प्रभाती सोहन लाल द्विवेदी
Prabhati Sohan Lal Dwivedi


भावों की रानी से

कल्पनामयी ओ कल्यानी! ओ मेरे भावों की रानी! क्यों भिगो रही कोमल कपोल बहता है आंखों से पानी ! कैसा विषाद ? कैसा रे दुख ? सब समय नहीं है अंधकार ! आती है काली रजनी तो दिन का भी है उज्ज्वल प्रसार ! अधरों पर अपने हास धरो, बाधाओं का उपहास धरो, जीवन का दिव्य बिकास धरो, तुम यों न निराशा श्वास भरो! विश्वास अमर, साधना सफल, सत्कर्मों से श्रृंगार करो धुंधली तस्वीरें खींच खींच मत जीवन का संहार करो वेदों उपनिषदों की धात्री! चिर जीवन चिर आनंद यहाँ, मंगल चितन, मंगल सुकर्म है जीवन में अवसाद कहाँ ? हे आर्यों की गौरव विभूति ! तुम जीवन में मत अमा बनो कल्याण-अमृत की वर्षा हो तुम आशा की पूर्णिमा बनो! *.............* तुम जगद्धात्रि! जग कल्याणी! तुम महाशक्ति ! सोचो क्या हो, कविते! केवल तुम नहीं अश्रु जीवन में जय की आत्मा हो! तुम कर्मगान गाओ जननी तुम धर्मगान गाओ धन्ये तुम राष्ट्र धर्म की दीक्षा दो, तुम करो राष्ट्र रक्षण पुण्ये! गाओ आशा के दिव्य गान, गाओ, गाओ भैरवी तान युग युग का घन तम हो विलीन फूटे युग में नूतन विहान! कल्मष छूटे अंतरतम का गानो पावन संगीत आज, जागे जग में मंगल-प्रभात गाओ वह मंगल-गीत आज!

उमंग

उठ उठ री मानस की उमंग! भर जीवन में नव रूप रंग! उठ सागर की गहराई सी, पर्वत की अमित उँचाई सी, नभ की विशाल परछाँही सी, लय हों अग जग के रंग ढंग! उठ उठ री मानस की तरंग! छा जीवन में बन एक भाग, अनुराग रहे या हो विराग, चमके दोनों में आत्मत्याग; जल जल चमकूँ मैं वह्नि रंग ! उठ उठ री मानस की उमंग! प्रण में मरने की जगा साख, रण में मर कर मैं बनूं राख, उठ पड़ें राख से लाख लाख, शर से भर कर खाली निषंग! उठ उठ री मानस की उमंग!

प्रभाती

जागो जागो निद्रित भारत ! त्यागो समाधि हे योगिराज ! शृंगी फूँको, हो शंखनाद, डमरू का डिमडिम नव-निनाद ! हे शंकर के पावन प्रदेश ! खोलो त्रिनेत्र तुम लाल लाल ! कटि में कस लो व्याघ्रांबर को कर में त्रिशूल लो फिर सँभाल ! विस्मरण हुआ तुमको कैसे वह पुण्य पुरातन स्वर्णकाल ? अपमान तुम्हारे कुल का लख हो गई पार्वती भस्म क्षार! वह दक्ष प्रजापति का महान मख ध्वंस हुआ, भर गया शोर, कँप उठी धरा, कँप उठा व्योम, सागर में लहरी प्रलयरोर ! किस रोषी ऋषि का क्रुद्ध शाप है किए बंद स्मृति-नयन छोर? जागो मेरे सोने वाले अब गई रात, आ गया भोर! देखा तुमने निज आँखों से जब भी दुनियाँ में सघन रात, गूँजें वेदों के गान यहाँ फूटा जग में जीवन प्रभात ! देखा तुमने निज आँखों से कितनों ही के उत्थान पतन, इतिहास विश्व के दृष्टा तुम सृष्टा कितनों के जन्म-मरण! देखा तुमने निज आँखों से सतयुग, त्रेता, द्वापर, समस्त, कैसे कब किसका हुआ उदय, कैसे कब किसका हुआ अस्त ! हो गया सभी तो नष्ट भ्रष्ट अवशिष्ट रहा क्या यहाँ हाय ! विस्मरण हो रहे दिवस पर्व संवत्सर भी विस्मरण प्राय ! ईंटें पत्थर प्राचीर खड़ी क्या और पास में है विशेष देखो अबतो ध्वंसावशेष देखो अबतो भग्नावशेष ! किसका इतना उत्थान हुआ, श्री किसका इतना अधःपात ! हे महामहिम क्या और कहूँ क्या तुम्हें और है नहीं ज्ञात ? सब ज्ञात तुम्हें तो फिर क्यों यों तुम जान जान बनते अजान, जागो मेरे सोने वाले! जागो भारत ! जागो महान ! बोलो, वे द्रोणाचार्य कहाँ ? वह सूक्ष्म लक्ष्य-संधान कहाँ ? हैं कहाँ वीर अर्जुन मेरे गाँडीव कहाँ है ? वाण कहाँ ? गीता - गायक हैं कृष्ण कहाँ ? वह धीर धनुर्धर पार्थ कहाँ ? है कुरुक्षेत्र वैसा ही पर वह शौर्य कहाँ ? पुरुषार्थ कहाँ ? हैं कहाँ महाभारत वाले योधा, पदातिगण, सेनानी ? गुरु, कर्ण, युधिष्ठिर, भीष्म, भीम, वे रण प्रण व्रण के अभिमानी! हैं कालिदास के काव्यशेष विक्रमादित्य का राज कहाँ ? मेरा मयूर सिंहासन वह मेरे भारत का ताज कहाँ ? वह चन्द्रगुप्त का राज कहाँ अपना विशाल साम्राज्य कहाँ ? वह महा क्रान्ति के संचालक गुरुदेव कहाँ ? चाणक्य कहाँ ! वैभव विलास के दिवस कहाँ ? उल्लास हास के दिवस कहाँ ? है कहाँ हर्षवर्धन मेरे अंकित केवल इतिहास यहाँ ! है यत्र तत्र बस कीर्ति-स्तंभ सम्राट अशोक महान कहाँ ? दुर्जय कलिंग के मद-ध्वंसक शूरों के युद्ध प्रयाण कहाँ ? प्राचीरों में बंदिनी बनी बैठी है सीता सुकुमारी गल रहे कुसुम से अंग अंग दृग से अविरल धारा जारी! धन्वाधारी हैं राम कहाँ ! वे बलधारी हनुमान कहाँ ? है खड़ी स्वर्ण लंका अविचल अपमानित के अरमान कहाँ ? जब प्रणय बना जग में विलास तब तो अपना ही बना काल । सब तुम्हें ज्ञात था पृथ्वीराज तब क्यों न चले पथपर सँभाल ! जग जाती तुम ही संयोगिते ! मत सोती, यों बेसुध रानी ! तो क्यों होते हम पराधीन ? खोते अपने कुल का पानी ! अब कब जागोगे पृथ्वीराज ? खोलो अलसित पलकें अजान! अंगड़ाई लेती है ऊषा, हट गई निशा, आया विहान! जागो दरिद्रता के विप्लव ! जागो भूखों की प्रलय-तान ! जागो आहत उर की ज्वाला! युग युग के बंदी मूक गान !

कणिका

उदय हुआ जीवन में ऐसे परवशता का प्रात । आज न ये दिन ही अपने हैं आज न अपनी रात! पतन, पतन की सीमा का भी होता है कुछ अन्त ! उठने के प्रयत्न में लगते हैं अपराध अनंत ! यहीं छिपे हैं धन्वा मेरे यहीं छिपे हैं तीर, मेरे आँगन के कण-कण में सोये अगणित वीर!

अभियान-गीत

चल रे चल! अडिग! अचल! घन गर्जन, हिम वर्षण! तिमिर सघन, तड़ित पतन ! शिर उन्नत, मन उन्नत ! प्रण उन्नत, क्षत विक्षत ! रुक न विचल! झुक न विचल! गति न बदल ! अनिल ! अनल! चल रे चल! चिर शोषण, चिर दोहन! रक्त न तन, बुझे नयन ! बड़वानल ! जल जल जल! जगती तल कर उज्ज्वल करुणा जल ढल ढल ढल! सत्य सबल! आत्म प्रबल! चल रे चल! कर बंधन, उर बंधन ! तन बंधन, मन बंधन ! अविचल रण, अविरल प्रण! शत शत व्रण, हों क्षण क्षण! शिर करतल! जय करतल! बलि करतल! बल करतल! बल भर बल! चल रे चल!

गढ़वाल के प्रति

जाग रे जाग पहाड़ी देश जगा बंगाल, जगा पांचाल, जगा है सारा देश अशेष, जाग! तू भी मेरे गढ़वाल, हिमाचल के प्यारे गढ़देश ! साज सुंदर केसरिया देश जाग ! रे जाग! पहाड़ी देश ! बह रहा है नयनों से नीर नहीं रे तन पर कोई चीर, देखती तेरी मुख की ओर, हो रही जननी आज अधीर देख जननी के रूखे केश जाग रे जाग ! पहाड़ी देश । लिया तुझ में गंगा ने जन्म किया हरियाला सारा देश, बहा दे स्वतंत्रता का स्रोत अरे ओ पावन पुण्य प्रदेश! यातनायें हो जायें शेष, जाग रे जाग! पहाड़ी देश ! हिमाचल के प्यारे गढ़वाल आज भारत की लाज संभाल शुभ अंचल में लगा न दाग उठा रे अपनी भुजा विशाल शक्ति है तुझ में अतुल अशेष जाग रे जाग! पहाड़ी देश ।

जागो बुद्धदेव भगवान

कुशी नगर के भग्न भवन में कैसे सोये हो बोलो ? युग युग बीते तुम्हें जगाते अब तो प्रिय, आखें खोलो! पत्थर के कारा में बंदी तुम नीरव निस्तब्ध पड़े, एक बार जागो फिर गौतम! हो जायो अविलंब खड़े ! सारनाथ के जीर्ण शीर्ण खंडहर हैं तुम्हें निहार रहे, जागो ! काशी के प्रबुद्ध ! कितने यश आज पुकार रहे ! खड़ी सुजाता है बट तल फिर, आकुल हृदय अधीर लिए, पूर्णा खड़ी लिए झारी में, और दृग में भी नीर लिए! यशोधरा पद धूलि शीश धरने को व्याकुल कल्याणी, शुद्धोधन भूपाल विकल सुनने को गौतम की वाणी! छन्नक वह सारथी तुम्हारा खड़ा, बिछा पथ पर पलकें राहुल देख रहा उत्कंठित, धूल धूसरित हैं अलकें ! उधर आम्र पाली आकुल है, उमड़ा आँखों में सावन ! भिक्षु संघ है खड़ा समुत्सुक सुनने को प्रवचन पावन ! कृषा गौतमी देखो आई द्वार मृतक सुत गोद लिए, आत्म बोध दो बोधिसत्त्व ! वह लौटे धाम प्रमोद लिए! ऋषि पत्तन मृगदाव तुम्हारे बिना सभी हैं म्लान मुखी, कंथक खड़ा उदास पंथ में, आकुल आँखें, प्राण दुखी! आज लुंबिनी को दूर्वा भी लगा रही मन में लेखा, शाल वृक्ष देखते तुम्हारे अरुण चरण तल की रेखा! नैरंजरा नदी की लहरें गाती हैं फिर कल कल गान, जागो पीड़ित की पुकार पर जागो बुद्धदेव भगवान !

अकबर और तुलसीदास

अकबर और तुलसीदास, दोनों ही प्रकट हुए एक समय, एक देश, कहता है इतिहास; 'अकबर महान' गूँजता है आज भी कीर्ति-गान, वैभव प्रासाद बड़े जो थे सब हुए खड़े पृथ्वी में आज गड़े! अकबर का नाम ही है शेष सुन रहे कान! किंतु कवि तुलसीदास! धन्य है तुम्हारा यह रामचरित का प्रयास, भवन है तुम्हारा अचल, सदन यह तुम्हारा विमल, आज भी है अडिग खड़ा, उत्सव उत्साह बड़ा, पाता है वही जो जाता है तीर में! एक हुए सम्राट जिनका विभव विराट एक कवि,--रामदास कौड़ी भी नहीं पास, किंतु, आज चीर महा कालों की तालों की, गूंजती है, नृपति की नहीं, कवि की ही वाणी गंभीर! अकबर : महान जैसे मृत तुलसीदास : अमृत!

प्रसाद जी की पुण्य स्मृति में

भारतीय सुसंस्कृति के गर्व औ अभिमान ! बुद्ध की सबुद्धि के कल्याण- मय आख्यान ! आर्य-गौरव के अलौकिक दिव्य उज्ज्वल गान! राष्ट्रभाषा के विधाता, श्री, सुरभि, सम्मान ! नित्य मौलिक, ऐतिहासिक, चिर- विचारक आप, भावना औ' ज्ञान के युग पद, समन्वित छाप! त्याग आज सकाम जगती, तुम चले निष्काम, युग प्रवर्तक, क्रान्त दर्शी, तुम्हें सतत प्रणाम !

महाकवि पंडित अयोध्या सिंह उपाध्याय के प्रति

आज नगरी में हमारी कौन सा मेहमान आया ? तिमिर में दीपक जला है, भक्त - गृह भगवान आया। सित बने हैं केश काले की कठिन किसने तपस्या ? भाव - भाषा - छंद की सुलझी सभी उलझी समस्या ! आज कवि के कंठ में क्यों लिए नवरस गान आया? आज नगरी में हमारी कौन सा मेहमान आया ? आज किसकी अस्थियों में उठ खड़ी भाषा हमारी? सींच किसने रक्त से कर दी हरी आशा हमारी ! कौन पतझर में हमारे मधुर मधु का दान लाया ? आज नगरी में हमारी कौन सा मेहमान आया ? गोमती के भाग्य पर करती स्पृहा है गंगधारा, अवध ही की गोद में क्यों अवध का हरि है पधारा ? रंक रसिकों की कुटी में आज नव वरदान आया । आज नगरी में हमारे कौन सा मेहमान आया ?

'रत्नाकर'

एक स्वर्णकण खो जाने से हो उठता उर कातर, कैसे धैर्य धरे वह जिसका लुट जाये 'रत्नाकर' !

भैरवी के जन्मदिवस पर

आज अवंध्या बनी, स्वर्ण संध्या में प्रतिभा रागमयी, आज महोत्सव हो मेरे गृह, रसना हो अनुरागमयी ; रोमों में ले पुलक, साधना बैठी बनी सुहागमयी, गत विहाग की निशा; उषा है आज 'भैरवी' रागमयी! चलो आज कवि! अमृत-अर्घ ले श्रान्त, कलान्त पद को धोने, जीवन के ऊजड़ ऊसर में हरे - भरे अंकुर बोने ! कवि ! सोचो मत अब तक तुमने नहीं नई उपमायें दी, नई कल्पना, नये छंद, गति, नहीं नई रचनायें दी ! अमृत-कलाकरों का अब तक तुमने नहीं किया सम्मान, नंगे-भिखमंगों में गाये तुम ने भूख-प्यास के गान ; नहीं चाहिए गीत और अब, है न माँग मृदुतानों की, शोणित की, शिर की, प्राणों की, है पुकार बलिदानों की!