पद - राग आसावरी : भक्त कबीर जी

Pad Raag Asavari : Bhakt Kabir Ji in Hindi


ऐसा रे अवधू की वाणी, ऊपरि कूवटा तलि भरि पाँणीं॥टेक॥ जब लग गगन जोति नहीं पलटै, अबिनासा सुँ चित नहीं विहुटै। जब लग भँवर गुफा नहीं जानैं, तौ मेरा मन कैसै मानैं॥ जब लग त्रिकुटी संधि न जानैं, ससिहर कै घरि सूर न आनैं। जब लग नाभि कवल नहीं सोधै, तौ हीरै हीरा कैसै बेधैं॥ सोलह कला संपूरण छाजा, अनहद कै घरि बाजैं बाजा॥ सुषमन कै घरि भया अनंदा, उलटि कबल भेटे गोब्यंदा। मन पवन जब पर्‌या भया, क्यूँ नाले राँपी रस मइया। कहै कबीर घटि लेहु बिचारी, औघट घाट सींचि ले क्यारी॥202॥ मन का भ्रम मन ही थैं भागा, सहज रूप हरि खेलण लागा॥टेक॥ मैं तैं तैं ए द्वै नाहीं, आपै अकल सकल घट माँहीं। जब थैं इनमन उनमन जाँनाँ, तब रूप न रेष तहाँ ले बाँनाँ॥ तन मन मन तन एक समाँनाँ, इन अनभै माहै मनमाँना॥ आतमलीन अषंडित रामाँ, कहै कबीर हरि माँहि समाँनाँ॥203॥ आत्माँ अनंदी जोगी, पीवै महारस अंमृत भोगी॥टेक॥ ब्रह्म अगनि काया परजारी, अजपा जाप जनमनी तारी॥ त्रिकुट कोट मैं आसण माँड़ै, सहज समाधि विषै सब छाँड़ै॥ त्रिवेणी बिभूति करै मन मंजन, जन कबीर प्रभु अलष निरंजन॥204॥ या जोगिया को जुगति जु बूझै, राम रमै ताकौ त्रिभुवन सूझै॥टेक॥ प्रकट कंथा गुप्त अधारी, तामैं मूरति जीवनि प्यारी। है प्रभू नेरै खोजै दूरि, ज्ञाँन गुफा में सींगी पूरि॥ अमर बेलि जो छिन छिन पीवै, कहै कबीर सो जुगि जुगि जीवै॥205॥ सो जोगी जाकै मन मैं मुद्रा, रात दिवस न करई निद्रा॥टेक॥ मन मैं आँसण मन मैं रहणाँ, मन का जप तप मन सूँ कहणाँ॥ मन मैं षपरा मन मैं सींगी, अनहद बेन बजावै रंगी। पंच परजारि भसम करि भूका, कहै कबीर सौ लहसै लंका॥206॥ बाबा जोगी एक अकेला, जाके तीर्थ ब्रत न मेला॥टेक॥ झोलीपुत्र बिभूति न बटवा, अनहद बेन बजावै॥ माँगि न खाइ न भूखा सोवै, घर अँगना फिरि आवै॥ पाँच जना का जमाति चलावै, तास गुरु मैं चेला॥ कहै कबीर उनि देस सिधाय, बहुरि न इहि जगि मेला॥207॥ जोगिया तन कौ जंत्रा बजाइ, ज्यूँ तेरा आवागमन मिटाइ॥टेक॥ तत करि ताँति धर्म करि डाँड़ि, सत की सारि लगाइ। मन करि निहचल आसँण निहचल, रसनाँ रस उपजाइ॥ चित करि बटवा तुचा मेषली, भसमै भसम चढ़ाइ। तजि पाषंड पाँच करि निग्रह, खोजि परम पद राइ॥ हिरदै सींगी ग्याँन गुणि बाँधौ, खोजि निरंजन साँचा। कहै कबीर निरंजन की गति, जुगति बिनाँ प्यंड काचा॥208॥ अवधू ऐसा ज्ञाँन बिचारी, ज्यूँ बहुरि न ह्नै संसारी॥टेक॥ च्यँत न सोच चित बिन चितवैं, बिन मनसा मन होई। अजपा जपत सुंनि अभिअंतरि, यहू तत जानैं सोई॥ कहै कबीर स्वाद जब पाया, बंक नालि रस खाया। अमृत झरै ब्रह्म परकासैं तब ही मिलै राम राया॥209॥ गोब्यंदे तुम्हारै बन कंदलि, मेरो मन अहेरा खेलै। बपु बाड़ी अनगु मृग, रचिहीं रचि मेलैं॥टेक॥ चित तरउवा पवन षेदा, सहज मूल बाँधा। ध्याँन धनक जोग करम, ग्याँन बाँन साँधा॥ षट चक्र कँवल बेधा, जारि उजारा कीन्हाँ। काम क्रोध लोभ मोह, हाकि स्यावज दीन्हाँ॥ गगन मंडल रोकि बारा, तहाँ दिवस न राती। कहै कबीर छाँड़ि चले, बिछुरे सब साथी॥210॥ साधन कंचू हरि न उतारै, अनभै ह्नै तौ अर्थ बिचारै॥टेक॥ बाँणी सुंरग सोधि करि आणै आणौं नौ रँग धागा। चंद सूर एकंतरि कीया, सीवत बहु दिन लागा। पंच पदार्थ छोड़ि समाँनाँ, हीरै मोती जड़िया। कोटि बरष लूँ क्यूँ सीयाँ, सुर नर धधैं पड़या॥ निस बासुर जे सोबै नाहीं, ता नरि काल न खाई। कहै कबीर गुर परसादैं सहजै रह्या समाई॥211॥ जीवत जिनि मारै मूवा मति ल्यावैं, मास बिहूँणाँ घरिमत आवै हो कंता॥टेक॥ उर बिन षुर बिन चंच बिन, बपु बिहूँना सोई। सो स्यावज जिनि मारै कंता, जाकै रगत मांस न होई॥ पैली पार के पारथी, ताकी धुनहीं पिनच नहीं रे। तो बेली को ढूँक्यों मृग लौ, ता मृग कैसी सनहीं रे॥ मार्‌या मृग जीवता राख्या, यहु गुरु ग्याँन मही रे। कहै कबीर स्वाँमी तुम्हारे मिलन की, बेली है पर पात नहीं रे॥212॥ धरी मेरे मनवाँ तोहि धरि टाँगौं, तै तौ कीयौ मेरे खसम सूँ षाँगी॥टेक॥ प्रेम की जेवरिया तेरे गलि बाँधूँ, तहाँ लै जाँउँ जहाँ मेरौ माधौ। काया नगरीं पैसि किया मैं बासा, हरि रस छाड़ि बिषै रसि माता॥ कहै कबीर तन मन का ओरा भाव भकति हरिसूँ गठजोरा॥213॥ परब्रह्म देख्या हो तत बाड़ी फूली, फल लागा बडहूली। सदा सदाफल दाख बिजौरा कौतिकहारी भूली॥टेक॥ द्वादस कूँवा एक बनमाली, उलट नीर चलावै। सहजि सुषमनाँ कूल भरावै, दह दिसि बाड़ी पावै॥ ल्यौकी लेज पवन का ढींकू, मन मटका ज बनाया। सत की पाटि सुरति का चठा, सहजि नीर मुलकाया॥ त्रिकुटी चढ़îौ पाव ढौ ढारै, अरध उरध की क्यारी। चंद सूर दोऊ पाँणति करिहै, गुर सुषि बीज बिचारी॥ भरी छाबड़ा मन बैकुंठा, साँई सूर हिया रगा। कहै कबीर सुनहु रे संतो, हरि हँम एकै संगा॥214॥ राम नाम रँग लागौ कुरंग न होई, हरि रंग सौ रंग और न कोई॥टेक॥ और सबै रंग इहि रंग थैं छूटै, हरि रंग लागा कदे न खूटै। कहै कबीर मेरे रंग राम राँई, और पतंग रंग उड़ि जाई॥215॥ कबीरा प्रेम कूल ढरै, हँमारे राम बिना न सरे। बाँधि ले धौंरा सीचि लै क्यारी ज्यूँ तूँ पेड़ भरैं॥टेक॥ काया बाड़ी महैं माली, टहल करै दिन राती। कबहूँ न सोवै काज भँवारे, पाँण तिहारी माती॥ सेझै कूवा स्वाजि अति सीतल, कबहूँ कुवा बनहीं रे। भाग हँमारे हरि रखवाले, कोई उजाड़ नहीं रे॥ गुर बीज जनाया कि रखि न पाया, मन को आपदा खोई। औरै स्यावढ़ करै षारिसा, सिला करै सब कोई॥ जौ घरि आया तौ सब ल्याया, सबही काज सँवार्या। कहै कबीर सुनहु रे संतौ, थकित भया मैं हार्‌या॥216॥ राजा राम बिना तकती धो धो। राम बिना नर क्यूँ छूटौगे, जम करै नग धो धो धो॥टेक॥ मुद्रा पहर्या जोग न होई, घूँघट काढ़ा सती न कोई। मा कै सँगि हिलि मिलि आया, फौकट सटै जनम गँवाया। कहै कबीर जिनि हरि पद चीन्हाँ, मलिन प्यंड थैं निरमल कीन्हा॥217॥ है कोई राम नाम बतावै, वस्तु अगोचर मोहि लखावै॥टेक॥ राम नाम सब बखानै, राम नाम का मरम जाँनैं॥ ऊपर की मोहि बात न भावै, देखै गावैं तौ सुख पावै। कहै कबीर कछू कहत न आवै, परचै बिनाँ मरम को पावै॥218॥ गोब्यंदे तूँ निरंजन तूँ निरंजन राया। तेरे रूप नहीं रेख नाँहीं, मुद्रा नहीं माया॥टेक॥ समद नाँहीं सिषर नाँहीं, धरती नाँहीं गगनाँ। रबि ससि दोउ एकै नाँहीं, बहता नाँहीं पवनाँ॥ नाद नाँही ब्यँद नाँहीं काल नहीं काया। जब तै जल ब्यंब न होते, तब तूँहीं राम राया॥ जप नाहीं तप नाहीं जोग ध्यान नहीं पूजा। सिव नाँहीं सकती नाँहीं देव नहीं दूजा॥ रुग न जुग न स्याँम अथरबन, बेदन नहीं ब्याकरनाँ। तेरी गति तूँहि जाँनै, कबीरा तो मरनाँ॥219॥ राम कै नाँइ निसाँन बागा, ताका मरक न जानै कोई। भूख त्रिषा गुण वाकै नाँहीं, घट घट अंतरि लोई॥टेक॥ बेद बिबर्जित भेद बिबर्जित बिबर्जित पाप रु पुंन्यं। स्वाँन बिबर्जित ध्यान बिबर्जित, बिबर्जित अस्थूल सुंन्यं। भेष बिबर्जित भीख बिबर्जित, बिबर्जित ड्यंमक रूपं। कहै कबीरा तिहूँ लोक बिबर्जित, ऐसा तत्त अनूप॥220॥ राम राम राम रमि रहिए, साषित सेती भूलि न कहिये॥टेक॥ का सुनहाँ कौ सुमृत सुनायें, का साषित पै हरि गुन गाँये। का कऊवा कौं कपूर खवाँयें, का बिसहर कौं दूध पिलाँयें। साषित सुनहाँ दोऊ भाई, वो नींदे कौ भौंकत जाई। अंमृत ले ले नींब स्यँचाई, कत कबीर बाकी बाँनि न जाई॥221॥ अब न बसूँ इहि गाँइ गुसाँई, तेरे नेवगी खरे सयाँने हो रामा॥टेक॥ नगर एक तहाँ जीव धरम हता, बसै जु पच किसानाँ। नैनूँ निकट श्रवनूँ रसनूँ, इंद्री कह्या न मानै हो राम॥ गाँइ कु ठाकुर खेत कु नेपै, काइथ खरच न पारै। जोरि जेवरी खेति पसारै, सब मिलि मोकौं मारै हो राम॥ खोटी महतौ बिकट बलाही, सिर कसदम का पारै। बुरा दिवाँन दादि नहिं लागै, इक बाँधे इक मारै हो राम॥ धरमराई जब लेखा माँग्या, बाकी निकसी भारी। पाँच किसानाँ भाजि गये हैं, जीव धर बाँध्यौ पारी हो राम॥ कहै कबीर सुनहु रे संतौ, हरि भजि बाँधौ भेरा। अबकी बेर बकसि बंदे कौं, सब खेत करौ नबैरा॥222॥ ता भै थैं मन लागौ राम तोही, करौ कृपा जिनि बिसरौ मोहीं॥टैक॥ जननी जठर सह्या दुख भारी, सो संक्या नहीं गई हमारी॥ दिन दिन तन छीजै जरा जनावै, केस गहे काल बिरदंग बजावै॥ कहै कबीर करुणामय आगैं, तुम्हारी क्रिपा बिना यहु बिपति न भागै॥223॥ कब देखूँ मेरे राम सनेही, जा बिन दुख पावै मेरी देही॥टेक॥ हूँ तेरी पंथ निहारूँ स्वाँमी, कब रमि लहुगे अंतरजाँमी॥ जैसैं जल बिन मीन तलपै, एैसे हरि बिन मेरा जियरा कलपै॥ निस दिन हरि बिन नींद न आवै, दरस पियासी राम क्यूँ सचु पावै। कहै कबीर अब बिलंब न कीजै, अपनौ जाँनि मोहि दरसन दीजै॥224॥ सो मेरा राम कबै घरि आवै, तो देखे मेरा जिय सुख पावै॥टेक॥ बिरह अगिनि तन दिया जराई, बिन दरसन क्यूँ होइ सराई॥ निस बासुर मन रहे उदासा, जैसैं चातिग नीर पियासा॥ कहै कबीर अति आतुरताई, हमकौं बेगि मिलौ राम राई॥225॥ मैं सामने पीव गौंहनि आई। साँई संगि साथ नहीं पूगी, गयौ जोबन सुपिनाँ की नाँई॥टेक॥ पंच जना मिलि मंडप छायौ, तीन जनाँ मिलि लगन लिखाई। सखी सहेली मंगल गावैं, सुख दुख माथै हलद चढ़ाई॥ नाँना रंगयै भाँवरि फेरी, गाँठि जोरि बावै पति ताई। पूरि सुहाग भयो बिन दूलह, चौक कै रंगि धरो सगौ भाई॥ अपने पुरिष मुख कबहूँ न देख्यौ, सती होत समझी समझाई। कहै कबीर हूँ सर रचि मरिहूँ, तिरौ कंत ले तूर बजाई॥226॥ धीरैं धीरैं खाइबौ अनत न जाइबौ, राम राम राम रमि रहिबौ॥टेक॥ पहली खाई आई माई, पीछै खैहूँ जवाई। खाया देवर खाया जेठ, सब खाया ससुर का पेट। खाया सब पटण का लोग, कहै कबीर तब पाया जोग॥227॥ टिप्पणी: ख-खाया पंच पटण का लोग। मन मेरौ रहटा रसनाँ पुरइया, हरि कौ नाऊँ लैं लैं काति बहुरिया॥टेक॥ चारि खूँटी दोइ चमरख लाई, सहजि रहटवा दियौ चलाई। सासू कहै काति बहू ऐसैं, बिन कातैं निसतरिबौ कैसैं॥ कहै कबीर सूत भल काता, रहटाँ नहीं परम पद दाता॥228॥ अब की घरी मेरी घर करसी, साथ संगति ले मोकौं तिरसीं॥टेक॥ पहली को घाल्यौ भरमत डाल्यौ, सच कबहूँ नहीं पायी॥ अब की धरनि धरी जा दिन थैं सगलौ भरम गमायौ॥ पहली नारि सदा कुलवंती, सासू सुसरा मानैं॥ देवर जेठ सबनि की प्यारी, पिव कौ मरम न जाँनैं॥ अब की धरनिधरी जा दिन थैं, पीव सूँ बाँन बन्यूँ रे। कहै कबीर भग बपुरी कौ, आइ रु राम सुन्यूँ रे॥229॥ मेरी मति बौरी राम बिसारौं, किहि बिधि रहनि रहूँ हौ दयाल॥ सेजै रहूँ नैंन नहीं देखौं, यह दुख कासौं कहूँ हो दयाल॥टेक॥ सासु की दुखी ससुर की प्यारी, जेठ के तरसि डरौं रे॥ नणद सुहेली गरब गहेली, देवर कै बिरह जरौं हो दयाल॥ बाप सावको करैं लराई, माया सद मतिवाली। सगौ भइया लै सलि चिढ़हूँ तब ह्नै हूँ पीयहि पियारी॥ सोचि बिचारि देखौं मन माँहीं, औसर आइ बन्यूँ रे। कहै कबीर सुनहु मति सुंदरि, राजा राम रमूँ रे॥230॥ अवधू ऐसा ग्याँन बिचारी, ताथै भई पुरिष थैं नारी॥टेक॥ ना हूँ परनी नाँ हूँ क्वारी, पून जन्यूँ द्यौ हारी। काली मूँड कौ एक न छोड़ो, अजहूँ अकन कुवारी॥ बाम्हन के बम्हनेटी कहियौ, जोगी के घरि चेला। कलमाँ पढ़ि पढ़ि भई तुरकनी, अजहूँ फिरौं अकेली॥ पीहरि जाँऊँ न सासुरै, पुरषहिं अंगि न लाँऊँ। कहै कबीर सुनहु रे संतौ, अंगहि अँग छुवाँऊँ॥231॥ टिप्पणी: ख-पूत जने जनि हारी। मीठी मीठी माया तजी न जाई। अग्याँनी पुरिष कौ भोलि भोलि खाई॥टेक॥ निरगुण सगुण नारी, संसारि पियारी, लषमणि त्यागी गोरषि निवारी। कीड़ी कुंजर मैं रही समाई, तीनि लोक जीत्या माया किनहुँ न खाई॥ कहै कबीर पद लेहु बिचारी, संसारि आइ माया किन्हूँ एक कही षारी॥232॥ मन कै मैलौ बाहरि ऊजलौ किसी रे, खाँडे की धार जन कौ धरम इसी रे॥टेक॥ हिरदा कौ बिलाव नैन बगध्यानी, ऐसी भगति न होइ रे प्रानी॥ कपट की भगति करै जिन कोई, अंत की बेर बहुत दुख होई॥ छाँड़ि कपट भजौ राम राई, कहै कबीर तिहुँ लोक बड़ाई॥233॥ चौखौ वनज ब्यौपार, आइनै दिसावरि रे राम जपि लाहौ लीजै॥टेक॥ जब लग देखौं हाट पसारा, उठि मन बणियों रे, करि ले बणज सवारा। बेगे ही तुम्ह लाद लदाँनों, औघट घआ रे चलनाँ दूरि पयाँनाँ॥ खरा न खोटा नाँ परखानाँ, लाहे कारनि रे सब मूल हिराँनाँ॥ सकल दुनीं मैं लोभ पियारा, मूल ज राखै रे सोई बनिजारा॥ देस भला परिलोक बिराँनाँ, जन दोइ चारि नरे पूछौ साथ सयाँनाँ॥ सायर तीन न वार न पारा, कहि समझावै रे कबीर बणिजारा॥234॥ जौ मैं ग्याँन बिचार न पाया, तौ मैं यौं ही जनम गँवाया॥टेक॥ यह संसार हाट करि जाँनूँ, सबको बणिजण आया। चेति सकै सो चेतौ रे भाई, मूरिख मूल गँवाया॥ थाके नैंन बैंन भी थाके, थाकी सुंदर काया। जाँमण मरण ए द्वै थाके, एक न थाकी माया। चेति चेति मेरे मन चंचल, जब लग घट में सासा। भगति जाव परभाव न जइयौ, हरि क चरन निवासा॥ जे जन जाँनि जपैं जग जीवन, तिनका ग्याँन नासा। कहै कबीर वै कबहूँ न हारैं, जाँने न ढारै पासा॥235॥ लावौं बाबा आगि जलावौं घरा रे, ता कारनि मन धंधै परा रे॥टेक॥ इक डाँइनि मेरे मन मैं बसै रे, नित उठि मेरे जिय को डसै रे। या डाँइन्स ले लरिका पाँच रे, निस दिन मोहि नचावैं नाच रे। कहै कबीर हूँ ताकौ दास, डाँइनि कै सँगि रहे उदास॥236॥ बंदे तोहि बंदिगी सौ काँम, हरि बिन जानि और हराँम। दूरि चलणाँ कूँच वेगा, इहाँ नहीं मुकाँम॥टेक॥ इहाँ नहीं कोई यार दोस्त, गाँठि गरथ न दाम। एक एकै संगि चलणाँ, बीचि नहीं बिश्राँम॥ संसार सागर बिषम तिरणाँ, सुमरि लै हरि नाँम। कहै कबीर तहाँ जाइ रहणाँ, नगर बसत निधाँन॥237॥ झूठा लोग कहैं घर मेरा। जा घर माँहैं बोलै डोलैं, सोई नहीं तन तेरा॥टेक॥ बहुत बँध्या परिवार कुटुँब मैं, कोई नहीं किस केरा। जीवित आँषि मूँदि किन देखौ, संसार अंध अँधेरा॥ बस्ती मैं थैं मारि चलाया, जंगलि किया बसेरा। घर कौ खरच खबरि नहीं भेजी, आप न कीया फेरा॥ हस्ती घोड़ा बैल बाँहणी, संग्रह किया घणेरा। भीतरि बीबी हरम महल मैं, साल मिया का डेरा॥ बाजी को बाजीगर जाँनैं कै बाजीगर का चेरा। चोरा कबहूँ उझकि न देखै चेरा अधिक चितेरा॥ नौ मन सूत उरझि नहीं सुरझै, जनमि जनमि उरझेरा। कहै कबीर एक राम भजहु रे, बहुरि न हैगा फेरा॥238॥ हावड़ि धावड़ि जनम गवावै, कबहुँ न राम चरन चित लावै॥टेक॥ जहाँ जहाँ दाँम तहाँ मन धावै, अँगुरी, गिनताँ रैंनि बिहावै। तृया का बदन देखि सुख पावै, साथ की संगति कबहूँ न आवै॥ सरग के पंथि जात सब लोई सिर धरि पोट न पहुँच्या कोई। कहै कबीर हरि कहा उबारे, अपणैं पाव आप जो मारै॥239॥ प्राँणी काहै कै लोभ लागि, रतन जनम खोयौ। बहुरि हीरा हाथि न आवै, राम बिना रोयौ॥टेक॥ जल बूँद थैं ज्यानि प्यंड बाँध्या, अगनि कुंढ रहाया। दस मास माता उदरि राख्या, बहुरि लागी माया॥ एक पल जीवन का आसा नाहीं, जम निहारे सासा। बाजीगर संसार कबीरा, जाँनि ढारौ पासा॥240॥ फिरत कत फूल्यौ फूल्यौ। जब दस मास उधर मुखि होते, सो दिन काहै भूल्यौ॥टेक॥ जौ झारै तौ होई भसम तन, रहम कृम ह्नै जाई॥ काँचै कुंभ उद्यक भरि राख्यौ, तिनकी कौन बड़ाई॥ ज्यूँ माषी मधु संचि करि, जोरि जोरि धन कीनो॥ मूय पीछै लेहु लेहु करि, प्रेत रहन क्यूँ दोनों॥ ज्यू घर नारी संग देखि करि, तब लग संग सुहेली॥ मरघट घाट खैचि करि राखे, वह देखिहु हंस अकेली॥ राम न रमहु मदन कहा भूले, परत अँधेररैं कूवा॥ कहै कबीर सोई आप बँधायौ, ज्यूँ नलनी का सूवा॥241॥ जाइ रे दिन हीं दिन देहा, करि लै बौरी राम सनेहा॥टेक॥ बालापन गयौ जोबन जासी, जुरा मरण भौ संकट आसी। पलटै केस नैन जल छाया, मूरिख चेति बुढ़ापा आया॥ राम कहत लज्या क्यूँ कीजै, पल पल आउ घटै तन छीजै। लज्या कहै हूँ जम की दासी, एकै हाथि मूदिगर दूजै हाथि पासी॥ कहै कबीर तिनहूँ सब हार्‌या, राम नाम जिनि मनहु बिसार्‌या॥242॥ मेरी मेरी करताँ जनम गयौ, जनम गयौ पर हरि न कह्यौ॥टेक॥ बारह बरस बालापन खोयौ, बीस बरस कछु तप न कयौ। तीन बरस कै राम न सुमिरौं, फिरि पछितानौं बिरध भयो॥ आयौ चोर तुरंग मुसि ले गयौ, मोरी राखत मगध फिरै॥ सीस चरन कर कंपन लागै, नैन नीर अस राल बहै। जिभ्या बचन सूध नहीं निकसै, तब सुकरित की बात कहै॥ कहै कबीर सुनहु रे संतौ धन संच्यो कछु संगि न गयौ। आई तलब गोपाल राइ की, मैंडी मंदिर छाड़ि चल्यौ॥243॥ टिप्पणी: ख-मौरी बाँधत। जाहि जाती नाँव न लीया, फिरि पछितावैगौ रे जीया॥टेक॥ धंधा करत चरन कर घाटे, जाउ घटि तन खीना। बिषै बिकार बहुत रुचि माँनी, माया मोह चित दीन्हाँ॥ जागि जागि नर काहें सोवै, सोइ सोइ कब जागेगा। जब घर भीतरि चोर पड़ैंगे, अब अंचलि किसके लागेगा॥ कहै कबीर सुनहु रे संतो, करि ल्यौ जे कछु करणाँ। लख चौरासी जोनि फिरौगे, बिना राम की सरनाँ॥244॥ टिप्पणी: ख-धंधा करत करत कर थाके। माया मोहि मोह हित कीन्हाँ, ताथैं मेरो ग्याँन ध्याँन हरि लीन्हाँ॥टेक॥ संसार ऐसा सुपिन जैसा, न सुपिन समाँन। साँच करि नरि गाँठि बाँध्यौं, छाड़ि परम निधाँन॥ नैन नेह पतंग हुलसै, पसू न पेखै आगि। काल पासि जु मुगध बाँध्या, कलंक काँमिनी लागि॥ करि बिचार बिकार परहरि, तिरण तारण सोइ। कहै कबीर रघुनाथ भजि नर, दूजा नाँही कोइ॥245॥ तेरा तेरा झूठा मीठा लागा, ताथैं साचे सूँ मन भागा॥टेक॥ झूठे के घरि झूठा आया, झूठै खाना पकाया। झूठी सहन क झूठा बाह्या, झूठै झूठा खाया॥ झूठा ऊठण झूठा बैठण, झूठो सबै सगाई। झूठे के घरि झूठा राता, साचे को न पत्याई॥ कहै कबीर अलह का पगुरा, साँचे सूँ मन लावौ। झूठे केरी संगति त्यागौ, मन बंछित फल पावौ॥246॥ कौंण कौण गया राम कौंण कौण न जासी, पड़सी काया गढ़ माटी थासी॥टेक॥ इंद्र सरीखे गये नर कोड़ी, पाँचौं पाँडौं सरिषी जोड़ी। धू अबिचल नहीं रहसी तारा, चंद सूर की आइसी वारा॥ कहै कबीर जब देखि संसारा, पड़सी घट रहसी निरकारा॥247॥ ताथैं सेविये नाराँइणाँ प्रभू मेरो दीनदयाल दया करणाँ॥टेक॥ जौ तुम्ह पंडित आगम जाँणौं, विद्या व्याकरणाँ। तंत मंत सब ओषदि जाणौं, अति तऊ मरणाँ॥ राज पाट स्यंघासण आसण, बहु सुंदर रमणाँ। चंदन चीर कपूर विराजत, अंति तऊ मरणाँ॥ जोगी जती तपी संन्यासी, बहु तीरथ भरमणाँ। लुंचित मुंडित मोनि जटाधर, अंति तऊ मरणाँ॥ प्रोचि बिचारि सबै जग देख्या, कहूँ न ऊबरणाँ। कहै कबीर सरणाई आयौ, मेटि जामन मरणाँ॥248॥ पाँड़े न करसि बाद बिबादं, या देही बिना सबद न स्वादं॥टेक॥ अंड ब्रह्मंड खंड भी माटी माटी नवनिधि काया। माटी खोजत सतगुर भेट्या, तिन कछू अलख लखाया॥ जीवत माटी मूवा भी माटी, देखौ ग्यान बिचारी। अंति कालि माटी मैं बासा, लेटे पाँव पसारी॥ माटी का चित्र पवन का थंभा, ब्यंद संजोगि उपाया। भाँनैं घड़े सवारै सोई, यहु गोब्यंद की माया। माटी का मंदिर ग्यान का दीप पवन बाति उजियारा। तिहि उजियारै सब जग सूझै कबीर ग्याँन बिचारा॥249॥ मेरी जिभ्या बिस्न नैन नाराँइन, हिरदै जपौं गोबिंदा। जब दुवार जब लेख माँग्या, तब का कहिसि मुकंदा॥टेक॥ तूँ ब्राह्मण मैं कासी का जुलाहा, चीन्हि न मोर गियाना। तैं सब माँगे भूपति राजा, मोरे राम धियाना॥ पूरब जनम हम ब्राँह्मन होते, वोछैं करम तप हीनाँ। रामदेव की सेवा चूका, पकरि जुलाहा कीन्हाँ॥ नौमी नेम दसमी करि संजम, एकादसी जागरणाँ। द्वादसी दाँन पुन्नि की बेलाँ, सर्व पाप छ्यौ करणाँ॥ भौ बूड़त कछू उपाय करीजै, ज्यूँ तिरि लंघै तीरा। राम नाम लिखि मेरा बाँधौ, कहै उपदेस कबीरा॥250॥ टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह पद है- कहु पाँडे कैसी सुचि कीजै, सुचि कीजै तौ जनम न लीजै॥टेक॥ जा सुचि केरा करहु बिचारा, भिष्ट नए लीन्हा औतारा। जा कारणि तुम्ह धरती काटी, तामै मूए जीव सौ साटी॥ जा कारणि तुम्ह लीन जनेऊ, थूक लगाइ कातै सब कोऊ। एक खाल घृत केरी साखा, दूजी खाल मैले घृत राखा॥ सो घृत सब देवतनि चढ़ायौ, सोई घृत सब दुनियाँ भायौ। कहै कबीर सुचि देहु बताई, राम नाम लीजौ रे भाई॥250॥ कहु पाँड़े सुचि कवन ठाँव, जिहि घरि भोजन बैठि खाऊँ॥टेक॥ माता जूठा पिता पुनि जूठा जूठे फल चिल लागे। जूठ आँवन जूठा जाँनाँ, चेतहु क्यूँ न अभागे॥ अन्न जूठा पाँनी पुनि जूठा, जूठे बैठि पकाया। जूठी कड़छी अन्न परोस्या, जूठे जूठा खाया॥ चौका जूठा गोबर जूठा, जूठी का ढोकारा। कहै कबीर तेई जन सूचे, जे हरि भजि तजहिं बिकारा॥251॥ हरि बिन झूठे सब ब्यौहार, केते कोऊ करौ गँवार॥टेक॥ झूठा जप तप झूठा ग्याँन, राम राम बिन झूठा ध्याँन। बिजि नखेद पूजा आचार, सब दरिया मैं वार न पार॥ इंद्री स्वारथ मन के स्वाद, जहाँ साच तहाँ माँडै बाद। दास कबीर रह्या ल्यौ लाइ, मर्म कर्म सब दिये बहाइ॥252॥ चेतनि देखै रे जग धंधा, राम नाम का मरम न जाँनैं, माया कै रसि अंधा॥टेक॥ जतमत हीरू कहा ले आयो, मरत कहा ले जासी। जैसे तरवर बसत पँखेरू, दिवस चारि के बासी॥ आपा थापि अवर कौ निंदै, जन्मत हो जड़ काटी। हरि को भगति बिना यहु देही, धब लौटैे ही फाटी॥ काँम क्रोध मोह मद मंछर, पर अपवाद न सुणिये। कहैं कबीर साथ की संगति, राम नाम गुण भणिये॥253॥ रे जम नाँहि नवै व्यापारी, जे भरैं जगाति तुम्हारी॥टेक॥ बसुधा छाड़ि बनिज हम कीन्हों, लाद्यो हरि को नाँऊँ। राम नाम की गूँनि भराऊँ, हरि कै टाँडे जाँऊँ॥ जिनकै तुम्ह अगिवानी कहियत, सो पूँजी हँम पासा। अबै तुम्हारी कछु बल नाँहीं, कहै कबीरा दासा॥254॥ मींयाँ तुम्ह सौं बोल्याँ बणि नहीं आवै। हम मसकीन खुदाई बंदे, तुम्हारा जस मनि भावै॥टेक॥ अलह अवलि दीन का साहिब, जार नहीं फुरमाया। मुरिसद पीर तुम्हारै है को, कहौ कहाँ थैं आया॥ रोजा करै निवाज गुजारै, कलमैं भिसत न होई। संतरि काबे इक दिल भीतरि, जे करि जानैं कोई॥ खसम पिछाँनि तरस करि जिय मैं माल मनी करि फीकी। आपा जाँनि साँई कूँ जाँनै, तब ह्नै भिस्त सरीकी॥ माटी एक भेष धरि नाँनाँ, सब मैं ब्रह्म समानाँ॥ कहै कबीर भिस्त छिटकाई, दाजग ही मन मानाँ॥255॥ अलह ल्यौ लाँयें काहे न रहिये, अह निसि केवल राम नाम कहिये॥टेक॥ गुरमुखि कलमा ग्याँन मुखि छुरि, हुई हलाहल पचूँ पुरी॥ मन मसीति मैं किनहूँ न जाँनाँ, पंच पीर मालिम भगवानाँ॥ कहै कबीर मैं हरि गुन गाऊँ, हिंदू तुरक दोऊ समझाऊँ॥256॥ रे दिल खोजि दिलहर खोजि, नाँ परि परेसाँनीं माँहि। महल माल अजीज औरति, कोई दस्तगोरी क्यूँ नाँहि॥टेक॥ पीराँ मुरीदाँ काजियाँ, मुलाँ अरू दरबेस। कहाँ थे तुम्ह किनि कीये, अकलि है सब नेस॥ कुराना कतेबाँ अस पढ़ि पढ़ि, फिकरि या नहीं जाइ॥ दुक दम करारी जे करै, हाजिराँ सुर खुदाइ॥ दरोगाँ बकि बकि हूँहि खुसियाँ, बे अकलि बकहिं पुमाहिं। इक साच खालिक खालक म्यानै, सो कछू सच सूरति माँहि॥ अलह पाक तूँ नापाक क्यूँ, अब दूसर नाँहीं कोइ। कबीर करम करीम का, करनीं करै जाँनै सोइ॥257॥ टिप्पणी: क-प्रति में आठवीं पंक्ति का पाठ इस प्रकार है- साचु खलक खालक, सैल सूरति माँहि॥ खालिक हरि कहीं दर हाल। पंजर जसि करद दुसमन मुरद करि पैमाल॥टेक॥ भिस्त हुसकाँ दोजगाँ दुंदर दराज दिवाल। पहनाम परदा ईत आतम, जहर जंगम जाल। हम रफत रहबरहु समाँ, मैं खुर्दा सुमाँ बिसियार। हम जिमीं असमाँन खालिक, गुद मुँसिकल कार॥ असमाँन म्यानैं लहँग दरिया, तहाँ गुसल करदा बूद। करि फिकर रह सालक जसम, जहाँ से तहाँ मौजूद॥ हँम चु बूँद खालिक, गरक हम तुम पेस। कबीर पहन खुदाइ की, रह दिगर दावानेस॥258॥ अलह राम जीऊँ तेरे नाई, बंदे ऊपरि मिहर करी मेरे साँई॥टेक॥ क्या ले माटी भुँइ सूँ, मारैं क्या जल देइ न्हवायें। जो करै मसकीन सतावै, गूँन ही रहै छिपायें॥ क्या तू जू जप मंजन कीये, क्याँ मसीति सिर नाँयें। रोजा करैं निमाज गुजारैं, क्या हज काबै जाँयें॥ ब्राह्मण ग्यारसि करै चौबीसौं, काजी महरम जाँन। ग्यारह मास जुदे क्यू कीये, एकहि माँहि समाँन॥ जौ रे खुदाइ मसीति बसत है, और मुलिक किस केरा। तीरथ मूरति राम निवासा, दुहु मैं किनहूँ न हेरा॥ पूरिब दिसा हरी का बासा, पछिम अलह मुकाँमा। दिल ही खोजि दिलै दिल भीतरि, इहाँ राम रहिमाँनाँ॥ जेती औरति मरदाँ कहिये, सब मैं रूप तुम्हारा। कबीर पंगुड़ा, अलह राम का, हरि गुर पीर हमारा॥259॥ टिप्पणी: ख-सब मैं नूर तुम्हारा॥ मैं बड़ मैं बड़ मैं बड़ माँटी, मण दसना जट का दस गाँठी॥टेक॥ मैं बाबा का जाध कहाँऊँ, अपणी मारी नींद चलाऊँ। इनि अहंकार घणें घर घाले, नाचर कूदत जमपुरि चाले॥ कहै कबीर करता ही बाजी, एक पलक मैं राज बिराजी॥260॥ काहे बीहो मेरे साथी, हूँ हाथी हरि केरा। चौरासी लख जाके मुख मैं, सो च्यंत करेगा मेरा॥टेक॥ कहौ गौन षिबै कहौ कौन गाजै, कहा थैं पाँणी निसरै। ऐसी कला अनत है जाकैं, सो हँम कौं क्यूँ बिसरै॥ जिनि ब्रह्मांड रच्यै बहु रचना, बाब बरन ससि सूरा। पाइक पंच पुहमि जाकै प्रकटै, सो क्यूँ कहिये दूरा॥ नैन नालिक जिनि हरि सिरजे, बसन बसन बिधि काया। साधू जन कौं क्यूँ बिसरै, ऐसा है राम राया॥ को काहू मरम न जानैं, मैं सरनाँगति तेरी। कहै कबीर बाप राम राया, हुरमति राखहु मेरी॥261॥

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