पद - राग सोरठि : भक्त कबीर जी

Pad Raag Sorath : Bhakt Kabir Ji in Hindi


हरि को नाम न लेइ गँवारा, क्या सोंचे बारंबारा॥टेक॥ पंच चोर गढ़ मंझा, गड़ लूटै दिवस रे संझा॥ जौ गढ़पति मुहकम होई, तौ लूटि न सकै कोई॥ अँधियारै दीपक चहिए, तब बस्त अगोचर लहिये॥ जब बस्त अगोचर पाई, तब दीपक रह्या समाई॥ जौ दरसन देख्या चाहिये, तौ दरपन मंजत रहिये॥ जब दरपन लागै कोई, तब दरसन किया न जाई॥ का पढ़िये का गुनिये, का बेद पुराना सुनिये॥ पढ़े गुने मति होई मैं सहजैं पाया सोई॥ कहैं कबीर मैं जाँनाँ, मैं जाँनाँ मन पतियानाँ॥ पतियानाँ जौ न पतीजै, तौ अंधै कूँ का कीजै॥262॥ अंधै हरि बिन को तेरा, कवन सूँ कहत मेरी मेरा॥टेक॥ तजि कुलाकष्म अभिमाँनाँ, झूठे भरमि कहा भुलानाँ॥ झूठे तन की कहा बड़ाई, जे निमष माँहि जरि जाई॥ जब लग मनहिं विकारा, तब लगि नहीं छूटै संसारा। जब मन निरमल करि जाँनाँ, तब निरमल माँहि समानाँ। ब्रह्म अगनि ब्रह्म सोई, अब हरि बिन और न कोई॥ जब पाप पुँनि भ्रँम जारी, तब भयो प्रकास मुरारी। कहैं कबीर हरि ऐसा, जहाँ जैसा तहाँ तैसा॥ भूलै भरमि परै जिनि कोई, राजा राम करै सो होई॥263॥ मन रे सर्यौ न एकौ काजा, ताथैं भज्यौ न जगपति राजा॥टेक॥ बेद पुराँन सुमृत गुन पढ़ि गुनि भरम न पावा। संध्या गायत्री अरु षट करमाँ, तिन थैं दूरि बतावा॥ बनखंडि जाइ बहुत तप कीन्हाँ, कंद मूल खनि खावा। ब्रह्म गियाँना अधिक धियाँनी, जम कै पटैं लिखावा॥ रोजा किया निवाज गुजारी, बंग दे लोग सुनावा। हिरदै कपट मिलै क्यूँ साँई, क्या हल काबै जावा॥ पहरौं काल सकल जग ऊपरि, माँहै लिखे सब ग्याँनी। कहै कबीर ते भये षालसे, राम भगति जिनि जाँनी॥264॥ मन रे जब तैं राम कह्यौ, पीछै कहिबे कौ कछू न रह्यौ॥टेक॥ का जाग जगि तप दाँनाँ, जौ तै राम नाम नहीं जाँना॥ काँम क्रोध दोऊ भारे, ताथैं गुरु प्रसादि सब जारे॥ कहै कबीर भ्रम नासी, राजा राम मिले अबिनासी॥265॥ राम राइ सी गति भई हमारी, मो पै छूटत नहीं संसारी॥टेक॥ यूँ पंखी उड़ि जाइ अकासाँ, आस रही मन माँहीं॥ छूटीं न आस टूट्यौ नहीं फंधा उडिबौ लागौ काँहीं॥ जो सुख करत होत दुख तेही, कहत न कछु बनि आवै॥ कुंजर ज्यूँ कस्तूरी का मृग, आपै आप बँधावै॥ कहै कबीर नहीं बस मेरा, सुनिये देव मुरारी॥ इन भैभीत डरौं जम दूतनि, आये सरनि तुम्हारी॥266॥ राम राइ तूँ ऐसा अनभूत तेरी अनभैं थैं निस्तरिये॥ जे तुम्ह कृपा करौ जगजीवन तौ कतहूँ न भूलि न परिये॥टेक॥ हरि पद दुरलभ अगर अगोचर, कथिया गुर गमि बिचारा। जा कारँनि हम ढूँढ़त फिरते, आथि भर्यो संसारा॥ प्रगटी जोति कपाट खोलि दिये, दगधे जम दुख द्वारा। प्रगटे बिस्वनाथ जगजीवन, मैं पाये करत बिचारा॥ देख्यत एक अनेक भाव है, लेखत जात अजाती। बिह कौ देव तजि ढूँढत फिरते मंडप पूजा पाती॥ कहै कबीर करुणामय किया, देरी गलियाँ बह बिस्तारा। राम कै नाँव परम पद पाया छूटै बिघन बिकारा॥267॥ राम राइ को ऐसा बैरागी, हरि भजि मगन रहै बिष त्यागी॥टेक॥ ब्रह्मा एक जिनि सृष्टि उपाई, नाँव कुनाल धराया। बहु विधि भाँडै उमही घड़िया, प्रभु का अंत न पाया॥ तरवर एक नाँनाँ बिधि फलिया, ताकै मूल न साखा। भौजलि भूलि रह्या से प्राणी सो फल कदे न चाखा॥ कहै कबीर गुर बचन हेत करि और न दुनियाँ आथी। माटी का तन माटी मिलिहै, सबद गुरु का साथी॥268॥ नैक निहारी हो माया बिनती करै, दीन बचन बोले कर जोरे, फुनि फुनि पाइ परै॥टेक॥ कनक लेहु जेता मनि भावै, कामिन लेहु मन हरनीं। पुत्र लेहु विद्या अधिकारी राजा लेहु सब धरनीं॥ अठि सिधि लेहु तुम्ह हरि के जनाँ नवैं निधि है तुम्ह आगैं॥ सुर नर सकल भवन के भूपति, तेऊ लहै न मागैं॥ तै पापणीं सबै संधारे काकौ काज सँवारौं॥ दास कबीर राम कै सरनै छाड़ी झूठी माया। गुर प्रसाद साथ की संगति, तहाँ परम पद पाया॥269॥ तुम्ह घरि जाहू हँमारी बहनाँ, बिष लागै तुम्हारे नैना॥टेक॥ अंजन छाड़ि निरंजन राते नाँ किसही का दैनाँ। बलि जाऊँ ताकी जिनि तुम्ह पठई एक महा एक बहनाँ॥ राती खाँडी देख कबीरा, देखि हमारा सिंगारौ॥ सरग लोक थैं हम चलि आई, करत कबीर भरतारौ॥ सर्ग लोक में क्या दुख पड़िया, तुम्हे आई कलि माँहि। जाति जुलाहा नाम कबीरा, अजहुँ पतीजौ नाँही॥ तहाँ जाहु जहाँ पाट पटंबर, अगर चंदन घसि लीनाँ। आइ हमारै कहाँ करौगी, हम तौ जाति कमीनाँ॥ जिनि हँम साजे साँज्य निवाजे बाँधे काचै धागै। जे तुम्ह जतन करो बहुतेरा, पाँणी आगि न लागै॥ साहिब मेरा लेखा मागै लेखा क्यूँ करि दीजै। ते तुम्ह जतन करो बहुतेरा, तौ पाँइण नीर न भीजै॥ जाकी मैं मछी मो मेरा मछा, सो मरा रखवालू। टुक एक तुम्हारै हाथ लगाऊँ, तो राजाँ राँम रिसालू॥ जाति जुलाहा नाम कबीरा, बनि बनि फिरौं उदासी। आसि पासि तुम्ह फिरि फिरि बैसो, एक माउ एक मासी॥270॥ ताकूँ रे कहा कीजै भाई, तजि अंमृत बिषै सूँ ल्यौ लाई॥टेक॥ बिष संग्रह कहा सुख पाया, रंचक सुख कौ जनम गँवाया॥ मन बरजै चित कह्यो न करई, सकति सनेह दीपक मैं परई॥ कहत कबीर मोहि भगति उमाहा, कृत करणी जाति भया जुलाहा॥271॥ रे सुख इब मोहि बिष भरि लगा इनि सुख डहके मोटे मोटे छत्रापति राजा॥टेक॥ उपजै बिनसै जाइ बिलाई संपति काहु के संगि न जाई॥ धन जोबन गरब्यो संसारा, बहु तन जरि बरि ह्नै छारा। चरन कवल मन राखि ले धीरा, राम रमत सुख कहै कबीरा॥272॥ इब न रहूँ माटी के घर मैं, इब मैं जाइ रहूँ मिलि हरि मैं॥टेक॥ छिनहर घर अरु झिरहर टाटी, धन गरजत कंपै मेरी छाती॥ दसवैं द्वारि लागि गई तारी, दूरि गवन आवन भयौ भारी॥ चहुँ दिसि बैठे चारि पहरिया, जागत मुसि नये मोर नगरिया॥ कहै कबीर सुनहु रे लोई, भाँनड़ घड़ण सँवारण सोई॥273॥ कबीर बिगर्‌या राम दुहाई, तुम्ह जिनि बिगरौ मेरे भाई॥टेक॥ चंदन कै ढिग बिरष जु मैला, बिगरि बिगरि सो चंचल ह्नैला॥ पारस कौं जे लोह छिवैगा, बिगरि बिगरि सो कंचन ह्नैला॥ गंगा मैं जे नीर मिलैगा, बिगरि बिगरि गंगोदिक ह्नैला॥ कहै कबीर जे राम कहैला, बिगरि बिगरि सो राँमहि ह्नैला॥274॥ राम राम भई बिकल मति मोरी, कै यहु दुनी दिवानी तेरी॥टेक॥ जे पूजा हरि नाही भावै सो पूजनहार चढ़ावै॥ जिहि पूजा हरि भल माँनै, सो पूजनहार न जाँनै॥ भाव प्रेम की पूजा ताथै भयो देव थैं दूजा॥ का कीजै बहुत पसारा, पूजी जे पूजनहारा॥ कहै कबीर मैं गावा, मैं गावा आप लखावा॥ जो इहि पद माँहि समाना, सो पूजनहार सयाँना॥275॥ राम राम भई बिगूचनि भारी, भले इन ग्याँनियन थैं संसारी॥टेक॥ इक तप तीरथ औगाहैं इक मानि महातम चाँहै॥ इक मैं मेरी मैं बीझै, इक अहंमेव मैं रीझै॥ इक कथि कथि भरम जगाँवैं, सँमिता सी बस्त न पावैं। कहै कबीर का कीजै, हरि सूझे सो अंजन दीजै॥276॥ काया मंजसि कौन गुनाँ, घट भीतरि है मलनाँ॥टेक॥ जौ तूँ हिरदै सुख मन ग्यानीं, तौ कहा बिरौले पाँनी। तूँबी अठसठी तीरथ न्हाई, कड़वापन तऊ न जाई॥ कहै कबीर बिचारी, भवसागर तारि मुरारी॥277॥ कैसे तूँ हरि कौ दास कहायौ, कारे बहु भेषर जनम गँवायौ॥टेक॥ सुध बुध होइ भज्यौ नहिं सोई काछ्यो ड्यँभ उदर कै ताँई॥ हिरदै कपट हरि सूँ नहीं साँचौ, कहो भयो जे अनहद नाच्यौ॥ झूठे फोकट कलू मँझारा, राम कहै ते दास नियारा॥ भगति नारदी मगन सरीरा, इहि बिधि भव तिरि कहै कबीरा॥278॥ राँम राइ इहि सेवा भल माँनें, जै कोई राँम नाँम तन जाँनैं॥टेक॥ दे नर कहा पषालै काया, सो तन चीन्हि जहाँ थैं आया॥ कहा बिभूति अटा पट बाँधे, का जल पैसि हुतासन साधें॥ राँममाँ दोई आखिर सारा, कहै कबीर तिहुँ लोक पियारा॥279॥ इहि बिधि राँम सूँ ल्यौ लाइ। चरन पाषें निरति करि, जिभ्या बिना गुँण गाइ॥टेक॥ जहाँ स्वाँति बूँद न सीप साइर सहजि मोती होइ। उन मोतियन में नीर पीयौ पवन अंबर धोइ॥ जहाँ धरनि बरषै गगन भीजै, चंद सूरज मेल। दोइ मिलि तहाँ जुड़न लागे, करता हंसा केलि॥ एक बिरष भीतरि नदी चाली, कनक कलस समाइ। पंच सुवटा आइ बैठे, उदै भई बनराइ॥ जहाँ बिछट्यो तहाँ लाग्यौ, गगन बैठी जाइ। जन कबीर बटाऊवा, जिनि मारग लियौ चाइ॥280॥ ताथैं मोहि नाचवौ, न आवै, मेरो मन मंदला न बजावै॥टेक॥ ऊभर था ते सूभर भरिया, त्रिष्णां गागरि फूटी। हरि चिंतत मेरो मंदला भीनौं, भरम भीयन गयौ छूटी॥ ब्रह्म अगनि मैं जरी जु ममिता, पाषंड अरु अभिमानाँ। काम चोलना भया पुराना, मोपैं होइ न आना॥ जे बहु रूप कीये ते किये, अब बहु रूप न होई। थाकी सौंज संग के बिछुरे, राम नाँम मसि धोई॥ जे थे सचल अचल ह्नै थाके, करते बाद बिबाद। कहै कबीर मैं पूरा पाया, भय राम परसाद॥281॥ अब क्या कीजै ग्यान बिचारा, निज निरखत गत ब्यौहारा॥टेक॥ जाचिग दाता इक पाया धन दिया जाइ न खाया॥ कोई ले भरि सकै न मूका, औरनि पै जानाँ चूका॥ तिस बाझ न जीब्या जाई, वो मिलै त घालै खाई॥ वो जीवन भला कहाहीं, बिन मूवाँ जीवन नाहीं॥ घसि चंदन बनखंडि बारा, बिन नैननि रूप निहारा॥ तिहि पूत बाप इक जाया, बिन ठाहर नगर बसाया॥ जौ जीवत ही मरि जाँनै, तौ पंच सयल सुख मानैं॥ कहै कबीर सो पाया, प्रभु भेटत आप गँवाया॥282॥ अब मैं पायौ राजा राम सनेही॥टेक॥ जा बिनु दुख पावै मेरी देही॥टेक॥ वेद पुरान कहत जाकी साखी, तीरथि ब्रति न छूटै जंम की पासी॥ जाथैं जनम लहत नर आगैं, पाप पुंनि दोऊ भ्रम लागै॥ कहै कबीर सोई तत जागा, मन भया मगन प्रेम रस लागा॥283॥ बिरहिनी फिरै है नाम अधीरा, उपजि बिनाँ कछू समझि न परई, बाँझ न जानै पीरा॥टेक॥ या बड़ बिथा सोई भल जाँने राँम बिरह सर मारी। कैसो जाँने जिनि यहु लाई, कै जिनि चोट सहारी॥ संग की बिछुरी मिलन न पावै सोच करै अरु काहै। जतन करै अरु जुगति बिचारै, रटै राँम कूँ चाहै॥ दीन भई बूझै सखियन कौं, कोई मोही राम मिलावै। दास कबीर मीन ज्यूँ तलपै, मिलै भलै सचु पावै॥284॥ जातनि बेद न जानैगा जन सोई, सारा भरम न जाँनै राँम कोई॥टेक॥ चषि बिन दिवस जिसी है संझा, ब्यावन पीर न जानै बंझा॥ सूझै करक न लागै कारी, बैद बिधाता करि मोहि सारी॥ कहै कबीर यहु दुख कासनि कहिये, अपने तन की आप ही सहिये॥285॥ जन की पीर हो राजा राम भल जाँनै, कहूँ काहि को मानै॥टेक॥ नैन का दुख बैन जाँने, बैन को दुख श्रवनाँ॥ प्यंड का दुख प्रान जानै, प्रान का दुख मरनाँ॥ आस का दुख प्यासा जानै, प्यास का दुख नीर॥ भगति का दुख राम जानैं, कहै दास कबीर॥286॥ तुम्ह बिन राँम कवन सौं कहिये, लागी चोट बहुत दुख सहिये॥टेक॥ बेध्यौ जीव बिरह कै भालै, राति दिवस मेरे उर सालै॥ को जानै मेरे तन की पीरा, सतगुर बहि गयौ सरीरा॥ तुम्ह से बैद न हमसे रोगी, उपजी बिथा कैसे जीवैं बियोगी॥ निस बासुरि मोहि चितवत जाई, अजहूँ न आइ मिले राँम राई॥ कहत कबीर हमकौं दुख भारी, बिन दरसन क्यूँ जीवहि मुरारी॥287॥ टिप्पणी: ख प्रति में अंतिम पंक्ति इस प्रकार है- लागी चोट बहुत दुख सहिये॥देखो 287 की टेक। तेरा हरि नाँमैं जुलाहा, मेरे राँम रमण को लाहा॥टेक॥ दस सै सूत्रा की पुरिया पूरी, चंद सूर दोइ साखी। अनत नाँव गिनि लई मजूरी, हिरदा कवल मैं राखी॥ सुरति सुमृति दोइ खूँटी कीन्हीं आरँभ कीया बमेकीं। ग्यान तत की नली भराई बुनित आतमा पेषीं॥ अबिनासी धन लई मँजूरी, पूरी थापनि पाई। रस बन सोधि सोधि सब आये, निकटै दिया बताई॥ मन सूधा कौ कूच कियौ है, ग्यान बिरथनीं पाई। जीव की गाँठि गुढी सब भागी, जहाँ की तहाँ ल्यौ लाई॥ बेठि बेगारि बुराई थाकी, अनभै पद परकासा। दास कबीर बुनत सच पाया, दुख संसार सब नासा॥288॥ भाई रे सकहु त तनि बुनि लेहु रे, पीछे राँमहि दोस न देहु रे॥टेक॥ करगहि एकै बिनाँनी, ता भीतरि पंच पराँनी॥ तामैं एक उदासी, तिहि तणि बुणि सबै बिनासी॥ ज तूँ चौसठि बरिया धावा, नहीं होइ पंच सूँ मिलाँवा॥ जे तैं पाँसै छसै ताँणी, तौ सुख सूँ रह पराँणीं॥ पहली तणियाँ ताणाँ पीछ बुणियाँ बाँणाँ॥ तणि बुणि मुरतब कीन्हाँ, तब राम राइ पूरा दीन्हाँ॥ राछ भरत भइ संझा, तरुणीं त्रिया मन बंधा॥ कहै कबीर बिचारा, अब छोछी नली हँमारी॥289॥ वै क्यूँ कासी तजैं मुरारी, तेरी सेवा चोर भशे बनवारी॥टेक॥ जोगी जती तपी संन्यासी, मठ देवल बसि परसै कासी॥ तीन बार जे निज प्रति न्हावै, काया भीतरि खबरि न पावै॥ देवल देवल फेरी देहीं, नाँव निरंजन कबहुँ न लेहीं॥ चरन बिरद कासी कौं न देहूँ, कहै कबीर भल नरकहिं जैहूँ॥290॥ तब काहे भूलौ बजजारे, अब आयौ चाहै संगि हँमारे॥टेक॥ जब हँम बनजी लौंग सुपारी, तब तुम्ह काहे बनजी खारी। जब हम बनजी परमल कस्तूरी, तब तू काहे बनजी कूरी॥ अंमृत छाड़ि हलाहल खाया, लाभ लाभी करि करि मूल गँवाया। कहै कबीर हँम बनज्या सोई, जाँथै आवागमन न होई॥291॥ परम गुर देखो रिदै बिचारी, कछू करौ सहाई हमारी॥टेक॥ लावानालि तंति एक सँमि करि जंत्रा एक भल साज। सति असति कछु नाहीं जानूँ, जैसे बजवा तैसैं बाजा॥ चोर तुम्हारा तुम्हारी आग्या, मुसियत नगर तुम्हारा। इनके गुनह हमह का पकरौ, का अपराध हमारा॥ सेई तुम्ह सेई हम एकै कहियत, जब आपा पर नाहीं जाँनाँ। ज्यूँ जल मैं जल पैसि न निकसै, कहै कबीर मन माँनाँ॥292॥ मन रे आइर कहाँ गयौ, ताथैं मोहि वैराग भयौ॥टेक॥ पंच तत ले काया कीन्हीं, तत कहा ले कीन्हाँ। करमौं के बसि जीव कहत है, जीव करम किनि दीन्हाँ॥ आकास गगन पाताल गगन दसौं दिसा गगन रहाई ले। आँनँद मूल सदा परसोतम, घट बिनसै गगन न जाई ले॥ हरि मैं तन हैं तन मैं हरि है, है पुनि नाँही सोई। कहै कबीर हरि नाँम न छाडू सहजै होई सो होई॥293॥ हँमारै कौन सहै सिरि भारा, सिर की शोभा सिरजनहारा॥टेक॥ टेढी पाग बड जूरा, जबरि भये भसम कौ कूरा॥ अनहद कीगुरी बाजी, तब काल द्रिष्टि भै भागी॥ कहै कबीर राँम राया, हरि कैं रँगैं मूड़ मुड़ाया॥294॥ कारनि कौन सँवारे देहा, यहु तनि जरि बरि ह्नै षेहा॥टेक॥ चोवा चंदन चरचत अंगा, सो तन जरत काठ के संगा॥ बहुत जतन करि देह मुट्याई, अगिन दहै कै जंबुक खाई॥ जा सिरि रचि रचि बाँधत पागा ता सिरि चंच सँवारत कागा॥ कहि कबीर सब झूठा भाई, केवल राम रह्यो ल्यौ लाई॥295॥ धन धंधा ब्यौहार सब, मिथ्याबाद। पाँणीं नीर हलूर ज्यूँ, हरि नाँव बिना अपवाद॥टेक॥ इक राम नाम निज साचा, चित चेति चतुर घट काचा। इस भरमि न भूलसि भोली, विधना की गति है ओली॥ जीवते कूँ मारन धावै, मरते को बेरि जिआवै। जाकै हुँहि जम से बैरी, सो क्यूँ न सोवै नींद घनेरी॥ जिहि जागत नींद उपावै तिहि सोवत क्यूँ न जगावै॥ जलजंतु न देखिसि प्रानी, सब दीसै झूठ निदानी॥ तन देवल ज्यूँ धज आछै, पड़ियां पछितावै पाछै॥ जीवत ही कछू कीजै, हरि राम रसाइन पीजै॥ राम नाम निज सार है, माया लागि न खोई॥ अंति कालि सिर पोटली, ले जात न देख्या कोई॥ काहू के संगि न राखी, दीसै बीसल की साखी॥ जब हंस पवन ल्यौ खेलै, पसरो हाटिक जब मेलै॥ मानिष जनम अवतारा, तां ह्नैहै बारंबारा॥ कबहूँ ह्नै किसा बिहाँनाँ, तब पंखी जेम उड़ानाँ॥ सब आप आप कूँ जाई, को काहू मिलै न भाई॥ मूरिख मनिखा जनम गँवाया, बर कौडी ज्यूँ डहकाया॥ जिहि तन धन जगत भुलाया, जग राख्यो परहरि माया॥ जल अंजुरी जीवन जैसा, ताका है किसा भरोसा। कहै कबीर जग धंधा, काहे न चेतहु अंधा॥296॥ रे चित चेति च्यंति लै ताही, जा च्यंतत आपा पर नाँही॥टेक॥ हरि हिरदै एक ग्याँन उपाया, ताथैं छूटि गई सब माया॥ जहाँ नाँद न ब्यंद दिवस नहीं राती, नहीं नरनारि नहीं कुल जाती॥ कहै कबीर सरब सुख दाता, अविगत अलख अभेद बिधाता॥297॥ सरवर तटि हंसणी तिसाई जुगति बिनाँ हरि जल पिया न जाई॥टेक॥ पीया चाहे तौ लै खग सारी, उड़ि न सकै दोऊ पर भारी॥ कुँभ लीयै ठाढ़ी पनिहारी, गुण बिन नींर भरै कैसे नारीं॥ कहै कबीर गुर एक बुधि बताई, सहज सुभाइ मिलै राम राई॥298॥ भरथरी भूप भंया बैरागी। बिरह बियोग बनि बनि ढूँढै, वाकी सूरति साहिब सौं लागी॥टेक॥ हसती घोड़ा गाँव गढ़ गूडर, कनडापा इक आगी। जोगी हूवा जाँणि जग जाता, सहर उजीणीं त्यागी॥ छत्रा सिघासण चवर ढुलंता, राग रंग बहु आगी॥ सेज रमैणी रंभा होती, तासौं प्रीत न लागी॥ सूर बीर गाढ़ा पग रोप्या, इह बिधि माया त्यागी॥ सब सुख छाड़ि भज्या इक साहिब, गुरु गोरख ल्यौ लागी। मनसा बाचा हरि हरि भाखै, ग्रंधप सुत बड़ भागी। कहै कबीर कुदर भजि करता, अमर भणे अणरागी॥299॥ टिप्पणी: ख-प्रति में यह पद नहीं है।

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