Neera Ke Liye : Sunil Gangopadhyay; Translator - Soma Bandyopadhyay

नीरा के लिए : सुनील गंगोपाध्याय; अनुवादक - सोमा बंद्योपाध्याय

भूमिका

“इस कविता के लिए और कोई नहीं, सिर्फ तुम हो नीरा”...

न जाने कितने साल पहले, याद नहीं, तब शायद मैं तीस का भी नहीं था, बेकार, नहीं-नहीं एक क्लर्क की नौकरी मिल गई थी मुझे, एक दिन सबेरे पौने दस बजे सर्कुलर रोड के एक बस स्टॉप पर खड़ा था कि अचानक ‘नीरा के लिए’ कुछ पंक्तियों ने मस्तिष्क में तूफान मचा दिया। वहीं से शुरू। फिर इन तमाम बीते बरसों में नीरा बार-बार घूम-फिरकर आती रही मेरी कविता में। मेरी उम्र ढल रही है पर नीरा आज भी किसी स्थिर चित्र की तरह ‘नव-यौवना’ है। मैं उसे रक्त-मांस की मानवी बनाकर रखना चाहता हूँ पर कभी-कभी अचानक से वह प्रवेश कर जाती है शिल्प की सीमाओं के भीतर। बन जाना चाहती है मिट्टी या पत्थर की मूरत। जैसे वह केवल मेरी नहीं, बल्कि म्यूजियम में आम जनता के लिए रखी गई उन तमाम मूर्तियों में से एक है। मैं उसे फिर वापस ले आना चाहता हूँ, उसके पाँव में काँटे चुभ जाते हैं, उसकी आँखों में अश्रु झिलमिलाने लगते हैं। यह दूरी, साथ ही यह आलिंगन की निकटता, नीरा के साथ यह खेल चलता ही जा रहा है जीवन भर।

‘नीरा के साथ मेरी इस यात्रा’ को सोमा बंद्योपाध्याय हिंदी पाठकों तक पहुँचाना चाहती हैं। इस यात्रा में हिंदी के पाठक यदि शामिल होना चाहें तो मुझे भी खुशी होगी।  

—सुनील गंगोपाध्याय


नीरा तुम्हारे पास

सीढ़ी के पास इतने शांत भाव से कौन बातें कर रहे थे? दरवाजा बंद कर वे निकल गए, फिर भी तुम खड़ी रही सीढ़ी पर रेलिंग पर तुम्हारे दोनों हाथ और ठुड्डी, तुम्हें देख कोई नहीं कहेगा ‘थिर बिजुरी’ तुम्हारा रंग साँवला, कमल-पत्तों से ज़रा सी की चोरी, तुम खड़ी रही नीरा, तुम्हें देख अचानक नीरा की ही याद आ गई। नीरा, तुम्हें साल भर में देख पाता हूँ सिर्फ दो दिन होली और वसंत पंचमी— दोनों दिन रंगों के बीच रंगों के बीच, फूलों के बीच, बरस भर में सिर्फ दो दिन— ये दोनों दिन, तुम सबसे अलग, ये दो दिन तुम जैसे कोई दूसरी नीरा बाकी तीन-सौ-तिरसठ दिन तुम्हें घेरे रहते हैं दूसरे प्रहरी। तुमने निर्जन कमरे में मेरा वह रूप नहीं देखा; मैंने अपनी दस्युता तुमसे छिपाकर रखा हमने अपने हृदय के करीब दोनों हाथों से छुआ नहीं। शून्यता को जबर्दस्ती, कभी भी हृदय के करीब जाके बातें नहीं की। आँखों की मस्ती से नहीं किया आँखों का प्रदक्षिण— मैंने अपना जंगलीपन तुमसे छिपाया है नीरा, तुम्हें देखा है नीरा, सिर्फ दो दिन। नीरा, तुम्हें देख अचानक नीरा की ही याद आ गई। मैंने तुम पर लोभ नहीं किया, तुम्हें धागे से नहीं खींचा छल से तुम्हारे मन्दिर समान शरीर में प्रवेश नहीं किया। रक्त-सने हाथों से तुम्हारा नाश नहीं किया; होली-और सरस्वती पूजा के दिन तुम से मिलना— सीढ़ी के पास इस तरह से खड़ी रही आज नीरा, तुम्हारे पास मैं नीरा के ही कारण रह गया ऋणी।

हठात् नीरा के लिए

बस स्टॉप पर मिले थे, तीन मिनट का मिलना, पर कल सपने में देखा था तुम्हें देर तक देखा छुरी की तरह बिंध गई सिंधु-पार—दिशा-चिह्न-विहीन— बावन तीर्थ की तरह एक शरीर, होने के बीच तुम्हें कल सपने में देखा था नीरा, सपना जो बन गई दवा, नीले दु:समय में। कब गई थी दक्षिण समुद्रद्वार, किसके संग? तुम क्या आज ही वापस आई हो? कैसा भयंकर था वह सपनों का समुन्दर, लहरों के बिना, शब्दविहीन जैसे तीन दिनों के बाद ही आत्मघाती होगा, गुम हो चुकी अँगूठी की तरह तुम्हारा दिगंत, दोनों जंघाएँ डूबी हुई हैं नीले पानी में अचानक तुम लगी किसी जुआरी की संगिनी जैसी जबकि तुम अकेली थी, गहरे सपने के भीतर तुम अकेली। सोऊँगा नहीं एक बरस, सपना देखकर ऊषा-लग्न में माथे का पसीना पोंछ लेना-बड़ा मूर्खों जैसा लगता है। इससे तो विस्मृति ही अच्छी है, पोशाक में ढके नग्न शरीर की तरह लज्जाहीन, मैं सोऊँगा नहीं एक बरस, बरस भर स्वप्नविहीन जागकर बावन तीर्थ की तरह तुम्हारे शरीर में भ्रमण कर पुण्यवान बनूँगा मैं। बस की खिड़की पर तुम्हारा हँसता हुआ चेहरा, ‘आज चलती हूँ, घर पर आइएगा!’ धूप के शोर में जैसे सारे शब्द डूब से गए। ‘थोड़ी देर रुक जाओ’, या ‘चलो लाइब्रेरी के पासवाले मैदान में,’ कोई मेरे दिल में ये बातें कह रहा था, सहसा अपनी घड़ी देख मन की आँखों से, मैं चौंककर रास्ता, बस, ट्रम, लोगों की भीड़ को पलटी खाते हुए पार कर, जैसे एक ओरांग-ओटांग चार हाथ-पाँव से दौड़कर पार कर रहा हो, पहुँच जाता हूँ ऑफिस के लिफ्ट के द्वार तक। बस स्टॉप पर तीन मिनट, जबकि तुम्हें देखा था कल सपने में देर तक!

अपमान और नीरा को उत्तर

सीढ़ी के पास खड़ी क्यों हँस पड़ी, साक्षी थे तीन मित्र सीढ़ी के पास खड़ी क्यों हँस पड़ी, साक्षी थे मित्र तीन सीढ़ी के पास खड़ी क्यों हँस पड़ी, नीरा, क्यों हँस पड़ी, आखिर क्यों? सहसा नींद में ही जैसे वज्रपात हुआ हो, जैसे ही सीढ़ी पर खड़ी सीढ़ी पर खड़ी, नीरा, हँस पड़ी, साक्षी रहे तीन मित्र सीढ़ी पर खड़ी क्यों, हँसी क्यों, साक्षी क्यों, मित्रों क्यों, सीढ़ी पर खड़ी-खड़ी क्यों हँसी तुम, साक्षी तीन ही क्यों? ये तीन मित्र! एक बार हाथ को छुआ, सात या ग्यारह महीने बाद, वह हाथ कुछ दुबला-पतला सा, ठंडा या गरम नहीं, अतीत से भी अलौकिक हँसने की आवाज की तरह रक्तधारा, बहुत प्रिय वह हाथ सिगरेट न रहता तो दोनों हाथों से जकड़कर उसका गंध लेता सिगरेट न रहता तो दोनों हाथों से जकड़कर उसका घ्राण लेता चेहरा या बालों का नहीं, उस हाथ को छूकर मैं सब कुछ जान लेता, मैं दुनिया के सब डॉक्टरों से बढ़कर, मैं हाथ को छूकर दूर शब्दों में भँवरों को पाता हूँ, प्रतिध्वनि फूलों की शून्यता— फूलों की? या कि फसलों की? बरामदे के नीचे ट्रेन की सीटी सुनाई पड़ती है, जैसे कोई मजाक हो टिकट खरीद ली गई है फिर विदेश जाऊँगा, समुद्र या नदी...फिर विदेश, ट्रेन की खिड़की से वह हाथ रूमाल उड़ाएगा। मैं रास्ते पर उतर आया अब और ठंड नहीं है, श्वासआकाश विहीन, द्रुत टैक्सी दौड़ती है स्वर्ग की ओर, हा-हा अट्टहास तैरता है इस जादुई-निशा में दिमाग में रत्ती भर भी भाप नहीं है, आँखों में मस्त अध-जगी नींद, नींद! याद आती है, नींद, तुम, नींद तुम, सीढ़ी के पास खड़ी क्यों, नींद सोने से पहले नहाती हो? नीरा तुम, सपनों में जैसे कुछ और थी... या फिर गीत? बाथरूम में लगा शीशा एक भयंकर स्मृति की तरह है, याद आता है बस-स्टॉप? सपने के भीतर सपने में— सपने में, बस स्टॉप पर कभी भी नहीं मिले, वह सब तो कविता थी! आज जिस तरह का गहरा दुख मिला, पर दुख कहाँ है, दुख को भी गहरा दुख है, हाय मनुष्य को दुख किसी भूत की भाँति जकड़ लेता है, चौराह पर कोई दुख नहीं है नीरा हृदय का सन्दूक खोल, मुझे थोड़ा सा दुख, हृदय का सन्दूक खोलकर, काश! कि हाथों से उसे छूकर पा सकता, हाथ छूकर, तब— धूसर पांडुलिपि में एक और कविता होती या फिर दुख न होने का गम...।प्यार उससे बड़ा तो नहीं!

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