नीड़ : राजगोपाल
Need : Rajagopal


स्मृतियाँ बिखरी है नीड़ की यहाँ जल-थल में बदल रहा है अभिकलन जीवन का पल-पल में चुभती है पीड़ा तृणों से सूखते प्रणय के नोकों से अब ठंडक नहीं पड़ती है जगती के छलते झोंकों से अंबुजा के हाथों से यहाँ हमारा नीड़ बना उसे पृथा पर देखते मन धीर-वीर सा तना न थका क्षण भर जीवन, कौन कर्मठ जग मे सोता है नीड़ बना, जुड़ा-टूटा, सत्य यही अवतरित होता है मौन व्रत है मोक्ष का आज सर्वस्व त्याग किये सुकान्ता है यहीं पर उन्माद बैठा है चिराग लिये किसकी है प्रतिमा यहाँ, इस नीड़ मे क्या धन है रति की माया मे डूबा यह कैसा तन-मन जीवन है कोई पास नहीं फिर भी वाचाल निशब्द नहीं रहता अपनी ही सुनता है, और आप से ही बीती कहता कभी कनखियों से वक्ष पर डालता है दृष्टि मोदमयी पर कौन विकल यहाँ झाँकने मन की मृदा नयी-नयी दिन का कलरव हो या गहरी निस्तब्ध निशा प्रणय ढूंढते मृग की भ्रमित हुयी है यह दिशा जब भी बात निकले तो मन रोता है चुपचाप रात क्या जाने नीड़ मे विधुर का एकाकी संताप उसे अनछुये ही तृष्णा कभी हर्षित होती है लेकिन निशांत तक जड़ तकिये पर रोती है न जाने क्यों संसृति जान कर भी दंड देती है आँचल में क्यों उसे बच्चों सा नहीं सेती है बरसों बीत गये पर लगती जैसे हो कल की बात जब हुई अवहेलना, मर गये प्रणय के भी तात बंटा नीड़, टूटे संबंध, जीवन पर छाया घना शोक बात आप ही मरी, नीड़ के बाहर नहीं था कोई लोक प्रणय-प्रसंग बुनते उर हुआ जगती मे वैरागी चिरबंधनों का संकल्प हुआ विलाप मे सहभागी मौन बांधे कंठ मे अपरिचित सांसें भी जूझती थकती दीवार पर टंगी स्मृतियाँ रही नित निशब्द सिसकती बढ़ते बच्चों तक था लक्ष्य हमारे जीवन का उनके थप्पड़ों से टूटता है अब विश्वास मन का अपरिचित से जी रहे हैं सभी यहाँ पिंजरों मे बंद किस से कहें थोड़ा उधार दे दें हमे अपना आनंद उधर प्रणय मांगे तो लगता है पशुता का आरोप परिणय क्या जाने निज निसर्ग नियमों का लोप मौन आसमान घूरते हम भूखे स्वयं को खिजाते हैं निर्लज्ज से जीवन मे फिर क्यों परस्पर रिझाते हैं निर्लिप्त होकर भी दृगों मे थी वासना की झलक निस्पर्श ही प्रणय की कसमसाहट जाती थी छलक बरसों की सेनह-सगाई झोंक कर क्यों न उठेगी ज्वाला आज नीड़ तले शापित है रसवन्ती कस्तूरी मधुबाला चिकुर जाल मे उलझ रहा था बेचारा परिणय-प्रणय मन पर तो खड्ग गिरा पर तन ठहरा भ्रमर सा तन्मय इस नीड़ मे क्यों घबराया वह वेताल सा झूल रहा काल-अकाल के बीच है कोई सम्बन्धों को भूल रहा बरसों का संस्कार दे कर मुझे क्यों विक्षिप्त बताती हो सम्बन्धों को रौंद कर अब किसे अस्मिता जताती हो प्राण! न उत्तेजित होना दोबारा, इस नीड़ मे अब प्रेम कहाँ प्रणय-मोह केवल माया है, न भटको अब तुम और यहाँ न रही मृदु बोली, न ही दिखते हैं मीठे हाव-भाव दिखावटी संवेदना से भरते नहीं हैं अब तन के घाव केवल वय का दोष नहीं जो लूट गया लावण्य-लोच सम्बन्धों पर नीड़ बनाना, है अपनी-अपनी सोच अपमानित मन क्यों पूछता है, आतिथ्य मिलेगा क्या पाषाण भी पिघले पर प्रमदे हृदय तुम्हारा हिलेगा क्या प्रश्न कई हैं पर उत्तर मैंने आँखों से ही है जान लिया यह चित्त जो तुम्हें समर्पित है, देवों को भी नहीं दिया शांति से सोचो, सम्बन्धों से ही उपजा है यह मोह यह सुधामय प्रीति है, नहीं कोई वासना का विद्रोह छोड़ कर साथ, न पृथक करो नीड़ को इस जीवन से खुले हैं बाहुपाश, अब और न बहने दो नीर नयन से सोचता हूँ कल भोर फटे क्या बदलेगा मन का रंग लौटेगी वही संध्या, चमकेगी चाँदनी निशा के संग बंद आँखों मे सुवर्णा तुम लगती जैसे प्राची की भूषा जब खुले नयन, मैं उठा लिये आशाओं की मंजूषा जब तक है प्राण, मृगतृष्णा ऐसे ही करती रहेगी क्रांति इस से विमुख हो कर, मौन तप से नहीं मिलेगी शांति नीड़ को थाम कर विकल हृदय के पट खोल दो तुम कल उठेगा फिर झंझावात, आज मीठा बोल दो तुम तुम नहीं रुधिर मे तो, जीवन एक आत्मवंचना है सहज ही जी लेंगे, फिर क्यों तन-मन खरोंचना है क्यों खिंचती है दूरी समेट कर शेष प्रणय इस वय मे लौट आओ, न होना भागीदार इस नीड़ के क्षय मे गिन लें जीवन के शेष, एक दिन फिर एक रात बांध कर मुट्ठियाँ रोक दें नीड़ के तले घात-प्रतिघात प्रणय संग हुआ है परिणय, अब कैसा यह तोल-मोल नीड़ से बंधे हैं प्रिये, रुक जा और न यह बंधन खोल