नैवेद्य : रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Naivedya : Rabindranath Tagore


न्याय-दण्ड

हे राजाधिराज तुमने अपना न्याय-दंड प्रत्येक व्यक्ति के हाथ में स्वयं अर्पित कर दिया है प्रत्येक व्यक्ति को शासन-भार सौंपा है शक्ति दो कि वह गौरवपूर्ण सम्मान वह कठिन कर्त्तव्य तुम्हें प्रणाम करके विनयपूर्वक शिरोधार्य कर सकूँ तुम्हारा कार्य करते हुए कभी किसी से भय न मानूँ हे रुद्र जहाँ क्षमा का अर्थ कोई क्षीण दुर्बलता हो वहाँ तुम्हारे आदेश से निष्ठुर बन सकूँ तुम्हारे इंगित पर मेरी रसना में सत्य वाक्य खर तलवार के समान झनझना उठे तुम्हारे विचारासन पर बैठकर मैं तुम्हारा मान रख सकूँ जो अन्याय करता है और जो अन्याय सहता है ऐसा करो जिससे तुम्हारी घृणा उसे तृण के समान जला डाले। अनुवादक : भवानी प्रसाद मिश्र

प्रार्थना

चित्त जहाँ भय शून्य, शीश जहाँ उच्च है ज्ञान जहाँ मुक्त है, जहाँ गृह-प्राचीरों ने वसुधा को आठों पहर अपने आँगन में छोटे-छोटे टुकड़े बनाकर बंदी नहीं किया है जहाँ वाक्य उच्छ्वसित होकर हृदय के झरने से फूटता जहाँ अबाध स्रोत अजस्र सहस्रविधि चरितार्थता में देश-देश दिशा-दिशा में प्रवाहित होता है जहाँ तुच्छ आचार का फैला हुआ मरुस्थल विचार के स्रोत पथ को सोखकर पौरुष को विकीर्ण नहीं करता सर्व कर्म चिंता और आनंदों के नेता जहाँ तुम विराज रहे हो हे पिता अपने हाथ से निर्दय आघात करके भारत को उसी स्वर्ण में जागृत करो। अनुवादक : भवानी प्रसाद मिश्र

मुक्ति

वैराग्य-साधन के द्वारा मुक्ति मेरे लिए नहीं है मैं असंख्य बंधनों में महाआनंदमय मुक्ति का स्वाद लूँगा इस वसुधा के मिट्टी के पात्र में बार-बार तुम्हारा नाना वर्ण गंधमय अमृत निरंतर ढालता रहूँगा सारा संसार दीपक के समान मेरी लक्ष-लक्ष वर्त्तिकाओं को तुम्हारी ही शिखा से छूकर तुम्हारे मंदिर में प्रज्ज्वलित कर देगा इंद्रियों के द्वार रुद्ध करके योगासन मेरे लिए नहीं है जो कुछ भी आनंद है दृश्य गंध और खाने में तुम्हारा आनंद उसी में निवास करेगा मेरा मोह मुक्ति बनकर जल उठेगा मेरा प्रेम भक्ति बनकर फलेगा। अनुवादक : भवानी प्रसाद मिश्र

त्राण

हे मंगलमय इस अभागे देश से सर्व तुच्छ भय दूर कर दो लोक-भय, राज-भय और मृत्यु-भय प्राण से दीन और बल से हीन का यह असभ्य भार यह नित्य पिसते रहने की यंत्रणा नित्य धूलि-तल में पतन पल-पल पर आत्मा का अपमान भीतर-बाहर दासत्व के बंधन हज़ारों के पैरों के नीचे बार-बार त्रस्त और नतशिर होकर मनुष्य की मर्यादा गौरव का अपहरण परिहरण मंगलमय अपने चरण के आघात से इस विपुल लज्जा-राशि को चूर्ण करके दूर कर दो अनंत आकाश उदार आलोक उन्मुक्त वातास से भरे हुए मंगल प्रभात में सिर ऊँचा करने दो। अनुवादक : भवानी प्रसाद मिश्र

हर हाथ पर तेरा न्याय का कर्मचारी (नैवेद्य 70)

हर हाथ पर तेरा न्याय का कर्मचारी आपने अपने आप को रखा है। प्रत्येक आदमी पर हे राजाओं के राजा, क्या तू ने उसका भाग राज्य करने को दिया है! यह महान सम्मान, आपका यह गंभीर कार्य क्या मैं आपको पूरी विनम्रता के साथ, आपको नमन करते हुए प्राप्त कर सकता हूं! तेरा काम करने में, मेरे प्रभु, क्या मैं डर सकता हूँ कोई अन्य कभी नहीं! जहां दया मात्र दुर्बल दुर्बलता है, हे रुद्र! क्या मैं वहां निर्दयी हो सकता हूं अपने ही फरमान से। आप से एक मात्र संकेत दें सच्चे शब्दों को कैंची की तरह तेज करो मेरी जीभ पर! क्या मैं आपके भरोसे पर खरा उतर सकता हूं तेरे धर्म के दरबार में अपना आसन ग्रहण करके! वह जो गलत करता है और वह जो सहन करता है - तेरा तिरस्कार दोनों घास के तिनकों के समान जले! अनुवादक : श्रीजीत दत्ता

  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण काव्य रचनाएँ : रवीन्द्रनाथ ठाकुर
  • मुख्य पृष्ठ : बांग्ला कहानियाँ और उपन्यास हिन्दी में : रवीन्द्रनाथ ठाकुर
  • मुख्य पृष्ठ : हिन्दी कविता वेबसाइट (hindi-kavita.com)