पद - राग केदारौ : भक्त कबीर जी

Pad Raag Kedaro : Bhakt Kabir Ji in Hindi


सार सुख पाइये रे, रंगि रमहु आत्माँराँम॥टेक॥ बनह बसे का कीजिये, जे मन नहीं तजै बिकार। घर बन तत समि जिनि किया ते बिरला संसार॥ का जटा भसम लेपन किये, कहा गुफा मैं बास। मन जीत्या जग जीतिये, जौ बिषया रहै उदास॥ सहज भाइ जे ऊपजै, ताका किसा माँन अभिमान। आपा पर समि चीनियैं, तब मिलै आतमां राम॥ कहै कबीर कृपा भई, गुर ग्यान कह्या समझाइ। हिरदै श्री हरि भेटियै, जे मन अनतै नहीं जाइ॥300॥ है हरि भजन कौ प्रवान। नींच पावैं ऊँच पदवी बाजते नीसान॥टेक॥ भजन कौ प्रताप ऐसो, तिरे जल पाषान। अधम भील अजाति गनिका, चढ़े जात बिवान॥ नव लख तारा चलै मंडल, चलै ससिहर भान। दास धू कौ अटल पदवी, राम को दीवाँन॥ निगत जाकी साखि बोलै, कहै संत सुजाँन। जन कबीर तेरी सरनि आयौ, राखि लेहु भगवाँन॥301॥ चलो सखी जाइये तहाँ, जहाँ गये पाइयै परमानंद॥टेक॥ यहु मन आमन धूमनाँ, मेरो तन छीजत नित जाइ। च्यंतामणि चित चोरियौ, ताथैं कछू न सुहाइ॥ सुँनि लखी सुपनै की गति ऐसी, हरि आए हम पास। सोवत ही जगाइया, जागत भए उदास॥ चलु सखी बिलम न कीजिये, जब लग सांस सरीर। मिलि रहिये जमनाथ सूँ, सूँ कहै दास कबीर॥302॥ मेरे तन मन लागी चोट सठोरी। बिसरे ग्यान बुधि सब नाठी, भई बिकल मति बौरी॥टेक॥ देह बदेह गलित गुन तीनूँ, चलत अचल भई ठौरी। इत उत चित कित द्वादस चितवत, यहु भई गुपत ठगौरी॥ सोई पै जानै पीर हमारी, जिहिं सरीर यहु ब्यौरी। जन कबीर ठग ठग्यौ है बापुरौ, सुंनि सँमानी त्यौरी॥303॥ मेरी अँषियाँ जानि सुजान भई। देवर भरम ससुर संग तजि करि, हरि पीव तहाँ गई॥टेक॥ बालपनै के करम हमारे काटे जानि दई। बाँह पकरि करि कृपा कीन्हीं, आप समीप लई॥ पानी की बूँद थैं जिनि प्यंड साज्या, तासंगि अधिक करई। दास कबीर पल प्रेम न घटई, दिन दिन प्रीति नई॥304॥ हो बलियां कब देखोगी तोहि। अह निस आतुर दरसन कारनि, ऐसी ब्यापै मोहि॥टेक॥ नैन हमारे तुम्ह कूँ चांहै, रती न मांनै हारि। बिरह अगनि तन अधिक जरावै ऐसी लेहु बिचारि॥ सुनहुं हमारी दादि गुसांई, अब जिन करहुं वधीर। तुम्ह धीरज मैं आतुर स्वामी, काचै भांडै नीर॥ बहुत दिनन के बिछुरै माधौ, मन नहीं बाँधे धीर। देह छतां तुम्ह मिलहु कृपा करि, आरतिवंत कबीर॥305॥ वे दिन कब आवैगे भाइ। जा कारनि हम देह धरी है, मिलिबौ अंगि लगाइ॥टेक॥ हौं जाँनूं जे हिल मिलि खेलूँ, तन मन प्राँन समाइ। या काँमनाँ करौ परपूरन, समरथ हौ राम राइ॥ मांहि उदासी साधौ चाहे, चितवन रैनि बिहाइ। सेज हमारी स्यंध भई है, जब सोऊँ तब खाइ। यह अरदास दास की सुनिये, तन को तपति बुझाइ॥ कहैं कबीर मिलै जे साँई, मिलि करि मंगल गाइ॥306॥ बाल्हा आव हमारे गेहु रे, तुम्ह बिन दुखिया देह रे॥टेक॥ सब को कहै तुम्हारी नारी, मोकौ इहै अदेह रे। एकमेक ह्नै सेज न सोवै, तब लग कैसा नेह रे॥ आन न भावै नींद न आवै, ग्रिह बन धरै न धीर रे। ज्यूँ कामी कौ काम पियारा, ज्यूँ प्यासे कूँ नीर रे॥ है कोई ऐसा परउपगारी, हरि सूँ कहै सुनाइ रे॥ ऐसे हाल कबीर भये हैं, बिन देखे जीव जाइ रे॥307॥ माधौ कब करिहौ दाया। काम क्रोध अहंकार ब्यापै, नां छूटे माया॥टेक॥ उतपति ब्यंद भयौ जा दिन थें, कबहूँ सच नहीं पायो। पंच चोर सगि लाइ दिए हैं, दन संगि जनम गँवायो। तन मन डस्यौ भुजंग भामिनी, लहरी वार न पारा। सो गारडू मिल्यो नहीं कबहूँ, पसरो बिष बिकराला। कहै कबीर यहु कासूँ कहिये, यह दुख कोई न जानै। देहु दीदार बिकार दूरि करि, तब मेरा मन मांनै॥308॥ टिप्पणी: ख-लहरी अंत न पारा। मैं बन भूला तूँ समझाइ। चित चंचल रहै न अटक्यौ, बिषै बन कूँ जाइ॥टेक॥ संसार सागर मांहि भूल्यो, थक्यो करत उपाइ। मोहनी माया बाघनी थैं, राखि लै राम राइ। गोपाल सुनि एक बीनती, सुमति तन ठहराइ। कहै कबीर यहु काम रिप है, मारै सबकूँ ढाइ॥309॥ भगति बिन भौजलि डूबत है रे। बोहिथ छाड़ि बेसि करि डूंडै, बहुतक दुख सहै रे॥टेक॥ बार बार जम पै डहकावै, हरि को ह्नै न रहे रे। चोरी के बालक की नाई, कासूँ बाप कहे रे॥ नलिनी के सुवटा की नांई, जग सूँ राचि रहे रे। बंसा अपनि बंस कुल निकसै, आपहिं आप दहे रे॥ खेवट बिनां कवन भौ तारै, कैसे पार गहे रे। दास कबीर कहै समझावै, हरि की कथा जीवै रे॥ रांम कौ नाँव अधिक रस मीठौं, बारंबार पीवै रे॥310॥ चलत कत टेढौं टेढौं रे। नउँ दुवार नरक धरि मूँदे, तू दुरगंधि को बैढी रे॥ जे जारे तौ होई भसमतन, तामे कहाँ भलाई॥ सूकर स्वाँन काग कौ भखिन, रहित किरम जल खाई। फूटे नैन हिरदै नाहीं सूझै, मति एकै नहीं जाँनी॥ माया मोह ममिता सूँ बाँध्यो, बूडि मूवो बिन पाँनी॥ बारू के घरवा मैं बैठी, चेतन नहीं अयाँनाँ। कहै कबीर एक राम भगति बिन, बूड़े बहुत सयाना॥311॥ अरे परदेसी पीव पिछाँनि। कहा भयौ तोकौं समझि न परई, लागी कैसी बांनि॥टेक॥ भोमि बिडाणी मैं कहा रातौ, कहा कियो कहि मोहि। लाहै कारनि मूल गमावै, समझावत हूँ तोहि॥ निस दिन तोहि क्यूँ नींद परत है, चितवत नांही तोहि॥ जम से बैरी सिर परि ठाढे, पर हथि कहाँ बिकाइ। झूठे परपंच मैं कहा लगौ, ऊंठे नाँही चालि॥ कहै कबीर कछू बिलम न कीजै, कौने देखी काल्हि॥312॥ भयौ रे मन पहुंनड़ौ दिन चारि। आजिक काल्हिक मांहि चलौगो, ले किन हाथ सँवारि॥टेक॥ सौंज पराई जिनि अपणावै, ऐसी सुणि किन लेह। यहु संसार इसी रे प्राँणी, जैसी धूँवरि मेह। तन धन जीवन अंजुरी कौ पानी, जात न लागै बार। सैवल के फूलन परि फूल्यो, गरब्यो कहाँ गँवार॥ खोटी खाटै खरा न लीया, कछू न जाँनी साटि। कहै कबीर कछू बनिज न कीयौ, आयौ थौ इहि हाटि॥313॥ मन रे राम नामहिं जांनि। थरहरी थूँनी परो मंदिर सूतौ खूँटी तानि॥टेक॥ सैन तेरी कोई न समझै, जीभ पकरी आंनि। पाँच गज दोवटी माँगी, चूँन लीयो साँनि॥ बैसदंर पोषरी हांडी, चल्यौ लादि पलानि। भाई बंध बोलइ बहु रे, काज कीनौ आँनि। कहै कबीर या मैं झूठ नाँहीं, छाँड़ि जीय की बाँनि। राम नाम निसंक भजि रे, न करि कुल की काँनि॥314॥ प्राणी लाल औसर चल्यौ रे बजाइ। मुठी एक मठिया मुठि एक कठिया, संग काहू कै न जाइ॥टेक॥ देहली लग तेरी मिहरी सगी रे, फलसा लग सगी माइ। मड़हट लूँ सब लोग कुटुंबी, हंस अकेलो जाइ। कहाँ वे लौग कहाँ पुर पाटण, बहुरि न मिलबौ आइ। कहै कबीर जगनाथ भजहु रे, जन्म अकारथ जाइ॥315॥ राम गति पार न पावै कोई। च्यंतामणि प्रभु निकटि छाड़ि करि, भ्रंमि मति बुधि खोई॥टेक॥ तीरथ बरत जपै तप करि करि, बहुत भाँति हरि सोधै। सकति सुहाग कहौ क्यूँ पावे, अछता कंत बिरोधै॥ नारी पुरिष बसै इक संगा, दिन दिन जाइ अबोलै। तजि अभिमान मिलै नहीं पीव कूँ, ढूँढत बन बन डोलै॥ कहै कबीर हरि अकथ कथा है, बिरला कोई जानै। प्रेम प्रीति बेधी अंतर गति, कहूँ काहि को मानै॥316॥ राम बिनां संसार धंध कुहेरा, सिरि प्रगट्या जम का फेरा॥टेक॥ देव पूजि पूजि हिंदू मूये, तुरुक मूये हज जाई। जटा बाँधि बाँधि जोगी मूये, कापड़ी के दारौ पाई॥ कवि कवीवै कविता मूये, कापड़ी के दारौ जाई। केस लूंचि लूंचि मूये बरतिया, इनमें किनहुँ न पाई॥ धन संचते राजा मूये अरु ले कंचन भारी। बेद पढे़ पढ़े पंडित मूये, रूप भूले मूई नारी। जे नर जोग जुगति करि जाँनै, खोजै आप सरीरा। तिनकूँ मुकति का संसा नाहीं, कहत जुलाह कबीरा॥317॥ कहूँ रे जे कहिबे की होइ। नाँ को जाने नाँ को मानै ताथें अचिरज मोहि॥टेक॥ अपने अपने रंन के राजा, मांनत नाहीं कोइ। अति अभिमान लोभ के घाले, अपनपौ खोइ॥ मैं मेरी करि यहु तन खोयो, समझत नहीं गँवार। भौजलि अधफर थाकि रहे हैं, बूड़े बहुत अपार॥ मोहि आग्या दई दयाल दया करि, काहू कूँ समझाइ। कहै कबीर मैं कहि कहि हार्यो, अब मोहिं दोष न लाइ॥318॥ एक कोस बन मिलांन न मेला। बहुतक भाँति करै फुरमाइस, है असवार अेकला॥टेक॥ जोरत कटक जु धरत सब गढ़, करतब झेली झेला। जोरि कटक गढ़ तोरि पातसाह, खेली चल्यो एक खेला॥ कूंच मुकांम जोग के घर मैं, कछू एक दिवस खटांनां। आसन राखि बिभूति साखि दे, फुनि ले माटी उडांना॥ या जोगी की जुगति जू जांनै, सो सतगुर का चेला। कहै कबीर उन गुर की कृपा थैं, तिनि सब भरम पछेला॥319॥

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