फिर धीरे-धीरे यहां का मौसम बदलने लगा है (ग़ज़ल) : दुष्यन्त कुमार


फिर धीरे-धीरे यहां का मौसम बदलने लगा है

फिर धीरे-धीरे यहां का मौसम बदलने लगा है, वातावरण सो रहा था अब आंख मलने लगा है पिछले सफ़र की न पूछो , टूटा हुआ एक रथ है, जो रुक गया था कहीं पर , फिर साथ चलने लगा है हमको पता भी नहीं था , वो आग ठण्डी पड़ी थी, जिस आग पर आज पानी सहसा उबलने लगा है जो आदमी मर चुके थे , मौजूद है इस सभा में, हर एक सच कल्पना से आगे निकलने लगा है ये घोषणा हो चुकी है , मेला लगेगा यहां पर, हर आदमी घर पहुंचकर , कपड़े बदलने लगा है बातें बहुत हो रही है , मेरे-तुमहारे विषय में, जो रासते में खड़ा था परवत पिघलने लगा है (ग़ज़ल-संग्रह 'साये में धूप' में से)

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