बांग्ला कविताएँ हिन्दी में : Sunil Gangopadhyay

Bangla Poetry in Hindi : सुनील गंगोपाध्याय


मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी

इसी तरह

हमारे बड़े विस्मयकारी दुःख हैं हमारे जीवन में हैं कई कड़वी ख़ुशियाँ माह में दो-एक बार है हमारी मौत हम लोग थोड़ा-सा मरकर फिर जी उठते हैं हम लोग अगोचर प्रेम के लिए कंगाल होकर प्रत्यक्ष प्रेम को अस्वीकार कर देते हैं हम सार्थकता के नाम पर एक व्यर्थता के पीछे-पीछे ख़रीद लेते हैं दुःख भरे सुख, हम लोग धरती को छोड़कर उठ जाते हैं दसवीं मंज़िल पर फिर धरती के लिए हाहाकार करते हैं हम लोग प्रतिवाद में दाँत पीसकर अगले ही क्षण दिखाते हैं मुस्कराते चेहरों के मुखौटे प्रताड़ित मनुष्यों के लिए हम लोग गहरी साँस छोड़कर दिन-प्रतिदिन प्रताड़ितों की संख्या और बढ़ा लेते हैं हम जागरण के भीतर सोते हैं और जागे रहते हैं स्वप्न में हम हारते-हारते बचे रहते हैं और जयी को धिक्कारते हैं हर पल लगता है कि इस तरह नहीं, इस तरह नहीं कुछ और, जीवित रहना किसी और तरह से फिर भी इसी तरह असमाप्त नदी की भाँति डोलते-डोलते आगे सरकता रहता है जीवन ....!!

ओ इक्कीसवीं सदी के मनुष्य!

ओ इक्कीसवीं सदी के मनुष्य! तुम्हारे लिए प्रार्थना करता हू चंचल सुख और समृद्धि की, तुम अपने जीवन और जीवनयापन में मज़ाकिया बने रहना तुम लाना आसमान से मुक्ति-फल -- जिसका रंग सुनहरा हो, लाना -- ख़ून से धुली हुई फ़सलें पैरों-तले की ज़मीन से, तुम लोग नदियों को रखना स्रोतस्विनी कुल-प्लाविनी रखना नारियों को, तुम्हारी संगिनियां हमारी नारियों की तरह प्यार को पहचानने में भूल न करें, उपद्रवों से मुक्त, खुले रहें तुम्हारे छापेख़ाने तुम्हारे समय के लोग मात्र बेहतर स्वास्थ्य के लिए उपवार किया करें माह में एक दिन, तुम लोग पोंछ देना संख्याओं को ताकि तुम्हें नहीं रखना पड़े बिजली का हिसाब कोयले-जैसी काले रंग की चीज़ तुम सोने के कमरे में चर्चा में मत लाना तुम्हारे घर में आए गुलाब-गंधमय शान्ति, तुम लोग सारी रात घर के बाहर घूमो-फिरो। ओ इक्कीसवीं सदी के मनुष्य! आत्म-प्रताड़नाहीन भाषा में पवित्र हों तुम्हारे हृदय, तुम लोग निष्पाप हवा में आचमन कर रमे रहो कुंठाहीन सहवास में। तुम लोग पाताल-ट्रेन में बैठकर नियमित रूप से स्वर्ग आया-जाया करो।

देखता हूं मृत्यु

मृत्यु के पास मैं नहीं गया था, एक बार भी फिर भी वह क्यों छद्मवेश में बार-बार दिखाई देती है! क्या यह निमन्त्रण है.... क्या यह सामाजिक लघु-आवागमनर्षोर्षो अकस्मात उसकी चिट्ठी मिलती है अहंकार विनम्र हो जाता है जैसे देखता हूं नदी किनारे एक स्त्री बाल बिखरा कर खड़ी है पहचान लिए जाते हैं शरीरी संकेत वैसे ही हवा में उड़ती है नश्वरता डर लगता है, छाती कंपती है कि सब कुछ छोड़कर जाना पड़ेगा जब भी कुछ सुन्दर देखता हूं जैसे कि भोर की बारिश अथवा बरामदे के लघु-पाप अथवा स्नेह की तरह शब्दहीन फूल खिले रहते हैं देखता हूं मृत्यु, देखता हूं वही चिट्ठी का लेखक है अहंकार विनम्र हो जाता है डर लगता है, छाती कंपती है कि सब कुछ छोड़कर जाना पड़ेगा!!

नाम नहीं

अरुणोदय-जैसा शब्द मैंने बहुत दिनों से नहीं लिखा शायद फिर कभी नहीं लिखूंगा और तभी बादल गड़गड़ाते हैं -- यह क्या सुदूर-गर्जन है या कि मेघमन्द्रर्षोर्षो शब्दों के अमेय नशे ने जितनी अस्थिरता दी थी उतना नारी भी नहीं जानती सिहरन शब्द से जिस तरह बार-बार सिहरन होती है बिसरा दी गई बाल-स्मृति में से फिर उठ आती है प्रहेलिका शाम को चौरास्ते पर अकस्मात सारे रास्ते गड्ड-मड्ड हो जाते हैं, कविता लिखने अथवा न लिखने का दु:ख आकर सीने को दबोच लेता है दु:ख, या कि दु:ख के जैसा कुछ और जिसका नाम नहीं है!

नारी अथवा घासफूल

मनोवेदना का रंग नीला है या कि बादामी नदी किनारे आज खिले हैं घासफूल पीले और सफ़ेद क्या उनके पास भी है हृदय या स्वप्नों की वर्णच्छटा एक दिन इस नदी के तट पर आकर ख़ुशी से उजला हो जाता हूं और फिर कभी यहीं जो जाता हूं दुखी मनहर मुख नीचा कर पूछता हूं घासफूल, तुम क्या नारी की तरह दु:ख देते हो तुम्हीं प्रतीक हो आनन्द के भीर्षोर्षो

नीरा के लिए

नीरा! तुम लो दोपहर की स्वच्छता लो रात की दूरियाँ तुम लो चन्दन-समीर लो नदी किनारे की कुँआरी मिट्टी की स्निग्ध सरलता हथेलियों पर नींबू के पत्तों की गंध नीरा, तुम घुमाओ अपना चेहरा तुम्हारे लिए मैंने रख रखा है वर्ष का श्रेष्ठवणी सूर्यास्त तुम लो राह के भिखारी-बच्चे की मुस्कराहट लो देवदारु के पत्तों की पहली हरीतिमा कांच-कीड़े1की आंखों का विस्मय लो एकाकी शाम का बवण्डर जंगल के बीच भैंसों के गले की टुन-टुन लो नीरव आंसू लो आधी रात में टूटी नीन्द का एकाकीपन नीरा, तुम्हारे माथे पर झर जाए कुहासा-लिपटी शेफालिका तुम्हारे लिए सीटी बजाए रात का एक पक्षी धरती से अगर बिला जाए सारी सुन्दरता तब भी, ओ मेरी बच्ची तेरे लिए मैं यह सब रख जाना चाहता हूं। 1. नीले रंग का एक कीड़ा-विशेष

पर्दा हट जाता है

पर्दा हट जाता है देखता हूँ दूर अंधेरी स्मृति के उस पार हैं सैकड़ों कारागार, कालिख जाते और धुएँ से भरे या फिर पूजा के घण्टे अथवा मदिर लास्य गीतों से, ये ऐसे कारागार कि जहाँ प्रहरीवृन्द बड़े मज़ाकिया हैं शब्दों के आह्लाद में वे लाते हैं लोहे के बदले सोने की बेड़ियाँ। पर्दा हट जाता है देखता हूँ, एक झूठे समाज में झूठे कुनाट्य-रंग में विह्वल है पूर्व और पश्चिम बंगाल जूठन खाने वाले जुटे हैं लालच की प्रतियोगिताओं में विज्ञ और भाण्ड व्याकुल हो भूमिकाएँ बदल लेते हैं। पर्दा हट जाता है देखता हूँ, समस्त दृश्यों को पार कर एक अलग-सी रोशनी... डर और रोना छोड़कर ग़रीब लोग निकल पड़े हैं राजपथ पर ख़ून के प्यासों के ही वंश से उठ आया है कोई असली महान रक्तदाता... सप्तरथियों से घिरा किन्तु घोर युद्ध में फिर भी शामिल बौना अकेला ब्राह्मण, एक-एक कर दीवारें गिर रही हैं हू-हू कर घुस रही है स्वच्छ हवा कुछ ग्लानि पोंछकर... उन्नीसवीं सदी करवट बदलकर सो जाती है।

याद आ जाते हैं

प्यार के लिए कंगाल हो जाना मेरे इस जीवन से नहीं जा सका मेरा कंगाल हो जाना नहीं जा सका इस जीवन से प्यार के लिए, वो, जो नदियाँ सूख गईं मर कर खो गईं, भूत हो गईं खरपतवार से भरे, जो दुखी मैदान ग़ायब हो गए लोगों की भीड़ में बचपन के सेमल के फूल छज्जों पर अटकी फटी पतंग की फड़फड़ाहट कुछ भी खोने का मन नहीं करता मानो ये सब लौट आएँगे जिस तरह अँधेरी सुरंग के उस पार स्मृति में लौट आता है उजाला जैसे नौजवान स्त्रियों के उपहास झन-झन करते बज उठते हैं झरनों में कभी नहीं खोते पहाड़ों को फोड़कर अविरल निकल आते हैं, कितने ही तरह के रंग मिले देश में पुराने घर के अँधेरे कमरों की रिक्तता में भी बड़ा-सा मुँह फाड़े ताकता रहता है ख़ालीपन आकाश बिला जाता है ज्वार में बह जाती हैं दोस्तियाँ, उम्र इसी बीच हवा का तेज़ झोंका आकर साँझ की भाषा में सवाल करता है : तुम्हें याद है ? और तभी छटपटा उठती है छाती सारे विच्छेद के दुख याद आ जाते हैं ।

यादों का शहर

यदि कविता लिखकर खेत भर धान उगाया जा सकता मैं ख़ून से लिखता वह कविता यदि कविता के छन्द से प्यासी धरती पर घनघोर पानी बरसता मैं अपनी अस्थिमज्जा के सार को मिलाकर रच देता वृष्टिवन्दना का स्तोत्र यदि कविता लिखकर .... हाय, यदि कविता लिखकर .... देर तक रोने के बाद सो गया जो बच्चा उसके - जैसी दुख की छवि मैंने जीवन में और कहीं नहीं देखी यदि कविता लिखकर .... बुझ चुके चूल्हे के सामने पेट की सुलगती आग लिए कोई बैठा है यदि कविता लिखकर .... तिल के फूलों के भीतर धीरे-धीरे घुस रहे हैं कम्बलकीड़ों के झुण्ड यदि कविता लिखकर .... मलिन छाया में उड़ती जा रही है हरेक की अपनी - अपनी पृथ्वी शहर छोड़कर जब भी गन्ध की तलाश में जाता हूँ गाँव लगता है किसी और ग्रह का बाशिन्दा हूँ तुम्हारी तकलीफ़ों में मैं चुपके - चुपके रो सकता हूँ लेकिन वह तो कविता नहीं होगी तुम्हारी दुर्दशा पर प्रतिपक्ष के ख़िलाफ़ ग़ुस्से से गरज सकता हूँ लेकिन वह तो कविता नहीं होगी यह एक माया - दर्पण है कविता, इसे लेकर कुछ अकेले में खेलने - जैसा मुझे माफ़ कर देना !!

लंबी कविता की पाण्डुलिपि

इस पृथ्वी के साथ मिली हुई है एक दूसरी पृथ्वी अरण्य के साथ एक समान्तराल अरण्य दोपहर की निर्जनता में दूसरी एक निर्जनता मुझे विस्मित कर देता है कभी-कभी बहुत विस्मित कर देता है, प्यार के मुखमण्डल को घेरे हुए है एक दूसरा प्यार गहरी सांस के पड़ोस में एक और गहरी सांस किसी शाम नदी किनारे अकेला बैठता हूं लहर-लहर टुकड़े-टुकड़े हो जाता है रक्तवर्ण-आकाश तब एक और नदी के पड़ोस में असंख्य लहरों का सम्राट बनकर अकेले एक इन्सान का बैठे रहना -- एक अकेला इन्सान पानी के इन्द्रजाल में देखता है कि वह अकेला नहीं समस्त दुखों के हिमशीतल बिस्तर में है एक और दूसरा दु:ख सारे चिकने रास्तों के सिरहाने डोलता है बिसरा दिया गया और एक निरुोदेश्य रास्ता मुझे विस्मित कर देता है कभी-कभी बहुत विस्मित कर देता है .... मूल बंगाली से अनुवाद : सुलोचना

इच्छा

काँच की चूड़ी को तोड़ने के समान रह-रहकर इच्छा होती है कि तोड़ डालूँ दो चार नियम - क़ानून पाँव के नीचे पटक दूँ सिर पर रखा मुकुट जिनके पाँव के नीचे हूँ, उनके सर पर चढ़ बैठूँ काँच की चूड़ी को तोड़ने के समान ही इच्छा होती है अवहेलना करने की कि धर्मतला में भरी दुपहरी बीच रास्ते पर करूँ सुसु । इच्छा होती है दोपहर की धूप में ब्लैकआउट का हुक्म देने की इच्छा होती है कि करूँ झाँसा देकर व्याख्या जनसेवा की इच्छा होती है कि मलूँ कालिख धोखेबाज नेताओं के चेहरों पर इच्छा होती है कि दफ़्तर जाने के नाम पर जाऊँ बेलूर मठ इच्छा होती है कि करूँ नीलाम धर्माधर्म मुर्गीहाटा में गुब्बारे खरीदूँ गुब्बारे फोडूँ, काँच की चूड़ी दिखते ही तोडूँ इच्छा होती है कि अब पृथ्वी को तहस - नहस करूँ स्मारक के पाँव के पास खड़े होकर कहूँ मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता है । धर्मतला, मुर्गीहाटा, बेलूर मठ=कोलकाता की विभिन्न जगहों के नाम ইচ্ছে কাচের চুড়ি ভাঙার মতন মাঝে মাঝেই ইচ্ছে করে দুটো চারটে নিয়মকানুন ভেঙে ফেলি পায়ের তলায় আছড়ে ফেলি মাথার মুকুট যাদের পায়ের তলায় আছি, তাদের মাথায় চড়ে বসি কাচের চুড়ি ভাঙার মতই ইচ্ছে করে অবহেলায় ধর্মতলায় দিন দুপুরে পথের মধ্যে হিসি করি। ইচ্ছে করে দুপুর রোদে ব্ল্যাক আউটের হুকুম দেবার ইচ্ছে করে বিবৃতি দিই ভাঁওতা মেরে জনসেবার ইচ্ছে করে ভাঁওতাবাজ নেতার মুখে চুনকালি দিই। ইচ্ছে করে অফিস যাবার নাম করে যাই বেলুড় মঠে ইচ্ছে করে ধর্মাধর্ম নিলাম করি মূর্গিহাটায় বেলুন কিনি বেলুন ফাটাই, কাচের চুড়ি দেখলে ভাঙি ইচ্ছে করে লন্ডভন্ড করি এবার পৃথিবীটাকে মনুমেন্টের পায়ের কাছে দাঁড়িয়ে বলি আমার কিছু ভাল্লাগে না।।

उत्तराधिकार

नवीन किशोर, तुम्हें दिया मैंने भुवन तट का मेघों भरा आकाश तुम्हें दी मैंने बटन विहीन फटी हुई कमीज़ और फुफ्फुस भरी हँसी दोपहर की धूप में घूमना पैयाँ-पैयाँ, रात के मैदान में सोना होकर चित यह सब अब तुम्हारे ही हैं, अपने हाथों में भर लो मेरा असमय मेरे दुख-विहीन दुख क्रोध सिहरन नवीन किशोर, तुम्हें दिया मैंने मेरा जो कुछ भी था आभरण जलते हुए सीने में कॉफ़ी की चुस्की, सिगरेट चोरी, खिड़की के पास बालिका के प्रति बारम्बार ग़लती पुरुष वाक्य, कविता के पास घुटने मोड़कर बैठना, चाकू की झलक अभिमान में मनुष्य या मनुष्य जैसे किसी और चीज़ के सीने को चीरकर देखना आत्म-हनन, शहर को अस्तव्यस्त करता तेज़ क़दमों से रौंदता अहंकार एक नदी, दो-तीन देश, कुछ नारियाँ — यह सब हैं मेरी पुरानी पोशाकें, बहुत प्रिय थीं, अब शरीर में तंग हो कसने लगी हैं, नहीं शोभतीं अब तुम्हें दिया, नवीन किशोर, मन हो तो अंग लगाओ या घृणा से फेंक दो दूर, जैसी मरज़ी तुम्हारी मुझे तुम्हें तुम्हारी उम्र का सब कुछ देने की बहुत इच्छा होती है । উত্তরাধিকার নবীন কিশোর, তোমায় দিলাম ভূবনডাঙার মেঘলা আকাশ তোমাকে দিলাম বোতামবিহীন ছেঁড়া শার্ট আর ফুসফুস-ভরা হাসি দুপুর রৌদ্রে পায়ে পায়ে ঘোরা, রাত্রির মাঠে চিৎ হ’য়ে শুয়ে থাকা এসব এখন তোমারই, তোমার হাত ভ’রে নাও আমার অবেলা আমার দুঃখবিহীন দুঃখ ক্রোধ শিহরণ নবীন কিশোর, তোমাকে দিলাম আমার যা-কিছু ছুল আভরণ জ্বলন্ত বুকে কফির চুমুক, সিগারেট চুরি, জানালার পাশে বালিকার প্রতি বারবার ভুল পরুষ বাক্য, কবিতার কাছে হাঁটু মুড়ে বসা, ছুরির ঝলক অভিমানে মানুষ কিংবা মানুষের মত আর যা-কিছুর বুক চিরে দেখা আত্মহনন, শহরের পিঠ তোলপাড় করা অহংকারের দ্রুত পদপাত একখানা নদী, দু’তিনটে দেশ, কয়েকটি নারী — এ-সবই আমার পুরোনো পোষাক, বড় প্রিয় ছিল, এখন শরীরে আঁট হয়ে বসে, মানায় না আর তোমাকে দিলাম, নবীন কিশোর, ইচ্ছে হয় তো অঙ্গে জড়াও অথবা ঘৃণায় দূরে ফেলে দাও, যা খুশি তোমার তোমাকে আমার তোমার বয়সী সব কিছু দিতে বড় সাধ হয়।

जन्म नहीं होता, मृत्यु नहीं होती

मेरे प्रेम का कोई जन्म नहीं होता, मृत्यु नहीं होती — क्योंकि मैं अन्य प्रकार के प्रेम के हीरे का गहना शरीर में लेकर पैदा हुआ था । नहीं रखा किसी ने मेरा नाम, तीन-चार छद्मनामों से कर रहा हूँ भ्रमण मर्त्यधाम में, आग को प्रकाश समझा, प्रकाश से जलता है मेरा हाथ यह सोचकर कि अंधकार में मनुष्य देखना होता है सहज भँवर में अंधकार से लिपटा रहा कोई मुझे देता है सरोपा, कोई दोनों आँखों से हज़ार दुत्कार फिर भी मेरे जन्म-कवच, प्रेम को प्रेम किया है मैंने मुझे कोई डर नहीं लगता, मेरे प्रेम का कोई जन्म नहीं होता, मृत्यु नहीं होती । জন্ম হয় না, মৃত্যু হয় না আমার ভালোবাসার কোনো জন্ম হয় না মৃত্যু হয় না – কেননা আমি অন্যরকম ভালোবাসার হীরের গয়না শরীরে নিয়ে জন্মেছিলাম। আমার কেউ নাম রাখেনি, তিনটে-চারটে ছদ্মনামে আমার ভ্রমণ মর্ত্যধামে, আগুন দেখে আলো ভেবেছি, আলোয় আমার হাত পুড়ে যায় অন্ধকারে মানুষ দেখা সহজ ভেবে ঘূর্ণিমায়ায় অন্ধকারে মিশে থেকেছি কেউ আমাকে শিরোপা দেয়, কেউ দু’চোখে হাজার ছি ছি তবুও আমার জন্ম-কবচ, ভালোবাসাকে ভেলোবেসেছি আমার কোনো ভয় হয় না, আমার ভালোবাসার কোন জন্ম হয় না, মৃত্যু হয় না।।

पहाड़ के शिखर पर

बहुत दिनों से ही मुझे एक पहाड़ ख़रीदने का मन है । लेकिन पहाड़ कौन बेचता है, यह मैं नहीं जानता । यदि उससे मिल पाता, क़ीमत पर नहीं अटकता मामला । मेरे पास अपनी एक नदी है, वही दे देता पहाड़ के बदले । कौन नहीं जानता, पहाड़ की बनिस्पत नदी की ही क़ीमत होती है ज़्यादा । पहाड़ स्थिर रहता है, बहती रहती है नदी । फिर भी मैं नदी के बदले पहाड़ ही ख़रीदता । क्यूँकि मैं ठगा जाना चाहता हूँ । नदी को भी हालाँकि ख़रीदा था एक द्वीप के बदले में । बचपन में मेरा एक छोटा सा, साफ़-सुथरा द्वीप था । वहाँ थीं असंख्य तितलियाँ । बचपन में द्वीप था मुझे बेहद प्रिय । मेरी युवावस्था में द्वीप मुझे आकार में छोटा लगने लगा । प्रवाहमान सुव्यवस्थित तन्वी नदी मुझे ख़ूब पसन्द आई । दोस्तों ने कहा, इतने छोटे एक द्वीप के बदले में इतनी बड़ी एक नदी मिली ? क्या ख़ूब जीता है माँ क़सम ! तब मैं विह्वल हो जाता जीतने की ख़ुशी में । तब मैं सचमुच ही नदी से प्यार करता था । नदी मेरे कई सवालों का जवाब देती । जैसे , बताओ तो, आज शाम को बारिश होगी या नहीं ? वह कहती, आज यहाँ दक्षिणी गर्म हवा है । केवल एक छोटे से द्वीप पर होगी बारिश, किसी त्यौहार की तरह प्रबल बारिश ! मैं उस द्वीप पर अब नहीं जा सकता, उसे मालूम था ! सभी को मालूम है। फिर से नहीं लौटा जा सकता है बचपन में । अब मैं एक पहाड़ ख़रीदना चाहता हूँ। उस पहाड़ के पाँव के पास होगा गहन अरण्य, मैं पार कर लूँगा उस अरण्य को, उसके बाद केवल असहज कठिन पहाड़ । बिल्कुल शीर्ष पर, सिर के बहुत पास आकाश, नीचे विपुला पृथ्वी, चराचर में तीव्र निर्जनता । कोई भी नहीं सुन सकेगा मेरा कण्ठ - स्वर वहाँ । मैं भगवान में विश्वास नहीं करता, वह मेरे सिर के पास सर झुकाकर खड़े नहीं होंगे । मैं केवल दसों दिशाओं को सम्बोधित कर कहूँगा, हर मनुष्य ही अहंकारी है, यहाँ मैं हूँ अकेला — यहाँ मुझे कोई अहंकार नहीं है। यहाँ जीतने के बजाय, क्षमा माँगना अच्छा लगता है । हे दसो दिशाओ, मैंने कोई ग़लती नहीं की । मुझे क्षमा कर दो । পাহাড় চূড়ায় অনেকদিন থেকেই আমার একটা পাহাড় কেনার শখ। কিন্তু পাহাড় কে বিক্রি করে তা জানি না। যদি তার দেখা পেতাম, দামের জন্য আটকাতো না। আমার নিজস্ব একটা নদী আছে, সেটা দিয়ে দিতাম পাহাড়টার বদলে। কে না জানে, পাহাড়ের চেয়ে নদীর দামই বেশী। পাহাড় স্থানু, নদী বহমান। তবু আমি নদীর বদলে পাহাড়টাই কিনতাম। কারণ, আমি ঠকতে চাই। নদীটাও অবশ্য কিনেছিলামি একটা দ্বীপের বদলে। ছেলেবেলায় আমার বেশ ছোট্টোখাট্টো, ছিমছাম একটা দ্বীপ ছিল। সেখানে অসংখ্য প্রজাপতি। শৈশবে দ্বীপটি ছিল আমার বড় প্রিয়। আমার যৌবনে দ্বীপটি আমার কাছে মাপে ছোট লাগলো। প্রবহমান ছিপছিপে তন্বী নদীটি বেশ পছন্দ হল আমার। বন্ধুরা বললো, ঐটুকু একটা দ্বীপের বিনিময়ে এতবড় একটা নদী পেয়েছিস? খুব জিতেছিস তো মাইরি! তখন জয়ের আনন্দে আমি বিহ্বল হতাম। তখন সত্যিই আমি ভালবাসতাম নদীটিকে। নদী আমার অনেক প্রশ্নের উত্তর দিত। যেমন, বলো তো, আজ সন্ধেবেলা বৃষ্টি হবে কিনা? সে বলতো, আজ এখানে দক্ষিণ গরম হাওয়া। শুধু একটি ছোট্ট দ্বীপে বৃষ্টি, সে কী প্রবল বৃষ্টি, যেন একটা উৎসব! আমি সেই দ্বীপে আর যেতে পারি না, সে জানতো! সবাই জানে। শৈশবে আর ফেরা যায় না। এখন আমি একটা পাহাড় কিনতে চাই। সেই পাহাড়ের পায়ের কাছে থাকবে গহন অরণ্য, আমি সেই অরণ্য পার হয়ে যাব, তারপর শুধু রুক্ষ কঠিন পাহাড়। একেবারে চূড়ায়, মাথার খুব কাছে আকাশ, নিচে বিপুলা পৃথিবী, চরাচরে তীব্র নির্জনতা। আমার কষ্ঠস্বর সেখানে কেউ শুনতে পাবে না। আমি ঈশ্বর মানি না, তিনি আমার মাথার কাছে ঝুঁকে দাঁড়াবেন না। আমি শুধু দশ দিককে উদ্দেশ্য করে বলবো, প্রত্যেক মানুষই অহঙ্কারী, এখানে আমি একা- এখানে আমার কোন অহঙ্কার নেই। এখানে জয়ী হবার বদলে ক্ষমা চাইতে ভালো লাগে। হে দশ দিক, আমি কোন দোষ করিনি। আমাকে ক্ষমা করো।

वो सारे स्वप्न

कारागार के अन्दर उतर आई थी ज्योत्स्ना बाहर थी हवा, विषम हवा उस हवा में थी नश्वरता की गन्ध फिर भी फाँसी से पहले दिनेश गुप्ता ने लिखी थी चिट्ठी अपनी भाभी को, "मैं अमर हूँ, मुझे मार पाना किसी के बूते की बात नहीं ।" मध्यरात्रि में अब और देर नहीं है घण्टा बजता है प्रहर का, सन्तरी भी क्लान्त होते हैं सिरहाने आकर मृत्यु भी विमर्श बोध करती है । कण्डेम्ड सेल में बैठ लिख रहे हैं प्रद्युत भट्टाचार्य, "माँ, तुम्हारा प्रद्युत क्या कभी मर सकता है ? आज चारों ओर देखो, लाखों प्रद्युत तुम्हें देख मुस्कुरा रहे हैं, मैं ज़िन्दा ही रहा माँ, अक्षय" कोई नहीं जानता था कि वह था कहाँ, घर से निकला था लड़का, फिर वापस नहीं आया पता चला कि देश से प्यार करने के लिए मिला उसे मृत्युदण्ड अन्तिम क्षण से पहले भवानी भट्टाचार्य ने पोस्टकार्ड पर बहुत तेज़ गति से लिखा था अपने छोटे भाई को, "अमावस्या के श्मसान में डरते हैं डरपोक, साधक वहाँ सिद्धि लाभ करते हैं, आज मैं बहुत ज़्यादा नहीं लिखूँगा सिर्फ सोचूँगा कि मौत कितनी सुन्दर है।" लोहे की छड़ पर रख हाथ, वह देख रहे हैं अन्धकार की ओर दीवार को भेद जाती है दृष्टि, अन्धेरा भी हो उठता है वाङ्‌मय सूर्य सेन ने भेजी अपनी आखिरी वाणी, "मैं तुम लोगों के लिए क्या छोड़ गया ? सिर्फ़ एक ही चीज़, मेरा सपना एक सुनहरा सपना है, एक शुभ मुहूर्त में मैंने पहली बार इस सपने को देखा था।" वो सारे स्वप्न अब भी हवा में उड़ते रहते हैं सुनाई पड़ता है साँसों का शब्द और सब मर जाता है स्वप्न नहीं मरता अमरत्व के अन्य नाम होते हैं कानू, सन्तोष, असीम लोग ... जो जेल के निर्मम अन्धेरे में बैठे हुए अब भी इस तरह के स्वप्न देख रहे हैं । সেই সব স্বপ্ন কারাগারের ভিতরে পড়েছিল জোছনা বাইরে হাওয়া, বিষম হাওয়া সেই হাওয়ায় নশ্বরতার গন্ধ তবু ফাঁসির আগে দীনেশ গুপ্ত চিঠি লিখেছিল তার বৌদিকে, “আমি অমর, আমাকে মারিবার সাধ্য কাহারও নাই।” মধ্যরাত্রির আর বেশি দেরি নেই প্রহরের ঘণ্টা বাজে, সান্ত্রীও ক্লান্ত হয় শিয়রের কাছে এসে মৃত্যুও বিমর্ষ বোধ করে। কনডেমড সেলে বসে প্রদ্যুত ভট্টাচার্য লিখছেন, “মা, তোমার প্রদ্যুত কি কখনো মরতে পারে ? আজ চারিদিকে চেয়ে দেখ, লক্ষ প্রদ্যুত তোমার দিকে চেয়ে হাসছে, আমি বেঁচেই রইলাম মা, অক্ষয়” কেউ জানত না সে কোথায়, বাড়ি থেকে বেরিয়েছিল ছেলেটি আর ফেরেনি জানা গেল দেশকে ভালোবাসার জন্য সে পেয়েছে মৃত্যুদন্ড শেষ মুহূর্তের আগে ভবানী ভট্টাচার্য পোস্ট কার্ডে অতি দ্রুত লিখেছিল তার ছোট ভাইকে, “অমাবস্যার শ্মশানে ভীরু ভয় পায়, সাধক সেখানে সিদ্ধি লাভ করে, আজ আমি বেশি কথা লিখব না শুধু ভাববো মৃত্যু কত সুন্দর।” লোহার শিকের ওপর হাত, তিনি তাকিয়ে আছেন অন্ধকারের দিকে দৃষ্টি ভেদ করে যায় দেয়াল, অন্ধকারও বাঙময় হয় সূর্য সেন পাঠালেন তার শেষ বাণী, “আমি তোমাদের জন্য কি রেখে গেলাম ? শুধু একটি মাত্র জিনিস, আমার স্বপ্ন একটি সোনালি স্বপ্ন, এক শুভ মুহূর্তে আমি প্রথম এই স্বপ্ন দেখেছিলাম ।” সেই সব স্বপ্ন এখনও বাতাসে উড়ে বেড়ায় শোনা যায় নিঃশ্বাসের শব্দ আর সব মরে স্বপ্ন মরে না অমরত্বের অন্য নাম হয় কানু, সন্তোষ, অসীম রা… জেলখানার নির্মম অন্ধকারে বসে এখনও সেরকম স্বপ্ন দেখছে

व्यर्थ प्रेम

हर व्यर्थ प्रेम देता है मुझे नया अहंकार बतौर मनुष्य, मैं हो जाता हूँ तनिक लम्बा दुख मेरे सिर के बालों से पैरों की उँगलियों तक फैल जाता है मैं सभी मनुष्यों से अलग होकर एक अज्ञात रास्ते में सुस्त क़दमों से चलने लगता हूँ सार्थक मनुष्यों के अधिकाधिक माँगों वाले चेहरे मुझे सहन नहीं होते मैं रास्ते के कुत्ते को बिस्कुट ख़रीदकर देता हूँ रिक्शेवाले को देता हूँ सिगरेट अंधे आदमी की सफेद छड़ी मेरे पैरों के पास आ गिरती है मेरे दोनों हाथों में भरी है भरपूर दया, मुझे किसी ने लौटा दिया है इसलिए पूरी दुनिया लगती है बहुत अपनी मैं निकलता हूँ घर से नई धुली हुई पतलून - कमीज़ पहनकर अपने सद्य दाढ़ी बने मुलायम चेहरे को मैं ख़ुद ही सहलाता हूँ बहुत गोपन में मैं एक साफ आदमी हूँ मेरे सर्वांग में कहीं भी नहीं है ज़रा सी भी गंदगी ज्योतिर्वलय बन रहती है अहंकार की प्रतिभा माथे के पीछे और कोई देखे या न देखे मुझे भान हो ही जाता है ले आता है अभिमान मेरे होठों पर स्मित - हास्य मैं ऐसे रखता हूँ पाँव मिट्टी के सीने पर भी कि नहीं पहुँचे आघात मुझे तो किसी को भी दुख नहीं देना है । ব্যর্থ প্রেম প্রতিটি ব্যর্থ প্রেমই আমাকে নতুন অহঙ্কার দেয় আমি মানুষ হিসেবে একটু লম্বা হয়ে উঠি দুঃখ আমার মাথার চুল থেকে পায়ের আঙুল পর্যন্ত ছড়িয়ে যায় আমি সমস্ত মানুষের থেকে আলাদা হয়ে এক অচেনা রাস্তা দিয়ে ধীরে পায়ে হেঁটে যাই সার্থক মানুষদের আরো-চাই মুখ আমার সহ্য হয় না আমি পথের কুকুরকে বিস্কুট কিনে দিই রিক্সাওয়ালাকে দিই সিগারেট অন্ধ মানুষের শাদা লাঠি আমার পায়ের কাছে খসে পড়ে আমার দু‘হাত ভর্তি অঢেল দয়া, আমাকে কেউ ফিরিয়ে দিয়েছে বলে গোটা দুনিয়াটাকে মনে হয় খুব আপন আমি বাড়ি থেকে বেরুই নতুন কাচা প্যান্ট শার্ট পরে আমার সদ্য দাড়ি কামানো নরম মুখখানিকে আমি নিজেই আদর করি খুব গোপনে আমি একজন পরিচ্ছন্ন মানুষ আমার সর্বাঙ্গে কোথাও একটুও ময়লা নেই অহঙ্কারের প্রতিভা জ্যোতির্বলয় হয়ে থাকে আমার মাথার পেছনে আর কেউ দেখুক বা না দেখুক আমি ঠিক টের পাই অভিমান আমার ওষ্ঠে এনে দেয় স্মিত হাস্য আমি এমনভাবে পা ফেলি যেন মাটির বুকেও আঘাত না লাগে আমার তো কারুকে দুঃখ দেবার কথা নয়। अनुवाद : रोहित प्रसाद पथिक

अन्य लोग

जो लिखता है वह मैं नहीं हूँ क्यों मुझे दोष देते हो? मैंने क्या भेड़िए की तरह शुद्ध होकर नोची है कठोर परत? नदी के किनारे उसका बचपन कटा वह देखता है संसार की रहस्यमय गर्त को मांस से भरे पानी में उसने अपना आईना खोजा और तोड़ा मैं तो स्कूल गया हूँ किताबों को पढ़कर पाए उज्ज्वल रास्ते एक चाबुक पाकर शून्यता से हुआ हूँ घोड़े पर सवार। जो लिखता है वह मैं नहीं… जो लिखता है वह मैं नहीं… आज भी नीरव रूप से उपस्थित हूँ पहाड़ की चोटी पर चौकस मोड़दार हवा के रुख़ को भी दूर करके मोड़ दे कंगाल होने में भी उसे लज्जा नहीं आती और नष्ट होने के लिए भी वह भरा हुआ है उन्मुक्तता से दूतावास के कर्मी की हत्या करने में भी उसे किसी तरह का भय नहीं कभी-कभी मेरी तरह टेबल पर बैठ माथा नीचे कर लेता है।

तुम जानती थीं

तुम जानती थीं इंसान इंसानों के हाथ छूकर बोलते हैं—दोस्त। तुम जानती थीं इंसान-इंसानों के आमने-सामने आकर खड़े होते हैं तुम्हारी हँसी वापस लौट जाती है, उत्तर-दक्षिण दिशा की ओर। तुम जैसे आकर खड़ी होती हो मेरे पास कोई पहचानता नहीं, कोई देखता नहीं, सब सबसे अपरिचित हैं।

तुमसे मिलने पर

तुमसे मिलने पर मैं पूछता हूँ : तुम मनुष्य से प्रेम नहीं करते हो, पर देश से क्यों प्रेम करते हो? देश तुम्हें क्या देगा? देश क्या ईश्वर के जैसा है कुछ? तुमसे मिलने पर मैं पूछता हूँ : बंदूक़ की गोली ख़रीदने के बाद प्राण देने पर देश कहाँ पर होगा? देश क्या जन्म-स्थान की मिट्टी है या कि काँटेदार तार की सीमा? बस से उतरकर जिसकी तुमने हत्या की क्या उसका देश नहीं? तुमसे मिलने पर मैं पूछता हूँ : तुम किस तरह समझे कि मैं तुम्हारा शत्रु हूँ? किसी प्रश्न का उत्तर न देने पर क्या तुम मेरी तरफ़ रायफ़ल घुमाओगे? इस तरह के भी प्रेमहीन देशप्रेमी होते हैं!

पाना

अँधेरे में मैंने तुम्हारा हाथ छूकर जो पाया है बस, वही थोड़ा-सा पाया है अचानक नदी की तरफ़ से आईं सफ़ेद पानी की बूँदें जो माथे को छूकर जाती हैं।

वीर्य

नए उपनिवेश में जाओ नए रास्तों पर घर बनाओ डीप ट्यूबवेल से भिगाओ बालूगाड़ी को लगाओ जादुई कृष्णचुरा का पेड़ बिल से निकलते हैं साँप और कहते हैं : ‘यहाँ बच्चों का पार्क बनेगा?’ मोहनजोदड़ो से सीखी नहीं है— भूगर्त की अंतःप्रणाली…? कीट-पतंगों के संसार को तोड़ दो यहाँ बनाया जाएगा मनुष्यों का संसार मनुष्य के लिए और भी चाहिए और भी चाहिए सब भूमि चाहिए प्लॉट भाग करें— तुम दक्षिण की तरफ़ अपने घर लो अपने पठन-पूजन के लिए दो घंटे लो उसके बाद को कोड़ा-कोड़ी, ईंट-लकड़ी और लोहा… आज भी जहाँ जगह सूनी है उस तीन तल्ले पर एक दिन सुखद बिस्तर पर सोकर तुम्हारी स्त्री के गर्त से वीर्य निषेचन करेगा हाँ, वीर्य जहाँ रहता है वहाँ उपस्थित रहता है, कभी सूखता नहीं उस गर्त के भीतर…!

सिर्फ़ कविता के लिए

सिर्फ़ कविता के लिए हुआ यह जन्म सिर्फ़ कविता के लिए हुए कुछ खेल सिर्फ़ कविता के लिए तुम्हारे चेहरे पर शांति की एक झलक सिर्फ़ कविता के लिए तुम स्त्री हो सिर्फ़ कविता के लिए ज़्यादा-ज़्यादा बढ़ता रक्तचाप सिर्फ़ कविता के लिए बादलों के शरीर पर गिरता है जल-प्रपात सिर्फ़ कविता के लिए और भी ज़्यादा दिनों तक जीवित रहने का लोभ होता है मनुष्यों की तरह हताश होकर बचे रहना सिर्फ़ कविता के लिए मैंने अमरत्व को हासिल किया है।

सिर्फ़ कविता के लिए

मूल बंगला से अनुवाद : प्रियंकर पालीवाल सिर्फ़ कविता के लिए यह जन्म, सिर्फ़ कविता के लिए कुछ खेल, सिर्फ़ कविता के लिए बर्फ़ीली साँझ बेला में अकेले आकाश-पाताल पार कर आना, सिर्फ़ कविता के लिए अपलक लावण्य की शान्ति एक झलक, सिर्फ़ कविता के लिए नारी, सिर्फ़ कविता के लिए इतना रक्तपात, मेघ में गंगा का निर्झर सिर्फ़ कविता के लिए और बहुत दिन जीने की लालसा होती है मनुष्य का इतना क्षोभमय जीवन, सिर्फ़ कविता के लिए मैंने अमरत्व को तुच्छ माना है ।

लिखते और लिखते रहना

मूल बंगला से अनुवाद : रणजीत साहा किताबें डराने लगी हैं अब साढ़े चार साल की उम्र में ही अक्षरों से परिचय और उसके बाद, बाप रे ... न जाने कितने युग और कल्प बीते सिर्फ़ छपे हुए अक्षर और अक्षर आँखों के सामने घूर रहे हज़ारों-हज़ार पन्ने और जितना पढ़ा है — क्या उससे ज़्यादा लिख भी डाला है? कुछ याद नहीं कि कितने कोरे पन्ने कर चुका काले और कितने जिल्दबन्द हो लौट आए कि स्वाति1 को दूसरी अलमारी बनवानी पड़ी। खेल के बहाने ही लिखा गया सारा-का-सारा कालपुरुष को कोहनी मार-मारकर लिखा है मैंने अपने दो-तीन क़रीबी लोगों को अपने सपने बताने, और लिखा है मैंने अपनी पीड़ा जताने आधी-आधी रात को नींद टूट जाने पर लिखा है मैंने मानो सिर पर भूत सवार हो। अनगिनत लोग जब मस्ती में तिरते, हँसते और गाते डोलते रहे हैं — तब भी लिखने की मेज़ पर ख़ुद को निचोड़ता रहा हूँ मैं तमाम उम्र, सिगरेट के कश खींच-खींच छलनी हो गए मेरे फेफड़े गरदन दुखती रहती है हरदम ... बीच रास्तों से भागता रहा हूँ शब्दकोशों की ओर देख नहीं पाया पत्नी को, तक नहीं पाया आकाश की तरफ़ इससे कहीं पाप तो नहीं हो गया। क्या इतने सारे वर्ष व्यर्थ चले गए क्यों डर-सा लगता है अपनी ही लिखी किताबों को देख-देख क्यों अपना नाम सुन-सुनकर लगता है यह कोई दूसरा आदमी है — पराया आदमी क्यों है चारों ओर नश्वरता की ऐसी सर्द और बर्फ़ानी गन्ध। 1. कवि-पत्नी

थोड़ी-सी प्यार की बातें

मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल कुमार महज अमृत में वैसा कोई ढंग का स्वाद नहीं है, थोड़ा-बहुत नमक-मिर्च डालना पड़ता है प्यार के साथ जिस तरह दो-तीन तरह की दुविधाएँ प्यार की बातों पर याद आया, जिन लोगों ने सारी ज़िन्दगी प्यार को समझा ही नहीं उनके ज़िन्दगी जीने का रहस्य क्या है? नहीं जानते हैं बहुत-से लोग जान ही नहीं पाते हैं बेझिझक वे क्या नहीं करते हैं, वे सब कौन हैं? बिन प्यार के पति-पत्नियों से जो बच्चे पैदा होते हैं उनके गले की आवाज़ सुनकर ही पहचाना जा सकता है सारी ज़िन्दगी वे न जाने कितने ही अधूरे वाक्य बोलते हैं, राहों में पड़े असंख्य मोती भी वे ढूँढ़ नहीं पाते हैं। बिन प्यार के सभी मनुष्य सीढ़ियाँ पसन्द करते हैं ज़रा ग़ौर से देखो, उनकी सभी उँगलियाँ बराबर दिखेंगी टिंगनी उँगली में अँगूठी पहनने वाले लोग कम हैं क्या? एक दिन वे सभी अँगूठी पहनने वाले मनुष्य कूद पड़ेंगे लड़ाई के मैदान में जो प्यार से ... इतराते हैं, उन्हें निर्मूल कर देंगे क्या पृथ्वी से? उतना आसान नहीं जो प्यार करते हैं वे अमृत के साथ थोड़ा ज़हर मिलाकर पहले ही जो पी लिया करते हैं।

  • मुख्य पृष्ठ : सुनील गंगोपाध्याय : बांग्ला कविताएँ हिन्दी में
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)