प्रथम शिथिल छन्दोमाला : रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Pratham Shithil Chhandomala : Rabindranath Tagore


रोग शय्या पर

सुरलोक के नृत्य-उत्सव में

सुरलोक के नृत्य-उत्सव में यदि क्षण-भर के लिए क्लान्त-श्रान्त ऊर्वशी से होता कहीं ताल-भंग देवराज करते नहीं मार्जना। पूर्वार्जित कीर्ति उसकी अभिशाप तले होती निर्वासित। आकस्मिक त्रुटि को भी न करता कभी स्वर्ग स्वीकार। मानव के सभा-अंगन में वहाँ भी जाग रहा स्वर्ग का न्याय-विचार। इसी से मेरी काव्य-कला हो रही कुण्ठित है ताप-तप्त दिनान्त के अवसाद से; डर है, हो न कहीं शैथिल्य उसके पदक्षेप-ताल में। ख्याति मुक्त वाणी मेरी महेन्द्र के चरणों में करता हूं समर्पण निरासक्त मन से जा सकूं, बस, यही चाह है, वैरागी रहे वह सूर्यास्त के गेरूआ प्रकाश में; निर्मम भविष्य है, जानता हूं, असावधानी में दस्यु-वृत्ति करता है कीर्ति के संचय में- आज उसकी होती है तो होने दो प्रथम सूचना। ‘उदयन’: शान्ति निकेतन प्रभात: 27 नवम्बर, 1940

अनिःशेष प्राण

अनिःशेष प्राण अनिःशेष मारण के स्रोत में बह रहे, पद पद पर संकट पर हैं संकट नाम-हीन समुद्र के जाने किस तट पर पहुंचने को अविश्राम खे रहा नाव वह, कैसा है न जाने अलक्ष्य उसका पार होना मर्म में बैठा वह दे रहा आदेश है, नहीं उसका शेष है। चल रहे लाखों-करोड़ों प्राणी हैं, इतना ही बस जानता हूं। चलते चलते रुकते हैं, पण्य अपना किसको दे जाते हैं, पीछे रह जाते जो लेने को, क्षण में वे भी नहीं रह पाते हैं। मुत्यु के कवल में लुप्त निरन्तर का धोखा है, फिर भी वह नहीं धोखे का, निबटते निबटते भी रह जाता बाकी है; पद पद पर अपने को करके शेष पद पद पर फिर भी वह जीता ही रहता है। अस्तित्व का महैश्वर्य है शत-छिद्र घट में भरा- अनन्त है लाभ उसका अनन्त क्षति-पथ में झरा; अविश्राम अपचय से संचय का आलस्य होता दूर, शक्ति उसी से पाता भरपूर। गति-शील रूप-हीन जो है विराट, महाक्षण में है, फिर भी क्षण-क्षण में नहीं है वह। स्वरूप जिसका है रहना और नहीं रहना, मुक्त और आवरण-युक्त है, किस नाम से पुकारूं उसे अस्तित्व प्रवाह में- मेरा नाम दिखाई दे विलीन हो जाता जिसमें?

अकेला बैठा हूं यहा

अकेला बैठा हूं यहाँ यातायात पथ के तट पर। बिहान-वेला में गीत की नाव जो लाये हैं खेकर प्राण के घाट पर आलोक-छाया के दैनन्दिन नाट पर, संध्या-वेला की छाया में धीरे से विलीन हो जाते थे। आज वे आये हैं मेरे स्वप्न लोक के द्वार पर; सुर-हीन व्यथाएँ हैं जितनी भी ढूंढ़ती फिरतीं बीतते ही जाते हैं, बैठा-बैठा गिन ही रहा हूं मैं नीरव जप माला की ध्वनि नस-नस में अन्धकार के। कलकत्ता 30 अक्तूबर, 1940

अजस्र है दिन का प्रकाश

अजस्र है दिन का प्रकाश, जानता हूं एक दिन आँखों को दिया था ऋण। लौटा लेने का दावा जताया आज तुमने, महाराज! चुका देना होगा ऋण, जानता हूं, फिर भी क्यों संध्या दीप पर डालते हो छाया तुम ? रचा है तुमने जो आलोक से विश्व तल मैं हूं वहां एक अतिथि केवल। यहाँ वहाँ यदि पड़ा हो किसी छोटी-सी दरार में न सही पूरा टुकड़ा अधूरा- छोड़ जाना पड़ा अवहेलना से, जहाँ तुम्हारा रथ शेष चिह्न रख जाता है अन्तिम धूल में वहाँ रचने दो मुझे अपना संसार। थोड़ा सा रहने दो उजाला, थोड़ी सी छाया, और कुछ माया। छाया पथ में लुप्त आलोक के पीछे शायद पड़ा मिलेगा कुछ- कण मात्र लेश तुम्हारे ऋण का अवशेष। कलकत्ता 3 नवम्बर, 1940

इस महा विश्व में

इस महा विश्व में चलता है यंत्रणा का चक्र-घूर्ण, होते रहते है ग्रह-तारा चूर्ण। उत्क्षिप्त स्फुलिंग सब दिशा विदिशाओं में अस्तित्व की वेदना को प्रलय दुःख के रेणु जाल में व्याप्त करने को दौड़ते फिरते हैं प्रचण्ड आवेग से। पीड़न की यन्त्रशाला में चेतना के उद्दीप्त प्रांगण में कहाँ शल्य शूल हो रहे झंकृत, कहाँ क्षत-रक्त हो रहा उत्सारित ? मनुष्य की क्षुद्र देह, यन्त्रणा की शक्ति उसकी कैसी दुःसीम है। सृष्टि और प्रलय की सभा में उसके वह्निरस पात्र ने किसलिए योग दिया विश्व के भैरवी चक्र में, विधाता की प्रचण्ड मत्तता- इस देह के मृत् भाण्ड को भरकर रक्त वर्ण प्रलाप के अश्रु-स्रोत करती क्यों विप्लावित? प्रतिक्षण अन्तहीन मूल्य दिया उसे मानव की दुर्जय चेतना ने, देह-दुःख होमानल में जिस अर्ध्य की दी आहूति उसने- ज्योतिष्क की तपस्या में उसकी क्या तुलना है कहीं ? ऐसी अपराजित-वीर्य की सम्पदा, ऐसी निर्भीक सहिष्णुता, ऐसी उपेक्षा मरण की ऐसी उसकी जय यात्रा वह्नि -शय्या रोंदकर पग तले दुःख सीमान्त की खोज में नाम हीन ज्वालामय किस तीर्थ के लिए है साथ-साथ प्रति पथ में प्रति पद में ऐसा सेवा का उत्स आग्नेय गहृर भेदकर अनन्त प्रेम का पाथेय? कलकत्ता 4 नवम्बर, 1940

अरी ओरी, मेरी भोर की चिरैया गौरैया

अरी ओरी, मेरी भोर की चिरैया गौरैया, कुछ कुछ रहते अँधेरे में फटते ही पौ नींद का नशा जब रहता कुछ बाकी तब खिड़की के काँच पर मारती तुम चोंच आकर, देखना चाहती हो ‘कुछ खबर है क्या’। फिर तो व्यर्थ झूठमूठ को चाहे जैसे नाचकर चाहे जैसे चुहचुहाती हो; निर्भीक तुम्हारी पुच्छ शासन कर सकल विध्न बाधा को करती तुच्छ। तड़के ही दोयलिया देती जब सीटी है कवियों से पाती बख्शीश कुछ मीठी है; लगातार प्रहर प्रहर भर मात्र एक पंचम सुर साधकर छिपे-छिपे कोयलिया करती उस्तादी है- ढकेल सब पक्षियों को किनारे एक कालिदास की पाई वाहवाही उसी ने नेक। परवाह नहीं करती हो उसकी जरा भी तुम, मानती नहीं हो तुम सरगम के उतार और चढ़ाव को। कालिदास के घर में घुस छन्दोभंग चुहचुहाना मचातीं तुम किस कौतुक से ! नवरत्न सभा के कवि गाते जब अपना गान तुम तब सभा स्तम्भों पर करती हो क्या सन्धान? कवि प्रिया की तुम पड़ोसिन हो, मुखरित प्रहर प्रहर तक तुम दोनों का रहता साथ। वसन्त बयाना दिया नहीं वह तुम्हारा नाटय, जैसा जैसा तुम्हारा नाच उसमें नहीं कुछ परिपाटय। अरण्य की गायन सभा में तुम जातीं नहीं सलाम ठोंक, उजाले के साथ ग्राम्य भाषा में समक्ष आलाप होता ; न जाने क्या अर्थ उसका नहीं है अभिधान में शायद कुछ होगा अर्थ तुम्हारे स्पन्दित हृदय ज्ञाने में। दायें बायें मोड़-मोड़ गरदन को करतीं क्या मसखरी हो अकारण ही दिन-दिन भर, ऐसी क्या जल्दी है? मिट्टी तुम्हारा स्नेह धूल ही में करतीं स्नान- ऐसी ही उपेक्षित है तुम्हारी यह देह-सज्जा मलिनता न लगती कहीं, देती न तुम्हें लज्जा। बनाती हो नीड़ तुम राजा के घर छत के किसी कोने में दुबका चोरी है ही नहीं तुम्हारे कहीं मन में। अनिद्रा में मेरी जब कटती है दुख की रात आशा मैं करता हूं, द्वार पर तुम्हारा पड़े चंचुघात। अभीक और सुन्दर-चंचल तुम्हारी सी वाणी सहज प्राण की ला दो मुझे ला दो- सब जीवों का प्रकाश दिन का मुझे बुला लेता है, ओरी मेरी भोर की चिरैया गौरैया। कलकत्ता प्रभात: 11 नवम्बर, 1940

गहन इस रजनी में

गहन इस रजनी में रोगी की धुँधली दृष्टि ने देखा जब सहसा तुम्हारा जाग्रत आविर्भाव, ऐसा लगा, मानो आकाश में अगणित ग्रह-तारे सब अन्तहीन काल में मेरे ही प्राणों कर रहे स्वीकार भार। और फिर, मैं जानता हूं, तुम चले जाओगे जब, आतंक जगायेगी अकस्मात् उदासीन जगत की भीषण निःस्तब्धता। कलकत्ता गहन रात्रि: 12 नवम्बर, 1940

लगता है मुझे ऐसा हेमन्त

लगता है मुझे ऐसा हेमन्त की दुर्भाषा- कुज्झटिकाकी ओर आलोक की कैसी तो एक भर्त्सना दिगन्तकी मूढ़ता को दिखा रही तर्जनी। पाण्डुवर्ण हुआ आता सूर्योदय आकाश के भाल पर, धनीभूत हो रही लज्जा, हिम-सिक्त अरण्य की छाया में हो रहा स्तब्ध है विहंगो का मधुर गान। कलकत्ता 13 नवम्बर, 1940

हे प्राचीन तमस्विनी

हे प्राचीन तमस्विनी, आज मैं रोग की विमिश्र तमिस्रा में मन ही मन देख रहा- काल के प्रथम कल्प में निरन्तर निविड़ अन्धकार में बैठी हो सृष्टि के ध्यान में कैसी भीषण अकेली हो, गूंगी तुम, अन्धी तुम। अस्वस्थ शरीर में क्लिष्ट रचना का जो प्रयास उसी को देखा मैंने अनादि आकाश में। पंगु रो-रो उठता है निद्रा के अतल-तल में आत्म-प्रकाश की क्षुधा विगलित लौह गर्भ से छिपे-छिपे जल उठती है गोपन शिखाओं में। अचेतन ये मेरी उंगलियाँ अस्पष्ट शिल्प की माया बुनती ही जाती है; आदिमहार्णव गर्भ से अकस्मात् फूल-फूल उठते हैं स्वप्न प्रकाण्ड पिण्ड, विकलांग असम्पूर्ण सब- कर रहे प्रतीक्षा घोर अन्धकार में काल के दाहने हाथ से मिलेगी उनहें कब पूर्ण देह, विरूप् कदर्य सब लेंगे सुसंगत कलेवर नव सूर्य के आलोक में। मूर्तिकार पढ़ देगा मन्त्र आकर, धीरे-धीरे उद्घाटित करेगा वह विधाता की अन्तर्गूढ़ संकल्प की धारा को। कलकत्ता प्रभात: 13 नवम्बर, 1940

मेरे दिन की शेष छाया

मेरे दिन की शेष छाया बिलाने मूल-तान में गुंजन उसका रहेगा चिरकाल तक, भूल जायेंगे उसके मानी सब। कर्मक्लान्त पथिक जब बैठेगा पथ के किनारे कहीं मेरी इस रागिणी का करुण अभास स्पर्श करेगा उसे, नीरव हो सुनेगा झुकाकर सिर; मात्र इतना ही अभास में समझेगा, और न समझेगा कुछ- विस्मृत युग में दुर्लभ क्षणों में जीवित था कोई शायद, हमें नहीं मिली जिसकी कोई खोज उसी को निकाला था उसने खोज। कलकत्ता प्रभात: 13 नवम्बर, 1940

जगत युगों से हो रही जमा

जगत युगों से हो रही जमा सुतीव्र अक्षमा। अगोचर में कहीं भी एक रेखा की होते ही भूल दीर्घ काल में अकस्मात् करती वह अपने को निर्मूल। नींव जिसकी चिरस्थायी समझ रखी थी मन में नीचे उसके हो उठता है भूकम्प प्रलय-नर्तन में। प्राणी कितने ही आये थे बाँध के अपना दल जीवन की रंगभूमि पर अपर्याप्त शक्ति का लेकर सम्बल- वह शक्ति ही है भ्रम उसका, क्रमशः असह्य हो लुप्त कर देती महाभार को। कोई नहीं जानता, इस विश्व में कहाँ हो रही जमा प्रचण्ड अक्षमा। दृष्टि की अतीत त्रुटियों का कर भेदन सम्बन्ध के दृढ़ सूत्र को वह कर रही छेदन; इंगित के स्फुलिंगों का भ्रम पीछे लौटने का पथ सदा को कर रहा दुर्गम। प्रचण्ड तोड़-फोड़ चालू है पूर्ण के ही आदेश से; कैसी अपूर्व सृष्टि उसकी दिखाई देगी शेष में- चूर्ण होगी अबाध्य मिट्टी, बाधा होगी दूर, ले-लेकर नूतन प्राण उठेंगे अंकूर। हे अक्षमा, सृष्टि विधान में तुम्हीं तो हो शक्ति परमा; शान्ति-पथ के कांटे हैं तुम्हारे पद पात में विदलित होते हैं बार-बार आघात-आघात में। कलकत्ता 13 नवम्बर, 1940

सवेरे उठते ही देखा निहारकर

सवेरे उठते ही देखा निहारकर घर में चीजें बिखरी पड़ी है सब, कागज कलम किताब सब कहाँ तो रखी हैं, ढूंढ़ता फिरता हूं, मिलती नहीं कहीं भी ढ़ूढ़े। मूल्यवान कहाँ क्या जमता है बिखरा सब, न कहीं कोई समता है पत्र-शून्य लिफाफे सब पड़े हैं छिन्न भिन्न पुरूष जाति के आलस्य यही तो है शायद चिह्न। क्षण में जब आ पहुंचे दो नारी हस्त क्षण में ही जाती रही जितनी थी त्रुटियाँ सब। फुरतीले हाथों से निर्लज्ज विशृंखला के प्रति ले आती है शोभना अपनी चरम सद्गति। कटे-फटे के क्षत मिटते है, दागी की होती लज्जा दूर अनावश्यक गुप्त नीड़ कहीं भी न बचता फिर। फूहड़पन में रहता और सोचता अवाक् हो सृष्टि में ‘स्त्री’ और ‘पुरूष’ बह रहीं ये धारा दो; पुरूष अपने चारों ओर जमाता है कूड़ा भारी, नित्यप्रति दे बुहारी करती साफ-सुथरा नारी। कलकत्ता दोपहर: 14 नवम्बर, 1940

यदि दीर्घ दुःख रात्रि ने

यदि दीर्घ दुःख रात्रि ने अतीत के किसी प्रान्त तट पर जा नाव अपनी खेनी कर दी हो शेष तो नूतन विस्मय में विश्व जगत के शिशु लोक में जाग उठे मुझमें उस नूतन प्रभात में जीवन की नूतन जिज्ञासा। पुरातन प्रश्नों को उत्तर न मिलने पर अवाक् बुद्धि पर वे करते है सदा व्यंग, बालकों सी चिन्ता हीन लीला सम सहज उत्तर मिल जाय उनका बस सहज विश्वास से- ऐसा विश्वास जो अपने में रहे तृप्त, न करे कभी कोई विरोध, आनन्द के स्पर्श से सत्य की श्रद्धा और निष्ठा ला दे मन में। कलकत्ता प्रभात: 15 नवम्बर, 1940

नदी किसी एक कोने में सूखी सड़ी डाली एक

नदी किसी एक कोने में सूखी सड़ी डाली एक स्रोत को पहुंचाये यदि बाधा तो स्वयं सृष्टि शक्ति बहते हुए कूड़े से करती है प्रकट वहाँ रचना की चातुरी - छोटे द्वीप गढ़ती है, लाती खींच शैवाल दल तीरका जो भी कुछ परित्यक्त सबको बटोर लेती उपादान द्वीप सृष्टि के ऐसे ही जुटाती वह। मेरे इस रोगी के छोटे से कमरे मं अवरूद्ध आकाश में वैसे ही चल रही सृष्टि है सबसे निराली और स्वतंत्र स्वरूप में। उसी के कर्म का आवर्तन है छोटी सी सीमा में। माथे पर रखकर हाथ देखते हैं, ‘है क्या ताप?’ उद्विग्न आँखों की दृष्टि बस करती है प्रश्न यही, आती क्यों नीद नहीं? चुपके से दबे पाँव आता प्रकाश है नित्य प्रभात का। पथ्य की थाली ले हाथ में परिचारिका कर करके बार बार अनुरोध उपरोध नित्य पाती है विजय वह रूचि के विरोध पर। यत्न हीन बिखरा रहता है जो कुछ भी यत्न सजाती है उन सबको नित्य वह आँचल से धूल मिट्टी झाड़कर। निज हाथों से समान कर शय्या की सिकुड़न सब निज आसन तैयार कर रखती है सिरहाने पर सेवा जो करनी है रात भर जागकर। बात यहाँ धीर-स्वर से होती है, दृष्टि यहाँ वाष्प से स्पर्शित है, स्पर्श यहाँ करूण और कम्पित है- जीवन का यह रूद्ध स्रोत अपने ही केन्द्र में आवर्तित, बाहरी संवाद की धारा से विच्छिन्न है बहुत दूर। किसी दिन आती जब बाढ़ है शैवाल द्वीप बह जाता है; परिपूर्ण जीवन की आयेगी ज्वार जब वैसे ही बह जायगा सेवा का नीड़ भी, वैसे ही बह जायेंगे यहाँ के ये दुख पात्र में सुधा भरे गिनती के नश्वर दिन। ‘उदयन 19 नवम्बर, 1940

अस्वस्थ शरीर यह

अस्वस्थ शरीर यह कौन सी अवरुद्व भाषा कर रहा वहन? वाणी क्षीणता मुह्यमान आलोक में रच रही अस्पष्ट की कारा क्या? निर्झर जब दौड़ता है परिपूर्ण वेग से बहुत दूर दुर्गम को करने जय- गर्जन उसका तब अस्वीकार करता ही चलता है गुफा के संकीर्ण नाते को, घोषित करता ही रहता है निखिल विश्व का अधिकार। बल-हीन धारा उसकी होती है मन्द जब वैशाख की शीर्ण शुष्कता से- खोता तब अपनी वह मन्द्रध्वनि, कृशतम होता ही रहता है अपने में अपना ही परिचय। खण्ड-खण्ड कुण्ड़ों में क्लान्त-श्रान्त गति स्त्रोत उसका विलीन हो जाता है। वैसे ही मेरी यह रूग्न वाणी आज खो बैठी है स्पर्धा अपनी, नही है शक्ति उसमें जीवन की संचित ग्लानि को धिक्कार देने की। आत्मगत क्लिष्ट जीवन की कुहेलिका विश्व की दृष्टि उसकी कर रही हरण है। हे प्रभात सूर्य, अपना शुभ्रतम रूप में देखूंगा तुम्हारी ज्योति केन्द्र में उज्जवलतर, मेरे प्रभात-ध्यान को अपनी उस शक्ति से कर दो आलोकित, दुर्बल प्राणो का दैन्य अपने हिरण्मय ऐश्वर्य से कर दो दूर, पराभूत रजनी के अपमान-सहित।

अवसन्न आलोक की

अवसन्न आलोक की शरत की सायाह्न प्रतिमा- असंख्य नक्षत्रों की शान्त नीरवता स्तब्ध है अपने हृदय गगन में, प्रति क्षण में है निश्वसित निःशब्द शुश्रूषा। अन्धकार गुफा से निकलकर जागरण पथ पर हताश्वास रजनी के मन्थर प्रहर सब प्रभात शुक्र-तारा की ओर बढ़ते ही जाते हैं पूजा के सुगन्धमय पवन का हिम-स्पर्श लेकर। सायाहृ की म्लानदीप्ति करुणच्छविने धारण किया है कल्याण-रूप आज प्रभात की अरूण किरण में; देखा, मानो वह धीरे-धीरे आ रही है आशीर्वाद लिये शेफाली कुसुम रुचि प्रकाश के थाल में।

कब सोया था

कब सोया था, जागते ही देखी मैंने- नारंगी की टोकनी पैरों के पास पड़ी छोड़ गया है कोई। कल्पना के पसार पंख अनुमान उड़ उड़कर जाता है एक-एक करके नाना स्निग्ध नामों पर। स्पष्ट जानूं या न जानूं, किसी अनजान को साथ ले नाना नाम मिले आकर नाना दिशाओं से। सब नाम हो उठे सत्य एक ही नाम में, दान को हुई प्राप्त सम्पूर्ण सार्थकता। ‘उदयन’ 21 नवम्बर, 1940

संसार के नाना क्षेत्र नाना कर्म में

संसार के नाना क्षेत्र नाना कर्म में विक्षिप्त है चेतना- मनुष्य को देखता हूं वहाँ मैं विचित्र मध्य में परिव्याप्त रूप में; कुछ है असमाप्त उसका और कुछ अपूर्ण भी। रोगी के कक्ष में घनिष्ट निविड़ परिचय है एकाग्र लक्ष्य के चारो ओर, कैसा नूतन विस्मय तू दे रहा दिखाई है अपूर्व नूतन रूप में। समस्त विश्व की दया सम्पूर्ण संहत उसमें है, उसके कर-स्पर्श से, उसके विनिद्र व्याकुल पलकों में।

सजीव खिलौने यदि

सजीव खिलौने यदि गढ़े जाते हों विधाता की कर्मशाला में, क्या दशा होगी उनकी - यही कर रहा अनुभव मैं आज आयु-शेष में। यहाँ ख्याति मेरी पराहत है, उपेक्षित है गाम्भीर्य मेरा, निषेघ और अनुशासन में सोना उठना बैठना है। ‘चुप रहो भी तो जरा’ ‘ज्यादा बोलना अच्छा नही’ ‘और भी कुछ खाना होगा’- ये हैं आदेश निर्देश कभी भर्त्सना में, कभी अनुनय में, जिनके कण्ठ से निकलते हैं उनके परित्यक्त खेल-घर में टूटे-फूटे खिलौनों की ट्रैजेडी में अभी तो कुछ ही दिन हुए, पड़ी है कैशोर की यवनिका। कुछ देर तो स्पर्धा विरोध करता रहता हूं, फिर ‘राजा बेटा’ बनकर जैसे चलाते है वैसे ही चलता हूं। मन में मैं सोचता हूं, वृद्ध भाग्य अपना शासन-भार सौंपकर कुछ दिन नूतन भाग्य पर दूर खड़ा कटाक्ष से हँसता है, हँसा था जैसे बादशाह आबूहुसेन का खेल रचकर अन्तराल मंे। अमोघ विधि के राज्य में बार-बार हुआ हूं विद्रोही; इस राज्य में मान लिया है उस दण्ड को जो मृणाल से भी कोमल है, विधुत से भी स्पष्ट है तर्जनी जिसकी। ‘उदयन’ प्रभात: 23 नवम्बर

रोग-दुःख रजनी के निरन्ध्र अन्धकार में

रोग-दुःख रजनी के निरन्ध्र अन्धकार में जिस आलोक-बिन्दु देखता मैं क्षण-क्षण में। मन ही मन सोचता हूं, क्या है उसका निर्देश। पथ का पथिक जैसे खिड़की रन्ध्र से उत्सव-आलोक का पता कुछ खण्डित आभास है, उसी तरह रश्मि जो अन्तर में आती है यही जताती है- उठते ही घने आवरण के दिखाई देगी अविच्छेद देश-हीन काल हीन आदि ज्योति, शाश्वत प्रकाश पारावार, करता सूर्य जहाँ संध्या स्नान, जहाँ उठते हैं खिलते है नक्षत्र महाकाव्य बुद्बुद समान ही, वहाँ निशान्त का यात्री मैं चैतन्य सागर तीर्थ पथ में।

सवेरे ज्यों ही खुली आँख मेरी

सवेरे ज्यों ही खुली आँख मेरी फूलदानी में देखा गुलाब फूल; प्रश्न उठा मन में- युग-युगान्तर के आवर्तन में सौन्दर्य के परिणाम में जो शक्ति लाई तुम्हें अपूर्ण और कुत्सित के पीड़न से बचाकर पद पद पर वह क्या अन्धी है, अथवा अन्यमनस्क है ? वह भी क्या वैराग्य व्रती साधु सन्यासी सम सुन्दर असुन्दर में भेद नहीं करती कुछ उसके क्या केवल है ज्ञान क्रिया, बल-क्रिया, बोध का क्या वहाँ नहीं कुछ भी काम शेष है ? कौन कर करके तर्क कहते, सृष्टि की सभा में तो सुन्दर और कुत्सित दोनो ही बैठे हैं समान एक आसन पर नही बाधा प्रहरी की यहाँ किसी तरह की? मैं हूं कवि, तर्क नहीं जानता मैं, मेरी दृष्टि देखती है विश्व को समग्र स्वरूप में- कोटि-कोटि ग्रह-तारा अनन्त आकाश में लिये लिये फिरते है विश्व के सौन्दर्य को, होता नहीं छन्द भंग, सुर भी कही रूकता नहीं, न विकृति न स्खलन कही; वो देखो, आकाश में दे रहा दिखाई स्पष्ट स्तर स्तर फैलाकर पँखड़ियाँ ज्योतिर्मय विश्वव्यापी विशाल गुलाब है। ‘उदयन’ प्रभात: 24 नवम्बर

दिन के मध्याह्न में

दिन के मध्याह्न में आधी-आधी नींद और आधा-आधा जागरण सम्भव है सपने में देखा था - मेरी सत्ता का आवरण केंचुली सा उतरा और जा पड़ा अज्ञात नदी-स्रोत में साथ लिये मेरा नाम, मेरी ख्याति, कृपण का संचय जो कुछ भी था, कलंक्की लिये स्मृति मधुर क्षणों के ले हस्ताक्षर; गौरव और अगौरव लहरों लहरों मंें वहजाता सब, उसे न वापस ला सकता अब; मन ही मन करता तर्क- मैं हूं ‘मैं शून्य’ क्या? जो कुछ भी खोया मेरा, उसमें सर्वाधिक वेदना की चोट लगी किसके लिए ? अतीत नहीं मेरा वह सुख-दुःख में जिसके साथ काटे दिन काटीं रात। मेरा वह भविष्य है जिसे मैंने पाया नहीं कभी किसी काल में, जिसमें मेरी आकांक्षा में वैसे ही जैसे बीज भूमि गर्भ में अंकुरित आशा लिये अनागत आलोक की प्रतीक्षा में देखा था दीर्घ स्वप्न दीर्घ विस्तृत रात में। ‘उदयन’ अपराह्न: 24 नवम्बर

आरोग्य की राह में

आरोग्य की राह में अभी-अभी पाया मैंने प्रसन्न प्राणों का निमन्त्रण, दान किया उसने मुझे नव-दृष्टि का विश्व-दर्शन। प्रभात के प्रकाश में मग्न है वह नीलाकाश पुरातन तपस्वी का ध्यानासन, कल्प के आरम्भ का अन्तहीन प्रथम मुहूर्त क्षण प्रकाशित कर दिया उसने आज मेरे सामने; समझ गया उसी क्षण, यही एक जन्म मेरा नये-नये जन्मों के सूत्र में है गुँथा हुआ। सप्त-रश्मि सूर्यालोक सम वहन करता एक दृश्य अदृश्य अनेक सृष्टि धारा को। ‘उदयन’ प्रभात: 25 नवम्बर

मोर में ही देखा आज निर्मल प्रकाश में

मोर में ही देखा आज निर्मल प्रकाश में निखिल का शान्ति अभिषेक, नतमस्तक हो वृक्षों ने धरणी को किया नमस्कार। जो शान्ति विश्व के मर्म में है ध्रुव प्रतिष्ठित उसने की है रक्षा उनकी बार-बार युग-युगान्तरों के आघात संघात में। विक्षुब्ध इस मर्त्यभूमि में सूचित किया है अपना आविर्भाव दिवस के आरम्भ और शेष में। उसी के पत्र तो पाये है कवि ने, मांगलिक। वही यदि अमान्य करे बनकर व्यंग वाहक विकृति के सभासद् रूप में चिर नैराश्य का दूत, टूटे हुए यन्त्र के सुर हीन झंकार मंे व्यंग करे इस विश्व के शाश्वत सत्य को तो उसकी क्या है आवश्यकता? खेतों में घुसकर झाड़ काँटों का करता अपमान क्यों मानव की क्षुधा का? रूग्न यदि कहता रहे रोग को चरम सत्य, उसकी उस स्पर्घा को समझूंगा लज्जा ही- उससे तो बोले बिना अच्छा है आत्महत्या करना ही। मनुष्य का कवित्व ही अन्त में होगा भाजन कलंक का चलकर असंस्कृत चाहे जिस पथ पर। करेगी क्या प्रतिवाद भला स्वयं सुन्दर मुखश्री का निर्लज्ज नकल ‘नकली चेहरे’ की? ‘उदयन’ प्रभात: 26 नवम्बर

जीवन के दुःख शोक ताप में

जीवन के दुःख शोक ताप में वाणी एक ऋषि की ही समाई मेरे चित्त में दिन-दिन होती ही रहती वह उज्जवल से उज्जवलतर - ‘विश्व का प्रकाश है आनन्द अमृत के रूप में।’ अनेक क्षुद्र विरुद्ध प्रमाणों से महान को करना खर्व सहज एक पटुता है। अन्तहीन देश काल में महिमा है परिव्याप्त केवल एक सत्य की, देखता है जो उसे अखण्ड रूप में इस जगत में उसी का जन्म सार्थक है।

अपनी इस कीर्ति पर नहीं है विश्वास मेरा

अपनी इस कीर्ति पर नहीं है विश्वास मेरा। मैं जानता हूं- काल सिन्धु इसे निरन्तर निज तरंग आघात से दिन पर दिन करता ही रहेगा लुप्त, अपना विश्वास मेरा अपने ही आपको। दोनों साँझ भर-भर उस पात्र को इस विश्व की नित्य सुधा का किया है मैंने पान। क्षण-क्षण मेरा प्रेम उसी में तो होता रहा संचित है। किया नहीं विदीर्ण दुःख भारने मलिन नहीं किया कभी धूलि ने उसकी शिल्प कला को। यह भी है ज्ञात मुझे- संसार रंगभूमि को जाऊंगा छोड़ तब कहकर यह पुण्य ऋतु-ऋतु में- मैंने किया प्यार निखिल विश्व को। यह प्रेम ही सत्य है, दान इस जन्म का। लेते समय विदा अम्लान हो यह सत्य मेरा करेगा उपेक्षा से अस्वीकार मृत्यु को।

खोल दो, खोल दो द्वार

खोल दो, खोल दो द्वार; कर दो अवारित नीलाकाश को कौतूहली पुष्प गन्ध को करने दो प्रवेश मेर कक्ष में; प्रथम आलोक सूर्य किरण का होने दो संचार नस नस में; ‘मैं जीवित हूं’ - यह वाणी अभिनन्दन की मर्मरित हो रही पल्लव पल्लव में- मुझे सुनने दो; यह प्रभात ढक देने दो इसे अपने उत्तरीय से मेरे मन को जैसे वह ढक देता है नव शस्य श्यामल प्रान्तर को। प्रेम जितना भी पाया है अपने इस जीवन में, उसकी निःशब्द भाषा सुन रहा आकाश और वातास में; उसके पुण्य अभिषेक में करूंगा स्नान मैं। समस्त जन्म के सत्य को एक रत्नाहार रूप में शोभित मैं देख रहा उस नीलिमा के कण्ठ में। ‘उदयन’ प्रभात: 28 नवम्बर

चैतन्य ज्योति जो

चैतन्य ज्योति जो प्रदीप्त है मेरे अन्तर गगन में नहीं वह ‘आकस्मिक बन्दिनी’ प्राणों की संकीर्ण सीमा में, आदि जिसका शून्यमय, अन्त में जिसकी मृत्यु है निरर्थक, मध्य में कुछ क्षण ‘जो कुछ है’ उसी का अर्थ वह करती उद्भासित है। ‘यह चैतन्य विराजित है अनन्त आकाश में आनन्द अमृत रूप में’- प्रभात के जागरण में ध्वनित हो उठी आज यही एक वाणी मेरे मर्म में, यह वाणी गथतीचलती है ग्राह-तारा अस्खलित छन्द सूत्र में अनिःशेष सृष्टि के उत्सव में।

दुःखद दुःख के घेरे में

दुःखद दुःख के घेरे में मानव को देख रहा निरुपाय असहाय, समझ मंे न आता कुछ कहाँ उसकी सान्त्वना है ? अपनी ही मूढ़ता में, अपने ही रिपुओ के प्रश्रय में इस दुःख का मूल है जानता हूं; किन्तु उस जानने में आश्वास नहीं पाता हूं। जान ली यह बात जब - मानव चित्त की साधना में गूढ़ है रूप जो सत्य का वह सत्य सुख दुःख सबके अतीत है, तब समझ जाता हूं, अपनी आत्मा में जो हैं फलवान करते उसे वे ही चरम लक्ष्य हैं मानव की सृष्टि के; एकमात्र वे ही हैं, और कोई नहीं। और जो हैं सब माया के प्रवाह में छाया समान है। दुःख उनका सत्य नहीं, सुख है विड़म्बना, उनकी क्षत-पीड़ा धारण कर भीषण आकृति प्रति क्षण लुप्त होती रहती है। रखती नहीं कोई भी चिह्न इतिहास में। ‘उदयन’ प्रभात: 29 नवम्बर

सृष्टि का चल रहा खेल है

सृष्टि का चल रहा खेल है चारों ओर शत सहस्र धारा में काल का असीम शून्य पूर्ण करने को। सामने जो भी कुछ ढालता है, पीछे बार बार अतल तल में जा विलीन हो जाता वह, निरन्तर लाभ और क्षति, इन्हीं से मिलती है उसे गति। कवि का खेल है छन्द् का, वह भी तो रह रहकर निश्चिह्न काल की देह पर अंकन है चित्रों का। काल चला जाता है, पड़ा रह जाता शून्य। यह ‘लिखना मिटाना’ ही है काव्य की सचल मरीचिका यह भी छोड़ देती स्थान, परिवर्तमान जीवन यात्रा की करती है चलमान टीका। मनुष्य निज अंकित काल की सीमा में रचता है सान्त्वना असीम की झूठी महिमा से, भूल जाता यह, न जाने कितने युगों का वाणी रूप निःशब्द का निष्ठुर कठोर व्यंग ढोता ही चला आता है भूमि के गर्भ में।

आज की अरण्य सभा का

आज की अरण्य सभा को अपवाद देते हो बार बार, दृढ़ कण्ठ से कहते जब अहंकृत आप्तवाक्य-वत् प्रकृति का अभिप्राय है, ‘नवीन भविष्यत् गायेगा विेरल रस में शुष्कता का गान’ वन-लक्ष्मी न करेगी अभिमान। जानते हैं सभी इस बात को- जिस संगीत के रस में होते ही प्रभात के आनन्द में मत्त होती आलोक सभा वह तो हेय है और अश्रद्धेय है, प्रमाणित करने को अपनी बात ऐसे ही बराबर बढ़़ते ही चलेंगे वे। वन के विहंग प्रतिदिन संशय विहीन चिरन्तन वसन्त की स्तव गाथा से आकाश करेंगे पूर्ण अपने आनन्दित कलरव से। ‘उदयन’ प्रभात: 30 नवम्बर

नित्य ही प्रभात में पाता हूं प्रकाश के प्रसन्न स्पर्श में

नित्य ही प्रभात में पाता हूं प्रकाश के प्रसन्न स्पर्श में अस्तित्व का स्वर्गीय सम्मान, ज्योतिः स्रोत में मिल जाता है रक्त का प्रवाह मेरा, देह मन में ध्वनित हो उठती है ज्योतिष्क की नीरव वाणी। प्रतिदिन ऊपर को दृष्टि किये बिछाये ही रहता हूं आँखों की अंजलि मैं। मुझे दिया है प्रकाश यह जन्म की प्रथम अभ्यर्थना ने, अस्त सागर के तीर पर उस प्रकाश के द्वार पर बना रहेगा मेरा जीवन का निवेदन शेष। लगता है ऐसा कुछ वृथा वाक्य कहता हूं, पूरी बात कह न सका; आकाश वाणी के साथ आत्मा की वाणी का बँधा नहीं स्वर अभी पूर्णता के स्वर में, करूं क्या, भाषा नहीं मिली जो। ‘उदयन’ प्रभात: 1 दिसम्बर, 1940

बहुत दिन पहले तुमने दी थी मुझे बती धूप

बहुत दिन पहले तुमने दी थी मुझे बती धूप, आज उसके धुएँ में से निकल रहा सुन्दर रूप; मानो किसी पौराणिक व्याख्यान में स्तब्ध मेरे ध्यान मंे धीर पदक्षेप से आई कोई मालविका लिण् शुभ्र दीप शिखा महाकाल मन्दिर के द्वार पर न जाने किस युगान्तर पारपर। आई हो सद्य स्नान करके तुम तुम्हारी सिक्त वेणी लिपट गई ग्रीवा से, मृदु गन्ध आती चन्दन की अंग की बयार से। ऐसा जान पड़ता है हो तुम पुजारिनी, बार बार देखा तुम्हें, परिचय हुआ बार बार, आती तुम मृदु मन्द पद क्षेप से चिरकाल की वेदी तले चुन चुनकर पुष्प नाना पूजा के शुचि शुभ्र वसन अंचल में। अपनी आँखों की शान्त स्निग्ध दृष्टि में पौराणिक वाणी को वहन कर लाती तुम वर्तमान युग की इस भाषा की सृष्टि में। सुललित हाथों के कंगन में प्रिय जन कल्याण की है कामना। आत्म विस्तृत तुम्हारी प्रीति आदि सूर्योदय से वहा लाती धारा है उज्जवल प्रकाश की। सुदूर काल से कर में लिये सेवा रस आई तुम आतप्त ललाट मेरा हो रहा शान्त आज तुम्हारे ही स्पर्श से। ‘उदयन’ प्रभात: 2 दिसम्बर

अपनी वाणी में अन्यमनस्क सुर में जब

अपनी वाणी में अन्यमनस्क सुर में जब बाँधा था गान अपना अकेले ही बैठकर तब भी तो थी तुम दूर, दर्शन तक दिया नहीं! कैसे मैं जानूं, आज मेरा वही गान अपरिचय के तट पर जा तुम्हारा ही कर रहा सन्धान है। देखा आज, ज्यों ही तुम आती पास तुम्हारी गति के ताल में बज उठती मेरी छन्द ध्वनि। जान पड़ा, सुर के उस मेल में उच्छ्वसित हो उठा आनन्द का निश्वास सारे विश्व में। सालों साल पुष्पवन में पुष्प् नाना खिलते और झरते हैं सुर के उस मिलन पर ही मरते हैं। कवि के संगीत में फैलाकर अंजली जाग रही वाणी है अनागत प्रसाद की प्रतीक्षा में। चल रहा खेल दुबकाचोरी का अनिवार्य एक विश्व में अपरिचित के साथ अपरिचित का। ‘उदयन’ प्रभात: 2 दिसम्बर

आँधी तूफान के बाद जैसा

आँधी तूफान के बाद जैसे आकाश का वक्ष स्थल करता अवारित है उदया चल का ज्योतिः पथ गभीर निस्तब्ध नीलिमा में, वैसे ही मुक्त हो जीवन मेरा अतीत के वाष्प जाल से, सद्य नव जागरण कर उठे त्वरा शंख ध्वनि इस जन्म के नव जन्म द्वार पर। कर रहा प्रतीक्षा में- पुँछ जाये रंग का प्रलेप यह उज्जवल प्रकाश से, मिट जाय खेल व्यर्थ का खिलौना बना अपने को, निरासक्त मेरा प्रेम अपने ही दाक्षिण्य से पा जाय निज मूल्य शेष। आयु के स्रोत में बहता चला जाऊं जब अँधेरे उजाले मंे तट तट पर देखता फिरूं न मैं मुड़-मुड़कर अपनी अतीत कीर्ति को; अपने सुख दुख में निरन्तर जो लिप्त ‘मैं’ अपने से बाहर ही कर सकूं उसकी स्थापना संसार की असंख्य बहती हुई घटना की सम श्रेणी में, निःशंक निस्पृह द्रष्ट की दृष्टि से दुखूं उसे अनात्मीय निर्वासन के रूप में। यही मेरी शेष वाणी, कर देगी सम्पूर्ण मेरे परिचय को असीम शान्त शुभ्रता। ‘उदयन’ प्रभात: 3 दिसम्बर

जो कुछ भी चाहा था एकान्त आग्रह से

जो कुछ भी चाहा था एकान्त आग्रह से उसके चारों ओर से बाहु की वेष्टनी जब होती दूर, तब बन्धन से मुक्त उस क्षेत्र में जो चेतना होती उद्भासित है प्रभात किरणों के साथ देख रहा हूं उसी का अभिन्न स्वरूप आज। शून्य है, तो भी वह शून्य नही। समझ जाता हूं उसी क्षण ऋषि की वाणी यह आकाश आनन्द पूर्ण होता नहीं कहीं तो देह मन प्राण मेरे निष्क्रिय हो जाते सब जड़ता के नागपाश में। कोह्येवान्यात् का प्राण्यात् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्। ‘उदयन’ प्रभात: 3 दिसम्बर

धूसर गोधलि लग्न में सहसा देखा एक दिन

धूसर गोधलि लग्न में सहसा देखा एक दिन मृत्यु दक्षिण बाहु जीवन के कण्ठ में लिपटी है, रक्त सूत्र से बँधी है ; उसी क्षण पहचान गया जीवन और मरण को। देखा फिर, ले रही यौतुक है मरण वधू, वर का जो चरम दान; दाह ने हाथ में लेकर उसे चली है वह युगान्तर को। ‘उदयन’ प्रभात: 4 दिसम्बर

धर्मराज ने दिया जब ध्वंस का आदेश तब

धर्मराज ने दिया जब ध्वंस का आदेश तब अपनी हत्या का भार अपने ही हाथ में ले लिया मानव समाज ने। पीड़ित मन से सोचा है बार-बार- ‘पथभ्रष्ट पथिक ग्रह के अकस्मात् अपघात से एक ही विशाल चितानल में क्यों नही जलती आग एक महा सह मरण की।’ अब फिर सोचता हूं, हाय- दुःख शोक ताप से पापों का हुआ नहीं क्षय तो प्रलय भस्म क्षेत्र में बीज उसका पड़ा ही रहेगा सुप्त, कण्टकित हो उठेगी छाती नवीन सृष्टि की।

तुम्हें देख नहीं पाता तो अनुभूति होती

तुम्हें देख नहीं पाता तो अनुभूति होती ऐसी कुछ आर्त कलपना में, पाँव तले पृथिवी आज चुपचाप कर रही गुप्त मन्त्रणा- स्थानच्युत होगी वह, हट जायगी है जहां से। दृढ़ता पकड़ना चाहता मन उत्कण्ठत हो आकाश को ऊपर उठा के हाथ दोनों बाँह से। चौंक उठता अचानक ही, स्वप्न जाता टूट मेरा; देखूं तो, मस्तक झुकाये तुम कर रहीं बुनाई कुछ बैठी-बैठी सामने, करके समर्थन तुम मानो कह रही हो, ‘अमोघ है शान्ति सृष्टि की। ‘उदयन’ प्रभात: 4 दिसम्बर, 1940

शेष वाणी

सामने है शान्ति पारावार,

सामने है शान्ति पारावार, बहा दो तरणी, हे कर्णधार। होगे तुम्हीं मेरे चिर-साथी, लो उठा मुझे, अपनी गोद मंे ले लो, असीम के पथ में जलने दो ज्योति ध्रुव तारा की। मुक्तिदाता, तुम्हारी क्षमा, तुम्हारी दया होगी चिर-यात्रा में पाथेय मेरा। हो जाय मर्त्य का बन्धन क्षय, विशाल विश्व ले ले मुझे गोद में हाथ पसारकर, मिल जाय निर्भय परिचय महा-अपरिचित का अन्तरात्मा में। ‘डाकघर के लिए लिखित और कवि के तिरोधान के दिन पठित

राहु सी मृत्य

राहु सी मृत्यु डालती छाया केवल, कर नहीं सकती ग्रास जीवन के स्वर्गीय अमृत को जड़ के कवल में- निश्चित जानता हूं मन में इस बात को। प्रेम का असीम मूल्य ठग ले सम्पूर्ण कोई ऐसा दस्यु नहीं गुप्त कहीं निखिल के गुहा गहृर में - निश्चित जानता हूं मन में इस बात को। सबसे बढ़कर ‘सत्य’ रूप में पाया था जिसे सबसे बढ़कर ‘असत्य’ था उसमें छदम् वेश धारण कर, अस्तिवत्का यह कलंक कभी सहता नहीं विश्व का विधान है - निश्चित जानता हूं मन में इस बात को। सब कुछ चल रहा निरन्तर परिवर्तन वेग में, यही है धर्म काल का। मृत्यु दिखाई देती आ एकान्त अपरिवर्तन में, इसी से इस विश्व वह सत्य नहीं - निश्चित जानता हूं मन में इस बात को। विश्व को जाना था जिसने ‘है’ के रूप में वही हूं उसका ‘मैं’ अस्तित्व का साक्षी वही, ‘परम-मैं’ के सत्य में सत्य है उसका - निश्चित जानता हूं मन में इस बात को। 7 मई, 1940

ओरे विहंसग मेरे

ओरे विहंसग मेरे, रह रहकर भूलता क्या स्वर है, गाता ही जा, रूकता क्यों है ? वाणी-हीन प्रभात हुआ जाता जो व्यर्थ है जानता नहीं क्या इतना भी तू ? अरूण-प्रकाश का प्रथम स्पर्श तरू लताओं में लग रहा, उनके कम्पन में तेरा ही तो स्वर पत्ते-पत्ते में जाग रहा- भोर के उजाले का कीमत है तू, जानता नहीं क्या इतना भी तू ? जागरण की लक्ष्मी यह रही मेरे सिरहाने पर बैठी है आँचल पसारे जानता नहीं क्या इतना भी तू ? गान के दान मं उसे करना न वंचित तू। दुख रात के स्वप्न तले तेरी प्रभाती न जाने क्या तो बोल रही नवीन प्राण की गीता, जानता नहीं क्या इतना भी तू ? ‘उदयन’ संध्या: 17 फरवरी, 1941

कड़ी धूप की लपटें हैं

कड़ी धूप की लपटें हैं जनहीन दोपहरी में। सूनी चौकी की ओर देखा मैंने, वहाँ भी तो सान्त्वना का लेश नहीं। छाती भरी हताशा की भाषा मानो करती हाहाकार हैं। शून्यता की वाणी उठती करूणा भरी, मर्म उसका पकड़ाई देता नहीं। मृत मालिक का कुत्ता जैसे करुण दृष्टि से देखता है, नासमझ मन की व्यथा वैसे ही करती है हाय-हाय, क्या हुआ, क्यों हुआ, कुछ भी न समझता है - दिन-रात व्यर्थ दृष्टि से चारों ओर केवल बस ढूढ़ता ही फिरता है। चौकी की भाषा मानो और भी है करुण कातर, शून्यता मूक व्यथा हो रही व्याप्त प्रियजन विहीन घर में। ‘उदयन’ संध्या: 26 मार्च, 1941

फिर से और एक बार

फिर से और एक बार ढूँढ़ दूंगा वह आसन तुम्हारा गोद में जिसकी बिछी है विदेश की सम्मान वाणी। अतीत के भागे हुए स्वप्न फिर से आ करेंगे भीड़, अस्फुट गुंजन के स्वर में फिर से रच देंगे नीड़। आ आकर सुख स्मृतियाँ करेंगी जागरण मधुर, बाँसुरी जो नीरव हुई, लौटा लायेंगी उसका सुर। बाहें रख वातायन में वसन्त के सौरभ पथ में महानिःशब्द की पदध्वनि सुनाई देगी निशीथ जगत में। विदेश के प्यार से जिस प्रेयसी ने बिछाया है आसन, चिरकाल रखेगा बाँध कानों में उसी का भाषण। भाषा जिसकी नहीं थी ज्ञात, आँखों ने ही की थी बात, जगाये रखेंगी चिरकाल उसकी सकरुण बातें ही। ‘उदयन’ मध्याह्न: 6 अपै्रल, 1941

आ रहा महामानव, वो देखा

आ रहा महामानव, वो देखो। दिशा विदिशाओं में हो रहा रोमांच हैं मर्त्य धूलि की घास पर। सूर्य लोक में बज उठा शंख हैं, नरलोक में बजा जय डंक है - आया माजन्म का पुनीत लग्न। आज अमा रात्रि के जितने थे दुर्ग तोरण वे धूलि तले हो गये सभी मग्न। ‘उदय शिखर पर जाग रहा ‘माभैः अभ्युदय!’ मन्द्रघोष हो उठा आकाश में। ‘उदयन’ 1 वैशाख 1941

जीवन है पवित्र, जानता हूं

जीवन है पवित्र, जानता हूं, अचिन्त्य स्वभाव उसका, अज्ञेय रहस्य उत्ससे पाया है प्रकाश उसने किस अलक्षित पथ से- मिलता न सन्धान उसका। प्रतिदिन नवीन निर्मलता ने दिया उसे सूर्योदय लाखों योजन दूर से भरकर स्वर्ण घट में आलोक की अभिषेक धारा। दी वाणी उस जीवन ने दिन और रात को, रचा वन फूलों से अदृश्य का पूजा थाल, आरती का दीप दिया जाल निःशब्द नीरव प्रहर में। निवेदन किया चित्त ने जन्म का प्रथम प्रेम उसे। प्रतिदिन का समस्त प्रेम अपने ही आदि जादू के स्पर्श से जाग्रत हो उठता है; प्रिया को किया प्यार मैंने, प्यार किया फूलों की कलियों को; जिनका भी स्पर्श किया उन सबको बना लिया अन्तरतम। जन्म के प्रथम ग्रन्थ में लाते हैं अलिखित पत्र हम, दिन पर दिन भरते ही रहते वे वाणी ही वाणी में परिचय अपना गुँथता ही चलता है हो उठता है परिस्फुट चित्र दिनान्त में, पहचान जाता है अपने को रूपकार अपने ही स्वाक्षर में, फिर मिटा देता है वर्ण उसका रेखा उसकी उदासीन चित्रकार स्याह काल स्याही से; मिटाई नहीं जा सकती सुवर्ण की लिपि कुछ-कुछ, ध्रुव तारा के पास ही जाग रही ज्योतिष्क की लीला है। ‘उदयन’ 25 अप्रेल, 1941

विवाह के पांचवे वर्ष में

विवाह के पांचवे वर्ष में यौवन का निविड़ स्पर्श गोपन रहस्य पूर्ण परिणत रख पुंज अन्तर ही अन्तर में पुष्प की मंजरी से फल के स्तवक में वृन्त से त्वक में सुवर्ण विभा में कर देता व्याप्त हैं संवृत सुमन्द गन्ध अतिथि को घर में बुला लाती है। संयत शोभा पथिक के नयन लुभाती हैं। पाँच वर्ष की विकसित वसन्त की माधवी मंजरी ने भर दी सुधा मिलन के स्वर्ण पात्र में; मधु संचय के बाद मधुप को कर दिया मुखर है। शान्त आनन्द के आमंत्रण ने बिछा दिया आसन रवाहूत अनाहूत जनों को। विवाह के प्रथम वर्ष में दिग-दिगन्तर में शहाना रागिनी में बजी थी बाँसुरी, उठी थी कल्लोलित हँसी भी - आज स्मित हास्य खिल उठा प्रभात के मुँह पर नीरव कौतुक से। बाँसुरी बज रही कनाड़ा की सुगभीर तान में सप्तर्षि ध्यान के आह्यन में। पाँच वर्ष के पुष्पित विकसित सुख स्वप्नों ने पूर्णता का स्वर्ग मानो ला दिया संसार में। पंचम वसन्त राग आरम्भ में बज उठा था, सुर और ताल में वह पूर्ण हो उठा आज; पुष्पित अरण्य पथ पर प्रति पदक्षेप में नूपुर मंे बजता है वसन्त राग आज। ‘उदयन’ प्रभात: 25 अप्रेल, 1941

वाणी की मूर्ति गढ़ रहा हूं

वाणी की मूर्ति गढ़ रहा हूं एकाग्र मन से बैठा निर्जन प्रांगण में पिण्ड-पिण्ड मिट्टी उसकी बिखरी पड़ी है चारों ओर- असमाप्त मूक शून्य को ही देख रही निरूत्सुक। गर्वित मूर्ति का पदानत मस्तक झुका ही रहता है, ‘क्यों’ का उत्तर न दे सकता कुछ भी। उससे भी कहीं ज्यादा शोचनीय बात यह - पाया था रूप किसी काल में उसका भी रूप, हाय, क्रमशः विलीन हुआ गतिशील काल की अर्थ व्यर्थता में। निमंत्रण था कहाँ, पूछा उससे, उत्तर न मिला कुछ- किस स्वप्न को बाँधने को ढोकर धूलि का ऋण दिखाई दिया मानव के द्वार पर ? विस्मृत स्वर्ग की किस ऊर्वशी के चित्त को धरणी के चित्त पट पर बाँधना चाहा था कवि ने- तुम्हें तो वाहन के रूप में बुलाया था, चित्रशाला में रखा था यत्न से, न जाने कब अन्यमनस्क हो भूल गया वह आदिम आत्मीय तुम्हारी धूलि को, असीम वैराग्य में दिग्विहीन पथ में उठा लिया उसे अपने वाणी हीन रथ में। अच्छा है, यही अच्छा, विश्व व्यापी धूसर सम्मान में आज पंगु कूड़े का ढेर प्रतिदन की लांछना काल के प्रति पदक्षेप में बाधा ही दे रही बार-बार, किन्तु पदाघात से जीर्ण अपमान से पाती है शान्ति अवशेष में मिलती जब फिर से वह धूलि में। ‘उदयन’ प्रभात: 3 मई, 1941

अपने इस जन्म दिन में आज मैं

अपने इस जन्म दिन में आज मैं शून्य मैं चाहता हूं बन्धु जनों को निके हाथ के स्पर्श से मर्त्य के अन्तिम प्रीति रस से ले जाऊंगा जीवन का चरम प्रसाद, ले जाऊंगा मानव शेष आशीर्वाद। शून्य झोली है आज मेरी; मैंने उजाड़ कर दी है भरी झोली जो कुछ भी देने का था देकर, कुछ भी यदि पाऊं प्रतिदान मंे- स्नेह कुछ, क्षमा कुछ- तो मैं उसे साथ ले जाऊंगा भाषा हीन अन्त के उत्सव में। ‘उदयन’ प्रभात: 6 मई, 1941

एक दिन रूपनरान नदी के तीर

एक दिन रूपनरान नदी के तीर जाग उठा, जान गया यह जगत स्वप्न नही। रक्ताक्षरों में देखा अपना रूप, पहचान गया अपने को आघात आघात में, वेदना-वेदना में; सत्य जो कठोर है, कठोर को किया प्यार, कभी किसी से वह करता नहीं वंचना। आमृत्यु दुःख ही की तपस्या है यह जीवन, सत्य का कठोर मूल्य पाने को मृत्यु समस्त ऋण चुकाने को। ‘उदयन’ शेषरात्रि: 13 मई, 1941

तुम्हारे जन्म दिन के दान उत्सव में

तुम्हारे जन्म दिन के दान उत्सव में विचित्र सुसज्जित है आज यह प्रभात का उदय प्रांगण। नवीन के खुले है दान सत्र असंख्य मानो पुष्प-पुष्प पल्लव-पल्लव में। प्रकृति परीक्षा कर देखती है क्षण-क्षण में भण्डार अपना, तुम्हें सम्मुख रख पाया यह सुयोग उसने। दाता और ग्रहीता का संगम कराने को नित्य ही आग्रह है विधाता का, आज वह सार्थक हुआ, विश्व कवि उसी के विस्मय में देते तुम्हे आशीर्वाद उनके कवित्व के साक्षी रूप में दिये है तुमने दर्शन वृष्टि-धौत श्रावण के निर्मल आकाश में। ‘उदयन’ प्रभात: 13 जुलाई, 1941

प्रथम दिन के सूर्य ने

प्रथम दिन के सूर्य ने किया था प्रश्न एक सत्ता नूतन आविर्भाव में ‘कौन हो तुम ?’ मिला नहीं उत्तर कुछ। वर्षों यों ही बीत गये, दिवस का शेष सूर्य शेष प्रश्न करता है पश्चिम सागर तीर पर निस्तब्ध संध्या में ‘कौन हो तुम?’ मिला नहीं उत्तर कुछ। वास भवन: जोड़ासाँको कलकत्ता प्रभात: 17 जुलाई, 1941

दुःख की अँधिरिया रात

दुःख की अँधिरिया रात आई है बार-बार मेरे इस द्वार पर, एक मात्र देखा था अस्त्र उसका कष्ट का विकृत भान, त्रास की विकट भंगिमा छलना भूमिका अन्धकार में। भय का नकली चेहरा देख विश्वास किया जितनी बार उतनी ही बार हुआ पराजय व्यर्थ का। यह हार जीत का खेल, जीवन की झूठी माया यह शिशु काल से विजड़ित है पद-पद में विभीषिका, दुःखमय परिहास पूर्ण। भय का विचित्र है चलचित्र- मृत्यु का निपुण शिल्प है विकीर्ण अन्धकार में। कलकत्ता सायाह्न: 29 जुलाई, 1941

अपनी सृष्टि का पथ कर रखा है

अन्तिम रचना अपनी सृष्टि का पथ कर रखा है आकीर्ण तुमने विचित्र छलना जाल में, है छलनामयी! मिथ्या विश्वास का बिछाया जाल निपुण हाथ से सरल जीवन में। इसी प्रवंचना से महŸव को किया चिह्नित है; छोड़ी नहीं उसके लिए कहीं गुप्त रात्रि भी। तुम्हारा ज्योतिष्क उसे जो पथ दिखाता है उसकी अन्तरात्मा का पथ है वह, चिर-स्वच्छ है वह, सहज विश्वास से उसे वह बनाये रखता है चिर-समुज्जवल। बाहर भले ही हो कुटिल, अन्तरात्मा में है ऋजु, इसी में उसका गौरव है। लोग कहते उसे ‘विडम्बित’ है। सत्य को वह पाता है अपने स्वच्छ प्रकाश में प्रकाश-धौत ज्ञान में। कोई भी न कर सकता उसे प्रवश्चित, शेष पुरस्कार ले जाता वह अपने भण्डार में। अनायास ही सह लेता जो जगत की छलनाएँ पाता वह तुम्हारे हाथ शान्ति का अक्षय अधिकार है। वास भवन: जोड़ासाँको कलकत्ता प्रातःकाल साढ़े नौ बजे: बुधवार 30 जुलाई, 1941: 14 श्रावण 1998 (इसी दिन (30 जुलाई) गुरुदेव के शरीर में ओपचार हुआ, और उसके दसवें दिन श्रावणी पूर्णिमा, 1998 (6 अगस्त, 1941) को उनका स्वर्गवास हो गया)

आरोग्य

विराट मानव चित्त में

विराट मानव चित्त में अकथित वाणी पुंज अव्यक्त आवेग से आवर्तन करता है काल से कालान्तर में नीहारिका सम महाशून्य में। वाणी वह मेरी मनः सीमा के सहसा आघात से होकर छिन्न धनीभूत हुई है रूप के आकार में, मेरे रचना कक्ष पथ में। ‘उदयन’ प्रभात: 5 दिसम्बर, 1940

ख्याति निन्दा पार हो आया हूं

ख्याति निन्दा पार हो आया हूं जीवन के प्रदोष में, विदा के घाट पर बैठा हूं। अपनी इस देह पर असंशय किया था विश्वास मैंने, जरा का मौका पा आज वह कर रही अपना ही परिहास है, सभी कामों में देखता हूं अब तो वह बार-बार घटााती है विपर्यय मेरे कर्तव्य को करती रहती है सदा क्षय। उस अपमान से बचाने को मुझे जो विश्राम दे रहे पहरा यहाँ, आस-पास खड़े हैं जो दिनान्त का शेष आयोजन ले, बताऊँ या न बताऊँ नाम उनका, मन में है स्थान उनका, -याद रहेंगे वे। दिया है उन्होंने सौभाग्य का परिचय शेष भुलाये रखा है मुझे दुर्बल प्राण के पराजय से; स्वीकार वे करते हैं इस बात को ख्याति प्रतिष्ठा तो सुयोग्य समर्थों के लिए है, वे ही कर रहे प्रमाणित हैं अक्षम के भाग्य में है जीवन का श्रेष्ठ दान। जीवन भर खयति का खजाना देना पड़ता है, माफी नहीं, छूट नहीं, नहीं फारखती है, अपचय का लेश नहीं उसकी जमींदारी में; समस्त मूल्य समाप्त हो जाने पर जो दैन्य लाता है अर्ध्य प्रेम का असीम के स्वाक्षर तो वहीं हैं। ‘उदयन’ प्रभात: 9 जनवरी, 1941

परम सुन्दर

परम सुन्दर आलोक के इस स्नान पुण्य प्रभात में। असीम अरूप रूप-रूप में स्पर्शमणि कर रही रचना है रस मूर्ति की, प्र्रतिदिन चिर नूतन का अभिषेक होता चिर-पुरातन की वेदी तले। नीलिमा और श्यामल ये दोनों मिल धरणी का उत्तरीय बुन रहे हैं छाया और आलोक से। आकाश का हृदय-स्पन्दन तरु लता के प्रति पल्लव को झूला झुलाता है। प्रभात के कण्ठ का मणिहार झिलमिलाता है। वन से वनान्तर में विहंगों का अकारण गान साधुवाद देता ही रहता है जीवन लक्ष्मी को। सब कुद मिल एक साथ मानव का प्रेम स्पर्श देता है अमृत का अर्थ उसे, मधुमय कर देता है धरणी की धूलि को, यत्र तत्र सर्वत्र ही बिछा देता है सिंहासन चिर-मानव का। ‘उदयन’ दोपहर: 12 जनवरी

नगाधिराज के सुदूर नारंग निकुंज के

नगाधिराज के सुदूर नारंग निकुंज के रस पात्र सब ले आये हैं मेरी शय्या के निकट अब जन हीन प्रभात रवि की मित्रता, अज्ञात निर्झरिणी के विच्छुरित आलोकच्छटा की हिरण्मय लिपि, सुनिविड़ अरण्य वीथिका के निःशब्द मर्म विजड़ित स्त्रिग्ध हृदय के दौत्य को। रोग पंगु लेखनी की विरल भाषा के इंगित में भेजता है कवि सन्देश आशीर्वाद का।

नारी, धन्य हो तुम

नारी, धन्य हो तुम घर है, घर का काम धन्धा भी। उसमें रख छोड़ी है दरार कुछ थोड़ी सी। वहां से कानों में आ प्रवेश करता बाहर के दुर्बल को बुलाती हो तुम। लाती हो शुश्रूषा की डाली, स्नेह उँड़ेल देती हो। जीव लक्ष्मी के मन में जो पालन की शक्ति है विद्यमान, नारी तुम् नित्य ही सुना करती हो उसका आह्यन। सृष्टि विधाता का लिया है कार्य भार, हो तुम नारी उनकी निजी सहकारी। उन्मुक्त करती रहती हो आरोग्य का पथ, नित्य नवीन करती रहती हो जीर्ण जगत श्रीहीन जो है उस पर तुम्हारे धैर्य की सीमा नहीं, अपने असाध्य से वे ही खींच रहे है दया तुम्हारी, बुद्धिभ्रष्ट असहिष्णु करते हैं बार बार अपमान तुम्हारा, आँखें पोंछकर फिर भी तुम करती हो क्षमा उन्हें देकर सहारा। अकृतज्ञता के द्वार पर आघात सहती हो दिन-रात, सब कुछ लेती हो झुका मस्तक और फैला हाथ। जो अभागा आता नहीं किसी काम में प्राण छक्ष्मी जिसे फेंक देती है घूरे में, उसे भी लाती हो उठाकर तुम, लांछना का ताप उसका मिटाती हो अपने स्निग्ध हाथ से। देवता पूजा योग्य तुम्हारी सेवा है मूल्यवान अनायास ही उसे तुम अभागे को कर देती दान। विश्व की पालनी शक्ति की धारिका हो तुम शक्तिमती माधुरी के रूप में। भ्रष्ट जो हैं, भग्न जो हैं, जो हैं विरूप और विकृत उन्हीं के निमित्त हो तुम सुन्दर के हाथ का परम अमृत। ‘उदयन’ प्रभात: 13 जनवरी, 1941

रोग और जरा में जब इस देह से

रोग और जरा में जब इस देह से दिन पर दिन सामर्थ्य झरता ही रहता है यौवन तब पुराने इस नीड़ को घोखा दे पड़ा पीछे छोड़ जाता है, केवल शैशव ही बाकी रह जाता है। आबद्ध घर में कार्य क्षुब्ध संसार के बाहर अशक्त शिशु चित यह ‘मा’ ही ‘मा’ ढूंढ़ता फिरता है। वित्त हीन प्राण लुब्ध हो जाते हैं बिना मूल्य स्नेह का प्रश्रय किसी से भी पाने की। जिसका आविर्भाव क्षीण जीवित को करता दान जीवन का प्रथम सम्मान। ‘बने रहो तुम’ - मन में ले इतनी सी चाहना कौन जता सकता है उसके प्रति निखिल दावे को केवल जीवित रहने का। यही विस्मय बार बार आकर समाता आज प्राण में, प्राण लक्ष्मी धरित्री के गभीर आह्वान में मा खड़ी होता आ जो मा चिर-पुरातन है नूतन के वेश में। ‘उदयन’ सायाह्न: 21 जनवरी

यहाँ-वहाँ की बातें आज उठ रही हैं

यहाँ-वहाँ की बातें आज उठ रही हैं मन में, वर्षा के शेष में शरत के मेघ जैसे उड़ते हैं पवन में। कार्य बन्धन से मुक्त मन उड़ता फिरता है शून्य में; कभी आँकता है रूपहले चित्र, कभी खींचता है सुवर्ण रेखाएँ। विचित्र मूर्तियाँ रचता वह दिगन्त के कोने में, रेखाएँ बदलता है बार-बार मानो मनमने में। वाष्प का है शिल्प कार्य मानो आनन्द की अवहेलना- कहीं भी दायित्व नहीं, इसी से उसका खेल अर्थ शून्य हैं जागने का दायित्व है, इसी से काम किया करता है। सोने का दायित्व नहीं, ऊलजल्त स्वप्न गढ़ा करता है। मन की प्रकृति ही है स्वप्न की, दबी रहती वह कार्य के शासन में, दौड़कर बैठ नहीं पाता मन स्वराज के आसन पर। पाते ही छुटकारा वह कल्पना में कर लेता भीड़, मानो निज स्वप्नों से रचता है उड़ाकू पक्षी का नीड़। इसी से मिलता है प्रमाण अपने में- स्वप्न यह पागलपन ही है विश्व का आदि उपादान। उसे दमन में रखता है, स्थायी कर रखता है सृष्टि की प्रणाली कर्तव्य प्रचण्ड बलशाली। शिल्प के नैपुण्य इस उद्दाम को शृंखखिल करना अदृश्य को पकड़ना है।

अलस शय्या के पास चल रही जीवन की मन्थर गीत

अलस शय्या के पास चल रही जीवन की मन्थर गीत, रच रही है शिल्प शैवाल दल में मर्यादा नहीं कोई उसकी, फिर भी उसमें है परिचय कुछ स्वल्प मूल्य जीवन का। ‘उदयन’ 23 जनवरी, 1941

अति दूर आकाश में है

अति दूर आकाश में है सुकुमार पाण्डुर नीलिमा। अरण्य उसके तले ऊपर को करके हाथ कर रहा नीरव निवेदन है अपना श्यामल अर्ध्य। माघ की तरुण धूप धरणी पर बिछा रहा है चारों ओर स्वच्छ आलोक का उत्तरीय। लिखे रखता हूं इस बात को मैं उदासीन चित्रकार के चित्र मिटाने के पहले ही। ‘उदयन’ 24 जनवरी, 1941

चुपके-चुपके आ रही है घातक रात

चुपके-चुपके आ रही है घातक रात, गत बल शरीर का शिथिल अर्गल तोड़कर कर रही प्रवेश वह अन्तर में, हरण कर रही है जीवन का गौरव रूप। कालिमा के अक्रणम से पराजय मान लेता मन। यह पराभव की लज्जा, अवसाद का अपमान यह जब हो उठता है पुंजीभूत सहसा दिखाई देती है दिगन्त में स्वर्ण किरणों की रेखा अंकित दिन की पताका। आकाश के न जाने किस सुदूर केन्द्र से उठती है ध्वनि एक, ‘मिथ्या है, मिथ्या है ।’ प्रभात के प्रसन्न प्रकाश में देती दिखाई है दुःख विजयी प्रतिमा एक अपने जीर्ण देह दुर्ग के शिखर पर। ‘उदयन’ 27 जनवरी, 1941

मुक्त वातायन के पास जन शून्य घर में

मुक्त वातायन के पास जन शून्य घर में बैठा ही रहता हूं निस्तब्ध प्रहर में, बाहर उठता ही रहता है श्यामल छन्द का गान मानो आ रहा हो धरणी के प्राणों का आह्यन; अमृत के उत्स स्रोत में चित्त बहता चला जाता है दिगन्त के नीलाम आलोक में। किस की ओर भेजूं मैं अपनी स्तुति को व्यग्र मन की व्याकुल प्रार्थना ? अमूल्य को मूल्य देने ढूढ़ता फिरता मन वाणी रूप, रहता है सदा चुप, कहता है, ‘मैं हूं आनन्दित’ - यहीं रुक जाता छन्द, कहता है, ‘मैं हूं धन्य।’

इस जीवन में पाया है सुन्दर मधुर आशीर्वाद

इस जीवन में पाया है सुन्दर मधुर आशीर्वाद, मनुष्य के प्रेम पात्र में उसी की सुधा का पाता हूं मधुर आस्वाद। दुःसह दुःख के दिनों में अक्षत अपराजित आत्मा को लिया है पहचान मैंने। आसन्न मृत्यु की छाया का जिस दिन किया अनुभव उस दिन भय के हाथ से नहीं हुआ मेरा दुर्बल पराभव। महत्तम मनुष्य के स्पर्श से हुआ नहीं वंचित मैं, उनकी अमृत वाणी आत्मा में की है संचित मैंने। जीवन विधाता का जो दान मिला मुझे इस जीवन में उसी की स्मरण लिपि छोड़े जाता हूं कृतज्ञ मन से मैं।

प्रेम आया था एक दिन

प्रेम आया था एक दिन तरुण अवस्था में निर्झर के प्रलाप कल्लोल में, अज्ञात शिखर से सहसा मिस्मय को साथ ले भू्र भ्ंागित पाषाण के निश्चल निर्देश को लाँघकर उच्छल परिहास से, पवन को कर धैर्यच्युत, परिचय धारा में तरंगित कर अपरिचत की अचिन्त्य रहस्य भाषा को, चारों ओर स्थिर है जो कुछ भी परिमित नित्य प्रत्याशित उसी में मुक्त कर धावमान विद्रोह की धारा को। आज वही प्रेम स्निग्ध सान्त्वना की स्तब्धता में नीरव निःशब्द हो पड़ा है प्रच्छन्न गंभरता में। चारों ओर निखिल की विशाल शान्ति में मिला है जो सहज मिलन में, तपस्विनी रजनी के नक्षत्र आलोक में उसका आलोक है, पूजा रत अरण्य के पुष्पार्ध्य में उसकी है माधुरी। ‘उदयन’ मध्याह्न: 30 जनवरी, 1941

घण्टा बज उठा दूर कहीं

घण्टा बज उठा दूर कहीं। नगर के अभ्रभेदी आत्म घोषणा की मुखरता मन से हो गई लुप्त, आतप्त माघ की धूप में अकारण देखा चित्र एक जीवन यात्रा के प्रान्त में जो अनतिगोचर था। गूंथ-गूंथ ग्रामों को खेतों की पगडण्डियाँ चलती चली गई हैं न जाने कितनी दूर तक कहीं-कहीं नदी तट का सहारा ले। प्राचीन अश्वत्थ तले नदी के घाट पर बैठा है यात्री दल पार जाने की आशा लिये; पास ही लग रहा हाट का बजार है। गंज के घास फूंस टीन मिट्टी के झोंपड़ी में गुड़ की भरी गागरों की लग गई कतारे है; चाट-चाट जाते है घ्राण लुब्ध गाँव के कुत्ते सब। भीड़ कर रही है मक्खियाँ। सड़क में ऊपर को किये मुँह पड़ी है बैल गाड़ियाँ बोझ लादे पटसन का, गट्ठर खींच एक-एक कह कह के रामे-राम आड़त के आँगन में तौल रहे तुलाराम। बँधे खुले बैल सब चर रहे घास और पूंछ का चँवर ढोर उड़ा रहे मक्खियाँ। जहाँ-तहाँ सरसों के ढेर लगे कर रहे प्रतीक्षा है गोलों में जाने की। मछुओं नावें आ आकर भिड़ रही घाट पर, मड़रा रहीं चीलें है मछलियों के ठाठ पर। महाजनी नावें भी ढालू तट पर है बँधी हुई। बुन रहे मल्लाह जाल नावों की छत पर बैठ घाम में। नदी पार कर रहे किसान हैं भैसों की पीठ पर साथ-साथ तैरकर। पार के जंगल में दूर स ेचमक रहा मन्दिर का शिखर है प्रभात सूर्य ताप में। खेत और मैदान के अदृश्य उस पास में चलती है रेल गाड़ी क्षीण से भी क्षीणतर ध्वनि रेखा खींचकर आकाश बातास में, पीछे-पीछे धुआँ छोड़ फहराती हुई जा रही दूरत्व विजय की लम्बी विजय पताका। याद उठ आई, कुछ नहीं, गहरी निशीथ रात की, गंगा के किनारें बँधी नाव थी। चाँदनी से चमचमा रहा था नदी का जल, घनीभूत छाया मूर्ति निष्कम्प अरण्य तट पर, किंचित कहीं दिखाई दे जाती थी दिआ की लौ। सहसा मैं उठा जाग। शब्द शून्य निशीथ के आकाश में उठी एक गीत ध्वनि तरूण किसी कण्ठ से, दोैड़ रही उतार के बहाव में तन्वी नाव तीव्र वेग से। क्षण में अदृश्य हो गई वह; दोनों पार स्तब्ध वन में जागती रही गीत-ध्वनि; चन्द्रमा का मुकट पहने अचंचल निशीथ प्रतिमा निवाक हो पड़ी रही पराभूत निद्रा की शय्या पर। चलते-चलते पथिक मन देखता है कितने दृश्य चेतना के प्रत्यन्त प्रदेश में, क्षणभंगुर हैं, फिर भी तो मन में आज जाग जाग उठते सब; एक नहीं, अनेक ऐसे उपेक्षित विचित्र चित्र और जीवन की सर्व शेष विच्छेद वेदना का स्मरण करा रहा है आज दूर का यह घण्टा रव। ‘उदयन’ संध्या: 31 जनवरी, 1941

निर्जन रोगी का घर

निर्जन रोगी का घर। खुले हुए द्वार से टेढ़ी तिरछी छाया आ पड़ रही है शय्या पर। शीत मध्याह्न ताप में तन्द्रातुर वेला है चल रही, गति उसकी मन्थर है शैवाल से दुर्बल स्रोत नदी के समान ही। जाग-जाग उठता है अतीत का दीर्घ श्वास रह-रहकर शस्य शून्य खेत में। आ रही याद आज, हो गये अनेक दिन, स्रोतस्विनी वेगवती पùा ही एक दिन कार्यहीन प्रौेढ़ प्रभात में धूप और छाया में बहा ले गई थी मेरी उदास विचार धारा को अपने शुभ्र फेन में। शून्य के किनारे का कर करके स्पर्श वहाँ मछुओं की नाव चला करती थी पालों के वेग में, पड़े रहते थे यूथभ्रष्ट शुभ्र मेघ आकाश के कोन में। धूप में चमचमाते घट ले लेकर काँख में ग्राम्य वधुएँ सब घूंघट के भीतर से बतराती जाती थी, वार्ता से गुंजरित टेढ़े मेढ़े रास्तें में आम्र वन की छाया में कोयल कहाँ बोल रही क्षण-क्षण में निभृत वृक्ष शाखा पर। छाया कुण्ठित ग्रामीण जीवन यात्रा का रहस्य आवरण कम्पित कर देता है मेरा मन। सरोवर के चारों ओर हरे भरे सरसों के खेतों से पूर्ण हो जाता है प्रतिदान इस धरणी का सूर्य किरणों के दान का, सूर्य मन्दिर वेदी तले बिछा है नैवदा थाल पुष्प का। एक दिन शान्त दृष्टि फैलाकर निभृत प्रहार में भेजो मैंने निःशब्द मूक बन्दना उस सविता को जिन के ज्योति रूप में प्रथम मानव ने मर्त्य के प्रांगण तले देवता का देखा स्वरूप था। मन ही मन सोचा है, प्राचीन युग की कहीं वैदिक मन्त्र की वाणी होती मेरे कण्ठ में तो मिल जाता मेरा स्तव स्वच्छ सूर्या लोक में। भाषा नहीं, भाषा नहीं; देखकर दूर दिगन्त की ओर मैंने बिछाया है मौन अपना पाण्डुनील मध्याह्न आकाश में। ‘उदयन’ मध्याह्न: 1 फरवरी, 1941

अकेला बैठा में विश्व के गवाक्ष में

अकेला बैठा में विश्व के गवाक्ष में देख रहा दिगन्त की नीलिमा में अनन्त की मौन भाषा। प्रकाश है ला रहा अपने साथ छाया जड़ित सिरीष वृक्ष स्निग्ध श्यामल सख्यता। मन में बज बज उठता है - ‘दूर नहीं, दूर नहीं, नहीं बहुत दूर है।’ पथ रेखा विलीन हुई अस्तगिरि-शिखर के अन्तराल में, स्तब्ध हुआ खड़ा हूं मैं दिगन्त पाठशाला द्वार पर, दूर देखा, चमक रहे क्षण क्षण में शेष तीर्थ मन्दिर के क्लश हैं। वहाँ सिंहद्वार पर बज रही दिगन्त की रागिणी, जिसकी मूर्छना में मिश्रित है इस जन्म का जो कुछ भी सुन्दर है, स्पर्श जो करती है प्राणो को दीर्घ यात्रा पथ में पूर्णतया का इंगित दे। मन में बज बज उठता है- ‘दूर नहीं, दूर नहीं, नहीं बहुत दूर है।’

विराट सृष्टि क्षेत्र में

विराट सृष्टि क्षेत्र में खेल आतिशबाजी हो रहा आकाश में सूर्य चन्द्र ग्रह तारों को लेकर युग-युगान्तर के परिमाप में। अनादि अदृश्य मैं भी चला आया हूं क्षुद्र अग्नि कणा ले किनारे एक क्षुद्र देश काल में। आते ही प्रस्थान की गोद में म्लान हो आई दीपशिखा छाया में पकड़ाई दिया इस खेल का माया रूप, शिथिल हो आये धीरे-धीरे सुख दुःख नाटक साज सब। देखा, युग-युग नटी नट सैकड़ों छोड़ गये नाना रंगीन वेश अपने रंगशाला द्वार पर। देखा और भी कुछ ध्यान से सैकड़ों निर्वापित नक्षत्र नक्षत्र के नेपथ्य प्रांगण में नटराज निस्तब्ध एकाकी बैठे ध्यान में। ‘उदयन’ संध्या: 3 फरवरी, 1941

वाक्यो जो छन्द जाल सीखा है बुनना मैंने

वाक्यो जो छन्द जाल सीखा है बुनना मैंने उस जाल में पकड़ाई दिया है आज बिन पकड़ा जो कुछ था चेतना की सतर्कता से बचा हुआ अगोचर में मन के गहन में। नाम में बांधना चाहता हूं, किन्तु मानता नहीं नाम का परिचय वह। मूल्य यदि हो उसका कुछ भी तो ज्ञात होता रहता है प्रतिदिन और प्रतिक्षण हाथांे-हाथ हस्तान्तर होने में। अकस्मात् परिचय का विस्मय उसका विस्मृत हो जाय तो लोकालय में पाता नहीं स्थान वह, मन के सैकत तट पर विकीर्ण रहता वह कुछ काल तक, लालित जो कुछ है गोपन का प्रकाश्य के अपमान से दिन पर दिन विलीन हो जाता वह रेती में। पण्य की हाट में अचिहिृत परित्यक्त रिक्त यह जीर्णता युग युग में कुछ कुछ दे गई है दान अख्यात का साहित्य के भाषा महाद्वीप में प्राणहीन प्रवाल सम। ‘उदयन’ संध्या: 4 फरवरी, 1941

असल समय धारा के सहारे मन

असल समय धारा के सहारे मन शून्य ओर दृष्टि किये चलता ही रहता है। उस महाशून्य पथ में छायांकित नाना चित्र देते दिखाई है। काल कालान्तर में न जाने कितने लोग दल बाँध-बाँध आये और चले गये सुदीर्घ अतीत में जयोद्वत प्रबल से प्रबलतर गति में। आया है साम्राज्य लोभी पठानों का दल, और आये है मुगल भी; विजय रथ के पहियों ने उड़ाया है धूलि जाल उड़ाई है विजय पताका भी। देखता हूं शून्य पथ में आज उसका काई चिह्न तक है नहीं। निर्मल नीलिमा में हैं केवल रंगीन प्रकाश प्रभात और संध्या का युग युग में सूर्योदय सूर्यास्त का। उसी शून्य तले फिर आये हैं दल बाँध-बाँध लौह निर्मिल पथ से अनल निश्वासी रथ से प्रबल अंगरेज, विकीर्ण कर रहे अपने तेज। जानता हूं, उनके भी पथ से जायगा अवश्य काल, जाने कहाँ बहा देगा उनका यह देशव्यापी साम्राज्य जाल। जानता हूं, पण्यवाही सेना उनकी जायेगी, ज्योतिष्क लोक पथ में वह रेखामात्र चिह्न भी न रख पायेगी। इस मिट्टी पृथ्वी पर दृष्टि डालता हूं तो देखता हूं, विपुल जनता है चल रही कलकल रवसे नाना दल में नाना पथ से युग-युगान्तर से मानव के नित्य प्रयोजन से जीवन और मरण में। चिरकाल ये खेते है डाँड, थामे रहते हैं पतवार; बोते हैं बीज खेतों में काटते है पके धान। निरन्तर काम करते हैं नगर और प्रान्त में। राज छत्र टूट जाते हैं, रणडंका न करते शब्द, जय स्तम्भ मूढ़ सम भूल जाते हैं अपना अर्थ, रक्ताक्त अस्त्र ले हाथ में लाल लाल क्रुद्ध आँखें जा छिपती हैं शिशु पाठय कहानियों में। प्रचण्ड गर्जन और गुंजन स्वर दिन रातों में गुंथ गुंथकर मुखरित किये रहते हैं दिन यात्रा को। सुख दुःख दिवस रजनी मिलकर सब मन्द्रित कर देत हैं जीवन की महामन्त्र ध्वनि। सैकड़ों साम्राज्य भग्न अवशेष पर काम करता है मानव इस पृथ्वी पर। ‘उदयन’ प्रभात: 13 फरवरी, 1941

यह द्युलोक मधुमय है

यह द्युलोक मधुमय है, मधुमय है पृथ्वी की धूलि यह अपने अन्तर में ग्रहण किया है मैंने इसी महामन्त्र को, चरितार्थ जीवन की वाणी यह। दिन पर दिन पाया था जो कुछ भी उपहार सत्य का मधु रस में क्षय नहीं कभी उसका। तभी तो यह मन्त्र वाणी ध्वनित हो रही है मृत्यु के शेष प्रान्त में समस्त क्षतियों को मिथ्या कर अन्तर में आनन्द विराजता। शेष स्पर्श ले जाऊंगा जब मैं इस धरणी का कह जाऊंगा, ‘तुम्हारी धूलि का तिलक लगाया मैंने भाल पर, देखी है ज्योति नित्य की, दुर्योग की माया की ओट में। सत्य का आनन्द रूप उसी ने तो धारण की निज मूूर्ति इस धूलि में- उस धूलि ही करता प्रणाम मैं। ‘उदयन’ प्रभात: 14 फरवरी, 1941

खुला था मन का द्वार

खुला था मन का द्वार, असतर्कता में अकस्मात् लगा था न जाने क्यों कहीं से दुख का आघात वहाँ; उस लज्जा से खुल गया मर्म तले प्रच्छन्न बल था जो जीवन का निहित सम्बल। ऊर्ध्व से आई जय ध्वनि दिगन्त पथ से मन में आ उतरी वह सुलक्षणी, आनन्द का विच्छुरित प्रकाश उसी क्षण मेघ का अँधेरा फाड़ फैल गया हृदय में। क्षुद्र कोटर का असम्मान दूर हुआ, निखिल के आसन पर दीख पड़ा अपना स्थान, आनन्द ने आनन्दमय चित्त मेरा जीत लिया, उत्सव का पथ पहचान गया मुक्ति-क्षेत्र में सगौरव अपना स्थान। दुःख ताड़ित ग्लानि थी जितनी भी छाया थी, विलीन हुई अकस्मात्। ‘उदयन’ मध्याह्न: 14 फरवरी, 1941

धीरे-धीरे संध्या है आ रही

धीरेे-धीरे संध्या है आ रही, एक-एक करके सब ग्रन्थियाँ हैं खुल रहीं प्रहरों के कर्म जाल से। दिन ने दी जलांजलि, खोलकर पश्चिम का सिंहद्वार स्वर्ण का ऐश्वर्य उसका समा रहा आलोक अन्धकार के सागर संगम में। दूर प्रभात को नतमस्तक हो कर रही नीरव प्रणाम है। आँखें उसकी मुदी आती, आ गया समय अब गंभीर ध्यान मग्न हो इस बाह्य परिचय को तिलाजंलि देने का। नक्षत्रों का शान्ति क्षेत्र असीम गगन है जहाँ ढकी रहती है सत्ता दिनश्री की, अपनी उपलब्धि करने वहीं सत्य जाता है रात्रि पारावार में नाव दौड़ाता है। ‘उदयन’ मध्याह्न: 16 फरवरी, 1941

आलोक के हृदय में

आलोक के हृदय में जिस आनन्द का स्पर्श पाता हूं, जानता हूं, उसके साथ मेरी आत्मा का भेद नहीं, एक आदि ज्योति उत्स से चैतन्य के पुण्य स्त्रोत से मेरा हुआ है अभिषेक, ललाट पर उसी का है जय लेख, जताया उसी ने मुझे, मैं अमृत का अधिकारी हूं; ‘परम मैं’ के साथ युक्त मैं हो सकता हूं इस विचित्र संसार में प्रवेश पा सकता हूं, आनन्द के मार्ग में।

इस ‘मैं’ का आवरण सहज में

इस ‘मैं’ का आवरण सहज में स्खलित हो जाय मेरा; चैतन्य की शुभ्र ज्योति भेदकर कुहेलिका सत्य का अमृत रूप कर दे प्रकाशमान। सर्व मानव मंे एक चिर मानव की आनन्द किरण मेरे चित्त में विकीरित हो। संसार की क्षुब्धता स्तब्ध जहाँ उसी ऊर्ध्वलोक मैं नित्य का जो शान्ति रूप उसे देख जाऊं मैं, यही है कामना; जीवन का जटिल जो कुछ भी है व्यर्थ और निरर्थक, मिथ्या का वाहन है समाज के कृत्रिम मूल्य में, उस पर मर मिटते है कंगाल अशान्त जन, उसे दूर हटाकर इस जन्म का सत्य अर्थ जानकर जाऊं मैं उसकी सीमा पार करने के पहले ही। ‘उदयन’ संध्या: 11 माघ, 1997

पलाश को आनन्द मूर्ति जीवन के फागुन की

पलाश को आनन्द मूर्ति जीवन के फागुन की आज इस सम्मान हीन की दरिद्र वेला में दिखाई दी जहाँ मैं साथी हीन अकेला हूं उत्सव प्रांगण के बाहर शस्यहीन मरुमय तट पर। जहाँ इस धरणी के प्रफुल्ल प्राण कुंज से आनाद्दत दिन मेरे बहते ही जा रहे छिन्न वृन्त हो वसन्त के शेष में। फिर भी तो कृपणता नहीं तुम्हारे दान में, यौवन का पूर्ण मूूल्य दिया मेरे दीप्तिहीन प्राण में, अदृष्ट की अवज्ञा को नहीं माना - मिटा दिया उसके अवसाद को; जता दिया मुझे यह- सुन्दर की अभ्यर्थना पाता मैं प्रतिक्षण, पल पल में पाता हूं, नवीन का ही निमन्त्रण। ‘उदयन’ 11 फरवरी, 1941

रोज ही सवेरे आ प्रभुभक्त कुत्ता यह

रोज ही सवेरे आ प्रभुभक्त कुत्ता यह स्तब्ध हो बैठा ही रहता है आसन के पास ही जब तक न उसका संग स्वीकार करता मैं अपने कर स्पर्श से। बस इतनी सी स्वीकृति पा उसके र्स्वांग में तरंगित हो उठता है आनन्द का प्रवाह नित्य। वाक्यहीन प्राणी लोक में यही एक जीव केवल जिसने भलाई बुराई भूल देखा है मनुष्य को सुसम्पूर्ण रूप में। देखा है उसे- जिसे आनन्द से दिये जा सकते है प्राण तक, जिसे दिया जा सकता है अहेतुक पूर्ण प्रेम, असीम चैतन्य लोक में मार्ग दिखा देती है जिसकी परम चेतना। देखता हूं, मूक हृदय का प्राणान्त आत्म निवेदन जब विनम्र और दीनतामय, सोचता हूं- आविष्कार किया है कैसा मूल्य इसने अपने सहज बोध से मानव स्वरूप में। भाषा-हीन दृष्टि करूण है व्याकुलता, स्वयं समझती है, पर समझा नहीं सकती वह, मुझे समझा देती है इस सृष्टि में मानव का सत्य परिचय वह। ‘उदयन’ पौष 1997

दिन पर दिन बीत रहे, स्तब्ध बैठा रहता मैं

दिन पर दिन बीत रहे, स्तब्ध बैठा रहता मैं; मन में सेाचा करता हूं जीवन का दान कितना और बाकी है चुकाना संचय अपचय का? मेरे अयत्न से कितना हो गया क्षय! पाया क्या प्राप्य अपना मैंने ? दिया क्या जो देना था? क्या बचा है शेष पाथेय मेरा? आये थे जो पास मेरे चले गये थे जो दूर मुझ से उनका स्पर्श कहाँ रह गया मेरे किस सुर में? अन्य मनस्कता से किस-किस को पहचाना नहीं मैंेने? विदाई की पदध्वनि प्राणों वृथा ही बज रही आज। इतना भी तो ज्ञात नहीं- कौन कब करके क्षमा, कुछ कहे बिना चला गया है। भूल की हो मैंने यदि उसके प्रति, क्षोभ रखेगा क्या तब भी वह जब न रहूंगा मैं ? कितने सूत्र छिन्न हुए जीवन के आस्तरणमय, उन्हें जोड़ने का अब न रहा कुछ भी समय। जीवन के शेष प्रान्त में प्रेम है असीम जो असम्मान मेरा कोई भी क्षत-चिह्न अंकित करे उस पर तो मेरी मृत्यु के हाथ ला दें आरोग्य उसे, सोचा करता हूं बार-बार यही एक बात मैं। ‘उदयन’ फागुन, 1997

क्षण-क्षण में अनुभव मैं कर रहा

क्षण-क्षण में अनुभव मैं कर रहा समय शायद आ गया, विदाई के दिनों पर डालो अब आवरण अप्रगल्भ सूर्यास्त आभा का; जाने का समय मेरा शान्त हो, स्तब्ध हो, स्मरण सभा का समारोह कहीं रचे नहीं शोक का कोई सम्मोह। वनश्रेणी दे प्रस्थान के द्वार पर धरणी का शान्ति मन्त्र अपने मौन पल्लव बन्दनवार में। उतर आये धीरे से रात्रि का शेष आशीर्वाद, सप्तर्षि की ज्योति का प्रसाद।

दीदी रानी

दीदी रानी- अननिबट सान्तवना की खान है। कोई क्लान्ति कोई क्लेश मुख पर छोड़ न सका चिह्न लेश। कोई भय काई घृणा कोई ग्लानि किसी काम मेें- छाया न डाल सकी सेवा के माधुर्य में। अखण्ड प्रसन्नता सदा घेरे ही रहती है उसे रचा करती है मानो शान्ति का मण्डल; फुरतीले हाथों से करती ही रहती है विस्तार स्वस्तिका; आश्वास की वाणी मधुर अवसाद को कर देती दूर। यह स्नेह माधुर्य धारा अक्षम रोगी को घेर रचा करती है अपना किनारा; अविराम स्पर्श चिन्ता का विचित्र फसल से मानो कर रहा उर्वर है उसके दिन-रातों को। करना है माधुर्य सार्थक, इसी से इतने निर्बल की थी आवश्यकता। अवाक् होकर देखता हूं मैं उसे, रोगी की देह में उसने क्या दर्शन किये हैं अनन्त शिशु के आज ? ‘उदयन’ माघ 1997

फसल कट जाने पर खेत हो जाते साफ

फसल कट जाने पर खेत हो जाते साफ; उगती है काँस घास, अनादर का शाक तुच्छ दाम का। भर-भर आँचल आतीं है चुनने उसे गरीब घर की लड़कियाँ, खुशी-खुशी जातीं घर जो मिलता उसे संग्रह कर। आज मेरी खेती चलती नहीं, परित्यक्त पड़े खेत में अलसाई मन्थर गति से आलस के दिन योंही चल रहे हैं। भूमि बाकी कुछ रस है, मिट्टी नहीं कड़ी हुई; देती नहीं कोई फसल, क्रिन्तु हरी रखती है अपने को। श्रावण मेरा चला गया, न बादल है न वर्षा धारापात की; कुआर-कातिक भी बीत गया, शोभा नहीं शरत की। चैत मेरा सूखा पड़ा, प्रखर सूर्य ताप से सूख गई नदियाँ सब, वन फल के झाड़ों ने यदि बिछाई हो छाया कहीं समझूंगा यही मैं, मेरे शेष मास में धोखा नहीं दिया मेरे भाग्य ने, श्यामल धरा के साथ बन्धन मेरा बना रहा। ‘उदयन’ प्रभात: 10 जनवरी, 1941

विशु दाद हैं

विशु दाद हैं दीर्घ वपु, दृढ़बाहु, दुःसह कर्तव्य में उनके नहीं कोई बाधा, बुद्धि से उज्जवल है चित्त उनका, तत्परता सर्व देह में- करती रहती संचरण। तन्द्रा की ओट में- रोग-क्लिष्ट क्लान्त रात्रिकाल में मूर्तिमान शक्ति का जाग्रत रूप जो है प्राण में बलिष्ठ आश्वास लाता वह वहनकर, निर्निमेष नक्षत्र में जाग्रत शक्ति ज्यों निःशब्द विराजती अमोघ आश्वास से सुप्त रात्रि में विश्व के आकाश में। जब पूछता है मुझसे कोई, ‘दुःख है क्या तुम्हारे कहीं, हो रहा है कष्ट कोई ?’ लगता है ऐसा मुझे, इसके नहीं मानी कोई। दुःख तो है मिथ्या भ्रम, अपने पौरुष से अपने ही आप मैं अवश्य ही करूंगा उसे अतिक्रम। सेवा में निहित शक्ति दुर्बल देह का करती है दान बल का सम्मान।

चिरकाल से होती आई है शुमार मेरी

चिरकाल से होती आई है शुमार मेरी बेकारों के दल में। वाहियात लिखना है, पढ़ना है फालतू, दिन कटते हैं व्यर्थ मिथ्या छल में। उस गुणी को आनन्द में काट देता मेरा दीर्घ समय जो, ‘आओ आओ’ कह के बड़े आदर से बिठाता मैं बैठक में; डरता हूं ‘काम के आदमी’ से, कब्जी में घड़ी बाँध कडाई से बाँध लेता समय को; फजूल खर्ची के लिए बाकी कुछ रखता नहीं हाथ में, मुझ जैसे आलसी लज्जा ही पाते हैं उनके साक्षात् में। समय नष्ट करने में हम बड़े उस्ताद है, काम का नुकसान करने बिछाते जो जाल हैं, उनकी करतूत पर हम देते सदा दाद हैं। मेरा शरीर तो काम में व्यस्तों को दूर से ही दण्डवत करके भगाता है शक्ति नहीं अपने मंे, पराई देह पर महसूल लगाता है। सरोज भइया को देखता हूं, जो भी कहो, जो भी करो, सब में वह राजी रहता है; काम काज कुछ भी नहीं, समय के भण्डार में लगा नहीं ताला कहीं, मुझ जैसे अक्षम की क्षण-क्षण की माँगों को तुरत पूरी करना ही कर्तव्य अपना समझता है; उसके पास इतना है उदार अवसर, अकृपण हो बिना थके दे सकता है निरन्तर। आधी रात को स्तिमित आलोक में सहसा जब देखता हूं मूर्ति उसकी तो सोचता हूं मन ही मन बिठाकर आश्वास की नाव पर किसने दूत भेजा यह, दुर्योग का दुःस्वप्न जिसने दिया तोड़ ? दाय हीन मनुष्य का यह अचिन्त्य आविर्भाव है दया-हीन अदृष्ट की बन्दिशला में बहुमूल्य यह लाभ है। ‘उदयन’ प्रभात: 9 जनवरी, 1941

तुकान्त के तारे सितारे गूंथ

तुकान्त के तारे सितारे गूंथ छन्द की किनारी पर बेकार अलस वेला को भरता ही रहता हूं सिलाई के काम से। अर्थपूर्ण नहीं कुछ, केवल झिलमिलाते रहते हैं आँखों के सामने। तुकबन्दी की सँधों में मेल है, अँधेरे में पेड़ों पर जुगनुओं का खेल हैं उनमें है आलेाक की चमक भी, किन्तु नही दीप-शिखा, रात मानों अँधेरे में खेल रही आलोक के टुकड़े गूंथ-गंूथकर। जंगली पेड़ पौधों में लगते हैं छोटे बड़े फूल, फिर भी नहीं उपवन वह। याद रहे, काम आये- सृष्टि में हैं ऐसी चीज सैकड़ों; न रहे याद, और न आवे काम में उनकी भी काफी भरमार है। झरना का जल करता चलता है नीचे की भूमि उर्वरा; फूला नही समाता फेन, क्षण में बिला जाता है। काम के साथ-साथ खेले गुंथा हुआ है जो हलका करता भार को, देखकर खुशी होती सृष्टि के विधाता को। ‘उदयन’ प्रभात: 23 जनवरी, 1941

जीवन के जन्मदिन

जीवन के अशीतितम वर्ष में

जीवन के अशीतितम वर्ष में किया आज प्रवेश जब विस्मय यह जाग उठा मन में- क्षय कोटि नक्षत्रों के अग्नि निर्झर की निःशब्द ज्योति धारा दौड़ रही निरूद्दश अचिन्त्य वेग से प्लावित कर शून्यता को दिशा विदिशा में, तमाधन अन्तहीन आकाश के वक्ष स्थल में अकस्मात् मैंने किया अभ्युत्थान असीम सृष्टि के यज्ञ में क्षणिक स्फुलिंग समान धारावा ही शताब्दी के इतिहास मेें। आया मैं उस पृथ्वी पर जहाँ कल्पों तक प्राण पकड़ने समुद्र गर्भ से उठकर जड़ के विराट् अंक में उद्घाटित किया है अपना निगूढ़ परिचय शाखायित कर रूप रूपान्तर में आश्चर्यमय। असम्पूर्ण अस्तित्व की मोहाविष्ट छाया ने आच्छन्न किया था पशु लोक को दीर्घ काल तक; किसकी एकाग्र प्रतीक्षा में असंख्य दिन रात्रि के अवसान पर आया मन्थर गमन में मानव प्राण रंगभूमि पर ? नूतन-नूतन दीप जल उठते है एक एककर, नूतन-नूतन अर्थ पा रही वाणी है; अपूर्व आलोक में मनुष्य देखता है अपना अपूर्व भविष्य रूप, पृथ्वी के रंग मंच पर धीरे-धीरे चल रहा है प्रकाश नाटय अंक-अंक में चैतन्य का मैं भी हूं नाटक का पात्र एक पहने साज नाटकीय। मेरा भी आह्यन था यवनि का हटाने के काम में, परम विस्मय है मेरे लिए। सावित्री धरित्री यह, आत्मा का मर्त्य निकेतन, भूमि पर्वत समुद्र कैसा गूढ़ संकल्प ले करते हैं सूर्य प्रदक्षिण- इसी रहस्य सूत्र में गुंथा आया था मैं भी अस्सी वर्ष पहले, चला चला जाऊंगा कुछ वर्ष बाद।

कल सवेरे मेरे जन्मदिन में

कल सवेरे मेरे जन्मदिन में इस शैल अतिथिवास में बुद्ध के नेपाली भक्त आये थे मेरा संवाद सुन। भूमि पर बिछाकर आसन बुद्ध का बन्दना मन्त्र सुनाया सबने मेरे कल्याण में ग्रहण कर ली मैंने वह पुण्य वाणी। इस धरा पर जन्म लेकर जिस महामानव ने समस्त मानवों का जन्म सार्थक किया था एक दिन, मनुष्य जन्म क्षण से ही नारायणी धरणी प्रतीक्षा करती आई थी युगों से, जिनमें प्रत्यक्ष हुआ था धरा पर सृष्टि का अभिप्राय, शुभ क्षण में पुण्य मन्त्र से उनका स्मरण कर जाना यह मैंने प्रवेश कर अस्सी वर्ष पहले मानव लोक में उस महापुरूष का मैं भी हुआ पुण्यभागी।

अपराह्न में आये थे जन्म वासर के आमन्त्रण

अपराह्न में आये थे जन्म वासर के आमन्त्रण में पहाड़ी लोग जितने, एक-एक करके सभी ने दी मुझे पुष्प मंजरियाँ साथ नमस्कार के। धरणी ने पाया था न जाने किस क्षण में प्रस्तर आसन पर बैठकर करके वहिृतप्त तपस्या युगों तक यह वह, पुष्प का दान यह, मनुष्य को जन्मदिन में उपहार देने की आशा से। वही वर, मनुष्य को सुन्दर का नमस्कार आज आया मेरे हाथ में मेरे जन्म का यह सार्थक स्मरण है। नक्षत्र खचित महाकाश में कहीं भी ज्योति सम्पद में दिया है दिखाई क्या ऐसा दुर्लभ आश्चर्यमय सम्मान कभी?

आज जन्मवासर का विदीर्ण कर वक्षस्थल

आज जन्मवासर का विदीर्ण कर वक्षस्थल प्रिय मरण विच्छेद का आया है दुःसंवाद; अपनी ही आग में शौक के दग्ध किया अपने को, उठा उद्दीप्त हो। सायाह्न बेला के भाल पर अस्त सूर्य रक्तोज्ज्वल महिमा का करता जैसे तिलक है, स्वर्णमयी करता है जैसे वह आसन्न रात्रि की मुखश्री को, वैसे ही जलती हुई शिखा ने ‘प्रिय मृत्यु का तिलक कर दिया मेरे भाल पर जीवन के पश्चिम सीमान्त में। आलोक में दिखाई दिया उसका अखण्ड जीवन जिसमें जनम मृत्यु गुँथे एकसूत्र में; उस महिमा ने उद्वार किया उस उज्जवल अमरता का कृपण भाग्य के दैन्यन अब तक जिसे ढक रखा था। मंपू: दार्जिलिंग वैशाख 1997

रक्ताक्त है दन्त पंक्ति हिंसक संग्राम की

रक्ताक्त है दन्त पंक्ति हिंसक संग्राम की सकड़ों पगर और ग्रामों की आँतों को छिन्न कर देता है; लपक लपक दौड़ती है विभीषिका मूर्च्छातुर दिग-दिगन्त में। उतर आती है बाढ़ भीषण यमलोक से राज्य साम्राज्य के बाँध सब विलुप्त हो जाते है सर्वनाशी स्त्रोत में। जिस लोभ रिपु का ले गया युग-युग में दूर दूर बहुत दूर सभ्य शिकारियों का दल पालतू श्वापद के समान, देश विदेश का मांस किया है क्षत-विक्षत, लालेजिहृा उन्हीं कुक्कुरों के दल ने तोड़ी है श्रंृखला मदान्ध हो, भूल गये हैं वे मानवता को। आदिम बर्बरता निकालकर अपने नाखून पैने पुरातन ऐतिह्य के पन्ने फाड़ देती है, उँडे़ल देती है उनके अक्षरों में पंक-लिप्त चिह्न का विकार विष। असन्तुष्ट विधाता के दूत हैं शायद ये, हजारों वर्षो के पाप की पूंजी बिखेर देते हैं एक सीमा से अपर सीमा तक, राष्ट्र मदमत्तो के मद्य भाण्ड चूर्ण कर देते हैं दुर्गन्धयुक्त मलिनता के कुण्ड में। मानव ने अपने सत्ता व्यर्थ की है बार-बार दल बाँधकर, विधाता के संकल्प का नित्य हीकिया है विपर्यय इतिहासमय। उसी पाप से आत्महत्या के अभिशाप से अपना ही कर रहे नाश हैं। हो निर्दय अपना भीषण शत्रु आप पर, धूलिसात् करता है भूरिभोजी विलासी की भाण्डार प्रचीर की। श्मशान विहार विलासिनी छिन्नमस्ता, क्षण में मनुष्य का सुख स्वप्न जीत वक्ष विदारकर दिखाई दी आत्म विस्तृत हो, शत स्त्रोतों में अपनी रक्तधारा आप कर रही पान। इस कुत्सित लोला का होगा अवसान जब, वीभत्स ताण्डव में इस पाप युग का हेगा अन्त जब, मानव आयेगा तपस्वी के वेश में, चिता भस्म शय्याा पर जमाकर आसन बैठगा नव सृष्टि के ध्यान में निरासक्त मन से। आज उस सृष्टि के आहृान की घोषित कर रही हैं बन्दूक तोप कमान सब। कालिंगपंग 22 मई, 1940

दमामा बज रहा है

दमामा बज रहा है, सुनो, आज बदली के दिन आ गये आँधी तूफान युग में होगा आरम्भ कोई नूतन अध्याय, नहीं तो क्यों इतना अपव्यय- उतरा आता है निष्ठुर अन्याय ? अन्याय को खींच लाते हैं अन्याय के भूत ही, भविष्य के दूत ही। कृपणता की बाढ़ का प्रबलि स्रोत विलुप्त कर देता है मिट्टी निस्व निष्फल रूप को। बहा लेजाता है जमे हुए मृत बालू के स्तर को भरता है उससे वह विलुप्ति गहृर को; सैकत की मिट्टी को देता अवकाश है मरूभूमि को मार-मार उगाता वहाँ घास है। दूब के खेत की पुरानी पुनरुक्तियाँ अर्थहीन हो जाती है मूक सी। भीतर जो मृत है, बाहर वह फिर भी तो मरता नहीं जो अन्न घर में किया संचित है- अपव्यय का तूफान उसे घेरे दौड़ा आता है, भण्डार का द्वार तोड़ छप्पर उड़ा ले जाता है। अपघात का धक्का आ पड़ता उनके कन्धे पर, जगा देता है उनकी मज्जा में घुसकर वह। सहसा अपमृत्यु का संकेत आयेगा नई फसल बोने को लायेगा बीज नये खेत में। शेष परीक्षा करायेगा दुदैंव- जीर्ण युग के समय में क्या रहेगा, क्या जायेगा। पालिश शुदा जीर्णता को पहचानना है आज ही, दमामा बज उठा है, अब करो अपना काज ही। 31 मई, 1940

नाना दुःखों में चित्त विक्षेप में

नाना दुःखों में चित्त विक्षेप में जिनके जीवन की नींव काँप-काँप उठती है बार-बार, जो हैं अन्यमना, सुनो, मानो मेरा कहना अपने को भूलना न कभी भी। मृत्युंजय हैं जिनके प्राण, समस्त तुच्छता ऊपर जो दीप जला रखते हैं अनिर्वाण, उनमें हो तुम्हारा नित्य परिचय, रखना ध्यान। उन्हें करोगे यदि खर्व तो खर्वता के अपमान से बन्दी बने रहोगे। उनके सम्मान से बन्दी बने रहोगे। उनके सम्मान का करना मान तुम चिरस्मणीय हैं विश्व में जो।

उमर मेरी होगी जब बारह या तेरह की

उमर मेरी होगी जब बारह या तेरह की। पुरानी नील कोठी की ऊपर की मंजिल में कमरा था, जिसमें मैं रहता था। सामने थी खुली छत- दिन और रात दोनों मिल उजाले अँधेरे में जगा दिया करते थे साथी हीन बालक की भावना और चिन्ता को असम्बद्ध रूप में, अर्थशून्य प्राण वे पाती थी, जैसे नीचे सामने बह रहे प्रकाश पा पेड़ झाड़ बेंत के किनारे तालाब के। झाऊ की पंक्ति खड़ी काँप रही झरझरझर। नील की खेती के जमाने की पुरानी निशानी है। वृद्ध इन वृक्षों के समान ही आदिम पुरातन वयस के अतीत उस बालक का मन निखिल आत्मा पाता था कम्पन, आकाश की अनिमेष दृष्टि की बुलाहट पर देता था उत्तर वह, ताके ही रहता था दूर बहुत दूरी पर। जाग्रत नही थी बुद्धि मेरी, बुद्धि बाहर जो कुछ था उसे बाधा नहीं मिली कहीं किसी द्वार पर। स्वप्न जनता के विश्व में था द्रष्टा या स्रष्टा के रूप में, पण्य हीन दिनों को बहा रहा था चुपचाप मैं कदली पत्र की नाव के निरर्थक खेल में। सवार हो टट्टू पर पहुंचता मैदान और दौड़ाता रहता था देर तक घोड़े को, मन में समझकर सेनापति अपने को, पढ़ने की किताब देखा था चित्र एक मन में थी वही बात, और कुछ नहीं था। युद्धहीन रणक्षेत्र के इतिहास हीन मैदान में ऐसे ही कटता था मेरा सवेरा तब। जवा और गेंदा के फूलों का निचोड़ रस मिश्रित उस रंग से न जाने क्या लिखता था, उस लिखाई का यश- अपने ही मर्म में हुआ है रंगीन तब बाहर की वाहवाही बिना ही। शाम को बुलाकर विश्वनाथ शिकारी को सुनता था किस्से उससे विचित्र शेर शिकार के निस्तब्ध छत पर वे लगते थे अद्भूत संवाद से। म नही मन मैं भी बन्दूक को दबाना था घोड़ जब थरथरथर काँप उठती छाती तब। चारों ओर शाखायित सुनिविड़ प्रयोजन थे उनमें बालक मैं और किउ़ वृक्ष सम डोरदार ख्यालों के अद्भूत विकाश में झूमता और झूलता ही रहता था कल्पना हिंडोले में। मानो मैं रचयिता के हाथ में पोथी के प्रथम कोरे पात में अलकंरण अंकन में कहीं कहीं अस्पष्ट कोई लेख था, बाकी सब रेखाओं को टेढ़ा सीधा भेख था। आज जब शुरू हुआ पुराना हिसाब लेन देन का, चारों और से क्षमाहीन भाग्य आ पहुंचा पुँह फाड़कर, विधाता के लड़कपन के खेल घर जितने थे सबको दिया तोड़फोड़। आज याद आते हैं दिन वे रातें वे, प्रशस्त वह छत भी, उस प्रकाश अन्धकार में कर्म समुद्र बीच निष्कर्म द्वीप के पार पर बालक का मन मानों लगता था मघ्याहृ में घुग्घु की पुकार सा। संसार में कहाँ क्या हो रहा, क्यों हो रहा, भाग्य चक्रान्त से, बालक ने कभी कुछ पूछा नहीं आज तक प्रश्रहीन विश्व में। इस निखिल में जगत है लड़कपन विधाता का, वयस्कों के दृष्टिकोण में हँसी है वह कौतुक की- बालक को नहीं ज्ञात था। उसका तो वहाँ बिछा आसन अबाध था। वहीं उसका देव लोक, स्वकल्पित वहीं स्वर्गलोक, नहीं जहाँ भर्त्सना, नहीं पहरा किसी प्रश्र का, नहीं कहीं युक्ति संकेत काई पथ में, इच्छा का ही संचरण है उसके लगाम मुक्त रथ में।

सोचता मन में हूं, मानो भाषा के असंख्य शब्द

सोचता मन में हूं, मानो भाषा के असंख्य शब्द हुए है मुक्त आज, दीर्घकाल व्याकरण दुर्ग में बन्दी रहने के बाद अकस्मात् हो उठे विद्रोही आज, अधीर हो अविश्राम कर रहे कवायद हैं। तोड़ रहे बार-बार व्याकरण को कर रहे ग्रहण वे मूर्खो के भाषण को, छिन्न कर अर्थ का श्रंखल पाश साधु साहित्यकार करते हैं व्यंग हास्य परिहास। और सब छोड़कर मानते हैं केवल श्रुति को विचित्र उसकी भंगिमा है विचित्र उनकी युक्तियाँ। कहते हैं, हमने जन्म लिया है इस धरणी पर निश्वसित पवन में आदिम ध्वनि की सन्तान के रूप में मानव कण्ठ में मन हीन प्राण जब नाड़ी के झूले में सद्य जागरण में नाच-नाच उठे थे। शिशु कण्ठ में लाये हम आदि काव्य आस्तित्व की प्रथम कलध्वनि। गिरि शिखर पर पागल निर्झर श्रावण दूत जो उसी के कुटुम्बी हम आये हैं लोकालय में मन्त्र लेकर सृष्टि की ध्वनि का। मर्मर मुखर वेग से ध्वनि का जो कलात्सव अरण्य के तरू पल्लवों में है हो रहा, जो ध्वनि दिगन्त में आँधी के छन्द का करती है तौल नाप, निशान्त में जगाती जो प्रभात का महा-प्रलाप, उस ध्वनि के क्षेत्र से आहरण किये हैं शब्द मनुष्य ने वन्य घोटक के समान अपने जटिल नियम सूत्र जाल में वार्ता वहन करने को अनागत दूर देश काल में। सवार हो लगाम-बद्ध शब्द अश्व पर मनुष्य ने कर दी है मन्थर गति द्रुत काल की घड़ियों की। जडत्र की अचल बाधा को तर्क वेग से करके हरण अदृश्य रहस्य लोक में कर रहे संचरण, व्यूह बाँध शब्द अक्षैहिणी प्रतिक्षण मूढ़ता का आक्रमण व्यर्थ कर, जीतती है प्रचण्ड रण। कभी शब्द चोर से आ पैठते हैं मानव मन के स्वप्न राज्य में, नींद भाटा स्रोत में पाते नहीं बाधा वे- जो जी में आता है ले आते है,ं छन्द के बन्धन में नहीं बँधते वे, उसी से वुद्धि हो अन्यमना करती है शिल्प रचना सूत्र जिसका असंलग्न स्खलित और शिथिल है, विधाता की सृष्टि से जिसका नहीं मेल है ; जैसे दस बीस पिल्ले मिल एकसाथ खेलते है मत्त हो, एकपर एक चढ़ते है, भूंकते हैं, काटते है परस्पर बेमतलब, उनके इस खेल में हिंसा का भाव नहीं, उसमें है केवल उपाम ध्वनि और भंगिमा। मन ही मन देखता हूं, दिन दिन भर दल के दल शब्द केवल दौड़ा ही करते हैं निज अर्थो से छिन्न हो, आकाश में मेघ जैसे गरजते गड़गड़ाते हैं। कलिंगपंग 24 सितम्बर, 1940

पहाड़ की नीलिमा और दिगन्त की नीलिमा

पहाड़ की नीलिमा और दिगन्त की नीलिमा शून्य और धरातल मिलकर ये सब के सब मन्त्र बाँधते हैं अनुप्रास और छन्द सें वन को कराती स्नान शरत की सुनहली धाम। पीले फूलों में मधु ढूढ़ती हैं बैंगनी मधुमक्खियाँ; बीच में हूं, मैं, चारों ओर आकाश बजाता है निःशब्द तालियाँ। मेरे आनन्द में आज हो रहे एकाकार समस्त रंग और ध्वनियाँ, जानता है क्या इस बात को यहाँ का यह कालिगपंग ? भण्डार करता हे संचित यह पर्वत शिखर अन्तहीन युग-युगान्तर। मेरे एक दिन में उसे वरमाला पहना दी, यह शुभ संवाद पाने को अन्तरीक्ष दूर से भी और दूर अनाहत के स्वर में सोने का घण्टा बजता है प्रभात ढन्न ढन सुनता है क्या कलिंगपग? कलिंगपंग 25 सितम्बर, 1940

पुरातन काल का इतिहास जब

पुरातन काल का इतिहास जब संवाद न था मुखरित तब उस निस्तब्ध ख्याति के युग में- आज के समान ऐसे ही प्राण यात्रा कल्लोलित प्रात मंे जिन्होने की है यात्रा मरण शंकिल मार्ग से आत्मा अमृत अन्न करने को दान दूर वासी अनात्मीय जनों को, संघबद्ध हो चले थे जो पहुंचे नहीं लक्ष्य तक, तृषा तप्त महा बालु का में अस्थ्यिाँ छोड़ गये समुद्र ने जिनके चिह्न को मिटा दिया, अनारब्ध कर्म पथ में अकृतार्थ नहीं हुए वे- घुल-मिल गये है उस देहातीत महाप्राण में, शक्ति दी है जिसने अगोचर में चिर मानव को उनकी करूणा का स्पर्श पा रहा हूं आज इस प्रभात प्रकाश में, उनको मेरा नमस्कार है। ‘उदयन’: शान्ति निकेतन प्रभात: 12 दिसम्बर, 1940

जीवन वहन भाग्य को नित्य आशीर्वाद से

जीवन वहन भाग्य को नित्य आशीर्वाद से करने दो स्पर्श ललाट का अनादि ज्योति के दान रूप में नित्य नवीन जागरण में प्रत्येक प्रभात में मर्त्य आयु की सीमा में। म्लानिमा का घना आवरण हटता रहे प्रतिदिन और प्रतिक्षण अमर्त्य लोक के द्वार से निद्रा जड़ित रात्रि सम। हे सविता, उनमुक्त करो अपने कल्याणतम रूप को, उस दिव्य आविर्भाव में देखूं मैं निज आत्मा को मृत्यु के अतीत जो। ‘उदयन’: शान्ति निकेतन प्रभात: 7 पौष 1997

काल के प्रबल आवर्त से प्रतिहत

काल के प्रबल आवर्त से प्रतिहत फेन पुंज के समान, प्रकाश अन्धकार से रंचित यह माया है, अशरीरी ने धारण की काया है। सत्ता मेरी, ज्ञात नहीं, कहाँ से यह उत्थित हुई नित्य धावित स्त्रोत में। सहसा अचिन्तनीय अदृश्य एक आरम्भ में केन्द्र रच डाला अपना। विश्व सत्ता बीच में आ झाँकती है, ज्ञात नहीं इस कौतुक के पीछे कौन है कौतकी। क्षणिका को लेकर यह असीम का है खेलना, नव-विकाश के साथ गूंथी है शेष-विनाश की अवहेलना, मृदंग बज रहा है आलोक में कालका, चुपके से आती है क्षणिका नव-वधु के वेश में ढककर मुँह घंूघट से बुदबुद हार पहने मणिकाका। सृष्टि में पाती है आसन वह, अनन्त उसे जताता है अन्त सीमा का आविर्भाव।

की है वाणी की साधना

की है वाणी की साधना दीर्घकाल तक, आज क्षण-क्षण में करता हूं उपहास परिहास उसका। बहु व्यवहार और दीर्घ परिचय तेज उसका कर रहा क्षय। करके अपने अवहेलना अपने से करती है खेल वह। तो भी, मैं जानता हूं, अपरिचिका परिचय निहित था वाक्य, जो उसके वाक्य के अतीत है। उस अपरिचितका दूत आज मुझे लिये जाता है दूर अकूल सिन्धु को प्रणाम निवेदन करने को, इसी से कहता है मन, ‘मैं जाता हूं ।’ उस सिन्धु दिन यात्रा को सूर्य कर देता पूर्ण, वहाँ से सन्ध्या-तारा रात्रि को दिखाते चलते है पथ, जहाँ उसका रथ चला है ढूंढ़ने को नूतन प्रभात किरणों को तमिस्त्रा के पार। आज सभी बातें लगती हैं केवल मुखरता सी। रुकी है वे पुरातन उस मन्त्र के पास आकर जो ध्वनित हो रहा है उस नैःशब़्द्य शिखर पर सकल संशय तर्क जिस मौन की गभीरता में होते निःशेष हैं। लोक ख्याति जिसके पवन से क्षीण होकर तुच्छ हो जाती है। दिन शेष में कर्मशाला भाषा रचना का रूद्ध कर दे द्वार। पड़ रह जाय पीछे झूठा कूड़ करकट सारां बारम्बर मन हीमन कह रहा हूं, ‘मैं जाता हूं’ जहाँ नहीं है नाम, जहाँ हो चुका है लय समस्त विशेष परिचय, ‘नहीं’ और ‘है’ जहाँ मिले है दोनों एक में, जहाँ अखण्ड दिन हैं आलोक-हीन अन्धकार-हीन, मेरी ‘मैं’ की धारा जहाँ विलीन हो जायगी क्रमशः परिपूर्ण चैतन्य के सागर संगम में। यह वाह्य आवरण ज्ञात नहीं, नाना रूप रूपान्तर में काल स्रोत में कहाँ बह जायगा। अपने स्वातन्त्र्य से निःसक्त हो देखूंगा उसे बाहर ‘बहु’ के साथ जड़ित मैं अज्ञात तीर्थगामी। आसन्न है वर्ष शेष। पुरातन सब कुछ अपना मेरा शिथिल वृन्त कुसुम सम छिन्न हुआ जाता है। अनुभव उसका कर रहा विस्तार अपना मेरे सब कुछ में। प्रच्छन्न विराजता रहा जो निगूढ़ अन्तर में एकाकी, देखता हूं उसी को मैं दर्शन पाने की आशा में। पश्चात का कवि पोंछकर कर रहा क्षीण अपने हस्तांकित चित्र को। सुदूर सम्मुख में सिन्धु और निःशब्द रजनी है, उसके तीर से सुनता हूं, अपनी ही पदध्वनि। असीम पथ का पथिक मैं, अब की आया हूं धरा पर मर्त्य जीवन के काम पर। इस पथ में प्रतिक्षण अगोचर में जो कुछ भी पाया उसमें पाई मैंने यही एक सम्पदा, अमूल्य और उपादेय यात्रा का अक्षय पाथेय। मन कहता है, ‘मैं जाता हूं’ - अपना प्रणाम रखे जाता हूं उनके लिए जिन्होंने जीवन का प्रकाश डाला है मार्ग में, जिन्होंने संशय को किया दूर बार-बार। ‘उदयन’ प्रभात: 19 जनवरी, 1941

मेरी चेतना में

मेरी चेतना में आदि समुद्र भाषा हो रही है ओंकारित; जानता नहीं अर्थ उसका, मैं हूं वही वाणी। केवल छलछल कलकल; केवल सुर, केवल नृत्य, वेदना का कलकोलाहल; केवल यह तैरना- कभी इस पार चलना, कभी उस पार चलना, कभी अदृश्य गभीरता में कभी विचित्र के किनारे किनारे। छन्द के तंरग झूले में झूलते चले जाते हैं, जाग उठते हैं कितने हाव-भाव, कितने इशारे ! स्तब्ध मौनी अचल के इंगित पर निरन्तर स्रोत धारा अज्ञात सम्मुख में है धावमान, कहाँ उसका शेष है, कौन जानता है ! धूप छाया क्षण क्षण में देती रहती है मुड़-मुड़कर स्पर्श नाना प्रकार के। कभी दूर, कभी निकट में, प्रवाह के पट में महाकाल करता है दो रूप धारण अनुक्रम से शुभ्र और कृष्ण वर्ण। बार-बार दक्षिण और वाम में प्रकाश और प्रकाश की बाधा ये दोनों मिल अधरा का प्रतिबिम्ब गति भंग में जाती है अंकित कर, गति-भंग से ढक-ढककर।

विपुल इस पृथ्वी का मैं

विपुल इस पृथ्वी का मैं जानता ही क्या हूं ! देश देश में कितने नगर हैं, कितनी है राजधानियाँ- मनुष्य की कितनी हैं कीर्तियाँ, कितने है गिरि सिन्धु मरु, कितनी है नदियाँ, कितने हैं अज्ञात जीव, कितने हैं अपरिचित पेड़-पौधे- रह गये सब अगोचर में। विशाल है विश्व का आयोजन ; मन को वह घेरे ही रहता है प्रतिक्षण। इसी क्षोभ में पढ़ा करता हूं ग्रन्थ भ्रमण वृत्तान्त के अक्षय उत्साह से जहाँ भी पाता हूं चित्रमय वर्णन की वाणी बटोर लाता हूं। ज्ञान की दीनता अपूर्णता जो भी है मन में पूरी कर लेता हूं भिक्षा लबध ज्ञान से। मैं हूं पृथ्वी का कवि, जहाँ जितनी भी होता है ध्वनि, मेरी बाँसुरी के सुर में उसी क्षण जाग उठती है उसकी प्रतिध्वनि, इस स्वर साधना में पहुंची नहीं बहुतों की पुकार इसी से रह गई दरार। अनुमान और कल्पना में धरित्री का महा एकतान पूर्ण करती रहती है निस्तब्ध क्षणों में मेरे मेरे प्राण। दुर्गम तुषारगिरि असीम निःशब्द नीलिमा में अश्रुत जो गाता गान, मेरे भेजा है निमन्त्रण उसने बार-बार। दक्षिण मेरू के ऊपर जो अज्ञात तारा है महा जन शून्यता में रात अपनी बिताता वह, उसने अर्ध-रात्रि में मेरी अनिद्रा का किया है स्पर्श अनिमेष दृष्टि से अपूर्व आलोक में। सुदूर का महाप्लावी प्रचण्ड निर्झर मेरे मन के गहन में भेजता रहता है स्वर। प्रकृति के ऐक्यतान स्रोत में नाना कवि उँड़ेलते हैं गान नाना दिशा से; उन सबके साथ मेरा है इतना ही योग मिलता है संग सबका, पाता हूं आनन्द भोग, गीत भारती का मैं पाता हूं प्रसाद निखिल के संगीत का स्वाद। सबसे दुर्गम जो मनुष्य है अपने अन्तराल में उसका कोई परिमाप नहीं वाह्य देश काल में। वह है अन्तरमय, अन्तर मिलाने पर ही मिलता है उसका अन्तर परिचय। मिलता नहीं सर्वत्र उसका प्रवेश द्वार, बाधा बनी हुई है सीमा रेखा मेरी अपनी हीजीवन यात्रा की। किसान चलाते हल खेत में जुलाहे चलाते ताँत घर में बैठ बहु दूर प्रसारित है इनका कर्म भार उसी पर कदम रख चलता है सारा संसार। अतिक्षुद्र अंश पर उसके सम्मान के निर्वासन में समाज के उच्च मंच पर बैठा मैं संकीर्ण वातायन में। कभी कभी गया हूं दूसरे मुहल्ले के प्रांगण तक नहीं थी शक्ति किन्तु भीतर प्रवेश करने की। जीवन से जीवन के योग बिना कृत्रिम पण्य में व्यर्थ हो जाता है गीत का द्रव्य सम्भार, इसी से मान लेता हूं मैं अपने सुर की अपूर्णता की निन्दा को। मेरी कविता, मैं जानता हूं, गई है विचित्र मार्ग से, फिर भी वह हो न सकी सर्वत्रगामी। किसान के जीवन से संयुक्त है जो जन, मन वचन कर्म से सच्ची आत्मीयता जिसने की है अर्जन, जो है धरणी की मिट्टी के निकटतम, उस कवि की वाणी सुनने की कान बिछा रखे हैं मैंने आज। साहित्य के आनन्द भोज में स्वयं न दे सका जो, नित्य रहता मैं उसी की खोज में। यही सत्य हो, भाव भ्ंगी से रिझाकर न दूं धोखा किसी दृष्टि को। सत्य का मूल्य बिना दिये करना साहित्य की ख्याति चोरी, अच्छी नही, अच्छी नहीं, नकली है वह शौकीनी मजदूरी। आओ कवि, अख्यात जन के निर्वाक मन के। हृदय की वेदना का उद्वार करो- प्राणहीन इस देश में गान हीन परिवेश में, अवज्ञा के ताप से शुष्क निरानन्द मरूभूमि को अपने रस से परिपूर्ण कर दो आज तुम। भीतर है उत्स उसका अपना जो उसे खोल दो आज तुम। साहित्य की ऐक्यतान संगीत सभा में वे भी सम्मान पायें जिनके पास केवल एकतारा हो- मूक हैं जो सुख दुःख में, नतमस्तक स्तब्ध जो हैं विश्व के सामने। हे गुणी, पास से जो हैं दूर, उनकी मैं सुनूं वाणी। हो जाओ तुम उनके अपने जन, तुम्हारी ख्याति में ही उन्हें मिल जाय अपनी ख्याति, - करूंगा मैं बारम्बार तुम्हें विनम्र नमस्कार। ‘उदयन’ प्रभात: 21 जनवरी, 1941

सिंहासन की छाया तले दूर दूरान्तर में

सिंहासन की छाया तले दूर दूरान्तर में जो राज्य स्पर्घा घोषित करता है राजा और प्रजा में कोई भेद-भाव, पाँव तले दबाये रखता है वह अपना ही सर्वनाश। हतभाग्य जिस राज्य के सुविस्तीर्ण देन्य-जीर्ण प्राण राज मुकुट का नित्य करते है कुत्सित अपमान, उसका असह्य दुःख ताप राजा को न लगे यदि, तो लगता है विधाता का अभिशाप। महा ऐश्वर्य के निम्न तल में अर्धाशन अनशन नित्य धधकता ही रहता है क्षुधानल में, शुष्क प्राय कलुषित है पिपासा का जल, देह पर है नहीं शीत का व़स्त्र सम्बल, अवारित है मृत्यु का द्वार, निष्ठुर है उससे भी जीवन्मृत देह चर्मसार। शोषण करता ही रहता है दिन-रात रुद्ध आरोग्य के पथ पर रोग का अबाध अपघात- जिस राज्य में बसता हो मुमूर्षु दल, उस राज्य को कैसे मिल सकता प्रजा का बल। एक पक्ष शीर्ण है जिस पक्षी का आँधी के संकट क्षेणों में नहीं रह सकता स्थिर वह, समुच्य आकाश से धूलि में आ पड़ेगा अंशहीन, आयेगा विधि के समक्ष हिसाब चुकाने का एक दिन। अभ्रभेदी ऐश्वर्य के चूर्णीभूत पतन के काल में दरिद्र की जीर्ण दशा बनायेगी अपना नीड़ कंकाल में। ‘उदयन’ सायाह्न: 24 जनवरी, 1941

सृष्टि लीला के प्रांगण में खड़ा हुआ

सृष्टि लीला के प्रांगण में खड़ा हुआ देखता हूं क्षण-क्षण में तमस के उस पार जहाँ महा अव्यक्त के असीम चैतन्य में लीन था मैं। आज इस प्रभात में ऋषि वाक्य जाग रहा मन में। करो करो अपावृत, हे सूर्य, आलोक आवरण, तुम्हारी अन्तरतम परम ज्योति में देखता हूं निज आत्मा का स्वरूप मैं। जो ‘मैं’ दिन शेष में वायु में विलीन करता है प्राणवायु, भस्म में जिसकी देह का अन्ता होगा, यात्रा पथ में वह अपनी छाया न डाले कहीं धारण कर सत्य का छद्यावेश। इस मर्त्य के लीला क्षेत्र में सुख दुःख में अमृत का स्वाद भी तो पाया है क्षण-क्षण में, बार-बार असीम को देखा है सीमा के अन्तराल में। समझा है, इस जन्म का शेष अर्थ वही था, उसी सुन्दर रूप में, संगीत में अनिर्वचनीय जो। खेलघर का आज जब खुलेगा द्वार धरणी के देवालय में रख जाऊंगा अपना नमस्कार, दे जाऊंगा जीवन का सम्पूर्ण नैवेद्य मैं, मूल्य जिसका मृत्यु के अतीत हैं। ‘उदयन’ प्रभात: 11 माघ 1997

बहु-जन्मदिन से गुँथे मेरे इस जीवन में

बहु-जन्मदिन से गुँथे मेरे इस जीवन में अपने को देखा मैंने विचित्र रूप समावेश में। एक दिन ‘नूतन वर्ष’ अतलान्त समुद्र की गोद में घर लाया था मुझे यहाँ, तरंगों के विस्तृत प्रलाप में दिग् से दिगान्तर में जहाँ शून्य नीलिमा पर शून्य नीलिमा ने आ तट को किया था अस्वीकार। उस दिन देखी थी छवि अविचित्र धरणी की - सृष्टि के प्रथम रेखा पात में जल मग्न भविष्यत् जब प्रतिदिन सूर्योदय पान में करता था अपना सन्धान। प्राणों के रहस्य आवरण तंरगों की यवनिका पर दृष्टि ढाल सोचने लगा मैं, अभी तक खुला नहीं मेरा जीवन आवरण सम्पूर्ण जो मैं हूं वह तो अगोचर ही रह गया गोपन में। नये-नये जन्मदिनों पर जो रेखाएँ पड़ती हैं शिल्पी की तूलिका की उसमें तो लिखा नहीं मेरी छवि का चरम परिचय। केवल करता हूं अनुभव मैं, चारों ओर अव्यक्त विराट प्लावन वेष्टित किये हुए है दिवस और रात्रि को। ‘उदयन’ सायाह्न: 20 फरवरी, 1941

जन्म वासर के घट में

जन्म वासर के घट में नाना तीर्थे का पुण्य तीर्थ वारि किया है आहरण, इसका मुझे स्मरण है। एक दिन गया था चीन देश में, अपरिचित थे वो, उन्होने ललाट पर कर दिया चिह्न अंकित ‘तुम परिचित हो हमारे’ कहके यह। अलग जा गिरा था कहीं, न जाने कब, पराया छद्यमेश; तभी तो दिखाई दिया अन्तर का मानव नित्य। अचिन्तनीय परिचय ने आनन्द का बाँध मानो खोल दिया। धारण किया चीनी नाम, पहन लिया चीनी वेश समझ ली यह बात मने में- जहाँ भी मिल जाते बन्धु, वहीं जवजन्म होता। प्राणों में लाती है वह अपूर्वता। विदेशी पुष्पोद्यान में खिलते हैं परिचित फूल- विदेशी है नाम उनके, विदेश में है जन्मभूमि, आत्मा के आनन्द क्षेत्र में उनकी आत्मीयता पाती है अभ्यर्थना बिना किसी बाधा के।

फिर लौट आया आज उत्सव का दिन

फिर लौट आया आज उत्सव का दिन। वसन्त के विपुल सम्मान ने भर दी हैं डालियाँ पेड़-पौधों की कवि के प्रागंण में नव जन्मदिन की डाली में। बन्द घर में दूर बैठा हूं मैं इस वर्ष व्यर्थ हो गया पलाश वन का निमन्त्रण। सोचता हूं, गान गाऊं आज वसन्त बहार में। आसन्न निविड़ हो उतरा आता है मन में। जानता हूं, जन्मदिन एक अविचित्र दिन से जा लगेगा अभी, विलीन हो जायगा अचिहिृत काल के पर्याय में। पुष्प् वीथिका की छाया इस विषाद को करूण करती नहीं, बजती नहीं स्मृति व्यथा अरण्य के मर्मर गंुजन में। निर्मम आनन्द इस उत्सव की बजायेगा बाँसुरी विच्छेद वेदना को पथ के किनारे ढकेलकर। ‘उदयन’ सायाह्न: 21 फरवरी, 1941

आज मेरा जन्मदिन है

आज मेरा जन्मदिन है। प्रभात प्रणाम ले अपना उदय दिगन्त की ओर देखा मैंने, देखा, सद्यस्नाता ऊषा ने अंकित कर दिया है आलोक चन्दन लेख हिमाद्रि के हिम शुभ्र कोमल ललाट पर। जो महादूरत्व है निखिल विश्व के मर्मस्थल में उसी की देखी आज प्रतिमा गिरीन्द्र के सिंहासन पर। गभीर गाम्भीर्ण युग-युग में छाया धन अपरिचित का कर रहा पालन पथ हीन महा अरण्य में, अभ्रभेदी सुदूर को वेष्टित कर रखा है दुर्भेद्य दुर्गम तले उदय अस्त के चक्र पथ में। आज इस जन्मदिन में दूरत्व का अनुभव निविड़ हो चला है अन्तर में। जैसे वह सुदूर नक्षत्र पथ नीहारिका ज्योतिर्वाष्प में रहस्य से आवृत है अपने दूरत्व को वैसे ही देखा मैंने दुर्गम में, अलक्ष्य पथ का यात्री मैं, अज्ञात है परिणाम जिसका। आज अपने इस जन्मदिन में- दूर का पथिक जो, उसी की सुनता हूं पद ध्वनि निर्जन समुद्र तीर से। ‘उदयन’ प्रभात: 21 फरवरी, 1941

जटिल है संसार

जटिल है संसार, गाँठ सुलझाने उलझ जाता हूं बार-बार। साीधा नहीं गम्य स्थान, दुर्गम पथ की यात्रा है, कंधे पर बोझ है दुश्चिन्ता का। प्रति पद में प्रति पथ में सहस्रों हैं कृत्रिम वक्रता। क्षण-क्षण में हताश्वास होकर शेष में हार मान लेता मन। जीवन के टूटे छन्द में भ्रष्ट होता मेल है, जीने का उत्साह धूल में मिल, हो जाता शिथिल हैं। जो आशाहीन, शुष्कता पर उतार लाओ निखिल की वर्षा रस धारा। विशाल आकाश में, वन-वन में, धरणी की घास में, सुगभीर अवकाश से पूर्ण हो उठा है आज निखिल विश्व अन्तहीन शान्ति उत्सव के स्रोत में। अन्तःशील जो रहस्य है प्रकाश अन्धकार में उसका सद्य करे आह्वान आदिम प्राण के यज्ञ में मर्म का सहज साम गान। आत्मा की महिमा, जिसे तुच्छता ने कर दी है जर्जर म्लान अवसाद से, उसे दूर कर दूं, लुप्त हो जाय वह शून्य में, द्युलोक और भूलोग के सम्मिलित मन्त्रणा के बल से।

फूलदानी से एक के बार एक

फूलदानी से एक के बार एक आयुक्षीण गुलाब की पँखड़ियाँ झड़-झड़ पड़ती है। फूलों के जगत में मृत्यु की विकृति नहीं देखता मैं। करता नहीं शेष व्यंग्य जीवन पर असुन्दर। जिस मिट्टी का ऋणी है। अपनी घृणा से फूल करता नहीं अशुचि उसे, रूप से गन्ध से लौटा देता है म्लान अवशेष को। विदा का सकरुण स्पर्श है उसमें, नहीं है मर्त्सना किश्चित् भी। अन्मदिन और मरण दिन दोनों जब होते मैं सम्मुखीन, देखता हूं मानो उस मिलन में पूर्वाचल और अस्ताचल में होती है आँखें चार अवसन्न दिवस की, समुज्ज्वल गौरव कैसा प्रणत सुन्दर अवसान है। ‘उदयन’ सायाह्न: 22 फरवरी, 1941

विश्व धरणी के इस विशाल नीड़ में

विश्व धरणी के इस विशाल नीड़ में सन्ध्या है विराजमान, उसी के नीरव निर्देश उसी की ओर निखिल गति का वेग हो रहा है धावमान। चारों ओर धूसरवर्ण आवरण उतरा आता है। मन कहता है, जाऊंगा अपने घर कहाँ घर है, नहीं जानता। द्वार खोलती है सन्ध्या निःसंगिनी, सामने है नीरन्ध्र अन्धकार। समस्त आलोक के अन्तराल में विस्मृति की दूती उतार लेती है इस मर्त्य की उधार ली हुई साज सज्जा सब प्रक्षिप्त जो कुछ भी है उसकी नित्यता में छिन्न जीर्ण मलिन अभ्यास को दूर फेंक देती है। अन्धकार का अवगाहन स्नान निर्मल कर देता है नवजन्म की नग्न ‘भूमिका’। जीवन के प्रान्त भाग में अन्तिम रहस्य पथ पुक्त कर देता है सृष्टि के नूतन रहस्य को। नव जन्मदिन वही है अँधेरे में मन्त्र पढ़ सन्ध्या जिसे जगाती है आत्म आलोक में।

नदी का पालित है मेरा यह जीवन

नदी का पालित है मेरा यह जीवन। नाना गिरि शिखर दान उसकी शिराओं में प्रवाहित है, नाना सैकत मृत्तिका से क्षेत्र उसका रचा गया, प्राणों का रहस्य रस नाना दिशाओं से संचारित हुआ नाना शस्यों में। पूर्व पश्चिम के नाना गीत स्रोत जाल में वेष्टित है उसका स्वप्न और जागरण। जो नदी विश्व की दूती है दूर को निकट जो लाती है, अपरिचित अभ्यर्थना को ले आती है घर के द्वार पर, उसने रचा था मेरा जन्मदिन, चिरदिन उसके स्रोत में बन्धन से बाहर मेरा चलायमान नीड़ बहता ही चलता है तीर से तीर पर। मैं हूं व्रात्य, मैं हूं पथचारी, अवारित आतिथ्य के अन्न से पूर्ण हो उठता है बार-बार निर्विचार जन्मदिन मेरा थाल।

आती है याद आज, शैल तट पर तुम्हारी

आती है याद आज, शैल तट पर तुम्हारी उस निभृत कुटिया की; हिमाद्रि जहाँ निज समुच्च शान्ति के आसन पर निस्तब्ध नित्य विराजता, उतुंग उसकी शिखर की सीमा लाँघना चाहती है दूरतम शून्य की महिमा को। अरण्य उतर रहा है उपत्यका से; निश्चल हरी बाढ़ ने निविड़ नैःशब्द्य से छा दिया है अपने छाया पुंज को। शैलशंृग अन्तराल में प्रथम अरुणोदय घोषणा के काल में अन्तरात्मा में लाती थी स्पन्दन एक सद्य़स्फूर्त्त चंचलता विश्व जीवन की। निर्जन वन का गूढ़ आनन्द जितना था भाषाहीन विचित्र संकेत में पाता था हृदय में जो विस्मय था धरणी के प्राणों की आदि सूचना मेें। सहसा अज्ञात नामा पक्षियों के चकित पक्ष चालना में मेरी चिन्ता धारा बह जाती थी शुभ्र हिम रेखांकित महा निरुद्देश में। हो जाती थी अबेर, और लोकालय उठाता था शीध्रता से सुप्तोत्थित शिथिल समय को। गिरि गात्र पर चढ़ती चली गई है पगडण्डियाँ, चढ़ते और उतरने है पहाड़ी जन हलके भारी बोझ लेकर काम के। पार्वती जनता विदेशी प्राण यात्रा की खण्ड खण्ड वार्ताएँ मन में छोड़ जाती है, नाना रेखाओं में असंलग्न चित्र सी। कभी-कभी सुनता हूं पास ही घण्टा कहीं बज रहा, कर्म का दौत्य वह करता है प्रहर प्रहर में। प्रथम आलोग का स्पर्श आ लगता है घर-घर में आतिथ्य का सख्य भाव जगता हैं स्तर-स्तर में द्वार के सोपान में नाना रंग के नाना फूल अतिथि के प्राण में गृहिणों के हाथ से प्रकृति की लिपि ले आते हैं आकाश वातास में। कलहास्य से लाती है मानव की स्नेह वार्ता युग-युगान्तर मौनी हिमाद्रि की सार्थकता। ‘उदयन’ सायाह्न: 25 फरवरी, 1941

पुराना खंडहर घर और सूना दालान

पुराना खंडहर घर और सूना दालान मूक स्मृति का रुद्ध क्रन्दन करता है हाय-हाय, मरे दिनों की समाधि की भीत का है अन्धकार घुमड़-घुमड़ उठता है प्रभात के कण्ठ में मध्याह्न वेला तक। खेत और मैदान में सूखे पत्ते उड़ रहे हैं घूर्ण चक्र में पड़ हाँप रहे मानो वे। सहसा काल वैशाली करती है बार बर्बरता का फागुन के दिन जब जाने के पथ में हैं। सृष्टि पीड़ा मारती है धक्के शिल्पकार की तूलिका को पीछे से। रेखा रेखा में फूट उठती है रूप की वेदना साथी हीन तप्त रक्तवर्ण में। कभी-कभी शैथिल्य आ जाता है तूलिका की चाल में; पास की गली में उस चिक से ढके धुँधले आकाश तले सहसा झमक उठती है संकेत झंकार जब उंगलियों के पोटुओं पर नाच उठता मदमत्त तब। गोधूलिका सिन्दूर छाया में झड़ पड़ता है पागल आवेग की हवाई आशिबाजी के स्फुलिंग-सा। बाधा पाती और मिटाती है शिल्पी की तूलिका। बाधा उसकी आती कभी हिंसक अश्लीलता में, कभी आती मदिर असंयम मेें। मन में गँदले स्रोत की ज्वार फूल-फूल उठती है, बह जाती है फेनिल असंलग्नता। रूप से लदी नाव बहा ले चली है रूपकार को रात के उलटे उजान स्रोत में सहसा मिले घाट पर। दाहने और बायें सुर बेसुर डाँड़ मारते झपट्टा हैं, ताल देता चलता है बहने का खेल शिल्प साधना का। शान्ति निकेतन 25 फरवरी, 1941

तुम सबको मैं जानता हूं

तुम सबको मैं जानता हूं, फिर भी हो तो तुम दूर ही के जन। तुम्हारा आवेष्टन, चलना फिरना, चारों और लहरों का उतरना चढ़ना, सब कुछ परिचित जगत का है, फिर भी है दुविधा उसके आमन्त्रण में सबों से मैं दूर हूं, तुम्हारी नाड़ी की जो भाषा है वह है तो मेरे अपने प्राणों की ही, फिर भी- विषण्ण विस्मय होता है जब देखता हूं, स्पर्श उसका ससंकोच परिचय ले आता है प्रवासी का पाण्डुवर्ण शीर्ण आत्मीय सा। मैं कुछ देना चाहता हूं, नहीं तो जीवन से जीवन का होगा मेल कैसे ? आते नहीं बनता मुझसे निश्चित पदक्षेप में, डरता हूं, रीता हो पात्र शायद, शायद उसने खो दिया हो रस स्वाद अपने पूर्व परिचय का, शायद आदान प्रदान में न रहे सम्मान कोई। इसी से आशंका की इस दूरी से निष्ठुर इस निःसंगता में तुम सबको बुलाकर कहता हूं- ‘जिस जीवन लक्ष्मी ने मुझे सजाया था नये-नये वेश में, उसके साथ विच्छेद के दिन आज बुझाकर उत्सव दीप सब दरिद्रता की लांछना होने न देगी कभी कोई असम्मान, अलंकार खोल लेगी, एक-एक करके सब वर्ण सज्जा-हीन उत्तरीय से ढक देगी, ललाट पर अंकित कर देगी शुभ्र तिलक की रेखा एक; तुम भी सब शामिल होना जीवन का परिपूर्ण घट साथ ले उस अन्तिम अनुष्ठान में, सम्भव है सुनाई दे दूर से दूर कहीं दिगन्त के उस पार शुभ शंखध्वनि।’ ‘उदयन’ प्रभात: 9 मार्च, 1941

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