पहचान : राजगोपाल
Pahchan : Rajagopal


हाय! क्या समझूँ सत्य यही है जो खुली आँखों मे दिखता नहीं है प्रणय ढूँढूँ तो जीवन भी विष लगता है किन्तु उसके लिये मन दिन-रात जागता है धीरे-धीरे बदली मन की प्रत्याशा बदली चिरबंधनों की स्नेहिल परिभाषा मांगता कैसे जब न मैंने कोई होंठ हिलाये आशा मे मौन ही उर पर कितने कहर ढाये जीवन भर पिया जिसकी सुधा आज सूख गई उस चम्पा की मृदा बरसों की वामा कौंध गई जैसे क्षणिका कहती है अस्पृश्य, मैं नहीं तुम्हारी गणिका मरे सारे क्षण प्रणय के दुलारे हृदय से दूर हुये निर्वासित सारे अकेला ही झेलता रहा मैं तिमिर का संघात सोच कर यही कल होगा बाहुपाशों मे प्रभात क्यों होते हैं मन-संबंधो के टुकड़े न रोता जीवन यूं ही ठूंठ को पकड़े चुप मैं पल मे तृष्णा का विष पी जाता यदि आज मैं वही जीवन पुनः जी पाता मेरे उन्माद से न दुनिया झूमी शत-क्रंदनों से न जगती घूमी जब उसे कहा तुम्ही सखा, तुम्ही मेरे बंधू उसकी अस्मिता बोली, क्या मैं हूँ कोई नगरवधू मुझे मिट्टी के चाक सा न चलाओ मेरी भावनाओं को नीर सा न बहाओ उसे निहारते सिर खाता है कितने चक्कर हार कर हुआ है देखो यह तन-मन जर्जर प्रभु मन के सारे रिक्तों को आज भर दो दुख मे लिप्त कर मुझे और भारी कर दो डूबने के लिये इस उर पर पत्थर धर दो न सोचो,आज मेरा सागर मे विलय कर दो वही बरसों पुरानी प्रेयसी खोजता रोता हूँ क्षुद्र शब्दों के रण मे अपनी चिता सँजोता हूँ कौन विकल यहाँ सुनने दूसरों का ताना-बाना भूल गया है कोई देखो जीवन के ऋण लौटना सृजन और जीवन का है दैविक आलिंगन बिखरा है जगती मे माया का कण-कण स्नेह-सगाई मे दिखती थी वह रमणी रंभा फिर क्यों हुयी परायी स्वयं को कह कर कुंभा संसृति के विस्तृत क्षितिज पर अपने ही टूटते नीड़ के अंदर तृषित हुआ देखता हूँ उसे मधु बरसाता छिप कर रोता हूँ, है कौन मुझे सहलाता उसे पाकर भी ढूंढती हैं भूखी बाहें आशाओं के भूलभुलैया मे छिपी राहें थक गये हैं कान भी सुनते क्रंदन मेरा क्या शेष रह गया है महाप्रयाण तक मेरा मन के चक्रव्यूह मे मीलों गहरे उठती हैं पीड़ा की कितनी लहरें मौन ही चीर गये वे शत-कंदन मेरा डूब रहा है आज गर्त मे प्रतिपल मन मेरा लगता है किसे अपनी बात सुनाऊँ क्यों प्रेयसी की पहेलियाँ बुझाऊँ दुख जतलाने की भी कोई सीमा होती है प्रणय की व्यथा मे यह रात भी बहुत रोती है जब अनछुआ ही स्वप्नों मे घिर जाता जड़ तकिये मे बस नित रोना ही भाता गणिका की बात सोच कर दुखती मेरी छाती है सुबह फिर उसकी ही छाया पास चली आती है इस दुविधा मे कितने रातों को मन मेरा कहता है छोड़ चलो, यह जीवन नहीं है तेरा न ही नीड़ मे कोमल अधरों का सुख मिला न दृगों मे फिर कभी शचि सा मुख खिला फिर भी यह निर्लज्ज काम उभर ही जाता क्यों वही वसंत खिड़की से नहीं लौट आता श्वान सा मन नित झेलता दंड उसके हाथ का बिलखता है फिर देख कर चिन्ह उसके साथ का पूछता हूँ जग से क्या बीता सुख कभी लौटेगा क्या इस शेष जीवन मे कभी यह ग्रहण छूटेगा क्यों लड़ते है हम निर्जीव शब्दों मे निर्विवेक क्या बीती छोड़ कभी, हो सकेंगे हम एक दृगों का उन्माद भूल गयी है पहचान अब आता नहीं है प्रणय का ध्यान परिणिता हो कर, झर्झरा सा कैसा है विद्रोह हठी है प्रणय प्रतिकार मे भी जुड़ा रहेगा मोह आज भी उर मे छलकता प्यार है अस्पृश्य हो कर भी छलता उपहार है हाथ भर का सुख आज है आंसुओं मे गला हाय! लुकता-छिपता यह मन भी क्यों मूक ढला पहचान गँवायी तो कहीं और नीड़ बनाऊँ स्वप्न देखता वहीं कल्पवृक्ष के फल खाऊँ अंत कहाँ है मेरे जीवन का अब दिखला दो तुम्हें शत-शत नमन मेरी सीमाएँ बतला दो कल अकेले मे पहचानना शून्यता मन की फिर हिसाब करना जीवन के क्षण-क्षण की जान लेना स्वतः सम्बन्धों के न्याय-अन्याय अब प्रायश्चित कैसा, बंद कर देना यह अध्याय

आत्मबोध

तन की छोड़ो, मन और विश्वास मेरा है न जाने किस ओर उजाला या अंधेरा है मुझे उठ कर है केवल लक्ष्य तक चलना कल के लिए आज मुझे फिर है संभलना मैं वीर हूँ, डरा नहीं जीवन मे कभी तोड़ कर तन की पीड़ा उठता हूँ अभी फिर चलूँगा आगे, और बढ़ कर रहूँगा मैं सिद्ध हूँ कल यह जीवन जीत कर रहूँगा मैं