पद - राग रामकली : भक्त कबीर जी

Pad Raag Ramkali : Bhakt Kabir Ji in Hindi


जगत गुर अनहद कींगरी बाजे, तहाँ दीरघ नाद ल्यौ लागे॥टेक॥ त्री अस्यान अंतर मृगछाला, गगन मंडल सींगी बाजे॥ तहुँआँ एक दुकाँन रच्यो हैं, निराकार ब्रत साजे॥ गगन ही माठी सींगी करि चुंगी, कनक कलस एक पावा। तहुँवा चबे अमृत रस नीझर, रस ही मैं रस चुवावा॥ अब तौ एक अनूपम बात भई, पवन पियाला साजा। तीनि भवन मैं एकै जोगी, कहौ कहाँ बसै राजा॥ बिनरे जानि परणऊँ परसोतम, कहि कबीर रँगि राता। यहु दुनिया काँई भ्रमि भुलाँनी, मैं राम रसाइन माता॥153॥ ऐसा ग्यान बिचारि लै लै, लाइ लै ध्याँनाँ। सुंनि मंडल मैं घर किया, जैसे रहै सिंचाँनाँ॥टेक॥ उलटि पवन कह्याँ राखिये, कोई भरम बिचारै। साँधै तीर पताल कूँ, फिरि गगनहि मारै॥ कंसा नाद बजाव ले, धुंनि निमसि ले कंसा॥ कंसा फूटा पंडिता, धंुनि कहाँ निवासा॥ प्यंड परे जीव कहाँ रहै, कोई मरम लखावै। जीवत जिस घरि जाइये, ऊँचे मुषि नहीं आवै॥ सतगुर मिलै त पाइयै, ऐसी अकथ कहाँणीं। कहै कबीर संसा गया, मिले सारंगपाँणीं॥154॥ है कोई संत सहज सुख उपजै, जाकौ जब तप देउ दलाली। एक बूँद भरि देइ राम रस, ज्यूँ भरि देई कलाली॥टेक॥ काया कलाली लाँहनि करिहूँ, गुरु सबद गुड़ कीन्हाँ॥ काँम क्रोध मोह मद मंछर, काटि काटि कस दीन्हाँ॥ भवन चतुरदस भाटी पुरई, ब्रह्म अगनि परजारी। मूँदे मदन सहज धुनि उपजी, सुखमन पीसनहारी॥ नीझर झरै अँमी रस निकसै, निहि मदिरावल छाका॥ कहैं कबीर यहु बास बिकट अनि, ग्याँन गुरु ले बाँका॥155॥ अकथ कहाँणी प्रेम की, कछु कही न जाई, गूँगे केरी सरकरा, बैठे मुसुकाई॥टेक॥ भोमि बिनाँ अरु बीज बिन, तरवर एक भाई। अनँत फल प्रकासिया, गुर दीया बताई। कम थिर बैसि बिछारिया, रामहि ल्यौ लाई। झूठी अनभै बिस्तरी सब थोथी बाई॥ कहै कबीर सकति कछु नाही, गुरु भया सहाई॥ आँवण जाँणी मिटि गई, मन मनहि समाई॥156॥ संतो सो अनभै पद गहिये। कल अतीत आदि निधि निरमअ ताकूँ सदा विचारत रहिये॥टेक॥ सो काजी जाकौं काल न ब्यापैं, सो पंडित पद बूझै। सो ब्रह्मा जो ब्रह्म बिचारै, सो जागी जग सूझै॥ उदै न अस्त सूर नहीं ससिहर, ताकौ भाव भजन करि लीजै। काया थैं कछु दूरि बिचारै, तास गुरु मन धीजै॥ जार्यौ जरै न काट्यो सूकै, उतपति प्रलै न आवै। निराकार अषंउ मंडल मैं, पाँचौ तत्त समावै॥ लोचन अचित सबै अँधियारा, बिन लोचन जग सूझै। पड़दा खोलि मिलै हरि ताकूँ, जो या अरथहिं बूझै॥ आदि अनंत उभै पख निरमल, द्रिष्टि न देख्या जाई। ज्वाला उठी अकास प्रजल्यौ, सीतल अधिक समाई॥ एकनि गंथ बासनाँ प्रगटै जग थैं रहै अकेला॥ प्राँन पुरिस काया थैं बिछुरे, राखि लेहु गुर चेला। भाग भर्म भया मन अस्थिर, निद्रा नेह नसाँनाँ॥ घट की जोति जगत प्रकास्या, माया सोक बुझाँनाँ। बंकनालि जे संमि करि राखै, तौ आवागमन न होई॥ कहैं कबीर धुनि लहरि प्रगटी, सहजी मिलैगा सोई॥157॥ जाइ पूछौ गोविंद पढ़िया पंडिता, तेराँ कौन गुरु कौन चेला। अपणें रूप कौं आपहिं जाँणें, आपैं रहे अकेला॥टेक॥ बाँझ का पूत बाप बिना जाया, बिन पाऊँ तरबरि चढ़िया। अस बिन पाषर गज बिन गुड़िया, बिन षडै संग्राम जुड़िया॥ बीज बिन अंकुर पेड़ बिन तरवर, बिन साषा तरवर फलिया। रूप बिन नारी पुहुप बिन परमल, बिन नीरै सरवर भरिया॥ देव बिन देहुरा पत्रा बिन पूजा बिन पाँषाँ भवर बिलंबया। सूरा होइ सु परम पद पावै, कीट पतंग होइ सब जरिया॥ दीपक बिन जोति जाति बिन दीपक, हद बिन अनाहद सबद बागा। चेतनाँ होइ सु चेति लीज्यौं, कबीर हरि के अंगि लागा॥158॥ पंडित होइ सु पदहि बिचारै, मूरिष नाँहिन बूझै। बिन हाथनि पाँइन बिन काँननि, बिन लोचन जग सूझै॥टेक॥ बिन मुख खाइ चरन बिनु चालै, बिन जिभ्या गुण गावै। आछै रहै ठौर नहीं छाड़ै, दह दिसिही फिरि आवै॥ बिनहीं तालाँ ताल बजावै, बिन मंदल षट ताला। बिनहीं सबद अनाहद बाजै, तहाँ निरतत है गोपाला॥ बिनाँ चोलनै बिनाँ कंचुकी, बिनही संग संग होई। दास कबीर औसर भल देख्या, जाँनैगा जस कोई॥159॥ है कोइ जगत गुर ग्याँनी, उलटि बेद बूझै। पाँणीं में अगनि जरैं, अँधरे कौ सूझै॥टेक॥ एकनि ददुरि खाये, पंच भवंगा। गाइ नाहर खायौ, काटि काटि अंगा॥ बकरी बिधार खायौ, हरनि खायौ चीता। कागिल गर फाँदियिा, बटेरै बाज जीता॥ मसै मँजार खायौ, स्यालि खायौ स्वाँनाँ। आदि कौं आदेश करत, कहैं कबीर ग्याँनाँ॥160॥ ऐसा अद्भुत मेरे गुरि कथ्या, मैं रह्या उमेषै। मूसा हसती सौ लड़ै, कोई बिरला पेषै॥टेक॥ उलटि मूसै सापणि गिली, यहु अचिरज भाई। चींटी परबत ऊषण्याँ, ले राख्यौ चौड़ै॥ मुर्गी मिनकी सूँ लड़ै, झल पाँणौं दौड़ै। सुरहीं चूँषै बछतलि, बछा दूध उतारै। ऐसा नवल गुँणा भया, सारदूलहि मारै। भील लूक्या बन बीझ मैं ससा सर मारै॥ कहै कबीर ताहि गुर करौं, जो या पदहि बिचारै॥161॥ अवधू जागत नींद न कीजै। काल न खाइ कलप नहीं ब्यापै देही जुरा न छीजै॥टेक॥ उलटी गंग समुद्रहि सोखै ससिहर सूर गरासै। नव ग्रिह मारि रोगिया बैठे, जल में ब्यंब प्रकासै॥ डाल गह्या थैं मूल न सूझै मूल गह्याँ फल पावा। बंबई उलटि शरप कौं लागी, धरणि महा रस खावा॥ बैठ गुफा मैं सब जग देख्या, बाहरि कछू न सूझै। उलटैं धनकि पारधी मार्यौ यहु अचिरज कोई बूझै॥ औंधा घड़ा न जल में डूबे, सूधा सूभर भरिया। जाकौं यहु जुग घिण करि चालैं, ता पसादि निस्तरिया॥ अंबर बरसै धरती भीजै, बूझै जाँणौं सब कोई। धरती बरसै अंबर भीजै, बूझै बिरला कोई॥ गाँवणहारा कदे न गावै, अणबोल्या नित गावै। नटवर पेषि पेषनाँ पेषै, अनहद बेन बजावै॥ कहणीं रहणीं निज तत जाँणैं यहु सब अकथ कहाणीं। धरती उलटि अकासहिं ग्रसै, यहु पुरिसाँ की बाँणी॥ बाझ पिय लैं अमृत सोख्या, नदी नीर भरि राष्या। कहै कबीर ते बिरला जोगी, धरणि महारस चाष्या॥162॥ राम गुन बेलड़ी रे, अवधू गोरषनाथि जाँणीं। नाति सरूप न छाया जाके, बिरध करैं बिन पाँणी॥टेक॥ बेलड़िया द्वे अणीं पहूँती गगन पहूँती सैली। सहज बेलि जल फूलण लागी, डाली कूपल मेल्ही॥ मन कुंजर जाइ बाड़ा बिलब्या, सतगुर बाही बेली। पंच सखी मिसि पवन पयप्या, बाड़ी पाणी मेल्ही॥ काटत बेली कूपले मेल्हीं, सींचताड़ी कुमिलाँणों। कहै कबीर ते बिरला जोगी, सहज निरंतर जाँणीं॥163॥ टिप्पणी: ख-जाति सिमूल न छाया जाकै। राम राइ अबिगत बिगति न जानै, कहि किम तोहिं रूप बषानै॥टेक॥ प्रथमे गगन कि पुहमि प्रथमे प्रभू पवन कि पाँणीं। प्रथमे चंद कि सूर प्रथमे प्रभू, प्रथमे कौन बिनाँणीं॥ प्रथमे प्राँण कि प्यंड प्रथमे प्रभू, प्रथमे रकत कि रेत। प्रथमे पुरिष की नारि प्रथमे प्रभू, प्रथमे बीज की खेत॥ प्रथमे दिवस कि रैणि प्रथमे प्रभू, प्रथमे पाप कि पुन्य। कहै कबीर जहाँ बसहु निरंजन, तहाँ कुछ आहि कि सुन्य॥164॥ अवधू सो जोगी गुर मेरा, जौ या पद का करै नबेरा॥टेक॥ तरवर एक पेड़ बिन ठाढ़ा, बिन फूलाँ फल लागा। साखा पत्रा कछू नहीं वाकै अष्ट गगन मुख बागा॥ पैर बिन निरति कराँ बिन बाजै, जिभ्या हीणाँ गावै। गायणहारे के रूप न रेषा, सतगुर होई लखावे॥ पषी का षोज मीन का मारग, कहै कबीर बिचारी। अपरंपार पार परसोतम, वा मूरति बलिहारी॥165॥ अब मैं जाँणिबौ रे केवल राइ की कहाँणी। मझां जोति राम प्रकासै, गुर गमि बाँणी॥टेक॥ तरवर एक अनंत मूरति, सुरताँ लेहू पिछाँणीं। साखा पेड़ फूल फल नाँहीं, ताकि अंमृत बाँणीं॥ पुहुप बास भवरा एक राता, बरा ले उर धरिया। सोलह मंझै पवन झकोरैं, आकासे फल फलिया॥ सहज समाधि बिरष यह सीचा, धरती जरु हर सोब्या। कहै कबीर तास मैं चेला, जिनि यहु तरुवर पेष्या॥166॥ राजा राम कवन रंगै, जैसैं परिमल पुहुप संगैं॥टेक॥ पंचतत ले कीन्ह बँधाँन, चौरासी लष जीव समाँन। बेगर बेगर राखि ले भाव, तामैं कीन्ह आपको ठाँव॥ जैसे पावक भंजन का बसेष, घट उनमाँन कीया प्रवेस॥ कह्यो चाहूँ कछु कह्या न जाइ, जल जीव ह्नै जल नहीं बिगराइ॥ सकल आतमाँ बरतै जे, छल बल कौं सब चान्हि बसे॥ चीनियत चीनियत ता चीन्हिलै से, तिहि चीन्हिअत धूँका करके॥ आपा पर सब एक समान, तब हम पावा पद निरबाँण॥ कहै कबीर मन्य भया संतोष, मिले भगवंत गया दुख दोष॥167॥ अंतर गति अनि अनि बाँणी। गगन गुपत मधुकर मधु पीवत, सुगति सेस सिव जाँणीं॥टेक॥ त्रिगुण त्रिविध तलपत तिमरातन, तंती तत मिलानीं। भाग भरम भाइन भए भारी, बिधि बिरचि सुषि जाँणीं॥ बरन पवन अबरन बिधि पावक, अनल अमर मरै पाँणीं। रबि ससि सुभग रहे भरि सब घटि, सबद सुनि तिथि माँही॥ संकट सकति सकल सुख खोये, उदित मथित सब हारे। कहैं कबीर अगम पुर पाटण, प्रगटि पुरातन जारे॥168॥ लाधा है कछू लाधा है ताकि पारिष को न लहै।टेक॥ अबरन एक अकल अबिनासी, घटि घटि आप रहै॥टेक॥ तोल न मोल माप कछु नाहीं, गिणँती ग्याँन न होई। नाँ सो भारी नाँ सो हलका, ताकी पारिष लषै न कोई॥ जामैं हम सोई हम हा मैं, नीर मिले जल एक हूवा। यों जाँणैं तो कोई न मरिहैं, बिन जाँणैं थै बहुत मूवा॥ दास कबीर प्रेम रस पाया, पीवणहार न पाऊँ। बिधनाँ बचन पिछाँड़त नाहीं, कहु क्या काढ़ि दिखाऊँ॥169॥ हरि हिरदे रे अनत कत चाहौ, भूलै भरम दुनी कत बहौ॥टेक॥ जग परबोधि होत नर खाली, करते उदर उपाया। आत्म राम न चीन्हैं संतौ, क्यूँ रमि लै राम राया॥ लागै प्यास नीर सो पीवै, बिन लागै नहीं पीवै। खोजै तत मिलै अबिनासा, बिन खोजैं नहीं जीवै। कहै कबीर कठिन यह कारणीं जैसी षंडे धारा। उलटि चाल मिलै परब्रह्म कौं, सो सतगुरु हमारा॥170॥ रे मन बैठि कितै जिनि जासी, हिरदै सरोवर है अबिनासी॥टेक॥ काया मधे कोटि तीरथ, काया मधे कासी। माया मधे कवलापति, काया मधे बैकुंठबासी॥ उलटि पवन षटचक्र निवासी, तीरथराज गंगतट बासी॥ गगन मंडल रबि ससि दोइ तारा, उलती कूची लागि किंवारा। कहै कबीर भई उजियारा, पच मारि एक रह्यौ निनारा॥171॥ राम बिन जन्म मरन भयौ भारी। साधिक सिध सूर अरु सुरपति भ्रमत भ्रमत गए हारी॥टेक॥ व्यंद भाव म्रिग तत जंत्राक, सकल सुख सुखकारी। श्रवन सुनि रवि ससि सिव सिव, पलक पुरिष पल नारी॥ अंतर गगन होत अंतर धुँनि बिन सासनि है सोई। घोरत सबद सुमंगल सब घटि, ब्यंदत ब्यदै कोई॥ पाणीं पवन अवनि नभ पावक, तिहि सँग सदा बसेरा। कहै कबीर मन मन करि बेध्या, बहुरि न कीया फेरा॥172॥ नर देही बहुरि न पाइये, ताथैं हरषि हरषि गुँण गाइये॥टेक॥ जब मन नहीं तजै बिकारा, तौ क्यूँ तरिये भौ पारा॥ जे मन छाड़ै कुटिलाई, तब आइ मिलै राम राई। ज्यूँ जींमण त्यूँ मरणाँ, पछितावा काजु न करणाँ। जाँणि मरै जे कोई, तो बहुरि न मरणाँ होई॥ गुर बचनाँ मंझि समावै, तब राम नाम ल्यौ लावै॥ जब राम नाम ल्यौ लागा, तब भ्रम गया भौ भागा॥ ससिहर सूर मिलावा, तब अनहद बेन बजावा॥ जब अनहद बाजा बाजै, तब साँई संगि बिराजै॥ होत संत जनन के संगी, मन राचि रह्यो हरि रंगी॥ धरो चरन कवल बिसवासा, ज्यूँ होइ निरभे पदबासा॥ यहु काचा खेल न होई, जन षरतर खेलै कोई॥ जब षरतर खेल मचावा, तब गगनमंडल मठ छावा॥ चित चंचल निहचल कीजै, तब राम रसाइन पीजै॥ जब राम रसाइन पीया, तब काल मिट्या जन जीया॥ ज्यूँ दास कबीरा गावै, ताथैं मन को मन समझावै॥ मन ही मन समझाया, तब सतगुर मिलि सचु पाया॥173॥ अवधू अगनि जरै कै काठ। पूछौ पंडित जोग संन्यासी, सतगुर चीन्है बाट॥टेक॥ अगनि पवन मैं पवन कबन मैं, सबद गगन के पवाँन। निराकार प्रभु आदि निरंजन, कत रवंते भवनाँ॥ उतपति जाति कवन अँधियारा, धन बादल का बरिषा। प्रगट्यो बीच धरनि अति अधिकै, पारब्रह्म नहीं देखा॥ मरनाँ मरै न मरि सकै, मरनाँ दूरि न नेरा। द्वादश द्वादस सनमुख देखैं, आपैं आप अकेला॥ जे बाँध्या ते छुछंद मृकुता, बाँधनहारा बाँध्या। जे जाता ते कौंण पठाता, रहता ते किनि राख्या॥ अमृत समाँनाँ बिष मैं जानाँ, बिष मैं अमृत चाख्या॥ कहै कबीर बिचार बिचारी, तिल मैं मेर समाँनाँ। अनेक जनम का गुर गुर करता, सतगुर तब भेटाँनाँ॥174॥ अवधू ऐसा ग्यान बिचार, भेरैं चढ़े सु अधधर डूबे, निराधार भये पारं॥टेक॥ ऊघट चले सु नगरि पहुँचे, बाट चले ते लूटे। एक जेवड़ी सब लपटाँने, के बाँधे के छूटे॥ मंदिर पैसि च्हूँ दिसि भीगे, बाहरि रे ते सूका। सरि मारे ते सदा सुखारे, अनमारे ते दूषा॥ बिन नैनन के सब जग देखै, लोचन अछते अंधा। कहै कबीर कछु समछि परी है, यहु जग देख्या धंधा॥175॥ जन धंधा रे जग धंधा, सब लोगनि जाँणै अंधा। लोभ मोह जेवड़ी लपटानी बिनहीं गाँठि गह्यो फंदा॥टेक॥ ऊँचे टीबे मंद बसत है, ससा बसे जल माँहीं। परबत ऊपरि डूबि मूवा नर मूवा धूँ काँही॥ जलै नीर तिण षड़ उबरै, बैसंदर ले सींचै। ऊपरि मूल फूल बिन भीतरि, जिनि जान्यौ तिनि नीकै॥ कहै कबीर जाँनहीं जाँनै, अनजानत दुख भारी। हारी बाट बटाऊ जीत्या, जानत की बलिहारी॥176॥ अवधू ब्रह्म मतै घरि जाइ, काल्हि जू तेरी बँसरिया छीनी कहा चरावै गाइ॥टेक॥ तालि चुगें बन सीतर लउवा, पवति चरै सौरा मछा। बन की हिरनी कूवै बियानी, ससा फिरे अकासा॥ ऊँट मारि मैं चारै लावा, हस्ती तरंडबा देई। बबूर की डरियाँ बनसी लैहूँ, सींयरा भूँकि भूँकि षाई॥ आँब क बौरे चरहल करहल, निबिया छोलि छोलि खाई। मोरै आग निदाष दरी बल, कहै कबीर समझाई॥177॥ कहा करौं कैसे तिरौं, भौ जल अति भारी। तुम्ह सरणागति केसवा राखि राखि मुरारी॥टेक॥ घर तजि बन खंडि जाइए, खनि खनि खइए कंदा। बिषै बिकार न छूटई, ऐसा मन गंदा॥ बिष विषिया कौ बाँसनाँ, तजौं तजी नहीं जाई। अनेक जतन करि सुरझिहौं, फुनि फुनि उरझाई॥ जीव अछित जोबन गया, कछु कीया न नीका। यहु हीरा निरमोलिका, कौड़ी पर बीका॥ कहै कबीर सुनि केसवा, तूँ सकल बियापी। तुम्ह समाँनि दाता नहीं, हँम से नहीं पापी॥178॥ बाबा करहु कृपा जन मारगि, लावो ज्यूँ भव बंधन षूटै। जरा मरन दुख फेरि करँन सुख, जीव जनम यैं छूटै॥टेक॥ सतगुरु चरन लागि यों बिनऊँ, जीवनि कहाँ थैं पाई। जा कारनि हम उपजैं बिनसै क्यूँ न कहौ समझाई॥ आसा पास षंड नहीं पाँडे, यौं मन सुंनि न लूटै। आपा पर आनंद न बूझै, बिन अनभै क्यूँ छूटै॥ कह्याँ न उपजै नहीं जाणै, भाव अभाव बिहूनाँ उदै अस्त जहाँ मति बुधि नाहीं, सहजि राम ल्यौ लीनाँ॥ ज्यूँ बिंबहि प्रतिबिंब समाँनाँ, उदिक कुंभ बिगराँनाँ। कहै कबीर जाँनि भ्रम भागा, जीवहिं जीव समाँनाँ॥179॥ संत धोखा कासूँ कहिए। गुँण मैं निरगुँण निरगुँण मैं गुण है, बाट छाँड़ि क्यूँ बहिए॥टेक॥ अजरा अमर कथैं सब कोई, अला न कथणाँ जाई। नाति सरूप बरण नहीं जाकै, घटि घटि रह्यौ समाई॥ प्यंड ब्रह्मंड कथै सब कोई, वाकै आदि अरु अंत न होई। प्यंड ब्रह्मंड छाड़ि जे कथिए, कहैं कबीर हरि सोई॥180॥ पषा पषी कै पेषणै, सब जगत भुलानाँ, निरपष टोइ हरि भजै, सो साथ सयाँनाँ॥टेक॥ ज्यूँ पर सूँ षर बँधिया, यूँ बँधे सब लाई। जाकै आत्मद्रिष्टि है, साचा जन सोई॥ एक एक जिनि जाणियाँ, तिनहीं सच पाया। प्रेम प्रीति ल्यौ लीन मन, ते बहुरि न आया॥ पूरे की पूरी द्रिष्टि, पूरा करि देखै। कहै कबीर कछू समूझि न परई, या ककू बात अलेखै॥181॥ अजहूँ न संक्या गई तुम्हारी, नाँहि निसंक मिले बनवारी॥टेक॥ बहुत गरब गरबे संन्यासी, ब्रह्मचरित छूटी नहीं पासी। सुद्र मलैछ बसैं मन माँहीं, आतमराम सु चीन्हा नाहीं॥ संक्या डाँइणि बसै सरीरा, ता करणि राम रमैं कबीरा॥182॥ सब भूले हो पाषंडि रहे, तेरा बिरला जन कोई राम कहै॥टेक॥ होइ आरोगि बूँटी घसि लावै, गुर बिना जैसे भ्रमत फिरै। है हाजिर परतीति न आवै, सो कैसैं परताप धरै॥ ज्यूँ सुख त्यूँ दुख द्रिढ़ मन राखै एकादसी एकतार करै। द्वादसी भ्रमैं लष चौरासी, गर्भ बास आवै सदा मरै। सैं तैं तजै तजैं अपमारग, चारि बरन उपराति चढ़ै। ते नहीं डूबै पार तिरि लंघै, निरगुण मिटै धापै॥ तिनह उछाह सोक नहीं ब्यापै, कहै कबीर करता आपै॥183॥ तेरा जन एक आध है कोई। काम क्रोध अरु लोभ बिंबर्जित, हरिपद चीन्हैं सोई॥टेक॥ राजस ताँमस सातिग तीन्यूँ, ये सब मेरी माया। चौथे पद कौं जे जन चीन्हैं, तिनहिं परम पद पाया॥ असतुति निंद्या आसा छाँड़ै, तजै माँन अभिमानाँ। लोहा कंचन समि करि देखै, ते मूरति भगवानाँ॥ च्यंतै तौ माधौ च्यंतामणि, हरिपद रमैं उदासा। त्रिस्ना अरु अभिमाँन रहित है, कहै कबीर सो दासा॥184॥ टिप्पणी: ख-जे जन जानैं। लोहा कंचन सँम करि जानै। हरि नाँमैं दिन जाइ रे जाकौ, सोइ दिन लेखै, लाइ राम ताकौ॥टेक॥ हरि नाम मैं जन जागै, ताकै गोब्यंद साथी आगे॥ दीपक एक अभंगा, तामै सुर नर पड़ै पतंगा। ऊँच नींच सम सरिया, ताथैं जन कबीर निसतरिया॥185॥ जब थैं आतम तत्त बिचारा। तब निबर भया सबहिन थैं, काम क्रोध गहि डारा॥टेक॥ ब्यापक ब्रह्म सबनि मैं एकै, को पंडित को जोगी। राँणाँ राव कवन सूँ कहिये, कवन बैद को रोगी॥ इनमैं आप आप सबहिन मैं, आप आप सूँ खेलै। नाँनाँ भाँति घड़े सब भाँड़े, रूप धरे धरि मेलै॥ सोचि बिचारि सबै जग देख्या, निरगुण कोई न बतावै। कहै कबीर गुँगी अरु पंडित, मिलि लीला जस गावै॥186॥ तू माया रघुनाथ की, खेलड़ चढ़ी अहेड़े। चतुर चिकारे चुणि चुणि मारे, कोई न छोड़ा नेड़ै॥टेक॥ मुनियर पीर डिगंबर भारे, जतन करंता जोगी। जंगल महि के जंगम मारे, तूँरे फिरे बलवंतीं। वेद पढ़ंता बाँम्हण मारा, सेवा करताँ स्वामी॥ अरथ करंताँ मिसर पछाड़îा, तूँरै फिरे मैमंती। साषित कैं तू हरता करता, हरि भगतन कै चेरी। दास कबीर राम कै सग ज्यू लागी त्यूँ तोरी॥187॥ टिप्पणी: ख-तू माया जगनाथ की। जग सूँ प्रीति न कीजिए, सँमझि मन मेरा। स्वाद हेत लपटाइए, को निकसै सूरा॥टेक॥ एक कनक अरु कामनी, जग में दोइ फंदा। इनपै जौ न बँधावई, ताका मैं बंदा॥ देह धरे इन माँहि बास, कहु कैसे छूटै। सीव भये ते ऊबरे, जीवन ते लूटै॥ एक एक सूँ मिलि रह्या, तिनहीं सचु पाया। प्रेम मगन लैलीन मन, सो बहुरि न आया॥ कहै कबीर निहचल भया, निरभै पद पाया। संसा ता दिन का गया, सतगुर समझाया॥188॥ राम मोहि सतगुर मिलै अनेक कलानिधि, परम तस सुखदाई। काम अगनि तन जरत रही है, हरि रसि छिरकि बुझाई॥टेक॥ दरस परस तैं दुरमति नासी, दीन रटनि ल्यौ आई। पाषंड भरँम कपाट खोलि कै अनभै कथा सुनाई॥ यहु संसार गँभीर अधिक जल को गहि लावै तीरा। नाव जिहाज खेवइया साधू, उतरे दास कबीरा॥189॥ दिन दहुँ चहुँ कै कारणै, जैसे सैबल फूले। झूठी सूँ प्रीति लगाइ करि, साँचे कूँ भूले॥टेक॥ जो रस गा सो परहर्‌या, बिडराता प्यारे। आसति कहूँ न देखिहूँ, बिन नाँव तुम्हारे॥ साँची सगाई राम की, सुनि आतम मेरे। नरकि पड़े नर बापुड़े गाहक जस तेरे॥ हंस उड़îा चित चालिया, सगपन कछू नाहीं। माटी सूँ माटी मेलि करि, पीछैं अनखाँहीं॥ कहै कबीर जग अधला, कोई जन सारा। जिनि हरि मरण न जाँणिया, तिनि किया पसारा॥190॥ माधौ मैं ऐसा अपराधी, तेरी भगति होत नहीं साधी॥टेक॥ कारनि कवन जाइ जग जनम्याँ, जनमि कवन सचु पाया। भौ जल तिरण चरण च्यंतामणि, ता चित घड़ी न लाया॥ पर निंद्या पर धन पर दारा, पर अपवादैं सूरा। ताथैं आवागवन होइ फुनि फुनि, तां पर संग न चूरा॥ काम क्रोध माया मद मंछर, ए संतति हम माँही। दया धरम ग्यान गुर सेवा, ए प्रभु सुपिनै नाँहीं॥ तुम्ह कृपाल दयाल दमादर, भगत बछल भौ हारो। कहै कबीर धीर मति राखहु, सासति करौं हमारी॥191॥ टिप्पणी: ख-सो गति करहु हमारी। राम राइ कासनि करौं पुकारा, ऐसे तुम्ह साहित जाननिहारा॥टेक॥ इंद्री सबल निबल मैं माधौ, बहुत करै बरियाई। लै धरि जाँहि तहाँ दुख पइये बुधि बल कछू न बसाई॥ मैं बपरौ का अलप मूढ़ मति, कहा भयो जे लूटे। मुनि जन सती सिध अरु साधिक तेऊ न आपैं छूटे॥ जोगी जती तपा संन्यासी, अह निसि खोजैं काया। मैं मेरी करि बहुत बिगूते, बिषै बाघ जग खाया॥ ऐकत छाँड़ि जाँहिं घर घरनी, तिन भी बहुत उपाया। कहै कबीर कछु समझि न पाई, विषम तुम्हारी माया॥192॥ माधो चले बुनाँवन माहा, जग जीतै जाइ जुलाहा॥टेक॥ नव गज दस गज उननींसा, पुरिया एक तनाई। सान सूत दे गंड बहुतरि, पाट लगी अधिकाई॥ तुलह न तोली गजह न मापी, पहज न सेर अढ़ाई। अढ़ाई में जैं पाव घटे तो करकस करैं बजाई॥ दिन की बैठि खमस सूँ कीजै अरज लगी तहाँ ही। भागी पुरिया घर ही छाड़ी चले जुलाह रिसाई॥ छोछी नली काँमि नहीं आवै, लहटि रही उरझाई। छाँड़ि पसारा राम कहि बारै, कहै कबीर समझाई॥193॥ बाजैं जंत्रा बजावै गुँनी, राम नाँम बिन भूली दुनीं॥टेक॥ रजगुन सतगुन तमगुन तीन, पंच तत से साजया बींन॥ तीनि लोक पूरा पेखनाँ, नाँच नचावै एकै जनाँ। कहै कबीर संसा करि दूरि, त्रिभवननाथ रह्या भरपूरि॥194॥ जंत्री जंत्रा अनूपन बाजै, ताकौ सबद गगन मैं गाजै॥टेक॥ सुर की नालि सुरति का तूँबा, सतगुर साज बनाया। सुर नर गण गंध्रप ब्रह्मादिक गुर बिन तिनहुँ न पाया॥ जिभ्या ताँति नासिका करहीं, माया का मैण लगाया। गमाँ बतीस मोरणाँ पाँचौ, नीका साज बनाया॥ जंत्री जंत्रा तजै नहीं बाजै, तब बाजै जब बाबै। कहै कबीर सोई जन साँचाँ जंत्री सूँ प्रीति लगावै॥195॥ अवधू नादैं व्यंद गगन गाज सबद अनहद बोलै। अंतरि गति नहीं देखै नेड़ा, ढूंढ़त बन बन डोलै॥टेक॥ सालिगराम तजौं सिव पूजौं, सिर ब्रह्मा का काटौं। सायर फोड़ि नीर मुलकाऊँ, कुंवाँ सिला दे पाटौं॥ चंद सूर दोइ तूँबा करिहूँ, चित चेतिनि की डाँड़ी। सुषमन तंती बाजड़ लागी, इहि बिधि त्रिष्णाँ षाँडी॥ परम तत आधारी मेरे सिव नगरी धर मेरा। कालहि षंडूँ नीच बिहंडूँ, बहुरि न करिहूँ फेरा॥ जपौं न जाप हतौं नहीं गूगल पुस्तक ले न पढ़ाऊँ। कहै कबीर परम पद पाया, नहीं आऊँ नहीं जाऊँ॥196॥ बाबा पेड़ छाड़ि सब डाली लागै मूँढ़े जंत्रा अभागे। सोइ सोइ सब रैणि बिहाँणी, भोर भयो तब जागे॥टेक॥ देवलि जाँऊँ तौं देवी देखौं, तीरथि जाँऊँ त पाणीं। ओछी बुधि अगोचर बाँणी, नहीं परम गति जाँणीं॥ साथ पुकारैं समण्त नाँहीं, आन जन्म के सूने। बाश्ँधै ज्यूँ अरहट की टीडरि, आवत जात बिगूते॥ गुर बिन इहि जग कौन भरोसा, काके संग ह्नै रहिए। गानिका के घरि बेटाअ जाया, पिता नाँव किस कहिए॥ कहै कबीर यहु चित्र बिरोध्या, बूझी अंमृत बाँणी। खोजत खोजत सतगुर पाया, रहि गई आँवण जाँणीं॥197॥ भूली मालिनी, हे गोब्यंद जागतौ जगदेव, तूँ करै किसकी सेव॥टेक॥ भूली मालिन पाती तोड़ै, पाती पाती जीव। जाँ मूरति को पाती तोड़ै, सो मूरति नर जीव॥ टाँचणहारै टाँचिया, दै छाती ऊपरि पाव। लाडू लावण लापसी, पूजा चढ़ै अपार। पूजि पुजारी ले गया, दे मूरति कै मुहिं छार। पाती ब्रह्मा पुहपे बिष्णु, फूल फल महादेव। तीनि देवौ एक मूरति करै किसकी सेव। एक न भूला दोइ न भूला सब संसारा। एक न भूला दास कबीरा, जाकैं राम अधारा॥198॥ सेई मन समझि संमर्थ सरणाँगता, जाकी आदि अंति मधि कोई न पावै। कोटि कारिज सरैं दह गुँण सब जरै, नेक जो नाँव पनिब्रत आवै॥टेक॥ आकार की ओट आकार नहीं ऊँबरै, सिव बिरंचि अरु विष्णु ताँई। जास का सेवक तास कौ पइहैं, इष्ट कौ छाड़ि आगे न जाहीं॥ गुँण मई मूरति सेइ सब भेष मिलि, निरगुण निज रूप विश्राम नाहीं। अनेक जुग बंदिगी विविध प्रकार की, अंति गुँण का गुँणही समाहीं॥ पाँच तत तीनि गुण जुगति करि साँनिया, अष्ट बिन हेत नहीं क्रम आया। पाप पुन बीज अंकुर जाँमैं मरै, उपजि बिनसैं जेती सर्ब माया॥ क्रितम करता कहै परम पद क्यूँ लहै, भूलि मैं पड़ा लोक सारा। कहै कबीर राम रमिता भजै, कोई एक जन गये उतरि पारा॥199॥ राम राइ तेरी गति जाँणीं न जाई। जो जस करिहैं सो तस पइहै, राजा राम नियाई॥टेक॥ जैसीं कहैं करैं जो तैंसीं, तो तिरत न लागै बारा। कहता कहि गया सुनता सुणि गया, करणी कठिन अपारा। सुरही तिण चरि अंमृत सरवै, लेर भवंगहि पाई। अनेक जतन करि निग्रह कीजे, विषै बिकार न जाई॥ संत करै असंत की संगति, तासूँ कहा बसाई। कहैं कबीर ताके भ्रम छूटै, जे रहे राम ल्यौ लाई॥200॥ कथणीं बदणी सब जजाल, भाव भगति अरु राम निराल॥टेक॥ कथैं बदै सुणै सब कोई, कथें न होई कीयें होई॥ कूड़ी करणीं राम न पावै, साच टिकै निज रूप दिखावै। घट में अग्नि घर जल अवास, चेति बुझाइ कबीरा दास॥201॥

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