पद - राग सूहौ : भक्त कबीर जी

Pad Raag Suho : Bhakt Kabir Ji in Hindi


तू सकल गहगरा, सफ सफा दिलदार दीदार॥ तेरी कुदरति किनहूँ न जानी, पीर मुरीद काजी मुसलमानी॥ देवौ देव सुर नर गण गंध्रप, ब्रह्मा देव महेसुर॥ तेरी कुदरति तिनहूँ न जांनी॥टेक॥ काजी सो जो काया बिचारै, तेल दीप मैं बाती जारै॥ तेल दीप मैं बाती रहे, जोति चीन्हि जे काजी कहै॥ मुलनां बंग देइ सुर जाँनी, आप मुसला बैठा ताँनी॥ आपुन मैं जे करै निवाजा, सो मुलनाँ सरबत्तरि गाजा॥ सेष सहज मैं महल उठावा, चंद सूर बिचि तारौ लावा॥ अर्ध उर्ध बिचि आनि उतारा, सोई सेष तिहूँ लोक पियारा॥ जंगम जोग बिचारै जहूँवाँ, जीव सिव करि एकै ठऊवाँ॥ चित चेतनि करि पूजा लावा, तेतौ जंगम नांऊँ कहावा॥ जोगी भसम करै भौ मारी, सहज गहै बिचार बिचारी॥ अनभै घट परचा सू बोलै, सो जोगी निहचल कदे न डोले॥ जैन जीव का करहू उबारा, कौंण जीव का करहु उधारा॥ कहाँ बसै चौरासी मतै संसारी, तिरण तत ते लेहु बिचारी॥ प्रीति जांनि राम जे कहै, दास नांउ सो भगता लहै॥ पंडित चारि वेद गुंण गावा, आदि अंति करि पूत कहावा॥ उतपति परलै कहौ बिचारी, संसा घालौ सबै निवारी॥ अरधक उरधक ये संन्यासी, ते सब लागि रहै अबिनासी॥ अजरावर कौ डिढ करि गहै, सो संन्यासी उम्मन रहै॥ जिहि धर चाल रची ब्रह्मंडा, पृथमीं मारि करी नव खंडां॥ अविगत पुरिस की गति लखी न जाई, दास कबीर अगह रहे ल्यौ लाई॥1॥ टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह रमैणी है- (ग्रंथ बावनी) बावन आखिर लोकत्री, सब कुछ इनहीं माँहि॥ ये सब षिरि जाहिगे, सो आखिर इनमें नाँहि॥ ते तौ आधि अनंद सरूपा, गुन पल्लव बिस्तार अनूपा। साखा तत थैं कुसम गियाँनाँ, फल सो आछा राम का नाँमाँ॥ सदा अचेत चेत जिव पंखी, हरि तरवर करि बास॥ झूठ जगि जिनि भूलसी जियरे, कहन सुनन की आस॥ जिहि ठगि ठगि सकल जग खावा, सो ठग ठग्यो ठौर मन आवा॥ डडा डर उपजै डर जाई, डरही मैं डर रह्यौ समाई॥ जो डर डरै तो फिर डर लागै, निडर होई तो डरि डर भागै॥ ढढा ढिग कत ढूँढै आना, ढूँढत ढूँढत गये परांना॥ चढ़ि सुमर ढूँढि जग आवा, जिमि गढ़ गढ़ा सुगढ़ मैं पावा॥ णणारि णरूँ तौ नर नाहीं, करै ना फुनि नवै न संचरै॥ धनि जनम ताहीं कौ गिणां, मेरे एक तजि जाहि घणां॥ तता अतिर तिस्यौ नहीं गाई, तन त्रिभुवन में रह्यौ समाई॥ जे त्रिभुवन तन मोहि समावै, तो ततै तन मिल्या सचु पावै॥ अथा अथाह थाह नहीं आवा, वो अथाह यहु थिर न रहावा॥ थोरै थलि थानै आरंभै, तो बिनहीं थंभै मंदिर थंभै॥ ददा देखि जुरे बिनसन हार, जस न देखि तस राखि बिचार॥ दसवै द्वारि जब कुंजी दीजै, तब दयालु को दरसन कीजै॥ धधा अरधै उरध न बेरा, अरधे उरधै मंझि बसेरा॥ अरधै त्यागि उरध जब आवा, तब उरधै छाँड़ि अरध कत धावा॥ नना निस दिन निरखत जाई, निरखत नैन रहे रतबाई॥ निरखत निरखत जब जाइ पावा, तब लै निरखै निरख मिलावा॥ पपा अपार पार नहीं पावा, परम जोति सौ परो आवा॥ पांचौ इंद्री निग्रह करै, तब पाप पुंनि दोऊ न संचरै॥ फफा बिन फूलाँ फलै होई, ता फल फंफ लहै जो कोई॥ दूंणी न पड़ै फूकैं बिचारैं, ताकी फूंक सबै तन फारै॥ बबा बंदहिं बंदै मिलावा, बंदहि बंद न बिछुरन पावा॥ जे बंदा बंदि गहि रहै, तो बंदगि होइ सबै बंद लहै॥ भभा भेदै भेद नहीं पावा, अरभैं भांनि ऐसो आवा॥ जो बाहरि सो भीतरि जाना भयौ भेद भूपति पहिचाना॥ ममाँ मन सो काज है, मनमानाँ सिधि होइ॥ मनहीं मन सौ कहै कबीर, मन सौं मिल्याँ न कोइ॥ ममाँ मूल गह्याँ मन माना, मरमी होइ सूँ मरमही जाना॥ मति कोई मनसौं मिलता बिलमावै, मगन भया तैं सोगति पावै॥

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