निशांत तक : राजगोपाल
Nishaant Tak : Rajagopal


प्रत्युषा में उठता मन जलता है तृष्णा में वह मृग सा दौड़ा जाता है बीती स्मृतियाँ साथ लिए पथ में कहीं निशांत तक क्यों भटकता रहता है यहीं तुम्हे देखने रात से घुटने टेका श्रांत हुई आंखे सपनों से सेंका डर था ओझल हो न जाओ कहीं सोचा था शाश्वत होगा यह यथार्थ यहीं लगा उसे भी प्रत्याशा होगी उर से कटि तक भीगी होगी मुझसे मिलने यहाँ कौन विकल छूट गया बरसों पीछे वह स्वर्ग सकल थका रसिक ठूंठ से टिका रोता है यह दिन भी क्यों धीरे-धीरे ढलता है किसे पता कैसी होती मन की चंचलता है यह सोच मन बहुत घबराता है रात की बातें साथ लिए सारा मै लौट चला हूँ जीवन से हारा संवेदना मरी यह तो है दृगों की मार अब नहीं है कोई मन का अभिसार बरसों से छाया था जो प्यार ह्रदय में छिप रहा था अंधकार के भय से निकले थे भीड़ चीर कर हम निर्भय छूट गया दूर कहीं वह अपना समय कितनी बार धूप में नंगे पाँव जले सहलाया था उन्हे हाथों से कुंतल तले प्यार पर आज धूल की तह सी जमी है छलती आशाओं से आँखों में नमी है तुम्हारी गोद में नित कितने रंग सजाये हमने बच्चों के साथ फिर कितने सुर गाये बरसों के लिपटे स्नेह गर्त में अब गिरा कौन क्यों संबंध छिटक कर आज बिखरा है मौन हमने स्वर्ग सा नीड़ बनाया था गगन में नित देख उसे होता था उच्छास तन-मन में अब दब गया उस बीते जीवन का उत्कर्ष कहाँ ढूढ़ें जगती में उन बीते ऋतुओं का हर्ष आज प्यार की प्रतिकृति भी लगी है खोने अपनी ही छाया चली प्राची में विलीन होने दिन डूबा, सूरज लगा है अब अस्त होने खेल-घिरोंदे छोड़ हम पीठ किये लगे हैं सोने बुना था एक नीड़ हमने भी साथ-साथ भाग्य समेटे गुंथ कर दोनों के कर्मठ हाथ किसकी है आज प्रतीक्षा इस प्रणय कुंज में प्रणय छिप गया है कहीं जुगुनुओं के पुंज में जब साँसे उलझी, छोटा सा दिया जलाया मन उछला फिर स्तब्ध हुआऔर उर खोया हम नहीं हैं सच्चे प्रेमी विहंगों से निश्छल झूठी अस्मिता ने ही किया है हमें निर्बल उसे रति सा मैंने उर में सजाया मन की मृदा से प्रणय-बाग बनाया स्पर्श मिटा, अधर बुझे, तोड़ कर जलते दिये लहरों पर नीड़ ढूंढ रहा है पंछी स्मृतियाँ लिये प्रश्न उठा क्या खुश हो तुम ऐसे ही प्रणय का पलजो जिया था क्या वैसे ही कल तो चंचल था मन आज हुआ अकेला मुख की माधुरी में कहीं छिपा है तिल काला आज क्यों मौन संगिनी ने डेरा डाला मन और माया को मैंने है जीवन भर पाला वही मुख गढ़ गया आज उर का छाला सूरज डूबा, अब अंत हुआ उजियाला जीवन की थाह मिली चलते-चलते जिया है दुख पृथा में जलते-बुझते धूमकेतु सा खिला था वह अनुराग अनुमान नहीं था कब बुझेगी वह आग लंबे सन्नाटे में एक टेढ़ा प्रश्न है उभरता उत्तर उसका अन्तरंग में नहीं समाता दीवारों से टकरा का आती है प्रतिध्वनियाँ क्या करते बहरे बन सुनते फिर वही कहानियाँ उसके सुर में समायी थी बुलबुल की बोली फिर क्यों शब्दों की आज जल गई होली दीवार पर टंगी गयी थी वह बरसों की रति किसे कहता मैं, यही थी जीवन की संसृति नि:शब्द ही उसने कुछ कहा सुन का उर पर पत्थर का बोझ सहा कल था प्यार का महाप्रयाण उठा अब क्या था शेष जो नहीं लुटा अंधकार उठा, मन बोला पवन से प्रणय गिर पड़ा आँसू सा नयन से जिसे थामा था जीवन भर लगन से अब चल बसी चाँदनी भी गगन से स्मृतियाँ नहीं समेट पायी बिखरे पल निष्प्राण आंखो में कैसी आशा और कैसा छल बंद किवाड़ों में अजनबी हुए हम टूट गया संकल्प, चिर बंधनों का भ्रम कौन किसे अपना दुःख बतलाता मन अंदर ही अंगार सा जलता जाता प्रणय सिधारा अब है प्रेत बना इठलाता गहराई रात, अँधेरा पल-पल बढ़ता ही जाता चादर ओढ़े छिपता था मन का अंतर फिर भी ज्वार उठता था उर के अन्दर दूसरी सुबह फिर रात गयी-बात गहराई पर न साथ हुयी फिर वह उन्मत्त परछाई चेहरा टूटा जैसे चटका हुआ प्याली सिमटी हो जिसमे स्मृतियों की लाली होंठ भी टंगे तस्वीर से दीवार पर आँखें बुझी प्रणय को शव सा निहार कर मरने की आशंका तो गहरी थी किसे सुनाता मन की, जगती तो बहरी थी दिखता अब नहीं है कोई राह कहीं रौंद गया संबंध, देखो उर मरा यहीं-कहीं पग बढ़ते नहीं हैं जीवन के मरुभूमि पर बैसाखी लिये कैसा है संघर्ष रणभूमि पर अपने ही काँटों पर हम ताड़ से तने हैं जगती में हँसते पर अपने ही छल में सने हैं निशा चीर जब जुगुनू चमकते प्रणय ढूंढते हम चिकुर जाल में उलझते लगता है फिर बिखरेगी धरा चूमती चांदनी भ्रम ही सही कुछ पल के लिये हो जाते है धनी आँखों पर पट्टी बांधे दिशाएँ टटोलते दुपहरी में हम अर्थहीन घुघुआ सा बोलते जब रात गहराई उठा फिर अँधेरा घना दृगों में भटका स्वप्न रजकणों सा छ्ना ठंड बढ़ी, धीरे-धीरे सिहरन चढ़ी जड़ तकियों पर रात हमसे बहुत लड़ी इस नीड़ में और कितनी उम्र लड़ पाओगे छिपी मन की व्यथा तुम क्या समझ पाओगे जीवन के पीछे उड़ती रजकण सी स्मृतियाँ गिरती-पड़ती दिशाहीन सावन की झड़ियाँ आगे उद रहा है सूखे पत्ते सा जीवन शेष बहरूपिया है प्रणय और छल में लिपटा वेश बह जाना है धारे जब हर-हर करते किसलिए फिर आँखों में है गागर भरते जान कर भी क्यों जीवन से हैं उलझते अपनी छोड़ हम नहीं हैं किसी की समझते अधरों पर अटकी चुप्पी मन की कहती है पुरानी कहानी स्वजन की तोडती लय ह्रदय की, आलिंगन है कहती सूखा उपवन, अब कस्तूरी यहाँ नहीं महकती सूखे तन-मन के हुये आज अष्ट वक्र पिस जाएगा तू, यह है घूमता प्रणय-चक्र इस मायावी व्यूह को कैसे सुलझा पाओगे तुम मन का प्रलाप किसे समझा पाओगे टूटी खाट पर सिसकता मन अच्छा ही था गोद में खेलता प्यार तब बच्चा ही था दांव-पेंच पता नहीं था कितना होगा इसीलिए जीवन में मन भर भारी दुख भोगा पहले तन में वेग भरा था कितना उल्लास छाया था अंबर जितना तुम संग निशा भी गहन होती है अकेले आँखें भी सावन सी रोती हैं मेरी चंचल कृति तुम क्या हो तिनकों से नीड़ बुनती बया हो क्यों छोड़ गयी उसे जैसे पराया हो प्रणय भी रोया जैसे कोई छल गया हो मेरी अक्षय निधि स्मृतियों की उलझ गयी जाल में जग-रतियों की समय चढ़े माधवी की रति अलसायी घन गरजे पर सावन न मधु बरसायी अलकों में छिपते उस सुंदर मुख से सुख से सारे सपने क्यों बुझे दुख से लेश में भी छिप कर जीवन है बोल रहा देखो सदगति में भी कोई है विष घोल रहा निशांत तक प्रणय-प्रज्ञा दोनों मरे सुबह चेहरे अपने ही आँखों से डरे वितृष्णा मुख पर है चादर खींच रही बरसों की कल्याणी आज आंखे मींच रही अनुराग-अनुबंध सब धरे रह गये इतिहास बाँचते खो गये आयाम नये अब मन पर से भी अधिकार हारे अंजान बने हम ताकते रहे पैर पसारे ह्रदय फाड़ कर कैसे दिखाएँ मन समझना अब किसे सिखाएँ मन में छिपी व्यथा कैसे समझ पाओगे तुम अन्दर उठता तूफान क्या समझ सकोगे फिर भी आकर्षित है मन टूटा-फूटा सपनों ने लूटा फिर भी मोह न छूटा मनोरथ आज लगती है कोई मरीचिका न जाने किस त्रिभंगिमा पर शेष है टिका यह सच है, इतिहास झूठ नहीं बोलता लेकिन उस पर टिका वर्तमान है डोलता दीवार पर टंगी प्रतिमा बरसों से वही है नहीं रहा प्राण उसमे यथार्थ अब यही है कुछ बदला है जो आभास होता है पल-पल कहीं छिप गया है हमारा वह बीता हुआ कल आँख लगने से पहले देना तुम मुझको संबल विक्षिप्त सा बसा है यहाँ बंद आँखों में भी छल बंद आँखों में बसा है वही कल स्वयं पर चिल्लाते हुये टूट गया है बल दिखता नहीं है यथार्थ और छिपा हुआ छल उठता है मन में विप्लव फिर बह जाता है चपल रजनी के श्यामल अधरों पर चुंबन झरे स्मृतियों में अंबर भर अब मेरी संज्ञा भी उस करवट सोती नहीं अश्रु भी सूखे, जीवन पास बुलाती नहीं तम में डूबा मधु-यौवन का काल रति के नीचे फैल रहा था चिकुर-जाल कल्पना से परे कितने हैं प्रणय-रहस्य इस करवट न छायेंगे दृगों में कोई दृश्य अब न झाँकेगी शची अंबर से कौन विकल यहाँ मरते उर से मन-जीवन उल्का बन बिखर रहा फिर क्यों प्रणय है प्रेत बना विचर रहा सूख गये ईप्सा के अधखिले फूल चुभ गये चालीस बरस जैसे हों शत शूल उड़ गए घर के छप्पर पर न बदला जीवन अकेले ही रोया मन जगती में अपना क्रंदन न रही संवेदना न ही रहा वह स्पर्श प्रणय-प्रेयसी-परिणय के सिधारे सारे आदर्श अब बंद आँखों से भी उड़े वे मादक पल न लौट सकेंगे नीड़ पर, सने है पग इस दलदल उड़े मेरे नीड़ के संजोए तृण-पात ढूंढता उन्हें जब खाता मुँह की घात बच्चों के थप्पड़ से अब जीवन है डरता फिर भी वाचाल विक्षिप्त सा हुआ-हुआ करता सुबह हुई उधर गिरजे से घंटे की टन-टन हम करते सारा दिन अपने से ही अनबन फिर अँधियारा कर जाता सब खंडन साँझ ढले सोचते कैसे दें संधि का निमंत्रण