प्रहरी : अनिल मिश्र प्रहरी
Prahari : Anil Mishra Prahari

प्रार्थना

बिन सहारे प्रभु मैं किधर जाऊँगा,
दूर मंजिल हमारी बिखर जाऊँगा।

जिन्दगी के भँवर से निकलना मुझे,
बंदगी जिसमें तेरी, वो करना मुझे,
तेरी दृष्टि पड़ी तो निखर जाऊँगा।
बिन सहारे प्रभु मैं किधर जाऊँगा।

तेज धारा नदी की न पतवार है,
डूब जाएगी नैया, भी आसार है,
कर दो कृपा तो मैं तर जाऊँगा।
बिन सहारे प्रभु मैं किधर जाऊँगा।

जाति, धरम की है चलती हवा,
निर्धन को मुश्किल से मिलती दवा,
तेरे दर से न खाली मैं घर जाऊँगा।
बिन सहारे प्रभु मैं किधर जाऊँगा।

अंधियारी रातों में जलता है घर,
हिंसा की आँधी है, उजड़ा शहर,
चरणों में नव पुष्प धर जाऊँगा।
बिन सहारे प्रभु मैं किधर जाऊँगा।

नदियों में बहता है पानी बहुत,
सूखी धरा की कहानी बहुत,
प्यासा हूँ, प्यासे ही मर जाऊँगा।
बिन सहारे प्रभु मैं किधर जाऊँगा।

गुलज़ार कर दे तू उजड़ा चमन,
सारी मही और सारा गगन,
श्रद्धा से दर तेरा भर जाऊँगा।
बिन सहारे प्रभु मैं किधर जाऊँगा।
दूर मंजिल हमारी बिखर जाऊँगा।

वीरों का दिल से अभिनन्दन

सीमा पर डटकर खड़े हुए,
दो नयन शत्रु पर गड़े हुए,
हाथों में अस्त्र सुशोभित है,
उर से भय आज तिरोहित है।
जन-गण-मन करते हैं वन्दन,
वीरों का दिल से अभिनन्दन।

उत्साह हृदय में भरा हुआ,
पग अंगारों पर धरा हुआ,
अरि के हिम्मत को तोड़ चले,
तूफा की गति को मोड़ चले।
झुकता धरती पर आज गगन,
वीरों का दिल से अभिनन्दन।

करते भारत की रखवाली,
हत, जिसने बुरी नजर डाली,
बन जाते पल में महाकाल,
तन - मन इनका भारत विशाल।
जिनकी रक्षा में रघुनंदन,
वीरों का दिल से अभिनन्दन।

जग स्वप्न संजोये सोता है,
सीमा पर क्या - क्या होता है,
छलनी होती इनकी छाती,
धारा लहू की बहती जाती।
बढ़ते रिपु का करते भंजन,
वीरों का दिल से अभिनन्दन।

वीरों ने ली जब अंगड़ाई

गगनचुंबी गिरिराज हिले,
दुश्मन के सर के ताज हिले,
बदली सरिता की तीव्र धार,
मच गया मही पर हाहाकार।
अरिदल पर फिर आफत आई,
वीरों ने ली जब अंगड़ाई।

वन के द्रुम सारे चिल्लाये,
भागो वीरों के दल आये
शीतल समीर छुपकर बोला,
बचना, अम्बर उगला शोला।
वे डरे देख निज परछाई,
वीरों ने ली जब अंगड़ाई।

झंझानिल कानन झोर चला,
तूफा सरि- तट को तोड़ चला,
दिनकर बरसाये वह्नि प्रखर,
झुलसी धरणी, सारा अम्बर।
अरि-सूरत ऐसी मुरझाई,
वीरों ने ली जब अंगड़ाई।

बिखरे आतंकों के डेरे,
गम के साये उनको घेरे,
पद के नीचे की हिली धरा,
हिय पर भी जख्म बना गहरा।
प्रतिभट की बुद्धि चकराई,
वीरों ने ली जब अंगड़ाई।

शूरों के तन का है सिंगार

खून उबलता नस-नस में,
रोके पथ है किसके वश में,
आँखों से बरसे अंगारे,
नभ को देखे, टूटे तारे।
भुजबल असीम, अनुपम, अपार,
वीरों के तन का है सिंगार।

हैं वसन, जैसे मृगछाले हों,
तन के अभेद्य रखवाले हों,
गर्जन मानो है शेर कहीं,
दहकी ज्वाला के ढेर कहीं।
दुर्धर्ष, प्रबल, घातक प्रहार,
वीरों के तन का है सिंगार ।

डोले वसुधा जब चलें चाल,
जैसे आता हो क्रूर काल,
कर में थामे हैं नवल अस्त्र,
पथ पर जैसे गज खड़ा मस्त
रिपु - दल ही का करना संहार,
शूरों के तन का है सिंगार।

ये घोर घटा - सी छा जाते,
पलभर में प्रलय मचा जाते,
पदचाप ध्वनित नभ में ऐसे,
मेघों पर तडित् रची जैसे।
करना भारत का पग पखार,
वीरों के तन का है सिंगार।

दूर कहीं घर से जाकर

अपनों ने कहा ठहर जा तू,
दो दिन के बाद शहर जा तू,
विगत दिवस तो आया है,
हृदय नहीं भर पाया है।
इतनी जल्दी जाता, आकर,
दूर कहीं घर से जाकर।

कहा वीर, न रोक मुझे,
बढ़े कदम, न टोक मुझे,
घर-बार मुझे भी प्यारा है,
पर, राष्ट्र प्राण से न्यारा है।
चले शूर आज्ञा पाकर,
दूर कहीं घर से जाकर।

कहता डटकर परवाना है,
मरने से क्यों घबराना है,
मर जाऊँ मैं पर देश रहे,
जग में मेरा संदेश रहे।
दूँगा कुर्बानी मुस्काकर
दूर कहीं घर से जाकर।

वृथा जन्म, न जो देश बचा,
मरकर जो न इतिहास रचा,
वीरों का सीस न झुक सकता,
तूफा का वेग न रुक सकता।
हम बढ़ते राष्ट्रगान गाकर,
दूर कहीं घर से जाकर।

मुझको सैनिक ही बनना है

ऐसी शिक्षा दो गमन करूँ,
सेना में जा अरि दमन करूँ,
शिक्षा जो कहती बढ़ता जा,
उठ शैल-श्रृंग पर चढ़ता जा।

बन लहू नयन से बहना है,
मुझको सैनिक ही बनना है।

भारत माता की शिक्षा दे,
मर मिटने की जो इच्छा दे,
जो कहे लुटा दो सब अपना,
कुर्बानी का जो दे सपना।

बनकर शहीद ही जलना है,
मुझको सैनिक ही बनना है।

ले लूँ सीने पर शूल, अनल,
माथे, जननी की धूल धवल,
दे सकूँ प्राण हँसकर रण में,
भर दे प्रभूत बल तन-मन में।

बर्फों पर चलना गलना है,
मुझको सैनिक ही बनना है।

प्रस्तर जैसा कर दे छाती,
भुज में ताकत भी मदमाती,
ऐसी हिम्मत दाता देना,
रखती जो भारत की सेना।

तूफा से आगे बढ़ना है,
मुझको सैनिक ही बनना है।

जख्मी जब वीर हुआ रण में

दुश्मन का एक फटा गोला
घायल होकर सैनिक बोला -
हम अतुल वीर हिन्दुस्तानी
गति जीवन की आनी-जानी।
इस तन को मिलना है कण में
जख्मी जब वीर हुआ रण में।

जीवन तो एक बहुत कम है
इसकी लघुता का भी गम है,
शत जीवन की दरकार मुझे
बलि चढ़ जाना हरबार मुझे।
मिटने की चाहत है मन में
जख्मी जब वीर हुआ रण में।

पद कटे, बदन में दर्द नहीं
जख्मों से भागे मर्द नहीं,
हाथों के बल लड़ जाऊँगा
दुश्मन का दिल दहलाऊँगा।
क्या मिलना जगती के धन में
जख्मी जब वीर हुआ रण में।

गोले दे-दे , शोले दे-दे
अपना त्रिशूल भोले दे-दे,
तांडव की प्रखर कला भी दे
दुश्मन का मुंड, गला भी दे।
क्रोधाग्नि भी भर दे तन में
जख्मी जब वीर हुआ रण में।

सैनिक का अंत समय आया

व्यथा मुक्त, दीपित चेहरा
हिय में कुछ भाव लिए गहरा,
दृग में विद्युत - सी चमक अभी
मन में माटी की गमक अभी।
सीमा पर क्षत- विक्षत काया
सैनिक का अंत समय आया।

पीड़ा साँसों में लिये पवन
आँसू टपकाता हुआ गगन,
गिरिराज व्यथा से झुके हुए
पल ऐसे मानो रुके हुए।
जनमानस पर गम की छाया
सैनिक का अंत समय आया।

जीवन का पूर्ण हुआ सपना
वपु राष्ट्र हेतु जाये अपना,
ध्वज में तन को लिपटा जाये
अर्थी चढ़ कलियाँ हर्षायें।
वर्दी में दाग न लग पाया।
सैनिक का अंत समय आया।

मिले दूसरा जन्म अगर
चाहूँ अपनाना यही डगर,
ले लूँ दुश्मन से वो जमीन
ली हमसे है कभी छीन।
इस जन्म न प्रश्न सुलझ पाया
सैनिक का अंत समय आया।

जाते-जाते कह गये वीर

अब मेरा अंत समय आया
तन पर मृत्यु की कटु छाया,
नयनों के आगे तम गहरा
यह कालचक्र कब है ठहरा।
सरि, सागर बनने को अधीर
जाते-जाते कह गये वीर।

मैं मरूँ, मगर यह देश बचे
कटुता का न अवशेष बचे,
उर में करुणा की हो धारा
उपवन होवे मरुथल सारा।
द्रोह - दंश की हो न पीर
जाते-जाते कह गये वीर।

गम मुझे नहीं कुर्बानी का
नयनों से बहते पानी का,
पीड़ा असीम होगी मन में
वीरों की पीठ दिखे रण में।
वह पल जाएगा हृदय चीर
जाते -जाते कह गये वीर।

बहते शोणित की बूँद-बूँद
कहती मत रहना आँख मूँद,
पथ तेरा नहीं सुगम होगा
विष भी न हृदय में कम होगा।
फिर दगा न दें जयचंद, मीर
जाते-जाते कह गये वीर।

भारत की सेना है विशाल

थल - सेना अपनी बलशाली,
सीमा की करती रखवाली,
घर की अशांति या विपद घोर,
करती सेवा हो के विभोर।
आक्रामकता इनकी कराल,
भारत की सेना है विशाल।

जल-सेना का है क्या कहना,
सागर की लहरों पर रहना,
तूफा की छाती चीर चले,
हत रिपु को करने वीर चले।
रक्षित इनसे है राष्ट्रभाल,
भारत की सेना है विशाल।

नभ की सेना है बहुत सफल,
बनती पल में है काल प्रबल,
सुन गर्जन, अम्बर कम्पित है,
डर, हिय दुश्मन के अंकित है।
पल भर में कर जाते कमाल,
भारत की सेना है विशाल।

सेना का उच्च मनोबल हो,
श्रम के बदले मृदु भी फल हो,
मिले अर्थ, गम पास न आये,
शक्ति बढ़े, कभी ह्रास न आये।
खड़े रहें बन प्रबल ढाल,
भारत की सेना है विशाल।

उरग

बन उरग आकर उड़ी में
तू डसा है सैन्य बल को।

सैन्य के विश्राम का पल,
यामिनी भी थी गई ढल,
रश्मियाँ भी व्योम से छुट-
कर बिखरने को विकल।
थे चुने अरि यह प्रहर,
मौत की काली डगर,
सैनिकों की धमनियों में
घोलने आये जहर।
आज फिर कलुषित किया है,
स्वच्छ, निर्मल सिन्धु जल को।
तू डसा है सैन्य बल को।

है गरल फुफकारता आ,
सैन्य को ललकारता आ,
जो अगर द्युति है तड़ित्-सी
व्योम को फिर फाड़ता आ।
क्यों लिया तम का सहारा,
धर निशा का पट किनारा,
था अगर बल बाजुओं में
छद्म का क्यों रूप सारा?
तू कपट करता रहा है,
फिर बनाया सेतु छल को।
तू डसा है सैन्य बल को।

कायरों का एक दल तू,
पाक का निस्तेज बल तू,
किन्नरों की भीड़ में हो
है रहा यूँ ही मचल तू।
सोच क्या औकात तेरी,
मौत ही सौगात तेरी,
डोर तेरी और के कर
बिछ चुकी बिसात तेरी।
देख तुझको मौत विह्वल
मत हवा दे अब अनल को।
तू डसा है सैन्य बल को।

शत बार रे सठ, कह चुके हैं
दर्द सारे सह चुके हैं,
दोस्ती के भाव दिल से
आज सारे बह चुके हैं।
देख, असि की धार, मेरी,
शत्रु सुन ललकार मेरी,
छुट चुके हैं जंग सारे
तन चुकी तलवार मेरी।
अब नहीं है खैर बैरी,
कुन्द कर दूँगा अकल को।
तू डसा है सैन्य बल को।

शक्ति है तो जंग कर ले
याद लेकिन बंग कर ले,
धूलि में मिल जाओगे तू
चीन चाहे संग कर ले।
सिन्ध तुमसे तोड़ दूँगा,
हिन्द से बलु जोड़ दूँगा,
पाप की गठरी भरी जो
आज सत्वर फोड़ दूँगा।
नाश तेरा सर्वविदित है
आज हो या होवे कल को।
बन उरग आकर उड़ी में
तू डसा है सैन्य बल को।

(उड़ी हमले के बाद)

पुकार

दहक रहा भारत विशाल
आक्रोश सघन बनकर कराल
स्वर एक गूँजता सकल दिशा
उड़ी के हमले का सवाल।

कब होगा अरि पर वार बता?
सतलुज की उफनी धार बता?
जो चलती थी बन काल क्रूर
उन वीरों की तलवार बता।

सुन, प्राची की वो दग्ध दिशा
तम से पीड़ित, आक्रांत निशा
सुन दिनकर की तमहर किरणें
निशि के उर देखो रक्त रिसा।

सर कटा चुके हम अमित बार
सहते अरि के निष्ठुर प्रहार
दिल्ली की सत्ता, ताज बता
कब पिघलोगे सुनकर पुकार?

दिखते नहीं आँसू, क्या अंधे?
सुत की अर्थी, वृद्ध के कंधे
विधवा के सुन ले आर्त नाद
तज आश्वासन के सब धंधे।

क्यों खिंची दीनता की लकीर
सतलुज, रावी के तीर-तीर?
क्यों लाल रक्त की वेणी में
भारत माता का धवल चीर?

वीरत्व उबलता नश - नश में
उर -ज्वार न होता है वश में
भुज उठता उनपर जो प्रतिपल
विष घोल रहे मधु में, रस में।

दिल्ली खुद उठ या जाने दे
ज्वाला हद पर बरसाने दे
उठती जो नजर बुरी हम पर
तन उसके आग लगाने दे।
भारत माता के कदमों में
वीरों को मर मिट जाने दे।

प्रहार

वीरों का जब होता प्रहार
दुश्मन के होते तार- तार,
आँसू तप बनते जब गोले
रुकती तब झेलम, सिन्धु- धार।
बदले की ज्वाला जब फुटती
देते छाती दुश्मन की फाड़,
वीरों का जब होता प्रहार।

जब सैनिक सीमा पार चले
दुश्मन के घर संसार जले,
तम रोक सका न पग उनका
बेखौफ लिये हथियार चले।
भारत की शान बढ़ाने को
करने जीवन निस्सार चले,
जब सैनिक सीमा पार चले।

जग देख रहा विस्मित होकर
हमने जो पाया है खोकर,
अंगार छिपे जो उर में थे
उड़ते चिनगारी अब बनकर।
हमने विष- तरु को काटा है
दुश्मन हर्षित जिसको बो कर,
जग देख रहा विस्मित होकर।

दुनिया नत वीर जवानों पर
भूतल के इन तूफानों पर,
करते दुश्मन का ये विनाश
हम मरते इन मर्दानों पर।
मरकर भी जो अमर सदा
अर्पित कृति उन मस्तानों पर,
दुनिया नत वीर जवानों पर।

(सर्जिकल स्ट्राइक के बाद)

पाकिस्तान

सरहदों के जुल्म से न
विश्व अब अनजान है,
सैनिकों को मारना -
मरना तेरी पहचान है।

क्रूरता की हर हदों को
पार करता जा रहा,
शूर का शोणित बहे
न देश को जाता सहा।

छत-विछत तन देखकर
है धैर्य सबका टूटता,
क्रोध की अग्नि धधकती
ज्वाल रह-रह फूटता।

जानता हूँ पाक तेरी
शक्ति, क्या औकात है,
चीन से मिलता हुआ
जो अस्त्र की सौगात है।

याद रख उस रात को
जब घुस जलाये थे तुझे,
मौत की चिर नींद में
हमने सुनाये थे तुझे।

चाहता मरना हमारे
हाथ से, तो ठीक है,
याद रख पर सैन्य बल
इस देश का प्रतीक है।

है अमित बल बाजुओं में
फाड़ दूँ तेरे वतन को,
मौत का व्यापार जो करते
तुम्हारे उन रतन को।

हर तरफ फिर कायरों की
भीड़ में चीत्कार होगा,
तू न होगा इस धरा पर
शून्य का आकार होगा।

नगरोटा के शहीद

खून की हरेक बूँद
है हमें पुकारती,
वेदना असीम, तप्त
है समग्र भारती।

दुश्मनों ने सैन्य पर
किया पुनः प्रहार है,
कुछ हुए शहीद भी
बहा लहू अपार है।

फूटता है क्रोध, वीर
देश है उबल रहा,
आग है धधक रही
प्रदाह न सम्भल रहा।

बाजुओं का बल, न
रोक पा रहा जवान को,
फड़फड़ाते पंख कह
रहे चलो उड़ान को।

ये अधम, अघोर हैं
न मित्रता को जानते,
वेदना असंग, धर्म
की न बात मानते।

मान जा हठी, सम्भल,
न मौत को पुकार तू,
सह न पायेगा प्रचंड
सैन्य का प्रहार तू।

जाँच तू न कर हमारे
सब्र का बहा रुधिर,
ढूँढ तू न पाएगा, कहाँ
बदन, कहाँ पे सिर।

आतंक

ब्यर्थ यूँ न ढा मनुज पर तू कहर।
अखिल भू पर तेरी छाया
है अनल पर जग सुलाया,
जब अमन आता धरा पर
तू उसे पल में जलाया।
है मनुज से दुश्मनी क्यों
रक्त रंजित तर्जनी क्यों?
तिमिर के अवसान का पल
पर निशा इतनी घनी क्यों?
ले ह्रदय में बोझ गम का
क्यों सुलगता है शहर?
ब्यर्थ यूँ न ढा मनुज पर तू कहर।

तू रुधिर का है पिपासा
क्या इसे समझूँ हताशा?
कह रहा तरुणाई जिसको
वह तेरे मन की निराशा।
नर नहीं, तू है तमीचर
जी रहा है रक्त पी कर,
काटना नर -नारियों को
लूटना ही तो है जी कर।
हिन्द के खिलते चमन में
घोलता है क्यों जहर?
ब्यर्थ यूँ न ढा मनुज पर तू कहर।

धर्म की ले आड़ करता
मारता जग और मरता,
जिस्म के बहते लहू पर
मोक्ष की बुनियाद धरता।
सोच की कैसी ये धारा -
क्रूरता में पुण्य सारा?
धर्म वो जो बेबसी में
बढ़ लगा देता किनारा।
बह चुका शोणित बहुत है
मनुज-अरि अब तो ठहर।
ब्यर्थ यूँ न ढ़ा मनुज पर तू कहर।

विज्ञ तू, सर्वज्ञ ज्ञानी
यूँ न तज, अपनी जवानी,
सरहदों के पार की
हरकत हुई काफी पुरानी।
चाहते वे बाँटना दिल
हिन्द को विगलित करूँ मिल,
ले ह्रदय में अमित विष
चलते कुपथ पर, बन कुटिल।
त्याग अब असि और हिंसा
आ गया पल वो प्रहर।
ब्यर्थ यूँ न ढ़ा मनुज पर तू कहर।

विस्फोट

चिथड़े-चिथड़े उड़े सभी के
अपनों की पहचान नहीं,
रक्त - सनी इस मिट्टी में
लिपटी गुड़िया में जान नहीं।

बिखरे कहीं कटे पग दिखते
कहीं रक्त रंजित तन भी,
कोई गहरा जख्म लिये तो
है कोई मरणासन्न भी।

खोज रही माँ अपने सुत को
बेसुध भाई , बहनों को,
कौन चुने पथ पर बिखरे जो
मुक्ता , स्वर्णिम गहनों को।

हाहाकार मचा घर - घर में
जाने क्या अब कल होगा,
चिता जलेंगी एक साथ जब
क्रूर, कठिन वह पल होगा।

किसने की इतनी निर्दयता
किसका है यह पागलपन,
इतनी कटुता किसके उर में
खण्डित है मन का दर्पण?

खून बहा नहीं मिला कभी कुछ
दर्प जिगर में पलता है,
भ्रमित जवानी, मन की पशुता
रग-रग फैली जड़ता है।

दयाहीन, मत बन कठोर,
धर्मान्ध न हो, नर चल पथ पर,
विजय सदा तब ही होती
जब कृष्ण विराजित हों रथ पर।

कैसी वह शिक्षा जिसमें
अपना विवेक है मर जाता?
बुद्धि क्षीण हो जाती व
विष हृदय कलश में भर जाता।

उषा काल , चहुँओर उजाला
दूर दृष्टि तुम कर सकता,
छोड़ मुक्ति की मिथक धारणा
जीवन रस से भर सकता।

शर्त यही तज तू कृपाण
जीवन में मधुता आ जाये,
अपने हों या फिर गैर कोई
ममता की बदली छा जाये।

मन

क्यों घुट - घुट के जीता है रे मन?
तुझे काया मिली
इतनी माया मिली,
तेरी राहों में बिखरा है मधुवन।
क्यों घुट - घुट के जीता है रे मन।

इतना सुन्दर- सा घर
यानों का सफर,
तू भिखारी से राजा गया बन।
क्यों घुट - घुट के जीता है रे मन।

तुझे सपने मिले
संग अपने मिले,
तेरी आभा से चमके हैं कण-कण।
क्यों घुट - घुट के जीता है रे मन।

पदोन्नति मिली
लाल बत्ती मिली,
आज लाखों करें पुष्प अर्पण।
क्यों घुट - घुट के जीता है रे मन।

डर

डर-डर के भी जीना क्या है जीना यारों।

जो होना, उसको होना है,
कुछ पाना, कुछ तो खोना है।
अनहोनी होगी मत डरना,
आँखों में मत आँसू भरना।
माना जीवन नहीं सरल है,
भरा हुआ भी बहुत गरल है।
जीवन का विष भी खुश होकर पीना यारों।
डर-डर के भी जीना क्या है जीना यारों।

सीख गगन में खुलकर उडना,
मंजिल से पहले न मुडना।
आँधी को औकात बता दो,
खोल पंख अब उडे जता दो।
नभ अपनी मुट्ठी में कर ले,
निडर उडें ऐसा दो पर ले।
बनने दो फौलादी अपना सीना यारों।
डर-डर के भी जीना क्या है जीना यारों।

डर के आगे जीत सुना है,
अग्निपथ, इसलिए चुना है।
जलता है पग जल जाने दे,
तलवों में फोड़े आने दे।
अँधियारा तो है दो-पल का,
आँखों में क्यों आँसू छलका?
डर तेरे जीवन से सुख है छीना यारों।
डर-डर के भी जीना क्या है जीना यारों।

हम मुस्कराये हैं

हम मुस्कराये हैं,
तभी तो गम भुलाये हैं।
बुझते चरागों को जलाये हैं,
तभी तो दूर अँधेरों के साये हैं।
हर राह पर चोट खाये हैं,
तभी तो मंजिल पाये हैं।

चाहतों की चिता जलाये हैं,
किस खता की सजा ले आये हैं?
हर जख्म को सीने में दबाये हैं,
रिश्तों को तभी तो निभाये हैं।
लोग राहों को फूलों से सजाये हैं,

हम काँटों पर चल के आये हैं।
वो गैर होके भी जख्म सहलाये हैं,
हम अपनों को भी आजमाये हैं।
पैरों के छाले जीना सिखाये हैं,
हम अश्कों से भी प्यास बुझाये हैं ।
हम मुस्कराये हैं,
तभी तो गम भुलाये हैं।

नशा

नशा मत कर जवानों
जिन्दगी लुट जाएगी,
ये आदत मौत ही के
साथ फिर छुट पाएगी।

घुटन की जिन्दगी भी
मौत से कुछ कम नहीं,
ये मंजर कह रहे
बर्बादियों के हम नहीं।

सुबह से शाम तक तुम
इस जहर को पी रहा,
झुकी तेरी कमर
कैसी जवानी जी रहा।

काँटा, सूखकर है
हो गया तेरा बदन,
नशे के साथ ही बिकता
दुकानों पर कफन।

सोच क्यों इस राह
पर तू चल रहा,
बन शाम का सूरज
क्षितिज पर ढल रहा।

बढ़ते नशे से, लुट
रहा घर - बार है,
कान की बाली,
बिका अब हार है।

कर सबल मन, इस
नशे को त्याग दे,
इन जहर की
झाड़ियों में आग दे।

अब नहीं इस गाँव का
कोई दीया बुझता दिखे,
जिन्दगी की राह पर
कोई पथिक रुकता दिखे।

बेटी बचाओ

जन्म मुझे चाहे जितना दे,
मगर कभी बेटी में ना दे।

मिली हमें न माँ की ममता,
दहशत में लघु जीवन पलता,
दुनिया में आने से पहले,
जतन कत्ल का होने लगता।
माँ के आँचल की है चाहत,
पापा के कदमों की आहट,
खेलूँ आँगन में अपनों संग-
मधुर मनोहर एक सपना दे,
जन्म मुझे चाहे जितना दे।

तीन माह की आज हुई मैं,
माँ तुझको कई बार छुई मैं,
पा कोमल स्पर्श तुम्हारा
क्षण भर को गुलजार हुई मैं।
माँ मुझको इस बार बचा ले,
ममता का संसार रचा ले,
चलूँ पकड़ ऊँगली माँ तेरी-
आशीष यही मुझको अपना दे,
जन्म मुझे चाहे जितना दे।

चाहूँ न घर - बार तुम्हारा,
बस ममता की अविरल धारा,
अपनी इन प्यारी आंखों से
देखूँ धरती, अम्बर सारा।
पापा बूढ़े हो जाएँगे,
रातों को जब सो जाएँगे,
सहलाऊँ मैं उनके सर को -
प्यारा-सा मुझको अँगना दे,
जन्म मुझे चाहे जितना दे।

सम्मान

हर युवती का सम्मान करो।
कर वरण अभी, न बिहान करो।

जिससे पलता जग है सारा
उर में जिसके मधु की धारा,
जिसके आँचल की छाया में
ममता पावन ध्यान करो।
हर युवती का सम्मान करो।

जिससे तूने दुनिया पाई,
करुणा की जिसमें गहराई,
जिसके कर से तेरा जीवन
बनता अनुपम, पहचान करो।
हर युवती का सम्मान करो।

तन तेरा उसका दिया हुआ,
ले-ले तू उसकी आज दुआ,
उस देवी की पावन मूरत
मन -मन्दिर में अनुष्ठान करो।
हर युवती का सम्मान करो।

याद करो तू निज बचपन,
गोदी उसकी थी संचित धन,
श्रद्धासुमन, भाव, सेवा सब
उसके पग कुर्बान करो।
हर युवती का सम्मान करो।

आती पथ पर जो सहमी क्यों?
जग में इतनी बेरहमी क्यों?
जो तप खुद, दे सुत शीतलता
उसका न कभी अपमान करो।
हर युवती का सम्मान करो।

बेघर हो, जाती वृद्ध आश्रम,
जर्जर तन, शंकित मन हरदम,
जो जली सदा तम हरने को
कदमों में उसके जान करो।
हर युवती का सम्मान करो।

जीवन तजने को एक बाला,
बैठी दर पर ले विष प्याला,
जो हो अतीत से मुक्त, सरल-
उस नवयुग का निर्माण करो।
हर युवती का सम्मान करो।

पतन

विधाता ने बनाया था लगन से
धरा की गोद में डाला गगन से,
बड़ा संधान कर उसने रचा था
तिजोरी में न उसका कुछ बचा था।

बड़ा पुलकित हुआ था रच विधाता
मनुज के सामने कुछ भी न भाता,
सभी सुर, देव अचरज से भरे थे
मनुज को देख सहमे-से, डरे थे।

बनाया था कि भू शीतल करेगा
भुवन का दर्द पल-भर में हरेगा,
चलेगा वज्र बन सृष्टि बचाने
अमी की धार धरती पर बहाने।

गगन से देखता वहआज जब है
लिए पीड़ा हृदय में आज रब है,
उद्वेलित मन, बिखरते स्वप्न सारे
धरा छोड़ूँ मगर किसके सहारे।

कौन ऐसा रत्न था पूरे गगन में
जो नहीं मैंने दिया नर को भुवन में,
इंसानियत के मूल को ही काट डाला
आदमी को आदमी से बाँट डाला।

है हलाहल भी भरा उर में सभी के,
भुजंगिनि फुफकारती सुर में सभी के,
कौन किसका काट सर आगे बढ़ेगा
मौत की खाई डगर में भी गढ़ेगा।

आदमी की प्यास शोणित के लिए
नृशंसता के बीच नर कैसे जिये?
हर तरफ तपता हुआ अंगार है
अश्रु पूरित आज यह संसार है।

क्रोधाग्नि की लपटें चतुर्दिक उठ रहीं
अस्मिता अबला की प्रतिपल लुट रही,
गैर की क्या बात यह सृष्टि करेगी
स्वजनों के हाथ न प्रमदा धरेगी।

देख लालच, लोभ, तृष्णा के नजारे
छुप गये नभ में विकल होके सितारे,
अब न रजनी का कभी सिंगार होगा
हर तरफ पर जिस्म का व्यापार होगा।

एक दिन नर ही मनुज को खायेंगे
पी लहू नर का न तृप्ति पाएँगे,
देखते रह जाएँगे नर को असुर
आसुरी ही शक्तियाँ होंगी प्रचुर।

व्योम के तब देव का क्या हाल होगा?
प्रकृति का गर्जन बड़ा विकराल होगा,
तृण-पात जैसे ही उड़ेंगे नर प्रलय में
सृष्टि होगी काल के कर में, वलय में।

हर तरफ यम का निठुर तांडव मचेगा
इस धरा पर एक न मानव बचेगा,
सभ्यताएँ धूल में मिल जाएँगी
सृष्टि की बुनियाद ही हिल जाएगी।

देव फिर कैसे मनुज रच पाएगा
ध्यान गत सृष्टि का उसको आएगा,
रुक जाएँगे बढ़ते हुए उसके कदम
फिर न नर हो जाए आके बेशरम।

अकेला

सूनी डगर पर अकेला चला हूँ।

खुला नील अम्बर ने मुझको सुलाया
शीतल पवन कान में गुनगुनाया,
सुबह की किरण से खुली आँख मेरी
कटती रही जिन्दगी देते फेरी,
नहीं कोई अपना, पराया नहीं है
अपनी ही धुन में ये बहती नदी है,
लगी भूख जब भी , मिले चार दाने
नहीं तो सफर के अनेकों बहाने।
सृष्टि की ही एक धुँधली कला हूँ,
सूनी डगर पर अकेला चला हूँ।

पड़ा न कभी तन पे अपनों का साया
अरमान हँसने का हरपल रुलाया,
दुनिया के दंगल में यूँ खो गये हम
जलते घरौंदे में ही सो गये हम,
किससे कहूँ कि चलो साथ मेरे
हरदम अँधेरे , न मिलते सवेरे,
जमाने ने रुककर नहीं जख्म देखे
तपते बदन पर सभी हाथ सेंके।
काँटों की ही सेज पर मैं पला हूँ,
सूनी डगर पर अकेला चला हूँ।

न आँखों में छलका कभी कोई सपना
किस्मत में शायद लिखा यूँ ही तपना,
धू-धू के जलती रही है जवानी
विधिना ने रच दी अधूरी कहानी,
सपने में अपना कई बार देखा
थी न कभी ऐसी हाथों की रेखा,
बनाया था जिसने, उसी ने मिटाया
आँखों में आँसू उसे क्यों न आया?
शायद मैं उनकी नजर में बला हूँ,
सूनी डगर पर अकेला चला हूँ।

अजनबी

ओ अजनबी भर पेट पी ले
जिन्दगी के जाम को,
रौशनी तो खुद मिलेगी
सुबह की सी शाम को।
प्याली तेरी , है जाम भी,
पर पी रहा है वक्त क्यों?
जिन्दगी के साये पर
छिटका हुआ यह रक्त क्यों?

ओ अजनबी पीने के अविरल
वेग को रुकने न दो,
मौत ही तो क्या कभी भी
सर को तू झुकने न दो।
रंगीन रस के घूँट से
भू - आसमाँ मिल जाएँगे,
जिन्दगी के साये पर
दो फूल फिर खिल जाएँगे।

ओ अजनबी, है जिन्दगी
एक गीत, तू गाता ही चल,
लाख बाधाएँ मगर पथ पर
बना रह तू अचल।
करके कोशिश देख
कदमों में जहाँ झुक जाएगा,
इस धरा के सामने तो
स्वर्ग भी छुप जाएगा।

ओ अजनबी यह जिन्दगी
है सेज काँटों की मगर,
दूर तक बिखरा तिमिर
है और न दिखती डगर।
वक्त के संग चल
न रुक तू हार के,
आएँगे फिर दिन
तेरे भी बहार के।

ओ अजनबी, यह जिन्दगी
एक जीत तो है हार भी,
मौज के ही बीच में
होती कहीं मँझधार भी।
एक जुआ है जिन्दगी
यह सोचकर जो जी लिया,
इस छलकते जिन्दगी के
जाम को वो पी लिया।

विनती

तेरे दर से दूर प्रभु मैं जाऊँ कहाँ,
यहीं पर गगन मेरा, यहीं है जहाँ।

सुख-दुख देने वाले, इतना बता दे,
ढूँढ न पाया स्वामी, अपना पता दे।
बिन तेरे चैन अब मैं पाऊँ कहाँ,
तेरे दर से दूर प्रभु मैं जाऊँ कहाँ।

डालों पे काँटों में उलझी हैं कलियाँ,
अनबुझ -सी जीवन की ये तंग गलियाँ।
मन के अनल को बुझाऊँ कहाँ,
तेरे दर से दूर प्रभु मैं जाऊँ कहाँ।

तेरे ही दम मेरी चलती हैं साँसें,
दर्शन भी देना मेरे नैन बड़े प्यासे।
बिगड़ा नसीब मेरा, बनाऊँ कहाँ,
तेरे दर से दूर प्रभु मैं जाऊँ कहाँ।

राहों में मोड़ों पर है अँधियारा,
जाना है दूर मुझको दे दो सहारा।
तेरी कृपा के गीत गाऊँ यहाँ,
तेरे दर से दूर प्रभु मैं जाऊँ कहाँ।

दर्द

टूटकर सपने नहीं कम हो सके
पास रहकर भी न उनमें खो सके,
अश्क से दामन मेरा है तरबतर
फूटकर हम आज तक न रो सके।

दूर भी हैं वो हमारे पास भी
मौत भी व जिन्दगी की आस भी,
ठोकरें जिनसे मिलीं इस राह पर
उन पत्थरों की आज तक तलाश भी।

दर्द से रिश्ता बहुत मेरा पुराना
धूप में तपता हुआ यह आशियाना,
खाक न हो जाए दिल का ये चमन
है पड़ा ही आँख को दरिया बनाना।

रात क्या, दिन भी अँधेरों में घिरा
आ सवेरा द्वार से मेरे फिरा,
विजलियाँ चमकीं दिखाने रास्ता
वज्र सीने पर कहर बन के गिरा।

टूटकर, टुकड़े बिखरकर रह गये
वक्त की रफ्तार में कुछ बह गये,
ढूँढता हूँ जब कभी अपना वजूद
तू कहाँ अब है अनेकों कह गये।

बादल

उमड़ - घुमड़ कर आसमान में चलते मेघ घनेरे,
प्यासी धरती तड़प रही है मत कर नभ के फेरे।

आसमान चढ़ गर्जन करने में तेरा सम्मान नहीं,
सूखे खेतों में बह जाने में कोई अपमान नहीं।

अम्बर पर मत खेल, नजर से देख यहाँ क्या होता है,
खेतों की क्यारी पर बैठा हुआ कृषक मन रोता है।

कौड़ी - कौड़ी लुटा कृषक है, जीने में कोई राग नहीं,
दीपक की बुझती बाती में होती उतनी आग नहीं।

कर्ज तले है दबा , सिसकता हुआ अन्न का दाता,
गम के घोर अँधेरों में वह चिर निद्रा सो जाता।

बूँद-बूँद अब बरस मेघ, क्यों है इनको तड़पता,
कभी क्षितिज, फिर अम्बर पर आता कैसे है जाता?

झूम- झूमकर बरस घटा भर दे खेतों को,
सूखी नदियाँ, ताल, दहकती इन रेतों को।

जीवन करे पुकार हार , नभ के बंजारे,
सृष्टि के आधार, तुम्हीं सिंगार, बरस धरती पर प्यारे।

विरह के गीत

सावन बीता जाये
प्रियतम तुम न आये।
मस्त पवन संग डोले किसलय
ताल-तलैया सागर में लय,
बादल नभ पर छाये
प्रियतम तुम न आये।

कलियों पर है छाई लाली
झूमे बेसुध कोमल डाली,
मधुकर तान सुनाये
प्रियतम तुम न आये।

चूमें धरती चंचल किरणें
महकी हवा लगी मन हरने,
रुत आये रुत जाये
प्रियतम तुम न आये।

सावन की ये काली रातें
गरजे घटा घोर बरसातें,
विरह बहुत तड़पाये
प्रियतम तुम न आये।

सूना आँगन, सूने झूले
जा परदेश पिया तुम भूले,
कजरा बह-बह जाये
प्रियतम तुम न आये।

नदी की पीड़ा

दूषित होकर बहता नदियों का सारा जल।
धरती के कण-कण को सींचा
ऊसर, समतल या तल नीचा,
तृषित जगत् का कण्ठ भिगोकर
किरणों से जल लिया दिवाकर,
तट शोभित होते शहरों से
अमित प्यार जग का लहरों से।
अब निर्मल जल को मैला करता जग प्रतिपल
दूषित होकर बहता नदियों का सारा जल।

नर -नद का अब तार भंग है
दोष बहुत बह रहा संग है,
धारा में विष घुलता जाता
मौन मनुज है, मौन विधाता,
फेनिल धारा, क्षारयुक्त भी
मीन , जलज से हुई मुक्त भी।
नदियों में ही डाल रहा मानव अपना मल
दूषित होकर बहता नदियों का सारा जल।

मत कर कलुषित नद का आँचल
बहने दे धारा को कल- कल,
रोक शहर का गंदा पानी
अबतक की अपनी मनमानी,
नदियाँ तो संस्कृति के उद्गम
लें व्रत इन्हें बचाएंगे हम।
नदियों को पावन रखने का कर ले कुछ हल
दूषित होकर बहता नदियों का सारा जल।

बेरोजगारी की जलन

नभ पर घटा घनघोर है
तम भी बिछा हर ओर है,
इन झुरमुटों को चीरकर
आता न अब शीतल पवन।
बेरोजगारी की जलन।

शत-शत किताबें क्रय किया
ले ऋण भी अगणित व्यय किया,
अब जीविका की चाह में
कबतक सहूँ पथ पर अगन?
बेरोजगारी की जलन।

घर की जरूरत बढ़ रही
तनुजा शहर में पढ़ रही,
माँ-बाप, बीबी, सब खड़े
कैसे करूँ इनका भरण?
बेरोजगारी की जलन।

दुग्ध बिन बोतल पड़ी
है रुग्ण माँ भूतल खड़ी,
इन परिजनों के दर्द का
कैसे करूँ बढ़कर हरण?
बेरोजगारी की जलन।

कदमों में छाले पड़ गये
जेवर भी गिरवी धर गये,
फैलते उर - ज्वार का
कैसे करूँ डटकर शमन?
बेरोजगारी की जलन।

है तजुर्बा माँगता जग
रुक गया सहसा बढ़ा पग,
पर बिना ही काम के
कैसे करूँ अनुभव वरण?
बेरोजगारी की जलन।

शत ख्वाब थे हमने गढ़े
मदमस्त हो जो पग बढ़े,
उन चाहतों की भीड़ में
होता रहा मन का दहन।
बेरोजगारी की जलन।

जल गये अरमान सारे
हर्ष के सामान सारे,
पर सुलगते स्वप्न कुछ
बन शूल चुभते हैं बदन।
बेरोजगारी की जलन।

बेरोजगारी नाम है

फैला चतुर्दिक भुज मेरा
दुर्दिन दुलारा, अनुज मेरा,
सत्ता हमारी जगत् पर
गृह हर नगर, हर ग्राम है।
बेरोजगारी नाम है।

अगम्य, विस्तृत जाल हूँ
बढ़ती रही हर साल हूँ,
जाती वहाँ शिक्षित जहाँ
होता वहीं विश्राम है।
बेरोजगारी नाम है।

दृग नहीं मेरे सरल
आँचल तले रखती गरल,
जिसपर नजर जा रुक गई
वह आदमी बेकाम है।
बेरोजगारी नाम है।

जाति -वंशज सब बराबर
तट कोई लेती घड़ा भर,
हर नगर मेरा ठिकाना
हर शहर सुख - धाम है।
बेरोजगारी नाम है।

जग चाहता है बाँधना
मेरे हनन की साधना,
मुझपर विजय की चाह में
करता न नर आराम है।
बेरोजगारी नाम है।

मेरी लहर पर राजनेता
वोट ले बनते विजेता,
पर न डरती मैं कुलिश से
घोषणा सरेआम है।
बेरोजगारी नाम है।

जिन्दगी

जिन्दगी, तुम्हें कितना चाहा
हर पल तुझे कितना सराहा।
सोचा, हरदम तेरे साये में रहूँ
डूबूँ, खेलूँ व तेरी धारा में बहूँ,
फूल की तो कभी चाह न रही
चुप रहकर दिये काँटे भी सहूँ।
हाय! आज तूने मेरे अस्तित्व
को ही अस्वीकार कर दिया,
मेरे सपनों पर प्रहार कर दिया।
कोई बात नहीं, बेवफा मैं नहीं, तू निकली,
प्रणय की वेला में तूने अपनी सूरत ढक ली,
मांगेगा जवाब आने वाला वक्त
क्यों थी चाहने वाले से विरक्त?
तू ढूँढेगी, पर मैं न रहूँगा
थोड़ा रहम कर, मैं न कहूँगा।

मैं रहूँगा , नदी के उस पार
तू रहेगी , धारा के इस पार-
अकेली, व्यथित, निस्सार,
पश्चाताप की पीड़ा लिए अपार।

जिन्दगी और मैं

मैंने देखा तेरा आँचल
रंग - बिरंगे फूल मिले,
अपने दामन में जब देखा
चुभते बन के शूल मिले।

इठलाती, बलखाती हरदम
मचल निकलती पल-पल में,
मैं हारा, जर्जर काया ले
फँसा जगत् के दलदल में।

तू चंचल , मदमस्त हवा
खुशबू साँसों में भरी हुई,
मैं माटी का हूँ पुतला
काया जलने को धरी हुई।

पग तेरे सजते घुँघरू
बदली काया बारी - बारी,
मैं धुआँ उगलती हुई अग्नि
देखी न कभी है चिनगारी।

रुककर तू देखी न कभी
काया की तो परवाह नहीं,
मैं जलता ही रहा सदा
तन मेरे फिर भी दाह नहीं।

सज - धजकर ही तो आई
अवसर पा पल में बदल गई,
मैं हिमखंड ढलानों पर
काया गर्मी पा पिघल गई।

जिन्दगी से आज मेरी जंग है

क्या नहीं तुझको दिया है जिन्दगी
रात- दिन की है तुम्हारी बंदगी,
ले सभी से वैर भी तुझको सँवारा
राह में आये कोई न था गवारा।
आज जग बैरी न तू भी संग है
जिन्दगी से आज मेरी जंग है।

आँख से जग की बहुत मैं गिर गया
वासना के जाल में भी घिर गया,
मैं समझता था कि तू मेरी सदा
देखकर लुटता रहा तेरी अदा।
जग समझ पाया न तेरा रंग है,
जिन्दगी से आज मेरी जंग है।

मैं पड़ा हूँ खाट पर जर्जर बदन
ले ह्रदय में जी रहा दारुण जलन,
वक्त पर मुझसे किया तू बैर है
जैसे कि अपना नहीं अब गैर है।
अब न मेरे साथ मेरा अंग है,
जिन्दगी से आज मेरी जंग है।

गिर रहे आँसू नयन से छूटकर
आज मैं विचलित स्वयं से लूटकर,
मैं जिसे समझा कि मेरा प्यार है
त्यागकर मुझको वही निर्भार है।
आज तुम मेरे बदन से तंग है,
जिन्दगी से आज मेरी जंग है।

दे न इतना अश्क की भर जाऊँ मैं
दर्द सहते आज ही मर जाऊँ मैं,
याद कर जो साथ मैंने था दिया
खुश रहे तू इसलिए जो विष पिया।
आज क्यों रिश्ता दिलों का भंग है?
जिन्दगी से आज मेरी जंग है।

जिन्दगी तू साथ चल

आ छली , चल साथ मेरे
बढ़, पकड़ ले हाथ मेरे,
मैं अकेला चल न सकता
मन मेरा काफी विकल।
जिन्दगी तू साथ चल।

डर कहीं तू छोड़ न दे
दिल हमारा तोड़ न दे,
पथ हमारा भी विकट है
कैसे पाऊँगा सम्भल?
जिन्दगी तू साथ चल।

छोड़ने के शत बहाने
कब बिछड़ना तू ही जाने,
प्राण पर तो हक न मेरा
जाने कब जाये निकल।
जिन्दगी तू साथ चल।

दास बनकर मैं रहूँगा
दर्द भी सारे सहूँगा,
पर न छलना तू कभी भी
हैं नयन मेरे सजल।
जिन्दगी तू साथ चल।

थाम ले मुझको मचलकर
थक गया हूँ राह चलकर,
जिस तरह करती सभी से
तू न करना मुझसे छल।
जिन्दगी तू साथ चल।

पल-दो-पल

पल - दो-पल को जीना यारों
दो- पल के हम अधिकारी,
पलभर के ये खिले कुसुम हैं
फिर सूखी है फुलवारी।

दो-पल का जीवन धरणी पर
कहते संत, विदुर, ज्ञानी,
कहता जो चलता जग हमसे
वह नर सठ है, अभिमानी।

दो -पल की तेरी काया है
पलभर की सुषमा सारी,
क्षण - भर की खुशियाँ आँगन में
चलने की फिर तैयारी।

हर- पल को कर ले जग अपना
गुजरा वक्त न आ सकता,
वह प्रसून जो बिछड़ चुका
कैसे डाली को पा सकता?

सीख कला हर - पल जीने की
जीवन की घड़ियाँ अनमोल,
बहता जा जीवन - धारा में
कहता है हर - पल मुँह खोल।

बूँद-बूँद जल गिरता घट- से

चंचलता पहले न जानी,
गति जीवन की न पहचानी,
की हरदम अपनी मनमानी।
कलकल धारा बहती लेकिन
दूर खड़ा था जीवन-तट से।
बूँद-बूँद जल गिरता घट-से।

स्वर्णिम गागर में मधु छलका,
मधुरस पर इसका दो - पल का,
प्रतिपल होता जाता हल्का।
आकर्षण के केन्द्र धरा पर
धूमिल हो जाते हैं फट - से।
बूँद-बूँद जल गिरता घट- से।

इस घट पर हरदम इतराता,
मस्ती में गाता, हर्षाता,
पर जल अविरल रिसता जाता।
यह अभिमानी, अकड़ी दुनिया
अनजानी है जीवन - पट - से।

बूँद-बूँद जल गिरता घट- से।
काल - चक्र ने घट पर मारा,
फूटा घट जल निकला सारा,
सूख गई जीवन की धारा।
बिखरा शून्य भवन खाली है
अर्थहीन जग लगता झट- से।
बूँद-बूँद जल गिरता घट- से।

जिन्दगी

जिन्दगी मैं आज तुझपर हूँ फिदा
तू नहीं करना मुझे निज से जुदा।

बाग के हर पुष्प को दी तूने लाली
देख तुझको झूमती सुकुमार डाली।

देख अम्बर पर तुझे छाई घटा है
हर तरफ बिखरी हुई तेरी छटा है।

तू छिपी है प्रात की भी लालिमा में
चाँदनी में, याम की चिर कालिमा में।

बह रही अविरत नदी की धार में भी
सुमन के संग भ्रमर के इजहार में भी।

तू समन्दर की छिपी अगणित लहर में
मंजिलों में, है छिपी अवघट डगर में।

रंक से राजा सभी पीछे तुम्हारे
चल रही दुनिया सनम तेरे सहारे।

बैठ मेरे पास दो -पल प्यार कर लूँ
व्यग्र, आतुर आज अंगीकार कर लूँ।

अब न जाने दूँ , हमारे साथ ही चल
संगिनी मेरी अरी मुझको नहीं छल।

आज तुम स्वीकार कर या छोड़ दे
बंध चुकी जो गाँठ चाहे तोड़ दे।

तू नहीं है तो कहाँ औकात मेरी
दे कफन निकलेगी तब बारात मेरी।

जिन्दगी , तुझसे सजी सृष्टि सकल है
नभ, धरा , दिन-रात पर तेरा दखल है।

काँटों का दर्द

सजे डाल पर काँटे बनकर
मेरी है तकदीर यही,
मिला किसी का स्नेह नहीं
मेरे जीवन की पीर यही।

बन न सके हम सुमन- हार
न गजरों में ही सजे कभी,
महफिल की सुषमा न बने
जाने -अनजाने तजे सभी।

तरसा अति द्रुम डालों पर,
सुमन खिले पर दूर रहे,
भ्रमर चूसते रहे अमी,
केवल हम ही मजबूर रहे।

बेल, विटप, तरुवर की रक्षा
हमसे ही है हुई सदा,
बढ़ अपने तन लिया हमेशा
बागों की सारी विपदा।

जग चाहे मुझको दुत्कारे
बहनों ने स्वीकार किया,
पूजा की थाली में रखकर
मेरा है उद्धार किया।

पर मेरी थी एक अभिलाषा
हिन्दुस्तानी धरा मिले,
कलियाँ चाहे न मानें
पर बाग स्नेह से भरा मिले।

मरूँ, मिटूँ, जल जाऊँ चाहे
पर भारत की धरती पर,
काँटे बनकर रोकूँ अरि को
लगा रहूँ तरु के ऊपर।

काँटों के संग

कलियों ने अपना मुख फेरा
काँटों के संग प्यार मिला,
खुशियाँ जब ढूँढ़ी फूलों में
दर्द अमित हरबार मिला।

फूलों का संग है दो- पल का
खिलकर आखिर गिरना है,
कलियाँ, किसलय जाने वाले
काँटों से ही घिरना है।

फूलों ने खिल कुछ बहलाया
पर आखिर उपहास मिला,
दर्द, व्यथा, एकाकीपन तो
काँटों के ही पास मिला।

डालों पर हैं कलियाँ खिलती
खुशबू कलिका -द्वार मिली,
काँटों में अनबुझ जीवन की
परिभाषा हरबार मिली।

आ काँटों की संगत में
मुझको जीवन का सार मिला,
जन्म काल से अन्त मौत तक
काँटों का विस्तार मिला।

फूलों की माला जग पहने
काँटों संग मुझको रहना,
खुशियों की चाहत हो सबको
दर्द सदा मुझको सहना।

काँटों ने चुभकर बतलाया
पीड़ा की क्या गहराई,
फूलों ने न भरी दिल में रह
दो दिल की चौड़ी खाई।

पुष्प की पीड़ा

दर्द अपना बाग तुझसे क्या कहूँ
टूटकर अब डाल से कैसे रहूँ,
ले चला माली मुझे अब दूर है
हर सुमन तकदीर से मजबूर है।

आ रही किसलय, कली की याद है
गुनगुनाते भ्रमर का संवाद है,
अब न उनसे इस जगत् में मेल होगा
सनसनाते पवन संग न खेल होगा।

झूमता था बाग में होके मगन
देखता धरती कभी तो था गगन,
आँधियों में भी लगा था डाल पर
मैं विहँसता था सजा द्रुम भाल पर।

आज वह नृशंस माली तोड़ डाला
जिन्दगी-घट को अचानक फोड़ डाला,
ख्वाब सारे दब हृदय में रह गये
आँसुओं के साथ मिलकर बह गये।

एक पल तो रुक मुझे माली बता
डाल पर जो मैं खिला, क्या थी खता?
चल मुझे लेकर वहीं उस गाँव में
फूल की बगिया, लता की छाँव में।

हाँ , मुझे एकबार उनसे तो मिला दे
विपिन की उन डालियों पर भी खिला दे,
फिर मुझे चाहे बना ले हार तू
या सजा ले पुष्प से संसार तू।

पेड़ों की व्यथा

बेदर्दी मत काट बदन मेरा दुखता है।
मार कुल्हाड़ी काट रहा है
टुकड़े - टुकड़े बाँट रहा है,
मेरी छाया से क्यों बैर?
चाहूँ तेरी हरदम खैर।
निर्मोही रुक, देख सलिल तेरा सुखता है।
बेदर्दी मत काट बदन मेरा दुखता है।

पहले धड़ ऊपर कटवाया
फिर जड़ काट सुखाई काया,
आँसू टपके डाली - डाली
हुई तिरोहित भी हरियाली।
पेड़ों से मानव तू कटुता क्यों रखता है?
बेदर्दी मत काट बदन मेरा दुखता है।

हवा शुद्ध मुझसे होती है
घन से भी गिरता मोती है,
काट हमें मरु किया धरा भी
प्यार न मुझसे किया जरा भी।
अपने उर में भरा हुआ विष क्यों रखता है?
बेदर्दी मत काट बदन मेरा दुखता है।

वन्य जीव का तू अपराधी
संख्या हो गई इनकी आधी,
हरित धरा अब चीर विहीन
रे पागल मत आँचल छीन।
कर मत अब संघात बदन मेरे चुभता है।
बेदर्दी मत काट बदन मेरा दुखता है।

दूषित होगा सारा भूतल,
सूखेगा पल-पल सरिता जल,
धरती उगलेगी अंगारे
झुलसेंगे रन, पशु बेचारे।
कर कोशिश मिल सभी अगर वन अब बचता है।
बेदर्दी मत काट बदन मेरा दुखता है।

दयाहीन नर वृक्ष लगाले
सोया अंतर उसे जगा ले,
धरती पर भर दे हरियाली
खग चहकें पेड़ों की डाली।
बूंद - बूंद जल का मिलकर सागर बनता है।
बेदर्दी मत काट बदन मेरा दुखता है।

वेलेंटाइन डे

प्यार करना क्या, हो जाता है,
किसी की आँखों में कोई खो जाता है,
प्यार मिले तो जन्नत दूर नहीं,
वरना आँसू बदन भिगो जाता है।

मंजिल न मिले तो प्यार अमर है,
पर , अधूरा प्यार एक जहर है,
प्यार जिन्दगी को सरस बनाता है,
जैसे किनारों को , सागर की लहर है।

प्यार एक मधुर एहसास, समर्पण है,
तेरी भावनाओं का सच्चा दर्पण है,
जो मिट के भी खुश हो, वह प्यार है,
एक दूजे के लिए जीवन का अर्पण है।

प्यार फूलों से निकलता सुवास है,
शब्द नहीं, अंतर्मन में इसका वास है,
प्यार पपीहे की रटन, इंतजार भी
बुझती न कभी पी के ऐसी प्यास है।

वर्षों से यह रास्ता वीरान क्यों है?

जिस राह पर हम चल-चलके थक गये,
उसके मोड़ों से अब भी अनजान क्यों हैं?

बड़े - बड़े शिक्षण संस्थान खुले शहरों में,
पर लगते कुछ ऊँची दुकान क्यों हैं?

सपनों को चुन-चुन जलाये मिटाने को,
अब भी सुलगते कुछ अरमान क्यों हैं?

शोहरत , शौकत, शान सब कुछ,
फिर, आदमी से महँगा सामान क्यों है?

घटायें उमड़ रहीं धरती बहाने के लिए,
तब भी झुलसता आसमान क्यों है?

खून का कतरा - कतरा दिया देश को,
फिर विवश - सा लगता जवान क्यों है?

यूँ तो बिकता रहा आदमी हर युग में,
आज बिकता हुआ शील, ईमान क्यों है?

ज्ञान बढ़ा, हम गये चाँद पर भी,
आज धरती पर मानव नादान क्यों है?

हर तरफ उत्पात, क्रूरता, शील-हनन,
छुप - छुपकर देखता भगवान् क्यों है?

फिरंगी छोड़ गये देश बरसों पहले
अब अपनों से लुटता हिन्दुस्तान क्यों है?
वर्षों से यह रास्ता वीरान क्यों है?

नव वर्ष की मंगल कामना

आ गया नव-वर्ष विह्वल, आ गया नूतन सवेरा,
हर दिशा में फैलकर कहती प्रभा छुप जा अँधेरा।

नव -किरण नभ से उतरकर आ गई धरती सजाने,
देख रवि का दिव्य आनन, सज लगी धरणी लजाने।

पुष्प खिलकर वाटिका में कह रहे नव -वर्ष आ जा,
कह रहीं कलियाँ मचलकर हर किसी पर हर्ष छा जा।

छोड मन के क्लेश, कटुता, आ गईं घडियाँ मिलाने,
आ गया नव वर्ष मिलकर चल नई दुनिया बसाने।

हो नहीं नफरत हृदय में, हर किसी में प्यार हो,
भग्न सब रिश्ते जुडें जुडता हुआ संसार हो।

हो भरी आशा हदय में, दीप खुशियों के जलें,
हम मिलें, मिलते रहें , ये कारवाँ बढता चले।

हम गिरे को दें सहारा, दर्द मिलकर बाँट लें,
दूरियाँ उर में बनीं जो दिल मिला के पाट लें।

चाहत

काश ! मैं टूटे दिलों को जोड़ पाता
आँधियों की राह को मैं मोड़ पाता।

पोछ पाता अश्क जो दृग से बहे
वक्त की जो मार बेबस हो सहे।

चाहता ले लूँ जलन जो हैं जले
जो कुचलकर जी रहे पग के तले।

क्यों कोई पीये गरल होके विवश
है भरी क्यों जिन्दगी में कशमकश?

दूँ नयन को नींद, दिल को आस भी
हार में दूँ जीत का एहसास भी।

स्वजनों से जो छुटे उनको मिला दूँ
रुग्ण जन को मैं दवा कर से पिला दूँ।

डूबते जो हैं बनूँ उनका सहारा
दे सकूँ सुख, ले किसी का दर्द सारा।

माँग का सिन्दूर बहनों का बचा लूँ
दे सकूँ गर जिन्दगी विष भी पचा लूँ।

चाहता मैं वाटिका मुकुलित, हरी हो
डालियाँ हर पुष्प, किसलय से भरी हो।

परिचय

फूलों की सुषमा से मैं डरता हूँ
चुन काँटों से मैं दामन भरता हूँ।
तपते मरु का मैं राही मतवाला
अमी नहीं, मैं हूँ विष पीने वाला।
सरिता की उफनी धारा है प्यारी
तूफानों पर चलती नाव हमारी।

अंगारों पर सोना मुझको भाता
आतप, अंधड़ से अटूट है नाता।
शीतलता से जलता बदन हमारा
अंगारों से निकली शीतल धारा।
दुनिया का हर दर्द मुझे है प्यारा
मैं जीता उससे जिससे जग हारा।

रातों को जग जब निद्रा में होता
मैं जगता अश्कों से बदन भिगोता।
दुनिया हर्षित ढूँढे सुख सपनों में
मैं अपनापन ढूँढ रहा अपनों में।
अपनों ने न कभी अपना है माना
देर भले मैंनें उनको पहचाना।

अपनों के चेहरों पर देखा चेहरा
जख्म सभी रिश्तों पर देखा गहरा।
मैं अपनों के साये से डर जाता
अनजानों पर स्नेह -सुमन बरसाता।
जग का भेद न अबतक मैंने जाना।
वर्षों से मैं चाह रहा मुस्काना।

एकता

अगर यही है तेरी चाहत
तोड़ूँ पर्वत की छाती,
विजली-सी मैं कड़कूँ नभ में
चलूँ चाल भी मदमाती।
हो और शान्ति की अभिलाषा
तो करो नहीं कोई दूजा,
भाई- भाई एक रहें
हो और एकता की पूजा।

एक अगर हम हैं तो
सारी विपदा से टकरा जायें,
बिखरे हैं तो दीन - हीन बन
बेड़ी में जकड़ा जायें।
संग मिले जब फूल सहज ही
एक बनी सुन्दर माला,
बिखरे हुए कुसुम को छेड़े
हठी भ्रमर हो मतवाला।

बिखरा जब भी देश
सिकन्दर, गोरी ने आकर लूटा,
उत्तर - दक्षिण गये
हाथ से पूरब व पश्चिम छूटा।
कटती रही हाथ की ऊँगली
गर्दन पर तलवार चली,
जलियांवाला बाग कहेगा
वीरों की क्यों चिता जली।

एक हुए जब देव, शिवा ने,
मथ सागर, विषय पी डाला,
पर्वत उठा लिया ऊँगली पर
नारायण बन कर ग्वाला।
एक रहेंगे, नारा अपना
समय कठिन चाहे जितना,
दुश्मन चाहे जोर लगा लें
उनके हाथों न बिकना।

अब किसकी तलाश है?

ज्वालामुखी के पास है
अब किसकी तलाश है?

दुर्गम राहों पर चल रहा
कभी गिरता, कभी सम्भल रहा,
नफरत की चादर में लिपटे हो
बाहर तो सीधे, अंदर से चिपटे हो।
क्या तुम्हें एहसास है?
अब किसकी तलाश है?

चंद टुकड़ों पर ईमान बिक रहा
आदमी से महँगा सामान बिक रहा,
लुटना इज्जत का सरेआम हुआ
चौराहे पर फिर कत्लेआम हुआ।
कण्ठ में कितनी प्यास है?
अब किसकी तलाश है?

रिश्तों के तार - तार हो रहे
मूल्यों के परिहार हो रहे,
चेतना के दर बन्द दिखते
जगे हुए लोग चन्द दिखते।
क्या होने वाला विनाश है?
अब किसकी तलाश है?

कुण्ठा ग्रसित जन छाये हैं
प्रबुद्ध चोट खाये हैं,
दिग्भ्रमित खड़े पथ दिखाने को
बढूँ किधर, मंजिल पाने को?
रौशनी दूर है न पास है
अब किसकी तलाश है?

हिंसा, लूट, आगजनी है
बेवजह भृकुटी तनी है,
अप्रतिम काया, मन मैला है
दूर तक अँधेरा फैला है।
क्या अब भी बची आस है?
अब किसकी तलाश है?

माँ

माँ ममता की अविरल धारा।
स्नेह भरा माँ का आँचल है
उर में प्यार भरा निश्छल है,
आँखों में करुणा का सागर
ममता से भर छलकी गागर।
ऋणी तुम्हारा है तन सारा
माँ ममता की अविरल धारा।

ठोकर जब भी लगी धरा पर
अश्रु बिन्दु से नयन गये भर,
कदम तुम्हारे बढ़े उठाने
ममता की बूँदें बरसाने।
तेरी आँखों का मैं तारा
माँ ममता की अविरल धारा।

खुद जग मुझे सुलाई जननी
था अबोध बालक, माँ तरणी,
कोई विपदा राह न आये
दूर रहें दुर्दिन के साये।
सुत खातिर अपना ली कारा
माँ ममता की अविरल धारा।

हर सुख से आँचल मैं भर दूँ
तन-मन कदमों में भी धर दूँ,
सौ जन्मों की चाह विधाता
कर्ज चुकाने दे हे माता।
मातु तुम्हारा बनूँ सहारा
माँ ममता की अविरल धारा।

विचलित नर को गीता का संदेश कहेगा

दिशाहीन जग, भ्रमित विचरता,
ह्रदय भरा विष क्यों है रहता?
क्या आखिर जग की मजबूरी-
बढ़ती जाती पल -पल दूरी,
धरा अस्त्र से भरने को है,
क्यों फिर विश्व बिखरने को है?
कहे विश्व न कहे हमारा देश कहेगा,
विचलित नर को गीता का संदेश कहेगा।

विश्व विजय की सबकी चाहत,
मौन सभ्यताएँ हो आहत,
उत्कंठा बल दिखलाने की,
सकल धरा पर भी छाने की,
बचे न जग का कोई कोना,
जग पाने में क्यों जग खोना?
तक्षशिला, नालंदा का अवशेष कहेगा,
विचलित नर को गीता का संदेश कहेगा।

आतंकी साये में धरती,
शान्ति कहीं छुप आहें भरती,
हिंसा का दृढ़ पारावार,
लोहित दिखता है संसार,
कौन कहाँ जीवन खोएगा,
चिता सजी, जग कब सोएगा?
स्वर्णिम लंका जलती क्यों लंकेश कहेगा,
विचलित नर को गीता का संदेश कहेगा।

फैल रहा प्रतिपल तिमिरांचल,
वारिधि, नभ, गिरि या भू समतल,
संस्कृति, शील, सुजन का परिभव,
तीव्र प्रभंजन में दीपक लौ,
बर्बरता का नर अभिलाषी,
मानवता शोणित की प्यासी।
मिट्टी में मिल सृष्टि सकल का शेष कहेगा,
विचलित नर को गीता का संदेश कहेगा।

गीता-ज्ञान

कर्म पर मानव तेरा अधिकार है।
कर्म करता चल, न सोचो क्या मिला
शूल डालों पर सजा या गुल खिला,
हो नहीं आसक्ति, फल में भी कभी
पूर्ण हो न हो , करम तू कर सभी,
समत्व का रख भाव, इसमें योग है
कर्म जो सकाम भीषण रोग है।
भागता फल की तरफ संसार है
कर्म पर मानव तेरा अधिकार है।

भूल जा क्या पुण्य औ क्या पाप है
इन विचारों में जकड़ता आप है,
कर्म फल को त्याग तो तू मुक्त है
कृष्ण की वाणी अमी से युक्त है,
मोह बुद्धि को सदा करता भ्रमित
कामना से युक्त मन करता अहित।
है समर जग, कुछ नहीं उस पार है
कर्म पर मानव तेरा अधिकार है।

सुख-दुखों के वेग से जो है अलग
क्रोध, भय के शत्रु से भी जो सजग,
शुभ-अशुभ से राग न ही द्वेष जिसका
शान्त मन होता सदा ही उस पुरुष का,
सोच विषयों की, तुझे आसक्ति होगी
कामना, फिर क्रोध, कैसे भक्ति होगी?
श्री कृष्ण की गीता अनघ उपहार है
कर्म पर मानव तेरा अधिकार है।

संघर्ष

संघर्ष हमारे जीवन का
एकमात्र सबल आधार प्रिय,
चलता जीवन प्रतिपल इससे
नर या फिर अवतार प्रिय।

दुर्गम पथ दे बल असीम
दुर्बलता पर जय पाने को,
जीवन-धारा करती कल-कल
बह उठती लहराने को।

समर बना लघु जीवन तो
मधुरस की बहती है धारा,
किटकिट जिस क्षण रुकती
जीवन हो जाता सूखा - हारा।

संघर्ष नहीं कर सकता तो
जा मंदिर की बन जा मूरत,
पुष्प चढ़ेंगे तन पर तेरे
चमकेगी तेरी सूरत।

संघर्ष रुका, तो जीवन भी,
सूखी रस की बरसात प्रिय,
जीवन सरस बनाने को
संघर्ष मिला सौगात प्रिय।

तकदीर

उड़ने की थी चाहत तो पर न मिला
तकदीर भी क्या चीज है
कभी बैरी, कभी अजीज है,
कभी अनचाहे सबकुछ पास
कभी घुटन और उपहास,
कहीं खिलता हुआ चमन
कभी आँधियों का दमन।
आँखों में थी नींद तो घर न मिला
उड़ने की थी चाहत तो पर न मिला।

जब सोये तो जगा दिया
जगे तो, दगा दिया,
मिहनत को न मिला अंजाम
हुनर को अधूरा दाम,
कभी भर दी झोली
सपनों की जली होली।
जब जीवन था दूभर तो अवसर न मिला
उड़ने की थी चाहत तो पर न मिला।

एक दीन बन जाता अमीर
आदमी यूँ ही इतना अधीर,
बिन आँखों के लोग चल लेते
उलझे जीवन का भी हल लेते,
रोना, हँसना सब तकदीर है
हर हाथ की अपनी लकीर है।
जमाने से फिर क्यों है शिकवे, गिला?
उड़ने की थी चाहत तो पर न मिला।

आँसू

आँखों में उमड़ते देखा
दामन में भरते देखा।
कभी अरमान बन के बहे
दर्द की पहचान बन के बहे।

कभी पलकों पर बने रहे
बादल की तरह घने रहे।
कभी बहकर बदन भिगोया
छलककर अंदर भी खोया।
अंदर जो सूखे, नासूर बने
दर्द कुछ नये प्रचूर बने।

सुना कि आँसू गम धोते
इसलिये तो हम रोते।
आँसुओं का सैलाब नअंदर होता
बाहर फिर कैसे समन्दर होता।
अश्कों पर चमकते सिन्दूर देखा
प्रिय जन को जाते दूर देखा।

अगर ये आँसू न होते
दर्द दिल के कैसे धोते?
कुछ आँसुओं को रुमाल मिले
बहते कुछ बेहाल मिले।
कुछ आँसू पी के जिये
कुछ आँसू जी के पिये।

दिल मिला के आज हम कटुता मिटायें

हमारे बीच के इस फासले को
मिटे कुत्सा हमारे ही भले को,
कदम दो-चार है आगे बढ़ाना
हमारा ध्येय रूठे को मनाना।
उजड़े चमन में फिर बहारें लौट आयें
दिल मिला के आज हम कटुता मिटायें।

अलग हो बीच की सारी शिकायत
दुआ के साथ बढ़ जाये इनायत,
हुई जो भूल है उसको भुलाना
धरा को आज फिर जन्नत बनाना।
रंग की होली, दीवाली मिल मनायें
दिल मिला के आज हम कटुता मिटायें।

खता तेरी न मेरी मानना है
बढ़ें मिल के कदम भी कामना है,
चले हैं साथ तो होगी कमी भी
खुली जब आँख तो इनमें नमी भी।
गीत मिलके सन्धि का हम गुनगुनायें
दिल मिला के आज हम कटुता मिटायें।

ह्रदय हो प्यार , ममता का बसेरा
कलह का तम हटे आया सवेरा,
सहज स्वीकार हो हित दूसरों के
बुझे दीपक जलें सबके घरों के।
हैं मिटाने आज शिकवे भी गिलायें
दिल मिला के आज हम कटुता मिटायें।

अहंकार

अहंकार को वश में करके
समय - समय पर झुकना सीखो।

दर्प भरे तरु खड़े धरा पर
तूफानों में गिर जाते,
अकड़न जिनकी रग में बसती
विपदा में वो घिर जाते।

झुकना जिसने सीख लिया वो
झुक फिर से उठ जाते हैं,
आँधी में भी झूम -झूम के
गीत खुशी के गाते हैं।

देख प्रभंजन झुकते तृण सब
आँधी से प्रतिकार नहीं,
जीने की है कला मिली
झुकने में इनकी हार नहीं।

अहंकार तो मौत सदृश है
भूतल पर सर कर देता,
झुकना फिर उठ जाना तो
मधु -रस से जीवन भर देता।

प्रश्न नहीं की आँधी में तृण
झुकते कितनी बार यहाँ,
प्रश्न मगर कानन के दृढ़ द्रुम
की क्यों होती हार यहाँ?

झुकने का अध्यात्म किसी को
जीवन से है भर देता,
अकड़ा जो भी इस वसुधा पर
विधिना जीवन हर लेता।

दुर्गम, कठिन, कंटीले पथ पर
चलना है तो रुकना सीखो,
अहंकार को वश में करके
समय - समय पर झुकना सीखो।

गांव

गांवों की सुषमा अति न्यारी,
टेढी, पतली गलियाँ सारी,
बागों में डालों पर गातीं
फूलों की कलियाँ सुकुमारी।

सन-सन बहता हुआ पवन,
सबनम बरसाता हुआ गगन,
नव- कलियों के आलिंगन को
अलि-अवली का वह पागलपन।

पुरवइया की ये मस्त चाल,
खग करते डालों पर धमाल,
मस्तानों की टोली आती
मलती गालों पर भी गुलाल।

सरिता का भी कल-कल गायन,
तट नीरव, सुन्दर, अति पावन,
नावों का लहरों से किलोल
क्या छवि अलौकिक, मनभावन।

खेतों में सरसों का खिलना,
पीले फूलों से रंग भरना,
मन को हर्षित करता प्रतिपल
किसलय का धीरे से हिलना।

सब लोग भाव से भरे हुए,
अपनत्व ह्रदय में धरे हुए,
देखा खलिहानों को जब भी
मन कृषकों के तब हरे हुए।

उन गांवों में फिर गमन करूँ,
पिक, दादुर के स्वर श्रवण करूँ,
आराम करूँ तरु छाँव तले,
चल पगडंडी पर भ्रमण करूँ।