जो तुम बोते हो, दौलत- शोहरत सब पीछे छूट जाते रिश्तों के तार क्रमशः टूट जाते। धो नहीं पाओगे खून सनी राहों को। मुश्किल है छुपाना गुनाहों को।

मौत बस एक छाँव है।

सृष्टि एक जीवन्त हलचल चल रही अविराम पल -पल, हर तरफ, हरदम सृजन है या धरित्री या गगन है। अश्रु में क्यों गाँव है? मौत बस एक छाँव है। बीज की औकात देखो- पुष्प, डाली, पात देखो, सर्जना के रंग सारे - मृत्यु, जीवन, चंद्र, तारे। काँपता क्यों पाँव है? मौत बस एक छाँव है। मृत्यु है तो रूप नूतन चेतना पाती नया तन, वृक्ष झड़ते आस में नव दलों की प्यास में। डर डुबोता नाव है। मौत बस एक छाँव है।

मौत चलती संग मेरे।

अब नहीं वो आग मुझमें स्वर - मधुर, न राग मुझमें, और पतझड़- से बने हैं जिन्दगी के ढंग मेरे। मौत चलती संग मेरे। ज्योति दृग की मंद होती राह तम से बन्द होती, थक गए चल के चरण हैं काँपते सब अंग मेरे। मौत चलती संग मेरे। मैं छुपूँ या भाग जाऊँ नींद से जब जाग जाऊँ, देखता हूँ वह विहँसती और उड़ते रंग मेरे। मौत चलती संग मेरे। गीत तम के गा रहा हूँ खुद वहीं चल जा रहा हूँ, अब ये पंथी बेसहारा, हैं स्वजन भी तंग मेरे। मौत चलती संग मेरे।

देख, पथ पर काल आता।

हैं अनेकों रंग इसके रूप अगणित, अंग इसके, जलप्रलय, जलमग्न कर थल भी धधकता ज्वाल लाता। देख, पथ पर काल आता। है नहीं विश्वास इसका है न कोई खास इसका, बन कभी झंझा- झकोरे, ले कभी भूचाल आता। देख, पथ पर काल आता। है न करुणा- धार इसमें जिन्दगी है क्षार इसमें, प्राण हरने के लिए यह रूप धर विकराल आता। देख, पथ पर काल आता। मरघटों की ले उदासी है रुधिर की मौत प्यासी, ले कभी कर में कटारें, कभी घूँघट डाल आता। देख, पथ पर काल आता।

आज तुम हो दूर कितने।

इस जगत् से तोड़ नाते चल दिये सबको रुलाते, बन्द कर ली आँख सहसा, हुए हम मजबूर कितने। आज तुम हो दूर कितने। अश्रु में डूबा हुआ घर चैन विधिना ने लिया हर, छिन गया सर्वस्व पल में, हुए सपने चूर कितने। आज तुम हो दूर कितने। रह गये जग में अकेले भाग्य कैसा खेल खेले? विलग करने के अचानक फैसले थे क्रूर कितने। आज तुम हो दूर कितने। जिन्दगी वीरान लगती आज निकली जान लगती, दिल लगाने के लिए ये दर्द ही भरपूर कितने। आज तुम हो दूर कितने।

अन्तिम-यात्रा।

जिन्दगी तूने किनारा कर लिया मौत का चिर तम डगर में भर लिया, अज्ञ हम, निष्फल जतन करते रहे जिन्दगी की चाह में मरते रहे। हैं रुकी लडिया़ँ अचानक साँस की सज चुकी है खाट देखो बाँस की, फूल से आवृत होकर के चला रश्मियों से हीन हो सूरज ढला। है वृथा सब रत्न, कंचन - हार भी व्यर्थ कदमों में झुका संसार भी, काम न वैभव, किला, न मकान आता थामने सबको वही मसान आता। भस्म होता गात बनता छार है मृत्यु के कर जिन्दगी का तार है, जिन्दगी चलती हुई है एक छाया तन हमेशा मौत के ही काम आया।

सूरज आग लगा बरसाने।

हुआ दिवस रवि नभ पर आया रश्मि अपरिमित संग भर लाया, प्रखर किरण नभ से उड़ेल वह लगा सकल भू को तड़पाने। सूरज आग लगा बरसाने। नर- नारी, पशु, तरुवर व्याकुल व्यथित धरा, नभ अतिशय आकुल, सूखे ताल, तलैया सूखी पवन चला नित धूल उड़ाने। सूरज आग लगा बरसाने। झुलस गये चल नग्न पाँव हैं सुख असीम दे घनी छाँव है, दौड़ रहे मृग तृषित, विकल हो मृगतृष्णा आयी ललचाने। सूरज आग लगा बरसाने।

वृद्ध- जनों का कौन सहारा?

भूल स्वयं को, जिसने पाला दिया दुग्ध का भर-भर प्याला, तुझ पर कोई आँच न आये जाग-जाग खुद, तुझे सुलाये। वही आज है भूखा - हारा वृद्ध- जनों का कौन सहारा? तेरी शिक्षा को बेचा घर माँ भी खुश जेवर गिरवी धर, संतति बने बड़ा यह चाहत हो भविष्य न उसका आहत। तुमने उनको ही दुत्कारा वृद्ध- जनों का कौन सहारा? दे उनको ममता की चादर रख उर में श्रद्धा, दे आदर, कलुष, कलह की जड़ें हिला दो घर में रोटी उन्हें खिला दो। यही पुण्य जीवन का सारा वृद्ध- जनों का कौन सहारा?

बेरोजगार।

अश्रु भरे वह नैन लिए रह जाता। बिखरे बाल, घिसी दो चप्पल तपती राहों पर अविरत चल, जग के पहले ही वह जागे दौड़ - धूप दफ्तर के आगे। बेकारी का तीव्र दशन सह जाता। अश्रु भरे वह नैन लिए रह जाता। बोझ बनी अब सारी शिक्षा काम माँगता है न भिक्षा, फुटपाथों पर रात गुजारा दर - दर भटका बन बंजारा। अरमानों का सागर यूँ बह जाता अश्रु भरे वह नैन लिए रह जाता। ढूँढ - ढूँढकर नौकरी हारा बेकारी ने तिल-तिल मारा, वस्त्र घिसे अब हुए पुराने दुनिया रह- रह मारे ताने। उसका कृष तन दर्द कई कह जाता अश्रु भरे वह नैन लिए रह जाता।

दहेज लूटता रहा।

दहेज बेलगाम है प्रथा स्वच्छंद आम है, समाज को डूबो रहा कलुष असीम बो रहा। कुटुम्ब छूटता रहा दहेज लूटता रहा। मांग बेशुमार है मुद्रिका व हार है, गरीब बाप झुक गया कदम बढ़ाके रुक गया। स्वप्न टूटता रहा दहेज लूटता रहा। माँ बहुत उदास है जीवन्त एक लाश है, वेदना रची ह्रदय श्वास की जो रुद्ध लय। भ्रातृ हूकता रहा दहेज लूटता रहा। लाडली कई जली त्यागकर धरा चली, गली- डगर उदास है अनबुझी ये प्यास है। ममत्व सूखता रहा दहेज लूटता रहा।

मदमस्त पवन।

खुशबू है साँसों में तेरी कानन, उपवन करते फेरी, किन फूलों से गंध चुराकर मुकुलित कलियों से टकराकर। मेरे आज भवन, मदमस्त पवन। किन देशों से होकर आये राहों में क्या ठोकर खाये? पर्वत, सरिता, रेतों में भी बहे घने वन, खेतों में भी। लाये काले घन, मदमस्त पवन। जीवन क्या चलते रहना है हरदम यूँ बहते रहना है? पर्वत से टकराना होगा खुद का पंथ बनाना होगा। तम भी बहुत सघन, मदमस्त पवन। कभी सर्द तो कभी गरम भी आँधी हो तो कभी नरम भी, समय, देश जैसे ढल जाना जीने का यह मर्म बताना। पथ में बहुत अगन, मदमस्त पवन।

जाग-जाग री ।

कौन तुझे अबला कहता है शक्त, सबल हे नारी, तू खुद को पहचान, जाग कर सिंह की पुनः सवारी। घूम रहे नर-व्याल गली में मगर नहीं अब डरना, कर डटकर संहार खलों का अश्रु नयन मत भरना। जाग-जाग हे जाग देवियों सीख युद्ध के कौशल, अंचल में तो स्नेह मगर हो तीव्र खड्ग भी करतल। आत्म- सुरक्षा हेतु देवियों कर कृपाण अब धारण, दुर्दिन, पीड़ा व अभाव के तू खुद भी है कारण। आत्मसमर्पण पाप, पुण्य है मूल्यों पर लड़ जाना, आत्म - सुरक्षा हेतु राह में पर्वत - सा अड़ जाना। मिला किसे सम्मान धरा पर कायरता से, डर से, इस धानी चूनर के बदले कफन बाँध अब सर से।

सहनशीलता।

सहनशीलता ने पथ देकर मंजिल तक पहुँचा डाला, टूट गयी जंजीर वक्त की टूट गया विष का प्याला। इसने हमें सिखाया सहना जग का भी वो तीव्र दशन, पथ के अंगारों पर चलना और झेलना उग्र तपन। जहाँ कहीं मन आहत होकर पीड़ा से भरपूर हुआ, जहाँ कहीं भर नीर नयन से गिरने को मजबूर हुआ। सहनशीलता को अपना, कीलों की सह ली तीक्ष्ण चुभन, सहा जगत् का क्रूर वार भी जीवन की सारी उलझन। पथ की ज्वाला दे न सकी वह ताप जहाँ नर जल जाता, बन न सकी वह आग जहाँ पर लौह पिघल कर ढल जाता। चलो राह पर धीरज धरके राह कठिन, भी अनजानी, दुर्जन होंगे पथ पर अगणित पग- पग उनकी मनमानी। सहनशक्ति वह तेज जहाँ अति घोर अनय भी झुकता है, आकर जिसके दर पर निश्चित क्रूर - कदम भी रुकता है। पर झुकना हो भीत कुटिल से कायरता स्वीकार नहीं, सहनशक्ति अपनाने का उस मानव को अधिकार नहीं। सहते जाना अघ दुष्टों का वीरों का आधार कहाँ, धधक सके न पवन संग जो पानी है अंगार कहाँ। सह लेना आतंक किसी का भी न न्याय की परिभाषा, जीने और जिलाने की हो सबके मन में अभिलाषा।

कई- रंग।

विधिना तेरे वृहत् विश्व का रंग अजीब निराला है, कहीं वृष्टि मोती की झरझर खाली कहीं निवाला है। कहीं विश्व के कोष चमकते क्रूर, अभय नर मतवाला, दीन-हीन नर के हिस्से में बचता है खाली प्याला। शिशुओं की साँसें रुक जातीं वृद्ध रोग से मर जाते, इनके हिस्से की माया से कोष किसी के भर जाते। कौन किसे अब रोके -टोके मौन बने सब अधिकारी, बेकल जनता किसको बोले सुनने वाला व्यभिचारी। सत्ता की गलियों में बैठा दर्प कहाँ सुनने वाला, जश्न मनाते लोग पुकारें पैमाने में भर हाला। एक हुई, दो - बोतल खाली दफ्तर मानो मयखाना, बाहर ठंडी रात बिताती बुढ़िया माँगे दो - दाना। अंचल की दुर्दशा, फटा बाहर को दाने झाँक रहे, दफ्तर के बाहर युवक हो पंक्तिबद्ध रज फाँक रहे। मिली नहीं है धरा जिन्हें कहते अम्बर में उड़ जाना, भूखी जनता माँग रही है पहले दो उनको दाना।

पर्यावरण।

गाँवों का सूख रहा हरेक कुआँ है अम्बर में फैला जहरीला धुआँ है, विकास साँसों में विष घोल रहा आदमी सूखे पेड़ों - सा डोल रहा। जबतक हवाओं में घुलता रहेगा जहर विकल हर गाँव होगा, बेकल हर शहर, धरती का नित्य बढ़ता तापमान है आदमी सो रहा चादर तान है। बढ़ने की होड़ में मानव बना अंधा है लाशों को ढोने में लगा हर कंधा है, आसमान से जहर ही तो बरसेगा शुद्ध हवा, अन्न, पानी को जग तरसेगा। धरा, नभ किस-किस को तू हिसाब देगा भावी पीढ़ी को पीने को क्या तेजाब देगा? विनाश से पहले ही बच अभिमानी बचपन न होगा तो होगी क्या जवानी?

नन्हीं - सी प्यारी गौरैया।

फुदक - फुदककर चुगती दाने चूँ-चूँकर गाती मृदु गाने, घर - आँगन है रैन - बसेरा छत चढ़ करती ता-ता थैया। नन्हीं - सी प्यारी गौरैया। जोड़ रही चुन तिनके- तिनके नीड़ अपरिमित मोहक जिनके, वास्तुकला की अनुपम रचना खर्च नहीं है एक रुपइया। नन्हीं - सी प्यारी गौरैया। जग के पहले - ही जग जाती नीड़ छोड़ निज पर फैलाती, बच्चों के मुख में भर दाने करती मज्जन ताल - तलैया। नन्हीं - सी प्यारी गौरैया।

कृषक क्षुधित रह जाता।

कड़ी धूप में तप खेतों पर मिट्टी, पत्थर या रेतों पर, मिहनत के बल चीर धरा को अतिशय अन्न उगाता। कृषक क्षुधित रह जाता। तन ढकने तक नहीं वस्त्र है जीवन सुखमय नहीं, त्रस्त है, ढोके हरदम बोझ कर्ज का विकल अन्न का दाता। कृषक क्षुधित रह जाता। पूर्ण दाम पर बिके न दाने लागत लगती नींद उड़ाने, खुले गगन के तले कनक का हश्र अतीव रुलाता। कृषक क्षुधित रह जाता। पग -पग पर बिखरी लाचारी जीवन दूभर लगता भारी, होने को उन्मुक्त व्यथा से निज अस्तित्व मिटाता। कृषक क्षुधित रह जाता।

जीवन।

ज्ञात नहीं बहता जाता है जीवन किस धारा में तिमिर अगम या फिर प्रभात की निर्झर उजियारा में, कहीं बदल जाती धारा, सम्पूर्ण वेग से चलता नये रूप में, नई दिशा में जीवन पल-पल ढलता। जैसे हों विस्तृत सागर की उठती - गिरती लहरें अनायास ही चलतीं, किसको पता कहाँ कब ठहरें, भावी पल का दामन में शत भेद छुपाने वाला और कभी बन जलद-पुंज अम्बर में छाने वाला। देता है परिताप जनों को क्षुधा - ज्वाल धधकाके भरता भी झोली रत्नों से घर को स्वर्ग बनाके, आशा और निराशा की बनतीं-मिटतीं तस्वीरें उड़ता है उन्मुक्त गगन तो पग बाँधे जंजीरें। कभी दिलाता हार, कभी जीवन है जीत-सफलता कभी हरित कर सूखी डाली जीवन ही है फलता, इस क्षणभंगुर जीवन की मत पूछो क्या परिभाषा तिनका - तिनका बिखरा हो पर टूटी न हो आशा।

भूख।

भूख- भूख यह भूख उदर में ज्वाला जब फैलाती, बाँध मनुज को बाहु- पाश में कहाँ नहीं ले जाती। दो - रोटी का खेल जगत् में खेल रहे सब प्राणी, अपनी -अपनी भूख लिए नित करते खींचातानी। करता है नर कृत्य जिसे वह नहीं स्वप्न में देखा, भूख बदल देती हाथों की गहरी, उलझी रेखा। क्षुधा बना देती है कृश तन मन हारा मतवाला, माँग रहे शिशु भीख नगर में ले हाथों में प्याला। खाते हैं दर -दर की ठोकर अपनी भूख मिटाने, हाथ पसारे विकल घूमते मिलें अगर दो - दाने। बिलख रहे भूखे बच्चों की होगी भूख मिटानी, शिक्षा का अधिकार दिला देना उनको बेमानी।

रक्षाबंधन।

राखी की डोरी से बाँधे प्रेम- सुधा की गागर है, स्नेह भरा उर लायी बहना जैसे होता सागर है। भाई जब भी भँवर बीच में बहन सहज बनती पतवार, सजके डोली बहना बैठी भाई पुलकित बना कहार। भ्रातृ, स्नेह का अतल सिन्धु बहना है उच्छल - धारा, बहन चाँदनी है चंदा की भाई है ध्रुव - तारा। धागे में आशीष, दुआ राखी में गजब ललाई है, रत्न न माँगे, पर बन्धन हित माँगे बहन कलाई है। तू रूठे, मैं तुझे मनाऊँ अश्रु तुम्हारे ले लूँ, अपने सुख दे दूँ तुझको मैं नित काँटों से खेलूँ।

माँ।

माँ ! तेरे आँचल में जो इतना प्यार नहीं होता सचमुच इतना सुन्दर मेरा संसार नहीं होता। मैं बिखर जाता यहाँ तिनके की तरह यदि तेरी ममता का मिला आधार नहीं होता। तेरे हाथ अगर मेरी पतवार नहीं बनते मैं जिन्दगी के भँवर के पार नहीं होता। इन आँखों की रोशनी का क्या करना तेरी सूरत का यदि दीदार नहीं होता। माँ, एक शब्द नहीं, जमीं पर अवतार है जिसकी दुआ के बिना उद्धार नहीं होता।

पिता।

पिता से भरा पूरा घर है नहीं तो दूभर गुजरबसर है। वे हैं तो सभी अपने लगते वरना अजनबी पूरा शहर है। परिवार में सुख -चैन की बंसी सब उनकी मिहनत का असर है। जिसने कभी रुकके देखा ही नहीं कि सुबह- शाम या तप्त दोपहर है। अपने हर शौक को सहर्ष छोड़ा ऐसी कुर्बानी भी मिलती किधर है। पिता से घर-गृहस्थी सब आबाद नहीं तो दुनिया भी ढाती कहर है। पिता के बिना जीना आसान नहीं उनसे जुदाई भी एक जहर है।

दर्द ।

मेरा दर्द हद से बढ़ने लगा जब यह जख्म भरने लगा। टूटे चाँद पर थी नजर मेरी वह भी नभ से उतरने लगा। एक ही तो अजीज था मेरा वह भी मुझसे जलने लगा। किससे सुनाऊँ दर्द अपना आदमी दुनिया का रंग बदलने लगा । मैं परेशान कि किधर जाऊँ वह खुद को भी छलने लगा। हर महफिल में सन्नाटा मिला रहनुमा ही विष उगलने लगा। सबने कहा लौट जा अब घर रात के लिये सूरज ढलने लगा। मैं विस्मित चमन की दशा पर डालों पर विष-बेल फलने लगा।

परिचय।

मान नहीं, अपमान नहीं थोड़े में ही जी लेता हूँ, प्यासा हूँ प्यास बुझाने को कुछ अश्क बहा पी लेता हूँ । कुछ भूले, कुछ भुला दिये कुछ दर्द अभी तक सीने में, होती मुझको तकलीफ नहीं अब बहते आँसू पीने में। हिम्मत, बल, विश्वास स्वयं पर अग्निपथ पर चलता हूँ, उतना तेज निखरता मेरा जितना तिल- तिल जलता हूँ। क्षुधित रहूँ मंजूर मुझे पर सजग और अभिमानी हूँ, जाति, धर्म, भाषा मत पूछो पहले हिन्दुस्तानी हूँ।