Bangla Poetry in Hindi : Jibanananda Das

बांग्ला कविताएँ हिन्दी में : जीवनानंद दास


हज़ारों साल पहले

और क़रीब ना आ सकी वो; दूर से ही देखा भर था, केवल एक बार; मुझे तो लगा था सर को हल्के से हिलाया भी था उसने चकित होकर; फिर भी उसके देखने का अंदाज़ – एक उदासी सी थी आँखों पर छायी, सात - आठ – नौ – दस दिन उन्हीं उदास आँखों से – निहारती रही वो शायद कुछ अपेक्षा भी रही होगी – पर क़रीब ना आ सकी वो; कारण, हम पक्षी तो थे नहीं - यदि होता माघ के इस नीले आकाश में (उसे साथ लेकर) एक बार उड़ चलता उजले समुद्र की ओर पेलिकन की तरह एक पक्षी सी जीवन की कामना की थी मैंने एक पक्षी सी जीवन की कामना की हो उसने भी; हो सकता है हज़ारों साल बाद माघ के नीले आकाश में समुद्र की ओर उड़ते हुए हम सोचते हज़ारों साल पहले भी इसी तरह उड़ जाना चाहते थे हम दोनों।

कार्तिक की एक सुबह

कोई एक सुबह कार्तिक की बालों, आँखों और चेहरे पर मेरे गिरी थीं चंद बूँदें ओस की शायद गौरैये ने झटका था अपने पंखों को सामने ही पेड़ की शाखों पर तीन थे वे ओस से भींगे अपने पंखों को खिली धुप में सुखाते हुए दूर तक पसरे नील के खेत सा था नीला आकाश; और सूर्य? या फिर सिर्फ उसकी अनुभूति? उड़ गये थे फिर वे हमारी दुनिया से दूर अपने संसार की ओर देखा है उसके बाद भी अनेक गौरैयों को पर अब कहाँ हैं वे तीनों?

आज

ख़त्म हुए सारे काम और मेरे ये क्लांत पाँव आज रात - बची नहीं चाह किसी और राह की। प्रेम की जो भाषा सुनना चाहता है मनुष्य – जिस प्यार को लेकर चलना चाहता है वह इस पृथ्वी की अनजान राहों पर – उसी नेह की खोज में पुकारा था मैंने तुम्हें बार बार। ...दूर किसी आलोक में – एक अंधकार के किनारे चली गई तुम यूँ, मानो कभी वापस आओगी ही नहीं, गुम हो गई थी तुम भी दिन - रात की इस भीड़ में।

हृदय में प्रेम का दिन

हृदय में प्रेम के दिन कब शेष होते हैं केवल उनकी चिता रह जाती है हम यह नहीं जानते — लगता है जीवन जो है बासमती चावल जैसा रूपवती धान है वह — रूप, प्रेम यही सोचूँ छिलके जैसा नष्ट और मलिन एक दिन उन सबकी सारहीनता पकड़ी जाएगी जब हरा अन्धकार, नर्म रात्रि का देश नदी के पानी की गन्ध किसी नवागंतुका का चेहरा लेकर आता प्रतीत होता है किसी दिन पृथ्वी पर प्रेम का आह्वान इतनी गहराई से पाया है क्या ? प्रेम है नक्षत्र और नक्षत्र का गान प्राण व्याकुल है रात की निर्जनता से गाढ़ी नील अमावस्या से वह चला जाता है आकाश के दूर नक्षत्र की लाल नील शिखा की खोज में मेरा यह प्राण अन्धेरी रात है और तुम स्वाति की तरह तुम वहीं रूप की विचित्र बाती ले आई प्रेम की धूल में काँटे हैं जहाँ गहरी सिहरन पृथ्वी के शून्य में मृत होकर पड़ी थी तुम सखि डूब जाओगी लोमहर्षित क्षण भर में जाते हुए सूर्य की मलिनता में जानता हूँ मैं, प्रेम फिर भी प्रेम है स्वप्न लेकर जिएगा वह वह जानता है जीना

लौट आओ

लौट आओ समुद्र के किनारे लौट आओ सीमान्तर पथ पर जहाँ ट्रेन आकर रुकती है आम, नीम और झाओ के संसार में लौट आओ एक दिन नीले अण्डे बोए थे तुमने आज भी वे शिशिर की नीरवता में हैं पंछियों का झरना होकर वे मुझे कब महसूस करेंगे ?

अनन्त जीवन अगर पाऊँ मैं

अनन्त जीवन अगर पाऊँ मैं — तब अनन्त काल के लिए अकेला पृथ्वी पथ पर मैं फिर लौटूँगा और देखूँगा कि हरी घास उग रही है — और पीली घास झड़ रही है — देखूँगा आकाश को सफ़ेद होते हुए — भोर में — विच्छिन्न मुनिया की तरह लाल रक्त-रेखा जिसके हृदय पर लगा हुआ सांध्य-नक्षत्र पाऊँगा मैं; देखूँगा अनचीन्ही नारी, विलग जूड़े की गाँठ खोलकर चली जाएगी — मुख पे उसके नहीं, अहा ! गोधूलि का नरम आभास तक अनन्त जीवन यदि पाऊँगा मैं — तब असीमकाल के लिए पृथ्वी पर मैं लौटूँगा — ट्राम, बस, धूल देखूँगा बहुत मैं — देखूँगा ढेर सारी बस्तियाँ, हाट, तंग गलियाँ, टूटी हाण्डी, मारामारी, गाली, वक्र आँखें, सड़े हुए झींगे और भी बहुत कुछ— जो नहीं लिखा फिर भी तुम्हारे साथ अनन्तकाल भी, अब न हो पाएगा मिलना

स्वप्न

पाण्डुलिपि पास रखकर धूसर दीप के पास नि:स्तब्ध बैठा था मैं; शिशिर धीरे-धीरे गिर रहा था नीम की शाखा से एकान्त का पँछी उतरकर उड़ गया कोहरे में कोहरे से दूर और भी कोहरे में उसी के पँख की हवा से दीया बुझ गया क्या ? अँधेरे में धीरे-धीरे टटोलते हुए ढूँढ़कर माचिस जब करूँगा रोशनी, किसका चेहरा दिखेगा, बता सकते हो क्या ? किसका चेहरा ? आँवले की डाल के पीछे, सींग की तरह टेढ़े नीले चाँद ने दिखाया था एक दिन, अहा ! इस धूसर पाण्डुलिपि ने देखा था एक दिन अहा ! वही धूसरतम चेहरा इस धरती के मन में तब भी इस पृथ्वी का समस्त उजाला बुझ जाएगा जब, सारी कहानियाँ ख़त्म हो जाएँगी जब, मनुष्य नहीं रहेंगे जब, रहेंगे मनुष्य के स्वप्न तब : वह चेहरा और मैं रहूँगा उस स्वप्न में ।

बनलता सेन (कविता)

बीते कितने कल्प समूची पृथ्वी मैंने चलकर छानी, वहाँ मलय सागर तक सिंहल के समुद्र से, रात रात भर अन्धकार में मैं भटका हूँ, था अशोक औ’ बिम्बसार के धूसर लगते संसारों में — दूर समय में, और दूर था अन्धकार में, मैं विदर्भ में। थका हुआ हूँ — चारों ओर बिछा जीवन के ही समुद्र का फेन ; शान्ति किसी ने दी तो वह थी : नॉटर की बनलता सेन! उसके घने केश — विदिशा पर घिरी रात के अन्धकार से, मुख श्रावस्ती का शिल्पित हो, दूर समुद्री आँधी में पतवार गई हो टूट; दिशाएँ खो दी हों नाविक ने अपनी, फिर वह देखे हरी पत्तियों वाला कोई द्वीप अचानक — उसी तरह देखा था उसको अन्धकार में ; पूछा उसने : ’कहाँ रहे बोलो इतने दिन?’ चिड़ियों के घोंसले सरीखी आँखों से देखती हुई बस — नॉटर की बनलता सेन सन्ध्या आती, ओस बूँद-सी दिन के चुक जाने पर धीरे, चील पोंछ लेती डैनों से गन्ध धूप की, बुझ जाते रंग थम जाती सारी आवाज़ें; चमक जुगनुओं की रह जाती और पाण्डुलिपि कोरी, जिसमें कथा बुनेगी रात उतरती सब चिड़ियाँ — सब नदियाँ — अपने घर को जातीं चुक जाता है जीवन का सब लेन-देन । रह जाता केवल अन्धकार — सामने वही बनलता सेन !

सन्तरा

देह छोड़ एक दिन चला ही जब जाऊँगा ; आऊँगा लौटकर नहीं क्या मैं पृथ्वी पर ? आऊँ तो आऊँ मैं किसी एक जाड़े की रात में, प्राणों के लिए विकल परिचित एक रोगी के बिछौने के पास ही — रखा हुआ टेबल पर अधखाया ठण्डा एक करुण सन्तरा बनकर !

बेबिलोन से कोलकाता

निपट अकेले किसी इशारे पर जैसे, चलते ही जाते मैंने देखा, ठीक-ठीक चलती हैं ट्रामें बसें और फिर छोड़ रास्ते, पा लेती हैं वे भी गहरी नींद रात की । गैस-बत्तियाँ जलती सारी रात ठीक से सबकी ख़ातिर । बिना भूल के — घर, बरामदे, छतें, खिड़कियाँ और नामपट — सब सोते हैं ; निपट अकेले चलते-चलते, चुप रास्तों पर, मैंने जानी रोम-रोम में हृदय कथा इन सबकी गहरी : तब थी कितनी रात — अनेकों तारे ऊपर मनूमेण्ट के, निर्जनता में, घिरा इन्हीं से लगा सोचने इससे अधिक सहज सम्भव कुछ और कहीं क्या : तारों मीनारों से भरा हुआ कोलकाता ! झुक जाती हैं आँखें — जलती हुई देखती चुप्पी में सिगरेट — हवा में धूल, अनेक तिनके बिखरे ; करता आँखें बन्द, सरकता एक ओर मैं — ढेर-ढेर सूखे पत्ते झरकर पेड़ों से उड़े दूर तक — इसी तरह चुपचाप अकेले बेबिलोन में रात-रात भर मैं भटका हूँ — नहीं जानता हूँ आख़िर क्यों, आज हज़ारों वर्ष बाद भी ।

शव

पानी के भीतर उतरता है चन्द्रमा जहाँ बेंत के वन में अनेक मच्छरों ने बनाया है अपना घर जिसे खूँट-खूँट खाती है जहाँ मछली सुनहरी गुपचुप खोई हुई अपने में, नीले इन मच्छरों को । रँग जाती है जहाँ मछली के रँग में अकेली नदी, खेत है एक ऊँची उगी घास का, बगल में लेटा पानी इसी के, इस नदी का — देखता ही रहताहै बादल लाल चुपचाप : या फिर अन्धेरा वह तारों भरी रात का : झुकाती हो माथा जैसे नीले केशों वाली स्त्री एक जूड़े समेत ! दुनिया में नदियाँ हैं और भी बहुत-सी पर नदी तो यही है : लाल बादल की — चाँदनी के बिछे हुए अनगिन आकारों की । ख़त्म यहीं होते हैं, देखें तो, प्रकाश अन्धकार सब : बचता है कौन ? बादल वही लाल, मछली वही नीली, चाँदनी वही मौन तैरा ही करता है शव यहीं मृणालिनी घोषाल का : लाल और नीला रुपहला चुपचाप ('महापृथिवी' संग्रह से)

बिड़ाल

मिलता है दिन-भर में बिड़ाल कई बार : पेड़ के नीचे धूप में बादामी पत्तों की भीड़ में; काँटेदार मछली के टुकड़ों को बटोरकर दिखता है — सन्तुष्ट । चला जाता है फिर सादी मिट्टी के कंकाल के भीतर देखता हूँ पड़ा रहता है निमग्न — लिए हुए अपने को मधुमक्खियों के छत्ते-सा फिर देखता हूँ उसे कभी गुलमोहर के तने को पंजों से खरोंचते, सारा दिन चलता है सूर्य के पीछे-पीछे वह । दिखलाई पड़ता है अभी अभी खो जाता है जैसे कहीं । मैंने देखा है उसे हेमन्त की शाम में दुलराते नरम सफ़ेद पंजों से, सिन्दूरी सूरज को — उठाते हुए अन्धेरे को फिर छोटी-छोटी गेन्दों की तरह अपने पंजों में दबाकर और छितराते हुए उन्हें समस्त पृथ्वी पर । ('महापृथिवी' संग्रह से)

हंस

बूढ़े पंख उल्लू के उड़ते हैं तारों की ओर जल भरी घासों में डैने फड़फड़ाते हैं हंस चन्द्रमा के इंगित पर । ’साँय-साँय’ करते हैं शब्द — सुनता हूँ। बार-बार एक-दो-तीन-चार अजस्र अपार । इंजिन की तरह करते हुए आवाज़ — रात की पटरियों पर तेज़-तेज़ पंख उनके : उड़ते हैं — उड़ते हैं वे रात में । रह जाता है आकाश तारों भरा, रह जाती है गन्ध हंसों की — बाक़ी रहते हैं कल्पना के हंस कुछ ! सहसा याद आता है चेहरा अरुणिमा सान्याल का : आता है तैर — दूर कहीं छूटे हुए समय के गाँव से — उभर कर । उड़ें उड़ें — जाड़े की चान्दनी लिपी रात में चुपचाप ; हंस कल्पना के ! उड़ते रहें — दुनिया की सारी आवाज़ें थम जाएँ जब, शब्दहीन चाँदनी से भरे हुए मन में — उड़ें गहरे । ('महापृथिवी' संग्रह से)

हज़ार-हज़ार साल

समय के अँधेरे में, जुगुनुओं की तरह करते हैं खेल हज़ार-हज़ार साल । पिरामिड हैं चारों ओर — रेत के ऊपर बिछी है चान्दनी मौन; स्थिर है खजूर के पेड़ों की छाया; स्तम्भ किसी ढहे साम्राज्य के, जीर्ण, मृत, रखे हैं थाम सन्नाटे ने जैसे । बुझ गई हैं आवाज़ें दुनिया की । लिपटे हैं शरीर मृत्यु की नींद में हमारे; हवा में छिपी है मृत्युगन्ध । एक हलकी सरसराहट के बीच पूछती है आवाज़ एक : ’याद है ?’ ’क्या बनलता सेन ?’ कहता हूँ मैं । ('महापृथिवी' संग्रह से)

जाड़े की रात

जाड़े की ऐसी ही रातों में, आता है मेरे मन में ख़याल मृत्यु का । बाहर पड़ रही है शायद ओस या फिर रहे हैं पत्ते झर या फिर आवाज़ है यह बूढ़े उल्लू की — वह भी है झरते हुए पत्तों-सी — ओस जैसी । शहर जहाँ होता है ख़त्म और शुरू जहाँ होता है गाँव — वहीं से सुन पड़ती है हुँकार सिंह की — सरकस के व्यथित सिंह की हुँकार — कूकती है इधर कोयल सहसा — बीच में रात के : कहती है मानो वह — आया था वसन्त; आएगा फिर से वह एक दिन । बूढ़ी हुई हैं लेकिन अनगिनती कोयलें देखते-देखते मेरे; मैं भी तो हूँ बूढ़ी कोयल-सा ! फिर से हुँकारता है सिंह — सरकस का व्यथित सिंह — चिरयुवा, तन्द्र, अन्धेरे में डूबा हुआ, अन्धा सिंह ! चारों ओर फैले समुद्र में; ढूँढ़ते हुए अवशेष जीवन के — खो जाता है सब कुछ — मरी हुई मछली की पूँछ में लिपटे हुए शैवाल — कुहरे में, अन्तहीन फैले हुए जल में । कभी नहीं कभी नहीं पाएगा सिंह अब जंगल को । कोयल का कण्ठ एक टूटी मशीन-सा जर्जर हो जाएगा — टुकड़े-टुकड़े हो कर बिखरेगा फैले हुए नीचे विशाल चुम्बकीय पर्वत पर ! विस्मृति की धारा में लिपटे हुए ओ मेरे संसार ! सो जाओ करवट ले, किस दिन, किसी दिन भी, ढूँढ़ नहीं पाओगे अब कोई अचरज और ! (’महापृथिवी’ संग्रह से)

इनके कानों में

तारों की ओर देख — हृदय में छिपाए हुए पीड़ा को लिख-लिख कर कितनी ही कविताएँ चल गए दुनिया से जाने कितने युवक ! आधी ही बात सुन मूर्ख अभिमान में, करती रहीं अनसुनी पृथ्वी की सुन्दरियाँ; पीतल और सोने की इन सब पुतलियों के बहरे बन्द कानों में, फिर भी उँडेल कर कितने ही अमर शब्द चले गए जाने कितने युवक ! तारों की ओर देख — हृदय में छिपाए हुए मर्म और पीड़ा को । (’महापृथिवी’ संग्रह से)

वर्षा की रात

वर्षा की गहरी अन्धेरी रात में, खुल जाती है नींद, शोर सुन — दूर समुद्र की लहरों का । कब की थम चुकी है वर्षा, जाती है जितनी दूर दृष्टि, दिखलाई पड़ता है काला आकाश — थामे हुए धरती के छोर को बाँहों में, सुनते हुए शोर सागर का । लगता है दूर आकाश में — दूर कहीं ऊपर सबसे ऊपर, नीरव आकाश में — खुल रहे हैं दरवाज़े विशाल, फिर हो रहे हैं बन्द । लगता है । सोते हैं तकियों पर रखे हुए सिर जो — सोते हैं : जागने को कल सुबह । हँसी, प्रेम, मुखरेखाएँ गई थीं जो समा पृथ्वी के प्राचीनतम पत्थरों में — अन्धेरे में — उठती है जाग धीरे-धीरे आज रात ढूँढ़ कर लाती हैं वे मुझको पृथ्वी के अविचलित पंजर से । सहसा थम जाती हैं लहरें सब जैसे समुद्र की — मीलों तक लेटी है धरती चुपचाप । मेरे कन्धों पर कुहराया हाथ रख कहता है कोई फुसफुसाकर कानों में — मैं यदि कर सकता स्पर्श उन दरवाज़ों को, करता, आज जैसी गहरी रात में । खोल कर आँखें मैं — करता हूँ प्रवेश उन दुहरे दरवाज़ों में धूसर बादल की तरह : भीतर चला जाता हूँ — उस खुले मुँह में । (’महापृथिवी’ संग्रह से)

स्वप्न

पाण्डुलिपि बिछा कर मैं — दीये की रोशनी में — बैठा हूँ चुपचाप, गिरती है पत्तों पर ओस कुहरे में पक्षी कौन उड़ा अभी नीम की डाल से — गया दूर कुहरे में । उसके ही उड़ने से, शायद, है बुझा दिया । माचिस अन्धेरे में, ढूँढ़ता टटोल कर... रुकता हूँ क्षण भर मैं, जलने पर दिया अभी, चेहरा मैं देखूँगा, कौन-सा ? कौन-सा ? देखा था एक दिन जिसे शायद, एक नज़र, आँवले की शाखों से तिरछी घुमावदार सींगों के रूप में नीले-से चाँद ने देख सकी थी उसको, इसी तरह, एक दिन मेरी यह पाण्डुलिपि...पुरानी...भी । चेहरा वह, भूल गई है लेकिन पृथ्वी अब ! फिर भी ये बुझ जाएँगी सारी रोशनियाँ जब, कोई नहीं होगा, होगा बस, सपना मनुष्य का, होगा वह चेहरा... मैं होऊँगा सपने के भीतर उस ! (’महापृथिवी’ संग्रह से)

हाय चील

उड़-उड़ कर बादलों से भरी हुई दोपहर में चक्कर लगाती चील ! हाय चील सोने से पंखों की । रो‍ओ मत, रो‍ओ मत बिलख कर ! तुम्हारे बिलखने से आती हैं याद आँखें उसकी छरहरे बेंत के पीले फल जैसी म्लान परियों-सी पृथ्वी की राजकुमारी वह चली ही गई है दूर...बहुत दूर... लिए हुए अपनी सुन्दरता को ! वापस बुलाएँ मत, वापस बुलाएँ मत उसे । भूली हुई पीड़ा जगाएँ मत । (अच्छा लगता है किसे, फिर से कुरेदना उसे) हाय चील ! सुनहरे पंखों वाली चील । उड़-उड़ कर चक्कर लगाती हुई गोल रो‍ओ मत रो‍ओ मत बादलों से भरी हुई दोपहर में नदी के किनारे यों । (’महापृथिवी’ संग्रह से)

लौट आओ सुरंजना

सुरंजना ! मत जाओ वहाँ, मत जाओ मत बोलो उस युवक से — करो नहीं बातें; लौट आओ ! रुपहली आग से भरते आकाश की इस रात — लौट आओ, सुरंजना ! लौट आओ इन लहरों में; लहरों में; आओ, आओ, मेरे हृदय में लौट ! मत जाओ, मत जाओ, उस आदमी के साथ दूर और दूर, मत जाओ और ! क्या कहना है तुम्हें उस से — उस से ? आकाश के पार है आकाश, माटी की तरह हो तुम आज; उस का प्रेम है घास की तरह माटी पर । सुरंजना तुम्हारा हृदय है आज घास हवा के पार है हवा आकाश के पार आकाश ! (’सातटि तारार तिमिर’ काव्य-संग्रह से)

यहाँ लेटी है सरोजिनी

यहाँ लेटी है सरोजिनी; (कह नहीं सकता अब भी लेटी है क्या) लेटी रही है बहुत दिनों तक — फिर शायद उठकर चली गई है दूर — बादलों के बीच — वहीं, जहा होता है अँधेरा ख़त्म, झिलमिल करता है प्रकाश ! चली ही गई है सरोजिनी ? बिना सीढ़ी के; चिड़ियों के पंखों के बिना ? या फिर वह धरती की ज्यामिति का ढूह है आज ! कहती है प्रेत-छाया ज्यामिति की — मुझे तो नहीं मालूम ! शाम को खड़ा है प्रकाश एक केसरिया रंग का लगकर आकाश से — अदृश्य एक बिजली-सा; चेहरे पर है जिसके एक चतुर धूर्त हँसी !

वैसा ही विस्मय

दिन बीते आते हैं सियार, चुपके से, जंगलों पहाड़ों में — खोज में शिकार की — कई-कई जन्मों से; सघन अन्धेरे को भेद कर पहुँचते सहसा — खुले आकाश तले; देखते हैं सोती हुई — चाँदनी में — बर्फ़ की राशि को — ऐसे में, अगर कहीं कर पाते वे भी प्रकाशित घटनाएँ सब मन की — मनुष्यों की तरह उतरता उन के मन में जो विस्मय तब गहरी एक पीड़ा-सा — उसी तरह जीवन वसन्त के बाद देख तुम्हें सहसा, अचरज से होती है सिहरन एक गहरी रग-रग में — मुझे ! (’सातटि तारार तिमिर’ कविता-संग्रह से)

एक अजीब अन्धकार

पृथ्वी के इस अजीब अन्धेरे में आज दृष्टि है सचमुच अन्धों के पास । जिन के हृदयों में प्रेम नहीं, करुणा नहीं; उन्हीं का है साम्राज्य । भरोसा है जिन्हें आज भी आदमी पर सहज; चाहते हैं जो प्रकाश-प्रेम— सच निरन्तर खोज; भेड़ियों और गिद्दों की लगी है उन्हीं पर दॄष्टि — खाते हैं उन्हीं को ये ! (’श्रेष्ठ कविता’ संग्रह से)

आज रात

अच्छा होता, होते तुम, आज की रात यहाँ — करते हम-तुम बातें — पेड़, हवा, घास और तारों के बीच बैठ । जाना है मैंने पर, हो कर उन नियमों से, सारे संवेग सोच हैं जिनसे बँधे हुए : भारत या चीन, लन्दन या न्यूयार्क — किसी जगह ; रहस्य आज रात का मृत सब मैमथों का — है कितना नियमाधीन — अन्तत: । इस क्षण कहा~म हो तुम कौन सा पासा है हाथ में ; — पूछो मत ; पूछना नहीं है अच्छा सब कुछ । जिन शामों सुबहों नदियों तारों को जाना है मैंने गहराई में, उन्हीं में है वह; जो है जानने के लिए ! (’बेला अबेला कालबेला’ संग्रह से)

आऊँगा फिर लौट के

आऊँगा फिर लौट के धान-सीढ़ी के तट पे — इसी बँगाल में या तो मैं मनुष्य या शँख चील या मैना के वेश में : या तो भोर का काग बनकर आऊँगा एक दिन कटहल की छाँव में; या तो मैं हंस बनूँ या किशोरी के घूँघर बन रहूँगा लाल पैरों में; सारा दिन कट जाएगा कलमी की सुगन्ध भरे जल में तैरते हुए; मैं लौट आऊँगा फिर बाँग्ला की मिट्टी, नदी, मैदान, खेत के मोह में जलाँगी नदी की लहरों से भीगे बाँग्ला और हरे-भरे करुण कगार में; दिखेगी जब शाम के आकाश में सुन्दर उड़ान लिए हवा सुनाई देगा तब एक लक्ष्मी का उल्लू बोल रहा है सेमल की डाल में; शायद धान की लाई उड़ा रहा एक शिशु आँगन की घास में; रुपसा के गन्दले जल में हो सकता है एक किशोर फटे सफ़ेद पाल की डोंगी बहाता तो, ... लालिमा लिए मेघ भी तैरता हुआ अन्धेरे में ही लौटता हो नीड़ में देखोगे जब एक धवल बगुले को; पाओगे तुम मुझे उन्हीं की भीड़ में...।

स्वप्न

पाण्डुलिपि समीप रखकर मैं धूसर द्वीप पर निस्तब्ध होकर बैठा था; शिशिर झर रहा था फिसल कर धीरे-धीरे; नीम की शाखों से एक अकेला पाखी उतर कर आया और उड़ गया कोहरे में, ...कोहरों के सँग सुदूर घने कोहरे में उसी के पँखों की हवा में शायद बुझ गया दीप ? आहिस्ते-आहिस्ते दिलासलाई लिए अन्धकार में ढूँढ़ता फिरता हूँ, जब जलाऊँगा दीप तो किसका चेहरा देख पाऊँगा कह सकते हो ? किसका मुख ? ...आँवले की शाखों के पीछे से सींग की तरह टेढ़ा, नीला चान्द एक दिन जिसे देखा था क्या वही; इस धूसर पाण्डुलिपि ने भी एक दिन देखा था वही सब कुछ ...आहा, वह चेहरा धूसरतम लगता है शायद वही थी पृथ्वी । फिर भी इस पृथ्वी के सब उजाले एक दिन बुझ गए, पृथ्वी के सब गल्प, क़िस्से एक दिन जब ख़त्म हो जाएँगे, मनुष्य भी जब नहीं बचे रहेंगे, रहेगा सिर्फ़ तब भी मनुष्य का स्वप्न तबछ वही चेहरा और मैं ही रहूँगा बचा उस सपने के भीतर ।

ऐसा लगता है

पता नहीं कौन हैं वे लोक जिन्होंने बड़े-बड़े कपाट हैं खोले, वापस उन्होंने बन्द भी कर दिए हैं; पता नहीं कहाँ कितनी दूर.... पसरी हुई है नीरवता आकाश की सीमा रेखा तक। तकिए पर सर रख कर जो सोए हुए हैं वे सोए ही रहते हैं; कल सुबह जागने के लिए । ये सब जो धूसर-सी हँसी है, कहानी, प्रेम और चेहरे की लकीरें हैं पृथ्वी के पत्थरों, कँकालों के अन्धकार में घुले-मिले थे धीरे-धीरे वे जाग रहे हैं; पृथ्वी के अविचलित कँकाल को खिसका कर मुझे ढूँढ़ निकालते हैं। समस्त बँगाल की खाड़ी का उच्छवास जैसे थम जाता है; मीलों तक यह धरती नीरव बनी रहती है ! जाने कौन कहता है: अगर मैं इन सभी कपाटों को स्पर्श कर पाता तब इस तरह की गहरी निस्तब्धता रात में ही स्पर्श कर आता... मेरे ही कन्धों पर धुँधला-सा स्पर्श रखकर धीरे-धीरे मुझे जगा देता ! आँखे उठाता हूँ मैं दूर गाढ़े अन्धकार के भीतर धूसर मेघों की तरह ही प्रवेश किया मैंने ! उस चेहरे के भीतर ही प्रवेश किया मैंने ।

पल

आसमान पर छिटकी हुई है चान्दनी... और जँगल के पथ पर है चीता बाघ की देह गन्ध; और मेरा हृदय हो जैसे एक हिरण; रात की इस नीरवता में मैं यह किस ओर चल रहा हूँ ! रुपहले पत्तों की छाया पड़ रही है मेरी देह पर, कहीं भी और कोई हिरण नहीं मेरे सिवाय, जितनी भी दूरी तय करता हूँ दिखता है मुझे सिर्फ़ हँसिये-सा टेढ़ा चाँद आख़िरकार लगता है जैसे सुनहले हिरणों ने सारी फ़सल काट ली हो; तत्पश्चात धीरे-धीरे चान्द डूब रहा हो जैसे शत-शत मृगों की आँखों में नीन्द की भाँति अन्धकार।

सावन की रात

कहीं दूर बँगाल की खाड़ी की आवाज़ सुन कर सावन की रात्रि के गहरे अन्धकार में धीरे-धीरे नीन्द टूटती है शायद बरसात बहुत पहले ही बरस कर थम गई है; मिट्टी के अन्तिम छोर पर तरँगों की गोद में चुपचाप बैठी हो जैसे; और निस्तब्ध होकर, दूर से आती हुई उपसागर की ध्वनियाँ सुन रही हो जैसे ।

मृत्यु

अस्थियों के भीतर जिन लोगों को ठण्ड का बोध होता है माघ की रात में... वे लोग दोपहर में शहर की ग्रिल पकड़कर मृत्यु का अनुभव करते हैं बेहद गहरे और अति उन्नत रूप में रूपसी चीन्हती है मरण को दर्पण के उस पार ठीक पारद के समान ही निरुत्तर रहता है या परिपूर्ण रहता है। एक-आध दैत्याकार आकृति दिख जाती है जो जनता को चलाते हैं शाम की बड़ी-बड़ी सभाओं में, जबरदस्त विश्वास के बीच... स्थिर है, वे जानते हैं यह मृत्यु नहीं है... फिर भी वे उनके मुग्ध-चकित रोशनी से परिपूर्ण फ़ोटोग्राफ़ से निकल ही आते हैं डरे हुए अपनी ग्लानिरहित हालत देख कर ।

पृष्ठभूमि

पृष्ठभूमि के भीतर न जाने कब झाँक कर मैंने तुम्हें देख लिया था करीब दस-पन्द्रह साल पहले, उस वक़्त तुम्हारे बाल काले थे मेघों में छिपकर बिजली-सा दमकता तुम्हारा तेजस्विनी-सा चेहरा... चीन्हता है अन्तर्यामी। तुम्हारा चेहरा : चारों दिशाओं के अन्धकार में ठीक जल का कोलाहल कहीं भी किसी समुद्र तट पर कोई नियन्त्रण नहीं... तेज हवाओं पर फिर भी शिकारी मछेरे, इस युद्ध से थक कर लौट ही आते हैं; वे युवा है, वे मृत हैं । मृत्यु फिर भी मेहनत से मिलती है । वक़्त को कभी भी किसी ने काली सूची में नहीं डाला फिर भी तुम्हारे चेहरे की ओर आज भी उसे रोक कर खड़ी है, नारी.... हो सकता है सुबह हम सब इनसान थे, उसी के निर्देश पर सूर्य का वलय फैला है आज इस अन्धे जगत में समुद्र के चारों ओर — जेसन ओडिसी की फ़िनिश और बाहर फैली हुई अधीर रोशनी... धर्म के शोक का, ख़ुद का ही नहीं, फ़िलहाल कल हम और आज भी वहन करते हैं, समुद्र से बेहद कठिनाई से मूँगा लूटकर तुम्हारी आँखों का विषाद कम करने के लिए.... प्रेम का दिया बुझा दिया प्रिये ।।

बेटी

मेरी छोटी सी बच्ची सब ख़त्म हो गया बेटी सोई हुई हो तुम भी बिस्तर के निकट सोई रहती हो... उठती-बैठती हो... चिड़िया की ही तरह बातें करती हो घुटनों के बल घूमती-फिरती हो, धरती-आसमान एक करती हो... भूल-भूल जाता हूँ उसकी बातें... मेरी प्रथम कन्या सन्तान थी वह मेघों के संग बह कर आई हो जैसे — आकर कहती — बाबा तुम ठीक तो हो? अच्छे हो? ज़रा प्यार करो मुझे? झट से हाथ पकड़ लेता हूँ मैं उसका : सिर्फ धुआँसा-सा कुछ सफ़ेद कपड़े की तरह क्यों दिखता उसका मुखड़ा ! — दर्द होता है बाबा? मैं तो कब की मर चुकी हूँ... आज भी याद करते हो तुम मुझे? दोनों हाथों को चुपके से हिलाती हौले-हौले मेरी आँखों को सहलाती, मेरे चेहरे को सहलाती मेरी मृत बेटी, मैं भी उसके चेहरे पर अपने दोनों हाथ फेरता, पर उसका चेहरा कहीं नहीं है और न आँखे और बाल । फिर भी मैं उसे ताकता हूँ... सिर्फ उसे ही... धरती पर पर मैं नहीं चाहता कुछ भी न रक्त-माँस वाली, आँखों वाली और न ही बालों वाली मेरी वो बेटी मेरी प्रथम कन्या सन्तान... चिड़िया-सी... सफ़ेद चिड़िया.... उसी की चाह है मुझे; जैसे उसने बूझ लिया हो सब.... नया जीवन पाकर वह हठात मेरे क़रीब आ खड़ी हुई मेरी मृत बेटी । उसने कहा — मुझे चाहा था तुमने इसलिए इस छोटी बहन को यानी तुम्हारी छोटी बेटी को घास के नीचे रख आई हूँ इतने दिनों तक मैं भी थी वहाँ अन्धकार में सोई हुई थी मैं .... घबराकर रुक गई मेरी बेटी कहते-कहते , मैंने कहा जाओ — दोबारा जाकर सो जाओ वहाँ... पर जाते हुए छोटी बहन को आवाज देकर दे जाओ मुझे ! दर्द से बर उठा उसका मन... जरा ठहरकर शान्त-सी... उसके पश्चात धुआँसा-सा। सब कुछ धीरे-धीरे छिटककर धुएँ में विलीन हो गया, सफ़ेद चादर की तरह समझ हवा को आगोश में भर लिया । न जाने कब एक कौआ बोल उठा... देखता हूँ कि मेरी छोटी बेटी घुटनों के बल चल रही है और खेल रही है ...और वहाँ कोई भी नहीं है ।।

बीस साल बाद

बीस साल बाद अगर उससे फिर मुलाकात हो जाये! फिर बीस साल बाद.... हो सकता है धान के ढेर के पास कार्तिक माह में..... तब संध्या में कागा लौटता है घर को.... तब पीली नदी नरम-नरम सी हो आती है सूखी खांसी सी गले में.... खेतों के भीतर! अब कोई व्यस्तता नहीं है, और न ही हैं और भी धान के खेत, हंसों के नीड़ के भूँसे, पंछियों के नीड़ के तिनके बिखरा रहे हैं, मुनिया के घर रात उतरती है और ठण्ड के संग शिशिर का जल भी! हमारे जीवन का भी व्यतीत हो चुके हैं बीस-बीस, साल पार.... हठात पगडंडी पर अगर तुम मिल जाओ फिर से! शायद उग आया है मध्य रात में चाँद ढेर सारे पत्तों के पीछे शिरीष अथवा जामुन के, झाऊ के या आम के ; पतले-पतले काले-काले डाल-पत्ते मुंह में लेकर बीस सालों के बाद यह शायद तुम्हे याद नहीं! हमारा जीवन भी व्यतीत हो चुका है बीस-बीस, साल पार .... हठात पगडंडी पर अगर तुम मिल जाओ फिर से! शायद तब मैदान में घुटनो के बल उल्लू उतरता हो बबूल की गलियों के अंधकार में पीपल के या खिड़की के फांकों में आँखों की पलकों की तरह उतरता है चुपचाप, थम जाये अगर चील के डैने..... सुनहले-सुनहले चील-कोहरे में शिकार कर ले गये हैं उसे.... बीस साल बाद उसी कोहरे में पा जाऊँ अगर हठात तुम्हे!

आदिम देवताओं के

आग, हवा और पानी : आदिम देवताओं की सर्पिल परिहास से तुम्हे जो रूप दिया- वह कितना भयानक और निर्जन सा रूप दिया, तुम्हारे संस्पर्श से ही मनुष्यों के रक्त में मिला दिया मक्खियों सी कामनायें। आग, हवा और पानी के आदिम देवताओं के बंकिम परिहास से मुझे दिया लिपि, रचना करने का आवेग : जैसे की मैं ही होऊं आग, हवा और पानी, जैसे की मैंने ही तुम्हारा सृजन किया है। तुम्हारे चेहरे का लावण्य रक्त विहीन, मांस विहीन, कामना विहीन, जैसे गहरी रात में- देवदारु के द्वीप ; कहीं सुदूर निर्जन में नीलाभ द्वीप हो जैसे ; स्थूल हाथों से व्यवहार होने पर भी धरती की मिट्टी में गुम हो रही हो कहीं ; मैं भी गुम हो रहा हूँ सुदूर द्वीप के नक्षत्रों के छाया तले। आग , हवा और पानी : देवताओं के बंकिम परिहास से सौंदर्य के बीज बिखराते चलते हैं इस धरती पर, और बिखराते चलते हैं स्वप्नों के बीज अवाक होकर सोचता रहता हूँ, आज रात कहाँ हो तुम? सौन्दर्य जैसी निर्जन देवदारु के द्वीप में या नक्षत्रों की छाया को ही नहीं चीन्हता.... धरती के इस मनुष्य रूप को?? स्थूल हाथों से उपयोग होते हुए.... उपयोग.... उपयोग उपयोग होते हुए उपयोग..... आग, हवा और पानी : आदिम देवता गण ठठा कर हंस उठते हैं “उपयोग-उपयोग होते हुए क्या सूअर के मांस में तब्दील हो जाता है?” मैं भी ठठा कर हँस दिया.... चारों तरफ अट्टहास की गूँज के भीतर एक विराट ह्वेल मछली का मृत देह लिए अंधकार स्फित होकर उभर आया भरे समुद्र में ; लगा धरती का समस्त सौंदर्य अमेय ह्वेल मछली की मृत देह की दुर्गन्ध की तरह है, जहाँ भी चला जाता हूँ मैं सारे समुद्र के उल्काओं में यह कैसा स्वाभाविक सा और क्या स्वाभाविक नहीं है यही सोचता रहता हूँ मैं!

सवार

"लिख डालो कविता एक आप ही", कहा थकी हँसी हँस, छायामूर्ति ने जवाब नहीं दिया, वृथावादी बैठा भाष्य, टीका, स्याही, काग़ज़ की ढेरी पर, काव्य-रचना का अजाब नहीं लिया, सिंहासन-आरूढ़ अजर-अमर बन लिया। प्राध्यापक -- दन्तहीन, आँखों में कीच पोच, वेतन हज़ार, उसके ऊपर हज़ार डेढ़ मरे हुए कवियों के शवों से कीट नोच -- मृतकों ने चाहे थे क्षुधा, प्रेम, ऊष्मा ढेर, खेले थे शार्क-भरी लहरों में लोट-फेर ।

आकाशलीना

सुरंजना, न जाओ उस जगह तुम, मत करो बात उस युवक से, लौट आओ, सुरंजना: नक्षत्रों की आग-भरी रुपहली रात को। लौट आओ इस खेत पर, इस लहर के पास, लौट आओ हृदय में मेरे; दूर से ज़्यादा दूर -- और भी दूर युवक के साथ न जाओ और। क्या बात करनी उस...उस जन से आकाश के पीछे और एक आकाश में, मिट्टी-सी हो गईं तुम आज, उसका प्रेम जहाँ घास बनकर आया है । सुरंजना आज घास है तुम्हारा हृदय, हवा के उस पार हवा, आकाश के उस पार आकाश।

बीस बरस बाद

फिर बीस बरस बाद उससे भेंट हो अगर फिर बीस बरस बाद — शायद खेत में धान की क़तारों के पास कार्तिक मास में — तब साँझ के काग लौट रहे घर — तब पीली नदी काँस, सरपत और ऊँची घास के बीच मृदु — मैदानों में । अथवा, धान नहीं अब खेतों में, न कोई दौड़-भाग, हंस के घोंसले के तिनके चिड़िया के घोंसले के तिनके खिसककर गिर रहे हैं; मुनिया पाखी के घर रात, शीत और ओस का पानी। बीस बरस जीवन जब कर चुकें अतिवाह मिल जाओ सहसा खेतों से गुज़रती राह! शायद चाँद आया है आधी रात, ढेर पत्तों के पीछे पतली, काली टहनियाँ उसके मुख पर, शिरीष की, जामुन की, झाऊ की, आम की; बीस बरस बाद, तब भूल गया हूँ तुम्हें! बीस-बीस साल पार हो आएँ हमारे जीवन तब हो फिर एक बार मेरा-तुम्हारा मिलन ! उस समय शायद एक उल्लू खेत में उतर दो क़दम चला है — बबूल की गली के अँधेरे में पीपल की खिड़की के बीच से कहीं छुपा लिया है ख़ुद को। कहीं उतरे हैं चील के पंख, आँख की पलक-से ख़ामोश। सोने जैसी चील — उसे बझा ले गया है शिशिर, बीस बरस बाद उसी कुहासे में यदि पाऊँ तुम्हें फिर

हाय चील

हाय चील, सुनहरे डैनों वाली चील भरे बादलों वाली इस दोपहरी में धानसीढ़ी नदी के पास उड़ उड़ कर तुम और न रोओ ! तुम्हारे रुदन-स्वर में बेत-फलों जैसी उदासी में डूबी उसकी उदासी का ध्यान हो आता है : जो अपने सुरूप के साथ दूर चली गई है उसे पुकार-पुकार कर कर्मों बुलाती हो ? कौन भग्न हृदय को कुरेद कर टीस से छटपटाना चाहेगा! हाय चील, सुनहरे डैनों वाली चील भरे बादलों वाली इस दोपहरी में धानसीढ़ी नदी के पास उड़ उड़ कर तुम और न रोओ !

सहस्राब्द से क्रीड़ारत वह

सहस्राब्द से क्रीड़ारत वह ऐसे जैसे अंधकार में जुगनू : चारों ओर पिरामिड फैले — ताबूतों की गन्ध आ रही : बालि द्वीप पर हंसे ज्योत्सना — यहाँ-वहाँ छाया खजूर की क्षत-विक्षत स्तम्भ के सदृश : असीरियाई खड़ा हुआ मृत-म्लान । हमारी देहों से ममी की गन्ध — चुक गए जीवन के सब लेन-देन, "याद है न !" याद दिलाई उसने, याद मुझे आई, बस्स ’वनलता सेन’।

फिर लौट आऊँगा

फिर लौट आऊँगा धानसिड़ि नदी के किनारे इस बंगाल में शायद मनुष्य – या फिर शंखचील या शालिख के रूप में या शायद भोर का कौआ बन इस कार्तिक नवान्न के देश में कोहरे के प्रवाह में बहकर एकदिन आऊँगा इस कटहल की छाँव में या फिर बनूँगा बत्तख़ किशोरी का, घुँघरू बँधे होंगे लाल पैरों में पूरा दिन कट जाएगा तैर - तैर कर कलमी लता की महक से भरे पानी में मैं फिर आऊँगा बंगाल के मैदान, खेत और नदी के प्यार में जलाँगी की लहरों से आर्द्र बंगाल के इस हरे भरे करुण तट पर । शायद तुम देखोगे अपनी आँखों से सुदर्शन उड़ रहा है शाम की हवा में शायद सुनोगे एक लक्ष्मीउलूक बोल रहा है शाल्मली की डाल पर शायद कोई शिशु खील का धान फैला रहा है घर के आँगन की घास पर या फिर कोई किशोर रूपसा के मटमैले पानी में सफ़ेद फटेहाल पाल से नाव खे रहा है - लाल बादलों को चीरते हुए अंधेरे में आ रहा है वापस घोंसले में देखोगे सफ़ेद बगुला : मुझ ही को पाओगे तुम इन सब की भीड़ में ।

यह हृदय सिर्फ़ एक सुर जानता है

सिन्धु की लहरों-जैसा सिर्फ़ एक गीत जानता हूँ मैं, मैं भूल गया हूँ पृथ्वी और आकाश की और सब भाषाएँ, सबके बीच मैंने सिर्फ़ तुम्हें पहचाना है जाना है तुम्हारा प्यार ! जीवन के कोलाहल में सबसे पहले जाकर मैंने तुम्हें ही पुकारा है! दिन डूबने पर अँधेरे आसमान के सीने पर जो जगह रह गई है थिर नक्षत्रों के विभोर में सिन्धु की लहरों के सीने में जो फेन की प्यास है, मनुष्य की वेदना के गह्वर के अँधेरे में उजाले की मानिन्द जागी रहती है जो आशा, पीले पत्तों के सीनों पर जाड़े की किसी रात लगी रहती है मृत्यु की जो मीठी गन्ध, मेरे हृदय में आकर तुम ठीक उसी तरह से जागी हुई हो ! धरती के शुद्ध पुरोहितों की तरह उस सुबह के समुद्र का पानी उस दूर वाले आसमान के सीने पर से जिस तरह पोंछ रहा है अँधेरा तुमने भी सीने की सारी पीड़ाएँ धो दी हैं -- सारे अफ़सोस -- सारे कलंक ! तुम जगे हुए हो इसीलिए मैं इस पृथ्वी पर जागने के आयोजन करता हूँ, तुम सो जाओगी जब तुम्हारे सीने पर मृत्यु बनकर सो जाऊँगा मैं !

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