पद - राग भैरूँ : भक्त कबीर जी

Pad Raag Bhairun (Bhairav) : Bhakt Kabir Ji in Hindi


ऐसा ध्यान धरौ नरहरी सबद अनाहद च्यंत करी॥टेक॥ पहलो खोजौ पंचे बाइ, बाइ ब्यंद ले गगन समाइ। गगन जोति तहाँ त्रिकुटी संधि, रबि ससि पवनां मेलौ बंधि॥ मन थिर होइ न कवल प्रकासै, कवला माँहि निरंजन बासै। सतगुरु संपट खोलि दिखावै, निगुरा होइ तो कहाँ बतावै। सहज लछिन ले तजो उपाधि, आसण दिढ निद्रा पुनि साधि॥ पुहुप पत्रा जहाँ हीरा मणीं, कहै कबीर तहाँ त्रिभुवन धणीं॥325॥ इहि बिधि सेविये श्री नरहरी, मन ही दुविध्या मन परहरी॥टेक॥ जहाँ नहीं तहाँ कछू जाँणि, जहाँ नहीं तहाँ लेहु पछाँणि॥ नांही देखि न जइये भागि, जहाँ नहीं तहाँ रहिये लागि॥ मन मंजन करि दसवैं द्वारि, गंगा जमुना सधि बिचारि॥ नादहि ब्यंद कि ब्यंदहि नाद, नादहिं ब्यंद मिलै गोब्यंद। देवी न देवा पूजा नहीं जाप, भाइ न बंध माइ नहीं बाप। गुणातीत जस निरगुन आप, भ्रम जेवड़ो जन कीया साप॥ तन नांही कब जब मन नांही, मन परतीति ब्रह्म मन मांहि। परहरि बकुला ग्रहि गुन डार, निरखि देखि निधि वार न पार॥ कहै कबीर गुरपरम गियांन, सुनि मंडल मैं धरो धियांन॥ प्यंडं परे जीव जैहैं जहाँ, जीवत ही ले राखी तहाँ॥326॥ अलह अलख निरंजन देव, किहि बिधि करौं तुम्हारी सेव॥टेक॥ विश्न सोई जाको विस्तार, सोई कृस्न जिनि कीयौ संसार। गोब्यंद ते ब्रह्मंडहि नहै, सोई राम जे जुगि जुगि रहै॥ अलह सोई जिनि उमति उपाई, दस दर खोलै सोई खुदाई। लख चौरासी रब परवरै, सोई करीब जे एती करै। गोरख सोई ग्यांन गमि गहे, महादेव सोई मन को लहै॥ सिध सोई जो साधै इति, नाय सोई जो त्रिभवन जती। सिध साधू पैकंबर हूवा, जपै सू एक भेष है जूवा। अपरंपार की नांउ अनंत, कहै कबीर सोई भगवंत॥327॥ तहाँ जौ राम नाम ल्यौ लागै, तो जरा मरण छूटै भ्रम भागै॥टेक॥ अगम निगम गढ़ रचि ले अवास, तहुवां जोलि करै परकास। चमकै बिजुरी तार अनंत, तहाँ प्रभु बैठे कवलाकंत॥ अखंड मंडित मंडित भंड, त्रि स्नांन करै त्रीखंड॥ अगम अगोचर अभिअंतश, ताकौ पार न पावै धरणीधरा। अरध उरध बिचि लाइ ले अकास, तहुंवा जोति करै परकास। टारौं टरै न आवै जाइ, सहज सुंनि मैं रह्यौ समाइ। अबरन बरन स्यांम नहीं पीत, होहू जाइ न गावै गीत। अनहद सबद उठे झणकार, तहाँ प्रभु बैठे समरथ सार। कदली पुहुप दीप परकास, रिदा पंकज मैं लिया निवास। द्वादस दल अभिअंतरि स्यंत, तहाँ प्रभु पाइसि करिलै च्यंत॥ अमलिन मलिन घाम नहीं छांहां, दिवस न राति नहीं हे ताहाँ। तहाँ न उगै सूर न चंद, आदि निरंजन करै अनंद॥ ब्रह्मंडे सो प्यंडे जांन, मानसरोवर करि असनांन। सोहं हंसा ताकौ जाप, ताहि न लिपै पुन्य न पाप॥ काया मांहै जांनै सोई, जो बोलै सो आपै होई। जोति मांहि जे मन थिर करै, कहै कबीर सो प्रांणी तिरै॥328॥ एक अचंभा ऐसा भया, करणीं थैं कारण मिटि गया॥टेक॥ करणी किया करम का नास, पावक माँहि पुहुप प्रकास। पुहुप मांहि पावक प्रजरै, पाप पुंन दोउ भ्रम टरै॥ प्रगटी बास बासना धोइ, कुल प्रगट्यौ कुल घाल्यौ खोइ। उपजी च्यंत च्यंत मिटि गई, भौ भ्रम भागा ऐसे भई। उलटी गंग मेर कूँ चली, धरती उलटि अकासहिं मिली॥ दास कबीर तत ऐसी कहै, ससिहर उलटि राह की गहै॥329॥ है हजूरि क्या दूर बतावै, दुंदर बाँधे सुंदर पावै॥टेक॥ सो मुलनां जो मनसूँ लरै, अह निसि काल चक्र सूँ भिरै। काल चक्र का मरदै मांन, तां मुलनां कूँ सदा सलांम॥ काजी सो जो काया बिचारे, अहनिसि ब्रह्म अगनि प्रजारै। सुप्पनै बिंद न देई झरनां, ता काजी कूँ जुरा न मरणां॥ सो सुलितान जु द्वै सुर तानै, बाहरि जाता भीतरि आनै। गगन मंडल मैं लसकर करै, सो सुलितान छत्रा सिरि धरै॥ जोगी गोरख गोरख करै, हिंदू राम नाम उच्चरै। मुसलमान कहै एक खुदाइ, कबीरा को स्वांमी घटि घटि रह्यो समाइ॥330॥ आऊँगा न जाऊँगा, न मरूँगा न जीऊँगा। गुर के सबद मैं रमि रमि रहूँगा॥टेक॥ आप कटोरा आपै थारी, आपै पुरिखा आपै नारी। आप सदाफल आपै नींबू, आपै मुसलमान आपै हिंदू॥ आपै मछकछ आपै जाल, आपै झींवर आपै काल। कहै कबीर हम नांही रे नांही, नां हम जीवत न मूवले मांही॥331॥ हम सब मांहि सकल हम मांहीं, हम थैं और दूसरा नाहीं॥टेक॥ तीनि लोक मैं हमारा पसारा, आवागमन सब खेल हमारा। खट दरसन कहियत हम मेखा, हमहीं अतीत रूप नहीं रेखा। हमहीं आप कबीर कहावा, हमहीं अपनां आप लखावा॥332॥ सो धन मेरे हरि का नांउ, गाँठि न बाँधौं बेचि न खांउं॥टेक॥ नांउ मेरे खेती नांउ मेरे बारी, भगति करौं मैं सरनि तुम्हारी। नांउ मेरे सेवा नांउ मेरे पूजा, तुम्ह बिन और न जानौ दूजा॥ नांउ मेरे बंधव नांव मेरे भाई, अंत कि बेरियां नाँव सहाई। नांउ मेरे निरधन ज्यूँ निधि पाई, कहैं कबीर जैसे रंक मिठाई॥333॥ अब हरि अपनो करि लीनौं, प्रेम भगति मेरौ मन भीनौं॥टेक॥ जरै सरीर अंग नहीं मोरौ, प्रान जाइ तो नेह तोरौ। च्यंतामणि क्यूँ पाइए ठोली, मन दे राम लियौ निरमोली॥ ब्रह्मा खोजत जनम गवायौ, सोई राम घट भीतरि पायो। कहै कबीर छूटी सब आसा, मिल्यो राम उपज्यौ बिसवासा॥334॥ लोग कहै गोबरधनधारी, ताकौ मोहिं अचंभो भारी॥टेक॥ अष्ट कुली परबत जाके पग की रैना, सातौ सायर अंजन नैना॥ ए उपभां हरि किती एक ओपै, अनेक भेर नख उपारि रोपै॥ धरनि अकास अधर जिनि राखी, ताकी मुगधा कहै न साखी। सिव बिरंचि नारद जस गावै, कहै कबीर वाको पार न पावै॥335॥ राम निरंजन न्यारा रे, अंजन सकल पसारा रे॥टेक॥ अंजन उतपति वो उंकार, अंजन मांड्या सब बिस्तार। अंजन ब्रह्मा शंकर ईद, अंजन गोपी संगि गोब्यंद॥ अंजन बाणी अंजन बेद, अंजन कीया नांनां भेद। अंजन विद्या पाठ पुरांन, अंजन फोकट कथाहिं गियांन॥ अंजन पाती अंजन देव, अंजन की करै अंजन सेव॥ अंजन नाचै अंजन गावै, अंजन भेष अनंत दिखावै। अंजन कहौ कहाँ लग केता, दांन पुनि तप तीरथ जेता॥ कहै कबीर कोई बिरला जागै, अंजन छाड़ि निरंजन लागै॥336॥ अंजन अलप निरंजन सार, यहै चीन्हि नर करहूँ बिचार॥टेक॥ अंजन उतपति बरतनि लोई, बिना निरंजन मुक्ति न होई। अंजन आवै अंजन जाइ, निरंजन सब घट रह्यौ समाइ। जोग ग्यांन तप सबै बिकार, कहै कबीर मेरे राम अधार॥337॥ एक निरंजन अलह मेरा, हिंदु तुरक दहू नहीं नेरा॥टेक॥ राखूँ ब्रत न मरहम जांनां, तिसही सुमिरूँ जो रहै निदांनां। पूजा करूँ न निमाज गुजारूँ, एक निराकार हिरदै नमसकारूँ॥ नां हज जांउं न तीरथ पूजा, एक पिछांणा तौ का दूजा। कहै कबीर भरम सब भागा, एक निरंजन सूँ मन लागा॥338॥ तहाँ मुझ गरीब की को गुदरावै, मजलिस दूरि महल को पावै॥टेक॥ सत्तरि सहस सलार है जाके, असी लाख पैकंबर ताके। सेख जु कहिय सहस अठासी, छपन कोड़ि खलिबे खासी। कोड़ि तैतीसूँ अरु खिलखांनां, चौरासी लख फिरै दिवांना॥ बाबा आदम पै नजरि दिलाई, नबी भिस्त घनेरी पाई। तुम्ह साहिब हम कहा भिखारी, देत जबाब होत बजगारी॥ जब कबीर तेरी पनह समांनां, भिस्त नजीक राखि रहिमांनां॥339॥ जौ जाचौं तो केवल राम, आंन देव सूँ नांहीं काम॥टेक॥ जाकै सूरिज कोटि करै परकास, कोटि महादेव गिरि कबिलास। ब्रह्मा कोटि बेद ऊचरै, दुर्गा कोटि जाकै मरदन करैं॥ कोटि चंद्रमां गहै चिराक, सुर तेतीसूँ जीमैं पाक। नौग्रह कोटि ठाढे दरबार, धरमराइ पौली प्रतिहार॥ कोटि कुबेर जाकै भरें भंडार, लक्ष्मी कोटि करैं सिंगार। कोटि पाप पुंनि ब्यौहरै, इंद्र कोटि जाकी सेवा करें। जगि कोटि जाकै दरबार, गंध्रप कोटि करै जैकार। विद्या कोटि सबै गुण कहै, पारब्रह्म कौ पार न लहै॥ बासिग कोटि सेज बिसतरै, पवन कोटि चौबारे फिरै। कोटि समुद्र जाकै पणिहारा, रोमावली अठारहु भारा॥ असंखि कोटि जाकै जमावली, रावण सेन्यां जाथैं चली॥ सहसवांह के हरे परांण, जरजोधन घाल्यौ खै मान। बावन कोटि जाके कुटवाल, नगरी नगरी क्षेत्रापाल॥ लट छूटी खेलैं बिकराल, अनंत कला नटवर गोपाल। कंद्रप कोटि जाकै लांवन करै, घट घट भीतरी मनसा हरै। दास कबीर भजि सारंगपान, देह अभै पद मांगौ दान॥340॥ मन न डिगै ताथैं तन न डराई, केवल राम रहे ल्यौ लाई॥टेक॥ अति अथाह जल गहर गंभीर, बाँधि जँजीर जलि बोरे हैं कबीर। जल की तरंग उठि कटि है जंजीर, हरि सुमिरन तट बैठे हैं कबीर॥ कहै कबीर मेरे संग न साथ, जल थल में राखै जगनाथ॥341॥ भलै नीदौ भलै नीदौ भले नीदौ लोग, तनौ मन राम पियारे जोग॥टेक॥ मैं बौरी मेरे राम भरतार, ता कारंनि रचि करौ स्यंगार। जैसे धुबिवा रज मल धोवै, हर तप रत सब निंदक खोवै॥ न्यंदक मेरे माई बाप, जन्म जन्म के काटे पाप। न्यंदक, मेरे प्रान अधार, बिन बेगारी चलावै भार॥ कहै कबीर न्यंदक बलिहारी, आप रहै जन पार उतारी॥342॥ जो मैं बौरा तौ राम तोरा, लोग मरम का जांनै मोरा॥टेक॥ माला तिलक पहरि मन मानां, लोगनि राम खिलौनां जांना। थोरी भगति बहुत अहंकारा, ऐसे भगता मिलै अपारा॥ लोग कहै कबीर बीराना, कबीरा कौ भरत रांम भल जाना॥343॥ हरिजन हंस दसा लिये डोलै, निर्मल नांव चवै जस बोलै॥टेक॥ मानसरोवर तट के बासी, राम चरन चित आंन उदासी। मुकताहल बिन चंच न लावै, मौंनि गहे कै हरि गुन गांवै॥ कउवा कुबधि निकट नहीं आवै, सो हंसा निज दरसन पावै॥ कहै कबीर सोई जन तेरा, खीर नीर का करै नबेरा॥344॥ सति राम सतगुर की सेवा, पूजहु राम निरंजन देवा॥टेक॥ जल कै मंजन्य जो गति होई, मीनां नित ही न्हावै। जैसा मींनां तैसा नरा, फिरि फिरि जोनी आवै॥ मन मैं मैला तीर्थ न्हावै, तिनि बैकुंठ न जांना। पाखंङ करि करि जगत भुलांनां, नांहिन राम अयांनां॥ हिरदे कठोर मरै बनारसि, नरक न बंच्या जाई। हरि कौ दास मरै जे मगहरि, सेन्यां सकल तिराई॥ पाठ पुरान बेद नहीं सुमिरत, तहाँ बसै निरकारा। कहै कबीर एक ही ध्यावो, बावलिया संसारा॥345॥ क्या ह्नै तेरे न्हाई धाँई, आतम रांम न चीन्हा सोंई॥टेक॥ क्या घट उपरि मंजन कीयै, भीतरि मैल अपारा॥ राम नाम बिन नरक न छूटै, जे धोवै सौ बारा॥ का नट भेष भगवां बस्तर, भसम लगावै लोई। ज्यूँ दादुर सुरसरी जल भीतरि हरि बिन मुकति न होई॥ परिहरि काम राम कहि बौरे सुनि सिख बंधू मोरी। हरि कौ नांव अभयपददाता कहै कबीरा कोरी॥346॥ पांणी थे प्रकट भई चतुराई गुर प्रसादि परम निधि पाई॥टेक॥ इक पांणी वांणी कूँ धोवै एक पांणी पांणी कूँ मोहै। पांणी ऊँचा पांणी नीचां, ता पांणी का लीजै सींचा॥ इसके पांणी थैं प्यंड उपाया, दास कबीर राम गुण गाया॥347॥ भजि गोब्यंद भूमि जिनि जाहु, मनिषा जनम कौ एही लाहु॥टेक॥ गुर सेवा करि भगति कमाई, जौ तै मनिषा देही पाई। या देही कूँ लौचै देवा, सो देही करि हरि कि सेवा॥ जब लग जरा रोग नहीं आया, तब लग काल ग्रसै नहिं काया। जब लग हींण पड़े नहीं वाणीं, तब लग भजि मन सांरंगपाणीं॥ अब नहीं भजसि भजसि कब भाई, आवेगा अंत भज्यौ जाई॥ जे कछू करौ सोई तत सार फिरि पछितावोगे बार न पार॥ सेवग सो जो लागे सेवा, तिनहीं पाया निरंजन देवा। गुर मिलि जिनि के खुले कपाट, बहुरि न आवै जोनी बाट॥ यहु तेरा औसर यहु तरि बार, घट ही भीतरि सोचि बिचारि। कहै कबीर जीति भावै हारि बहु बिधि कह्यौ पुकारि पुकारि॥348॥ ऐसा ज्ञान बिचारि रे मनां, हरि किन सुमिरै दुख भंजना॥टेक॥ जब लग मैं में मेरी करै, तब लग काज एक नहीं सरै। जब यहु मैं मेरी मिटि जाइ, तब हरि काज सँवारै आइ। जब स्यंध रहै बन मांहि, तब लग यहु बन फूलै नांहि। उलटि स्याल स्यंध कूँ खाइ, तब यहु फूलै सब बनराई॥ जीत्या डूबै हार्‌या तिरै, गुर प्रसाद जीवत ही मरै। दास कबीर कहै समझाइ, केवल राम रहौ ल्यो लाइ॥349॥ जागि रे जीव जागि रे। चोरन को डर बात कहत हैं, उठि उठि पहरै लागि रे॥टेक॥ ररा करि टोप समां करि बखतर, ग्यान रतन करि ताग रे। ऐसै जौ अजराइल मारै, मस्तकि आवै भाग रे॥ ऐसी जागणी जे को जागै, तौ हरि देइ सुहाग रे। कहै कबीर जग्या ही चाहिए, क्या गृह क्या बैराग रे॥350॥ जागहु रे नर सोवहु कहा, जम बटपारै रूँधे पहा॥टेक॥ जागि थेति कछू करौ उपाई, मोआ बैरी है जमराई। सेत काग आये बन मांहि, अजहु रे नर चेतै नांहि॥ कहै कबीर तबै नर जागै, जंम का डंड मूंड मैं लागै॥351॥ जाग्या रे नर नींद नसाई, चित चेत्यो च्यंतामणि पाई॥टेक॥ सोवत सोवत बहुत दिन बीते, जन जाग्या तसकर गये रीते। जन जागे का ऐमहि नांण, बिष से लागे वेद पुराण। कहै कबीर अब सोवो नांहि, राम रतन पाया घट मांहि॥352॥ संतनि एक अहेरा लाधा, मिर्गनि खेत सबति का खाधा॥टेक॥ या जंगल मैं पाँचौ मृगा, एई खेत सबनि का चरिगा। पाराधीपनौ जे साधै कोई, अध खाधा सा राखै सोई॥ कहै कबीर जो पंचौ मारै, आप तिरै और कूं तारै॥353॥ हरि कौ बिलोवनो विलोइ मेरी माई, ऐसै बिलोइ जैसे तत न जाई॥टेक॥ तन करि मटकी मननि बिलोइ, ता मटकी मैं पवन समोइ। इला पयंगुला सुषमन नारी, बेगि विलोइ ठाढी छलिहारी॥ कहै कबीर गुजरी बौरांनी, मटकी फूटी जोतिं समानी॥354॥ आसण पवन कियै दिढ़ रहु रे, मन का मैल छाड़ि दे बौरे॥टेक॥ क्या सींगी मुद्रा चमकाये, क्या बिभूति सब अंगि लगाये॥ सो हिंदू सो मुसलमान, जिसका दुरस रहै ईमांन॥ सो ब्रह्मा जो कथै ब्रह्म गियान, काजी सो जानै रहिमान॥ कहै कबीर कछू आन न कीजै, राम नाम जपि लाहा दीजै॥355॥ ताथैं, कहिये लोकोचार, बेद कतेब कथैं ब्योहार॥टेक॥ जारि बारि करि आवै देहा, मूंवां पीछै प्रीति सनेहा। जीवन पित्राहि गारहि डंगा, मूंवां पित्रा ले घालैं गंगा॥ जीवत पित्रा कूँ अन न ख्वावै, मूंवां पीछे ष्यंड भरावै॥ जीवत पित्रा कूँ बोलै अपराध, मूंवां पीछे देहि सराध॥ कहि कबीर मोहि अचिरज आवै, कउवा खाइ पित्रा क्यूँ पावै॥356॥ बाप राम सुनि बीनती मोरी, तुम्ह सूँ प्रगट लोगन सूँ चोरी॥टेक॥ पहलै काम मुगध मति कीया, ता भै कंपै मेरा जीया। राम राइ मेरा कह्या सुनीजै, पहले बकसि अब लेखा लीजै॥ कहै कबीर बाप राम राया, कबहुं सरनि तुम्हारी आया॥357॥ अजहूँ बीच कैसे दरसन तोरा, बिन दरसन मन मांनै, क्यूँ मोरा॥टेक॥ हमहिं कुसेवग क्या तुम्हहिं अजांनां, दुइ मैं दोस कहौ किन रांमां। तुम्ह कहियत त्रिभवन पति राजा, मन बंछित सब पुरवन काजा॥ कहै कबीर हरि दरस दिखावौ, हमहिं बुलावौ कै तुम्ह चलि आवौ॥358॥ क्यूँ लीजै गड़ बंका आई, दोवग काट अरू तेवड़ खाई॥टेक॥ काम किवाड़ दुख सुख दरवानी, पाप पुंनि दरवाजा। क्रोध प्रधान लोभ बड़ दुंदर, मन मैं बासी राजा॥ स्वाद सनाह टोप ममिता का, कुबधि कामांण चढ़ाई। त्रिसना तीर रहे तन भीतरि, सुबधि हाथि नहीं आई। प्रेम पलीता सुरति नालि करि, गोला ग्यान चलाया। ब्रह्म अग्नि ले दियां पलीता, एकैं चोट ढहाया। सत संतोष लै लरनै लागे, तोरै दस दरवाजा॥ साध संगति अरु गुर की कृपा थैं, पकरो गढ़ को राजा। भगवंत शीर सकति सुमिरण की, काटि काल की पासी। दास कबीर चढ़े गढ़ ऊपरि, राज दियौ अबिनासी॥359॥ रैनि गई मति दिन भी जाइ, भवर उड़े बन बैठे आइ॥टेक॥ कांचै करवै रहै न पानी, हंस उड़ा काया कुमिलांनी। थरहर थरहर कंपै जीव, नां जांनूं का करिहै पीव। कऊवा उड़ावत मेरी बहिंयां पिरांनी, कहै कबीर मेरी कथा सिरांनी।॥360॥ काहे कूँ बनाऊँ परिहै टाटी, का जांनूं कहाँ परिहै माटी॥टेक॥ काहे कूँ मंदिर महल चिणांऊँ, मुवां पीछै घड़ी एक रहण न पाऊँ॥ कहो कूँ छाऊँ ऊँच ऊँचेरा, साढ़े तीनि हाथ घर मेरा॥ कहै कबीर नर गरब न कीजै, जेता तन तेती भुंइ लीजै॥361॥

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