मुकुल : सुभद्रा कुमारी चौहान (हिन्दी कविता)

Mukul : Subhadra Kumari Chauhan

1. फूल के प्रति

डाल पर के मुरझाए फूल!
हृदय में मत कर वृथा गुमान।
नहीं है सुमन कुंज में अभी
इसी से है तेरा सम्मान।

मधुप जो करते अनुनय विनय
बने तेरे चरणों के दास।
नई कलियों को खिलती देख
नहीं आवेंगे तेरे पास।

सहेगा कैसे वह अपमान?
उठेगी वृथा हृदय में शूल।
भुलावा है, मत करना गर्व
डाल पर के मुरझाए फूल।

2. मुरझाया फूल

यह मुरझाया हुआ फूल है,
इसका हृदय दुखाना मत।
स्वयं बिखरने वाली इसकी
पंखड़ियाँ बिखराना मत।

गुजरो अगर पास से इसके
इसे चोट पहुँचाना मत।
जीवन की अंतिम घड़ियों में
देखो, इसे रुलाना मत।

अगर हो सके तो ठंडी
बूँदें टपका देना प्यारे!
जल न जाए संतप्त-हृदय
शीतलता ला देना प्यारे!!

3. कलह-कारण

कड़ी आराधना करके बुलाया था उन्हें मैंने।
पदों को पूजने के ही लिए थी साधना मेरी।
तपस्या नेम व्रत करके रिझाया था उन्हें मैंने।
पधारे देव, पूरी हो गई आराधना मेरी।

उन्हें सहसा निहारा सामने, संकोच हो आया।
मुँदीं आँखें सहज ही लाज से नीचे झुकी थी मैं।
कहूँ क्या प्राणधन से यह हृदय में सोच हो आया।
वही कुछ बोल दें पहले, प्रतीक्षा में रुकी थी मैं।

अचानक ध्यान पूजा का हुआ, झट आँख जो खोली।
नहीं देखा उन्हें, बस सामने सूनी कुटी दीखी।
हृदयधन चल दिए, मैं लाज से उनसे नहीं बोली।
गया सर्वस्व, अपने आपको दूनी लुटी दीखी।

4. चलते समय

तुम मुझे पूछते हो ’जाऊँ’?
मैं क्या जवाब दूँ, तुम्हीं कहो!
’जा...’ कहते रुकती है जबान
किस मुँह से तुमसे कहूँ ’रहो’!!

सेवा करना था जहाँ मुझे
कुछ भक्ति-भाव दरसाना था।
उन कृपा-कटाक्षों का बदला
बलि होकर जहाँ चुकाना था।

मैं सदा रूठती ही आई,
प्रिय! तुम्हें न मैंने पहचाना।
वह मान बाण-सा चुभता है,
अब देख तुम्हारा यह जाना।

5. भ्रम

देवता थे वे, हुए दर्शन, अलौकिक रूप था।
देवता थे, मधुर सम्मोहन स्वरूप अनूप था।
देवता थे, देखते ही बन गई थी भक्त मैं।
हो गई उस रूपलीला पर अटल आसक्त मैं।

देर क्या थी? यह मनोमंदिर यहाँ तैयार था।
वे पधारे, यह अखिल जीवन बना त्यौहार था।
झाँकियों की धूम थी, जगमग हुआ संसार था।
सो गई सुख नींद में, आनंद अपरंपार था।

किंतु उठ कर देखती हूँ, अंत है जो पूर्ति थी।
मैं जिसे समझे हुए थी देवता, वह मूर्ति थी।

6. समर्पण

सूखी सी अधखिली कली है
परिमल नहीं, पराग नहीं।
किंतु कुटिल भौंरों के चुंबन
का है इन पर दाग नहीं।

तेरी अतुल कृपा का बदला
नहीं चुकाने आई हूँ।
केवल पूजा में ये कलियाँ
भक्ति-भाव से लाई हूँ।

प्रणय-जल्पना चिन्त्य-कल्पना
मधुर वासनाएं प्यारी।
मृदु-अभिलाषा, विजई आशा
सजा रहीं थीं फुलवारी।

किंतु गर्व का झोंका आया
यदपि गर्व वह था तेरा।
उजड़ गई फुलवारी सारी
बिगड़ गया सब कुछ मेरा।

बची हुई स्मृति की ये कलियाँ
मैं समेट कर लाई हूँ।
तुझे सुझाने, तुझे रिझाने
तुझे मनाने आई हूँ।

प्रेम-भाव से हो अथवा हो
दया-भाव से ही स्वीकार।
ठुकराना मत, इसे जानकर
मेरा छोटा सा उपहार।

7. ठुकरा दो या प्यार करो

देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं

धूमधाम से साज-बाज से वे मंदिर में आते हैं
मुक्तामणि बहुमुल्य वस्तुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं

मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लाई
फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आई

धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का श्रृंगार नहीं
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं

कैसे करूँ कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं
मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं

नहीं दान है, नहीं दक्षिणा खाली हाथ चली आई
पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ चली आई

पूजा और पुजापा प्रभुवर इसी पुजारिन को समझो
दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो

मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आई हूँ
जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आई हूँ

चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो

8. स्मृतियाँ

क्या कहते हो? किसी तरह भी
भूलूँ और भुलाने दूँ?
गत जीवन को तरल मेघ-सा
स्मृति-नभ में मिट जाने दूँ?

शान्ति और सुख से ये
जीवन के दिन शेष बिताने दूँ?
कोई निश्चित मार्ग बनाकर
चलूँ तुम्हें भी जाने दूँ?

कैसा निश्चित मार्ग? ह्रदय-धन
समझ नहीं पाती हूँ मैं
वही समझने एक बार फिर
क्षमा करो आती हूँ मैं।

जहाँ तुम्हारे चरण, वहीँ पर
पद-रज बनी पड़ी हूँ मैं
मेरा निश्चित मार्ग यही है
ध्रुव-सी अटल अड़ी हूँ मैं।

भूलो तो सर्वस्व ! भला वे
दर्शन की प्यासी घड़ियाँ
भूलो मधुर मिलन को, भूलो
बातों की उलझी लड़ियाँ।

भूलो प्रीति प्रतिज्ञाओं को
आशाओं विश्वासों को
भूलो अगर भूल सकते हो
आंसू और उसासों को।

मुझे छोड़ कर तुम्हें प्राणधन
सुख या शांति नहीं होगी
यही बात तुम भी कहते थे
सोचो, भ्रान्ति नहीं होगी।

सुख को मधुर बनाने वाले
दुःख को भूल नहीं सकते
सुख में कसक उठूँगी मैं प्रिय
मुझको भूल नहीं सकते।

मुझको कैसे भूल सकोगे
जीवन-पथ-दर्शक मैं थी
प्राणों की थी प्राण ह्रदय की
सोचो तो, हर्षक मैं थी।

मैं थी उज्ज्वल स्फूर्ति, पूर्ति
थी प्यारी अभिलाषाओं की
मैं ही तो थी मूर्ति तुम्हारी
बड़ी-बड़ी आशाओं की।

आओ चलो, कहाँ जाओगे
मुझे अकेली छोड़, सखे!
बंधे हुए हो ह्रदय-पाश में
नहीं सकोगे तोड़, सखे!

9. जाने दे

कठिन प्रयत्नों से सामग्री
एकत्रित कर लाई थी ।
बड़ी उमंगों से मन्दिर में,
पूजा करने आई थी ।।

पास पहुंकर देखा तो,
मन्दिर का का द्वार खुला पाया ।
हुई तपस्या सफल देव के
दर्शन का अवसर आया ।।

हर्ष और उत्साह बढ़ा, कुछ
लज्जा, कुछ संकोच हुआ ।
उत्सुकता, व्याकुलता कुछ-कुछ
कुछ सभ्रम, कुछ सोच हुआ ।।

किंतु लाज, संकोच त्यागकर
चरणों पर बलि जाऊंगी ।
चिर संचित सर्वस्व पदों पर
सादर आज चढ़ाऊँगी ।।

कह दूंगी अपने अंतर की
कुछ भी नहीं छिपाऊँगी ।
जैसी जो कूछ हूं उनकी ही
हूं, उनकी कहलाऊँगी ।।

पूरी जान साधना अपनी
मन को परमानन्द हुआ ।
किंतु बढ़ी आगे, देखा तो
मन्दिर का पट बन्द हुआ ।।

निठुर पुजारी ! यह क्या मुझ पर
तुझे न तनिक दया आई?
किया द्वार को बन्द और
मैं प्रभु को नहीं देख पाई ?

करके कृपा पुजारी, मुझको
जरा वहां तक जाने दे ।
प्रियतम के थोड़ी-सी पूजा
चरणों तक पहुँचाने दे ।।

जी भर उन्हे देख लेने दे,
जीवन सफल बनाने दे ।
खोल, खोल दे द्वार पुजारी !
मन की व्यथा मिटाने दे ।।

बहुत बड़ी आशा से आई हूं,
मत कर तू मुझे निराश ।
एक बार, बस एक बार, तू
जाने दे प्रियतम के पास।

10. शिशिर-समीर

शिशिर-समीरण, किस धुन में हो,
कहो किधर से आती हो ?
धीरे-धीरे क्या कहती हो ?
या यों ही कुछ गाती हो ?

क्यों खुश हो ? क्या धन पाया है ?
क्यों इतना इठलाती हो ?
शिशिर-समीरण ! सच बतला दो,
किसे ढूँढने जाती हो ?

मेरी भी क्या बात सुनोगी,
कह दूँ अपना हाल सखी ?
किन्तु प्रार्थना है, न पूछना,
आगे और सवाल सखी ।।

फिरती हुई पहुँच तुम जाओ,
अगर कभी उस देश सखी !
मेरे निठुर श्याम को मेरा
दे देना सन्देश सखी !

मिल जावें यदि तुम्हें अकेले,
हो ऐसा संयोग सखी !
किन्तु देखना वहाँ न होवें
और दूसरे लोग सखी !!

खूब उन्हें समझा कर कहना
मेरे दिल की बात सखी ।
विरह-विकल चातकी मर रही
जल-जल कर दिन रात सखी !!

मेरी इस कारुण्य दशा का
पूरा चित्र बना देना ।
स्वयं आँख से देख रही हो
यह उनको बतला देना !!

दरस-लालसा जिला रही है,
कह देना, समझा देना ।
नासमझी यदि कहीं हुई हो
तो उसको सुलझा देना ।।

कहना किसी तरह वे सोचें
मिलने की तदबीर सखी ।
सही नहीं जाती अब मुझसे
यह वियोग की पीर सखी ।।

चूर-चूर हो गया ह्रदय यह
सह-सह कर आघात सखी !
शिशिर-समीरण भूल न जाना ।
कह देना सब बात सखी ।।

11. पारितोषिक का मूल्य

मधुर-मधुर मीठे शब्दों में
मैंने गाना गाया एक ।
वे प्रसन्न हो उठे खुशी से
शाबाशी दी मुझे अनेक ।।

निश्चल मन से मैंने उनकी
की सभक्ति सादर सेवा ।
पाया मैंने कृतज्ञता
का उसी समय मीठा मेवा ।।

नवविकसित सुरभित कलियाँ ले,
मैंने रुचि से किया सिंगार ।
मेरी सुन्दरता की प्रिय ने
ली तुरन्त तस्वीर उतार ।।

हुई प्रेम-विह्वल मैं उनके
चरणों पर बलिहार गयी ।
बदले में प्रिय का चुम्बन पा
जीत गयी या हार गयी ।।

उस शाबाशी से, कृतज्ञता से,
तस्वीर खिंचाने से ।
हुई खुशी से मैं पागल-सी
प्रिय का चुम्बन पाने से ।।

घटने लगा किन्तु धीरे-
धीरे यह पागलपन मेरा ।
एक नशा था, उतर गया, हो
गया दुखी-सा मन मेरा ।।

गाना एक और गाया, अब
केवल मन बहलाने को।
सेवा-भाव लिये निकली मैं
अब जन-कष्ट मिटाने को ।।

सुन्दर खिले हुए फूलों से
किया आज भी साज-सिंगार
अखिल विश्व के लिए समेटे
अपने नन्हें उर में प्यार ।।

मैं प्रसन्न थी, पर प्रसन्नता
मेरी आज निराली थी।
मैं न आज मैं थी यह कोई
विश्व-प्रेम-मतवाली थी ।।

सेवा और श्रृंगार प्रेम से
भरा हुआ मेरा गाना ।
छिप कर सुना किसी ने
जिसका जान न पायी मैं आना ।।

सुनने वाला बोला, पर क्या
शब्द सुनाई देते थे ।
करते हुए प्रशंसा, विकसित
नेत्र दिखायी देते थे ।।

'पहिले में यह बात न थी,
यह है बेजोड़ निराला गीत ।'
मेरी प्रसन्नता ने प्रतिध्वनि
किया कि प्यारे वह संगीत-

शाबाशी के पुरस्कार का
कोरा मूल्य चुकाती थी,
वही कमी उस पुरस्कार
की कीमत को दरशाती थी ।।

12. चिंता

लगे आने, हृदय धन से
कहा मैंने कि मत आओ।
कहीं हो प्रेम में पागल
न पथ में ही मचल जाओ।

कठिन है मार्ग, मुझको
मंजिलें वे पार करनीं हैं।
उमंगों की तरंगें बढ़ पड़ें
शायद फिसल जाओ।

तुम्हें कुछ चोट आ जाए
कहीं लाचार लौटूँ मैं।
हठीले प्यार से व्रत-भंग
की घड़ियाँ निकट लाओ।

13. प्रियतम से

बहुत दिनों तक हुई परीक्षा
अब रूखा व्यवहार न हो।
अजी, बोल तो लिया करो तुम
चाहे मुझ पर प्यार न हो।

जरा जरा सी बातों पर
मत रूठो मेरे अभिमानी।
लो प्रसन्न हो जाओ
गलती मैंने अपनी सब मानी।

मैं भूलों की भरी पिटारी
और दया के तुम आगार।
सदा दिखाई दो तुम हँसते
चाहे मुझ से करो न प्यार।

14. मानिनि राधे

थीं मेरी आदर्श बालपन से
तुम मानिनि राधे
तुम-सी बन जाने को मैंने
व्रत-नियमादिक साधे ।।

अपने को माना करती थी
मैं वृषभानु-किशोरी।
भाव-गगन के कृष्णचन्द्र की
थी मैं चतुर चकोरी ।।

था छोटा-सा गाँव हमारा
छोटी-छोटी गलियां ।
गोकुल उसे समझती थी मैं
गोपी संग की अलियां ।।

कुटियों मे रहती थी, पर
मैं उन्हें मानती कुँजें ।
माधव का सन्देश समझती
सुन मधुकर की गुंजें ।।

बचपन गया, नया रंग आया
और मिला वह प्यारा ।
मैं राधा बन गयी, न था वह
कृष्णचन्द्र से न्यारा ।।

किन्तु कृष्ण यह कभी किसी पर
जरा पेम दिखलाता ।
लग जाती है आग
हृदय में, कुछ भी नहीं सुहाता ।।

खूनी भाव उठें उसके प्रति
जो हो प्रिय का प्यारा ।
उसके लिए हदय यह मेरा
बन जाता हत्यारा ।।

मुझे बता दो मानिनि राधे ।
प्रीति-रीति वह न्यारी ।
क्यों कर थी उस मनमोहन पर
अविचल भक्ति तुम्हारी ।।

तुम्हें छोड़कर बन बैठे जो
मथुरा-नगर-निवासी ।
कर कितने ही ब्याह, हुए जो
सुख-सौभाग्य-विलासी ।।

सुनतीं उनके गुण-गुण को ही,
उनको ही गाती थीं !
उन्हें याद कर सब कुछ भूली
उन पर बलि जाती थीं।।

नयनों के मृदु फूल चढातीं
मानस की मूरत पर ।
रहीं ठगी-सी जीवन भर
उस क्रूर श्याम-सूरत पर ।।

श्यामा कहलाकर, हो बैठी
बिना दाम की चेरी ।
मृदुल उमंगों की तानें थीं-
तू मेरा मैं तेरी ।।

जीवन का न्यौछावर हा हा !
तुच्छ उन्होनें लेखा ।
गये, सदा के लिए गये
फिर कभी न मुड़कर देखा ।।

अटल प्रेम फिर भी कैसा था
कह दो राधारानी !
कह दो मुझे जली जाती हूँ,
छोड़ो शीतल पानी ।।

ले आदर्श तुम्हारा, रह-रह
मैं मन को समझाती हूँ ।
किन्तु बदलते भाव न मेरे
शान्ति नहीं पाती हूँ ।।

15. आहत की अभिलाषा

जीवन को न्यौछावर करके तुच्छ सुखों को लेखा।
अर्पण कर सब कुछ चरणों पर तुम में ही सब देखा।।

थे तुम मेरे इष्ट देवता, अधिक प्राण से प्यारे।
तन से, मन से, इस जीवन से कभी न थे तुम न्यारे।।
अपना तुमको समझ, समझती थी, हूँ सखी तुम्हारी।
तुम मुझको प्यारे हो, मैं तुम्हें प्राण से प्यारी।।

दुनिया की परवाह नहीं थी, तुम में ही थी भूली।
पाकर तुम-सा सुहृद, गर्व से फिरती थी मैं फूली।।
तुमको सुखी देखना ही था जीवन का सुख मेरा।
तुमको दुखी देखकर पाती थी मैं कष्ट घनेरा।।

‘मेरे तो गिरधर गोपाल तुम और न दूजा कोई।।’
गाते-गाते कई बार हो प्रेम-विकल हूँ रोई।।
मेरे हृदय-पटल पर अंकित है प्रिय नाम तुम्हारा।
हृदय देश पर पूर्ण रूप से है साम्राज्य तुम्हारा।।

है विराजती मन-मन्दिर में सुन्दर मूर्ति तुम्हारी।
प्रियतम की उस सौम्य मूर्ति की हूँ मैं भक्त पुजारी।।
किन्तु हाय! जब अवसर पाकर मैंने तुमको पाया।
उस नि:स्वार्थ प्रेम की पूजा को तुमने ठुकराया।।

मैं फूली फिरती थी बनकर प्रिय चरणों की चेरी।
किन्तु तुम्हारे निठुर हृदय में नहीं चाह थी मेरी।।
मेरे मन में घर कर तुमने निज अधिकार बढ़ाया।
किन्तु तुम्हारे मन में मैंने तिल भर ठौर न पाया।।

अब जीवन का ध्येय यही है तुमको सुखी बनाना।
लगी हुई सेवा में प्यारे! चरणों पर बलि जाना।।
मुझे भुला दो या ठुकरा दो, कर लो जो कुछ भावे।
लेकिन यह आशा का अंकुर नहीं सूखने पावे।।

करके कृपा कभी दे देना शीतल जल के छींटे।
अवसर पाकर वृक्ष बने यह, दे फल शायद मीठे ॥

16. जल समाधि

अति कृतज्ञ हूंगी मैं तेरी
ऐसा चित्र बना देना।
दुखित हृदय के भाव हमारे।
उस पर सब दिखला देना।।

प्रभु की निर्दयता, जीवों की
कातरता दरसा देना।
मृत्यु समय के गौरव को भी
भली-भांति झलका देना।।

भाव न बतलाए जाते हैं।
शब्द न ऐसे पाती हूं।
इसीलिए हे चतुर चितेरे!
तुझको विनय सुनाती हूं।।

देख सम्हलकर, खूब सम्हलकर
ऐसा चित्र बना देना।
सुंदर इठलाती सरिता पर
मंदिर-घाट दिखा देना।।

वहीं पास के पुल से बढ़कर
धारा तेज बहाना फिर।
चट्टान से टकराता-सा
भारी भंवर घुमाना फिर।।

उसी भंवर के निकट, किनारे
युवक खेलते हों दो-चार।
हंसते और हंसाते हों वे
निज चंचलता के अनुसार।।

किंतु उसी! धारा में पड़कर
तीन युवक बह जाते हों।
थके हुए फिर किसी शिला से
टकराकर रुक जाते हों।।

उनके मुंह पर बच जाने का
कुछ संतोष दिखा देना।
किंतु साथ ही घबराहट में
उत्कंठा झलका देना।।

गहरी धारा में नीचे अब
एक दृश्य यह दिखलाना।
रो-रो उसे बहा मत देना
कुशल चितरे! रुक जाना।।

धारा में सुंदर बलिष्ठ-तन
युवक एक दिखलाता हो।
क्रूर शिलाओं में फंसकर जो
तड़प-तड़प रह जाता हो।।

फिर भी मंद हंसी की रेखा
उसके मुंह पर दिखलाना।
नहीं मौत से डरता था वह,
हंस सकता था बतलाना।।

किंतु साथ ही धीरे-धीरे
बेसुध होता जाता हो।
क्षण-क्षण से सर्वस्व दीप का
मानो लुटता जाता हो।।

ऊपर आसमान में धुंधला-सा
प्रकाश कुछ दिखलाना।
उसी ओर से श्यामा तरुणी का
धीरे-धीरे आना।।

बिखरे बाल विरस वदना-सी
आंखे रोई-रोई-सी।
गोदी में बालिका लिए,
उन्मन-सी खोई-खोई-सी।।

आशा-भरी दृष्टि से प्रभु की
ओर देखती जाती हो।
दुखिया का सर्वस्व न लुटने
पावे, यही मनाती हो।।

इसके बाद चितेरे जो तू
चाहे, वही बना देना।
अपनी ही इच्छा से अंतिम
दृश्य वहां दिखला देना।।

चाहे तो प्रभु के मुख पर
कुछ करुणा-भाव दिखा देना।
अथवा मंद हंसी की रेखा,
या निर्लज्ज बना देना।।

(यह कविता नर्मदा नदी के
भंवर में फंसकर डूब जाने
वाले देवीशंकर जोशी की
मृत्यु पर लिखी गई है।)

17. मेरा नया बचपन

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी।

चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी।

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया।

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे।

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया।

दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे।

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई।

लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी।

दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी।

मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने।

सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं।

माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है।

किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना।

आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति।

वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी।

'माँ ओ' कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आई थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लाई थी।

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा।

मैंने पूछा 'यह क्या लाई?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'।

पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया।

मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ।

जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया।

18. बालिका का परिचय

यह मेरी गोदी की शोभा, सुख सोहाग की है लाली
शाही शान भिखारन की है, मनोकामना मतवाली

दीप-शिखा है अँधेरे की, घनी घटा की उजियाली
उषा है यह काल-भृंग की, है पतझर की हरियाली

सुधाधार यह नीरस दिल की, मस्ती मगन तपस्वी की
जीवित ज्योति नष्ट नयनों की, सच्ची लगन मनस्वी की

बीते हुए बालपन की यह, क्रीड़ापूर्ण वाटिका है
वही मचलना, वही किलकना, हँसती हुई नाटिका है

मेरा मंदिर,मेरी मसजिद, काबा काशी यह मेरी
पूजा पाठ, ध्यान, जप, तप, है घट-घट वासी यह मेरी

कृष्णचन्द्र की क्रीड़ाओं को अपने आंगन में देखो
कौशल्या के मातृ-मोद को, अपने ही मन में देखो

प्रभु ईसा की क्षमाशीलता, नबी मुहम्मद का विश्वास
जीव-दया जिनवर गौतम की,आओ देखो इसके पास

परिचय पूछ रहे हो मुझसे, कैसे परिचय दूँ इसका
वही जान सकता है इसको, माता का दिल है जिसका

19. इसका रोना

तुम कहते हो - मुझको इसका रोना नहीं सुहाता है ।
मैं कहती हूँ - इस रोने से अनुपम सुख छा जाता है ।
सच कहती हूँ, इस रोने की छवि को जरा निहारोगे ।
बड़ी-बड़ी आँसू की बूँदों पर मुक्तावली वारोगे । 1 ।

ये नन्हे से होंठ और यह लम्बी-सी सिसकी देखो ।
यह छोटा सा गला और यह गहरी-सी हिचकी देखो ।
कैसी करुणा-जनक दृष्टि है, हृदय उमड़ कर आया है ।
छिपे हुए आत्मीय भाव को यह उभार कर लाया है । 2 ।

हँसी बाहरी, चहल-पहल को ही बहुधा दरसाती है ।
पर रोने में अंतर तम तक की हलचल मच जाती है ।
जिससे सोई हुई आत्मा जागती है, अकुलाती है ।
छुटे हुए किसी साथी को अपने पास बुलाती है । 3 ।

मैं सुनती हूँ कोई मेरा मुझको अहा ! बुलाता है ।
जिसकी करुणापूर्ण चीख से मेरा केवल नाता है ।
मेरे ऊपर वह निर्भर है खाने, पीने, सोने में ।
जीवन की प्रत्येक क्रिया में, हँसने में ज्यों रोने में । 4 ।

मैं हूँ उसकी प्रकृति संगिनी उसकी जन्म-प्रदाता हूँ ।
वह मेरी प्यारी बिटिया है मैं ही उसकी प्यारी माता हूँ ।
तुमको सुन कर चिढ़ आती है मुझ को होता है अभिमान ।
जैसे भक्तों की पुकार सुन गर्वित होते हैं भगवान । 5 ।

20. झांसी की रानी

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।

वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़।

महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आई थी झांसी में।

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।

निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।

अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात?
जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।

बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

रानी रोईं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।

यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,

जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में।

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजई रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।

घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आई बन स्वतंत्रता-नारी थी,

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

21. राखी की चुनौती

बहिन आज फूली समाती न मन में ।
तड़ित आज फूली समाती न घन में ।।
घटा है न झूली समाती गगन में ।
लता आज फूली समाती न बन में ।।

कही राखियाँ है, चमक है कहीं पर,
कही बूँद है, पुष्प प्यारे खिले हैं ।
ये आई है राखी, सुहाई है पूनो,
बधाई उन्हें जिनको भाई मिले हैं ।।

मैं हूँ बहिन किन्तु भाई नहीं है ।
है राखी सजी पर कलाई नहीं है ।।
है भादो घटा किन्तु छाई नहीं है ।
नहीं है खुशी पर रुलाई नहीं है ।।

मेरा बंधु माँ की पुकारो को सुनकर-
के तैयार हो जेलखाने गया है ।
छिनी है जो स्वाधीनता माँ की उसको
वह जालिम के घर में से लाने गया है ।।

मुझे गर्व है किन्तु राखी है सूनी ।
वह होता, खुशी तो क्या होती न दूनी ?
हम मंगल मनावे, वह तपता है धूनी ।
है घायल हृदय, दर्द उठता है खूनी ।।

है आती मुझे याद चित्तौर गढ की,
धधकती है दिल में वह जौहर की ज्वाला ।
है माता-बहिन रो के उसको बुझाती,
कहो भाई, तुमको भी है कुछ कसाला ?

है, तो बढ़े हाथ, राखी पड़ी है ।
रेशम-सी कोमल नहीं यह कड़ी है ।।
अजी देखो लोहे की यह हथकड़ी है ।
इसी प्रण को लेकर बहिन यह खड़ी है ।।

आते हो भाई ? पुन पूछती हूँ--
कि माता के बन्धन की है लाज तुमको?
-तो बन्दी बनो, देखो बन्धन है कैसा,
चुनौती यह राखी की है आज तुमको ।।

22. विजई मयूर

तू गरजा, गरज भयंकर थी,
कुछ नहीं सुनाई देता था।
घनघोर घटाएं काली थीं,
पथ नहीं दिखाई देता था।

तूने पुकार की जोरों की,
वह चमका, गुस्से में आया।
तेरी आहों के बदले में,
उसने पत्थर-दल बरसाया।

तेरा पुकारना नहीं रुका,
तू डरा न उसकी मारों से।
आखिर को पत्थर पिघल गए,
आहों से और पुकारों से।

तू धन्य हुआ, हम सुखी हुए,
सुंदर नीला आकाश मिला।
चंद्रमा चाँदनी सहित मिला,
सूरज भी मिला, प्रकाश मिला।

विजई मयूर जब कूक उठे,
घन स्वयं आत्मदानी होंगे।
उपहार बनेंगे वे प्रहार,
पत्थर पानी-पानी होंगे।

23. जलियाँवाला बाग में बसंत

(जलियाँवाला बाग की घटना बैसाखी को घटी थी,
बैसाखी वसंत से सम्बंधित महीनों (फाल्गुन और चैत्र)
के अगले दिन ही आती है)

यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।

कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।

परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।

ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।

वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।

कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।

लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।

किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।

कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,
कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।

आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।

कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।

तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।

यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।

24. मेरी कविता

मुझे कहा कविता लिखने को,
लिखने बैठी मैं तत्काल ।
पहले लिखा जलियाँवाला,
कहा कि बस हो गये निहाल ।।

तुम्हें और कुछ नहीं सूझता,
ले-देकर वह खूनी बाग ।
रोने से अब क्या होता है,
धुल न सकेगा उसका दाग ।।

भूल उसे चल हंस मस्त हो,
मैंने कहा -धरो कुछ धीर ।
तुमको हंसते देख कहीं,
फिर फ़ायर करे न डायर वीर ।।

कहा- न मैं कुछ लिखने दूंगा,
मुझे चाहिए प्रेम-कथा !
मैंने कहा -नवेली ही है वह,
रम्य-वदन है चन्द्र यथा !!

अहा ! मगन हो उछल पड़े वे,
मैंने कहा-सुनो चुपचाप ।
बड़ी-बड़ी-सी भोली आंखें,
केश-पाश ज्यों काले नाग ।।

भोली-भाली आंखें देखो,
उसे नहीं तुम रुलवाना ।
उसके मुंह से प्रेम-भरी,
कुछ मीठी बातें कहलाना ।।

हां, वह रोती नहीं कभी भी,
और नहीं कुछ कहती है ।
शून्य दृष्टि से देखा करती
खिन्नमना-सी रहती है ।।

करके याद पुराने सुख की,
कभी चौंक-सी पड़ती है ।
भय से कभी कांप जाती है,
कभी क्रोध में भरती है ।।

कभी किसी की ओर देखती,
नहीं दिखायी देती है !
हंसती नहीँ किन्तु चुपके से,
कभी-कभी रो लेती है ।।

ताजे हल्दी के रंग-सी,
कुछ पीली उसकी सारी है ।
लाल-लाल से धब्बे हैं कुछ,
अथवा लाल किनारी है ।।

उसका छोर लाल ! संभव है,
हो वह खूनी रंग से लाल ।
है सिन्दूर-बिन्दु से सज्जित,
अब भी कुछ-कुछ उसका भाल ।।

अब भी है उसके पैरों में,
बनी महावर की लाली,
हाथों में मेंहदी की लाली,
वह दुखिया भोली-भाली ।।

उसी बाग की ओर शाम को,
जाती हुई दिखाती है ।
प्रात:काल सूर्योदय से,
पहले ही फिर आती है ।।

लोग उसे पागल कहते हैं,
देखो तुम न भूल जाना !
तुम भी उसे न पागल कहना,
मुझे क्लेश मत पहुँचाना ।।

उसे लौटती समय देखना,
रम्य वदन पीला-पीला !
सारी का वह लाल छोर भी,
रहना है बिलकुल गीला ।।

डायन भी कहते हैं उसको
कोई कोई हत्यारे ।
उसे देखना किन्तु न ऐसी
गलती तुम करना प्यारे ।।

बाईं ओर हृदय में धड़कन
कुछ उसके दिखलाती है ।
वह भी तो प्रतिदिन क्रम-क्रम से
धीमी होती जाती है ।।

किसी रोज सम्भव है, उसकी
मिट जावे यह भी धड़कन ।
बुझ जायें आंखें, धीमी
जो होती जाती हैं क्षण-क्षण ।।

उसकी ऐसी दशा देखना
आंसू चार बहा देना ।
उसके दु:ख में दुखिया बनकर
तुम भी दु:ख मना लेना ।।

25. राखी

भैया कृष्ण ! भेजती हूँ मैं
राखी अपनी, यह लो आज ।
कई बार जिसको भेजा है
सजा-सजाकर नूतन साज ।।

लो आओ, भुजदण्ड उठाओ
इस राखी में बँध जाओ ।
भरत - भूमि की रजभूमि को
एक बार फिर दिखलाओ ।।

वीर चरित्र राजपूतों का
पढ़ती हूँ मैं राजस्थान ।
पढ़ते - पढ़ते आँखों में
छा जाता राखी का आख्यान ।।

मैंने पढ़ा, शत्रुओं को भी
जब-जब राखी भिजवाई ।
रक्षा करने दौड़ पड़ा वह
राखी - बन्द - शत्रु - भाई ।।

किन्तु देखना है, यह मेरी
राखी क्या दिखलाती है ।
क्या निस्तेज कलाई पर ही
बँधकर यह रह जाती है ।।

देखो भैया, भेज रही हूँ
तुमको-तुमको राखी आज ।
साखी राजस्थान बनाकर
रख लेना राखी की लाल ।।

हाथ काँपता, हृदय धड़कता
है मेरी भारी आवाज ।
अब भी चौक-चौक उठता है
जलियाँ का वह गोलन्दाज ।।

यम की सूरत उन पतितों का
पाप भूल जाऊँ कैसे?
अंकित आज हृदय में है
फिर मन को समझाऊँ कैसे ?

बहिने कई सिसकती हैं हा
सिसक न उनकी मिट पाई ।
लाज गँवाई, गाली पाई
तिस पर गोली भी खाई ।।

डर है कही न मार्शल-ला का
फिर से पड़ जावे घेरा ।
ऐसे समय द्रौपदी-जैसा
कृष्ण ! सहारा है तेरा ।।

बोलो, सोच-समझकर बोलो,
क्या राखी बँधवाओगे
भीर पडेगी, क्या तुम रक्षा-
करने दौड़े आओगे।

यदि हाँ तो यह लो मेरी
इस राखी को स्वीकार करो ।
आकर भैया, बहिन 'सुभद्रा'-
के कष्टों का भार हरो ।।

26. विजयादशमी

विजये ! तूने तो देखा है
वह विजयी श्री राम सखी !
धर्म भीरु सात्विक निश्छ्ल मन
वह करुना का धाम सखी !

वनवासी असहाय और फिर
हुआ विधाता वाम सखी ।
हरी गई सहचरी जानकी
वह व्याकुल घनश्याम सखी !

कैसे जीत सका रावण को
रावण था सम्राट सखी !
सोने की लंका थी उसकी
सजे राजसी ठाट सखी !

रक्षक राक्षस सैन्य सबल था
प्रहरी सिंधु विराट सखी !
नर ही नहीं, देव डरते थे
सुन कर उसकी डांट सखी !

राम-समान हमारा भी तो
रहा नहीं अब राज सखी !
राजदुलारों के तन पर हैं
सजे फकीरी साज सखी !

हो असहाय भटकते फिरते
वनवासी-से आज सखी !
सीता-लक्ष्मी हरी किसी ने
गयी हमारी लाज सखी !

आशा का सन्देश सुनाती
तू हमको प्रति वर्ष सखी !
इसी लिए तेरे आने पर
होता अतिशय हर्ष सखी !

रामचन्द्र की विजय-कथा का
भेद बता आदर्श सखी !
पराधीनता से छूटे यह
प्यारा भारतवर्ष सखी !

पर इतने से ही होता है,
किसे भला संतोष सखी !
जरा हृदय तो देख भरे हैं,
यहां रोष के कोष सखी !

वह दिन था, जब दिया किसी ने,
रन में जरा प्रचार सखी !
मिटा दिया यम को भी हमने,
हुआ हमारा वार सखी !

और, आज तू देख, देख ये
सबल बचाते प्राण सखी ।
रण से पिछड़ पड़े, कहते हैं-
करो देश का तराण सखी !

छिड़ा आज यह पाप-पुण्य का
युद्ध अनोखा एक सखी ।
मर जावें पर साथ न देंगे,
पापों का, है टेक सखी ।

सबलों को कुछ सीख सिखाओ
मरें करें … उद्धार सखी !
दानव दल दें, पाप मसल दें,
मेटें अत्याचार सखी !

सबल पुरुष यदि भीरु बनें,
तो हमको दे वरदान सखी।
अबलाएँ उठ पड़ें देश में,
करें युद्ध घमसान सखी।

पंद्रह कोटि असहयोगिनियाँ,
दहला दें ब्रह्मांड सखी।
भारत-लक्ष्मी लौटाने को,
रच दें लंका काण्ड सखी ।

खाना पीना सोना जीना,
हो पापी का भार सखी !
मर-मर कर पापों का कर दें,
हम जगती से छार सखी ।

देखें फिर इस जगती-तल में,
होगी कैसे हार सखी !
भारत मां की बेड़ी काटें,
होवे बेड़ा पार सखी !

दो विजये ! वह आत्मिक बल दो,
वह हुंकार मचाने दो।
अपनी निर्बल आवाजों से,
दुनिया को दहलाने दो ।

‘जय स्वतंत्रिणी भारत माँ’ !
यों कहकर मुकुट लगाने दो।
हमें नहीं, इस भू-मण्डल को,
माँ पर बलि-बलि जाने दो ।

छेड़ दिया संग्राम, रहेगी
हलचल आठों याम सखी!
असहयोग सर तान खड़ा है
भारत का श्रीराम सखी !

पापों के गढ़ टूट पड़ेंगे,
रहना तुम तैयार सखी !
विजये! हम तुम मिल कर लेंगी,
अपनी माँ का प्यार !

27. मातृ-मन्दिर में

वीणा बज-सी उठी, खुल गये नेत्र
और कुछ आया ध्यान।
मुड़ने की थी देर, दिख पड़ा
उत्सव का प्यारा सामान॥

जिसको तुतला-तुतला करके
शुरू किया था पहली बार।
जिस प्यारी भाषा में हमको
प्राप्त हुआ है माँ का प्यार॥

उस हिन्दू जन की गरीबिनी
हिन्दी प्यारी हिन्दी का।
प्यारे भारतवर्ष -कृष्ण की
उस प्यारी कालिन्दी का॥

है उसका ही समारोह यह
उसका ही उत्सव प्यारा।
मैं आश्चर्य भरी आँखों से
देख रही हूँ यह सारा॥

जिस प्रकार कंगाल-बालिका
अपनी माँ धनहीना को।
टुकड़ों की मोहताज़ आजतक
दुखिनी सी उस दीना को॥

सुन्दर वस्त्राभूषण सज्जित,
देख चकित हो जाती है।
सच है या केवल सपना है,
कहती है रुक जाती है ।।

पर सुंदर लगती है, इच्छा
यह होती है कर ले प्यार ।
प्यारे चरणों पर बलि जाये
कर ले मन भर के मनुहार ।।

इच्छा प्रबल हुई, माता के
पास दौड़ कर जाती है ।
वस्त्रों को संवारती, उसको
आभूषण पहनाती है ।

उसी भांति आश्चर्य मोदमय,
आज मुझे झिझकाता है ।
मन में उमड़ा हुआ भाव बस,
मुंह तक आ रुक जाता है ।।

प्रेमोन्मत्ता होकर तेरे पास
दौड़ आती हूं मैं ।
तूझे सजाने या संवारने
में ही सुख पाती हूं मैं ।।

तेरी इस महानता में,
क्या होगा मूल्य सजाने का ?
तेरी भव्य मूर्ति को नकली
आभूषण पहनाने का ?

किन्तु हुआ क्या माता ! मैं भी
तो हूं तेरी ही सन्तान ।
इसमें ही संतोष मुझे है
इसमें ही आनन्द महान ।।

मुझ-सी एक एक की बन तू
तीस कोटि की आज हुई ।
हुई महान, सभी भाषाओं
की तू ही सरताज हुई ।।

मेरे लिए बड़े गौरव की
और गर्व की है यह बात ।
तेरे ही द्वारा होवेगा,
भारत में स्वातंत्रय-प्रभात ।।

असहयोग पर मर-मिट जाना
यह जीवन तेरा होगा ।
हम होंगे स्वाधीन, विश्व का
वैभव धन तेरा होगा ।।

जगती के वीरों-द्वारा
शुभ पदवन्दन तेरा होगा !
देवी के पुष्पों द्वारा,
अब अभिनन्दन तेरा होगा ।।

तू होगी आधार, देश की
पार्लमेण्ट बन जाने में ।
तू होगी सुख-सार, देश के
उजड़े क्षेत्र बसाने में ।।

तू होगी व्यवहार, देश के
बिछड़े हृदय मिलाने में ।
तू होगी अधिकार, देशभर
को स्वातंत्रय दिलाने में ।।

28. मातृ-मन्दिर में

व्यथित है मेरा हृदय-प्रदेश
चलूँ उसको बहलाऊँ आज ।
बताकर अपना सुख-दुख उसे
हृदय का भार हटाऊँ आज ।।

चलूँ मां के पद-पंकज पकड़
नयन जल से नहलाऊँ आज ।
मातृ-मन्दिर में मैंने कहा-
चलूँ दर्शन कर आऊँ आज ।।

किन्तु यह हुआ अचानक ध्यान
दीन हूं, छोटी हूं, अञ्जान!
मातृ-मन्दिर का दुर्गम मार्ग
तुम्हीं बतला दो हे भगवान !

मार्ग के बाधक पहरेदार
सुना है ऊंचे-से सोपान ।
फिसलते हैं ये दुर्बल पैर
चढ़ा दो मुझको यह भगवान !

अहा ! वे जगमग-जगमग जगी
ज्योतियां दीख रहीं हैं वहां ।
शीघ्रता करो, वाद्य बज उठे
भला मैं कैसे जाऊं वहां ?

सुनाई पड़ता है कल-गान
मिला दूं मैं भी अपने तान ।
शीघ्रता करो, मुझे ले चलो
मातृ-मन्दिर में हे भगवान !

चलूं मैं जल्दी से बढ़ चलूं
देख लूं मां की प्यारी मूर्ति ।
अहा ! वह मीठी-सी मुसकान
जगाती होगी न्यारी स्फूर्ति ।।

उसे भी आती होगी याद
उसे ? हां, आती होगी याद ।
नहीं तो रूठूंगी मैं आज
सुनाऊँगी उसको फरियाद ।।

कलेजा मां का, मैं सन्तान,
करेगी दोषों पर अभिमान ।
मातृ-वेदी पर घण्टा बजा,
चढ़ा दो मुझको हे भगवान् !!

सुनूँगी माता की आवाज,
रहूँगी मरने को तैयार।
कभी भी उस वेदी पर देव !
न होने दूँगी अत्याचार।।

न होने दूँगी अत्याचार
चलो, मैं हो जाऊँ बलिदान
मातृ-मन्दिर में हुई पुकार
चढ़ा दो मुझको हे भगवान् ।

29. मातृ-मन्दिर में

देव ! वे कुंजें उजड़ी पड़ीं
और वह कोकिल उड़ ही गयी ।
हटायीं हमने लाखों बार
किन्तु घड़ियां जुड़ ही गयीं ।।

विष्णु ने दिया दान ले लिया
कुश्लता गयी, अंधेरा मिला ।
मातृ-मन्दिर में सूने खड़े
मुक्ति के बदले मरना मिला ।।

आह की कठिन लूह चल रही
नाश का घन-गर्जन हो रहा ।
बूंद या बाण बरसने लगे
पापियों से तर्जन हो रहा ।

अमर-लोचन के धन को लिये
चलो, चल पड़ें, खुले हैं द्वार ।
गर्ज का कुश्लाम्बर ले चलें
मातृ-मन्दिर से हुई पुकार ।।

जननि के दुख की घड़ियां कटें
सजावें पूजा का साहित्य ।
आरती उतरे आदर-भरी
करों में लें नभ का आदित्य ।।

आज वे सन्देशे सुन पड़ें
कटे पद-कंजों की जंजीर ।
मुक्ति की मतवाली मां उठे
उठावें बेटी-बेटे वीर ।।

पाप पृथ्वी से उठ जाय
पापियों से टूटे सम्बन्ध।
प्यार, प्रतिभा, प्राणों की उठे
त्यागमय शीतल-मंद-सुगंध ।।

विजयिनी मां के वीर सुपुत्र
पाप से असहयोग लें ठान ।
गुंजा डालें स्वराज्य की तान
और सब हो जावें बलिदान ।।

जरा ये लेखनियां उठ पड़ें
मातृ-भूमि को गौरव से मढ़ें ।
करोड़ों क्रांतिकारिणि मूर्ति
पलों में निर्भयता से गढ़ें ।।

हमारी प्रतिभा साध्वी रहे
देश के चरणों पर ही चढ़े ।
अहिंसा के भावों में मस्त
आज यह विश्व जोतना पड़े ।।

30. झण्डे की इज़्ज़त में

धन्य हुई मैं आज, धन्य है
सखि सौभाग्य हमारा ।

जिसकी थी इच्छुका, मिला है
सुझे समय वह प्यारा ॥

माँ की वेदी पर बलि होने-
का शुभ अवसर आया।

जन्म सफल हो गया; आज ही
मैंने सब कुछ पाया ॥

विदा माँगती हूँ मैं सब से
लो, देखो, हूँ जाती।
क़ौमी झण्डे की इज़्ज़त में
हूँ यह शीश चढ़ाती ॥

31. मेरी टेक

निर्धन हों धनवान,
परिश्रम उनका धन हो।
निर्बल हों बलवान,
सत्यमय उनका मन हो।

हों स्वाधीन गुलाम,
हृदय में अपनापन हो।
इसी आन पर कर्मवीर
तेरा जीवन हो।

तो, स्वागत सौ बार
करूँ आदर से तेरा।
आ, कर दे उद्धार,
मिटे अंधेर-अंधेरा।

32. विदाई

कृष्ण-मंदिर में प्यारे बंधु
पधारो निर्भयता के साथ।
तुम्हारे मस्तक पर हो सदा
कृष्ण का वह शुभचिंतक हाथ।

तुम्हारी दृढ़ता से जग पड़े
देश का सोया हुआ समाज।
तुम्हारी भव्य मूर्ति से मिले
शक्ति वह विकट त्याग की आज।

तुम्हारे दुख की घड़ियाँ बनें
दिलाने वाली हमें स्वराज्य।
हमारे हृदय बनें बलवान
तुम्हारी त्याग मूर्ति में आज।

तुम्हारे देश-बंधु यदि कभी
डरें, कायर हो पीछे हटें,
बंधु! दो बहनों को वरदान
युद्ध में वे निर्भय मर मिटें।

हजारों हृदय बिदा दे रहे,
उन्हें संदेशा दो बस एक।
कटें तीसों करोड़ ये शीश,
न तजना तुम स्वराज्य की टेक।

33. विदा

"गिरफ़्तार होने वाले हैँ,
आता है वारन्ट अभी !”
धक-सा हुआ हृदय, मैं सहमी
हुए विकल साशंक सभी ॥

किन्तु सामने दीख पड़े
मुस्कुरा रहे थे खड़े-खड़े।
रुके नहीं, आँखों से आँसू
सहसा टपके बड़े-बड़े॥

‘‘पगली, यों ही दूर करेगी
माता का यह रौरव कष्ट?’’
रुका वेग भावों का, दीखा
अहा ! मुझे यह गौरव स्पष्ट॥

तिलक, लाजपत, श्री गांधीजी
गिरफ़्तार बहुबार हुए।
जेल गये, जनता ने पूजा,
संकट में अवतार हुए॥

जेल! हमारे मनमोहन के
प्यारे पावन जन्म-स्थान।
तुझको सदा तीर्थ मानेगा
कृष्ण-भक्त यह हिन्दुस्तान॥

मैं प्रफुल्ल हो उठी कि आहा!
आज गिरफ़्तारी होगी।
फिर जी धड़का, क्या भैया की
सचमुच तैयारी होगी!!

आँसू छलके, याद आ गयी,
राजपूत की वह बाला।
जिसने विदा किया भाई को
देकर तिलक और भाला॥

सदियों सोयी हुई वीरता
जागी, मैं भी वीर बनी।
जाओ भैया, विदा तुम्हें
करती हूँ मैं गम्भीर बनी॥

याद भूल जाना मेरी
उस आँसू वाली मुद्रा की।
कीजे यह स्वीकार बधाई
छोटी बहिन ‘सुभद्रा’ की॥

34. स्वागत

(१९२० में नागपुर में होने वाली
कांग्रेस के स्वागत में)

तेरे स्वागत को उत्सुक यह खड़ा हुआ है मध्य-प्रदेश
अर्घ्यदान दे रही नर्मदा दीपक सवयं बना दिवसेश ।।

विंधयाचल अगवानी पर है
वन-श्री चंवर डुलाती है ।
भोली-भाली जनता तेरा
अटपट स्वागत गाती है।।

आ मैया कांग्रेस हमारी आकांक्षा की प्यारी मूर्ति !
राज्यहीन राजाओं के गत वैभव की स्वाभाविक पूर्ति !!

है स्वागत की स्फूर्ति तदपि
मां ! मन में होता है कुछ सोच ।
आनन्द में घबराहट-सी है,
है उत्साह और संकोच ।।

हमें नहीं भय संगीनों का, चमक रहीं जो उनके हाथ ।
जरा नहीं डर उन तोपों का, गरज रहीं जो बल के साथ ।।

ढीठ सिपाही की हथकड़ियाँ
दमन नीति के वे कानून ।
डरा नहीं सकते हैं हमको
यद्‌यपि बहावें प्रतिदिन खून ॥

हम हिंसा का भाव त्याग कर विजयी, वीर, अशोक बने ।
काम करेंगे वही कि जिससे लोक और परलोक बने ॥

किन्तु आज स्वागत की धुन में
हमें नहीं कुछ भी परवाह ।
तुझको पाकर दीन -हीन भी
निज को समझ रहा नरनाह ॥

है इतना उत्साह कि डर है, हम उन्‍मत्त न बन जावें।
है इतना विश्वास कि भय है, हम गर्विष्ट न कहलावें ॥

इतना बल है प्रबल कहीं हम, अत्याचार न कर डालें।
यही सोच, संकोच यही, मर्यादा पार न कर डालें ॥

अत: विनय है शान्ति सहित माँ
हमको मार्ग सुझा देना।
भड़की हुई हृदय की ज्वाला
माँ ! कर प्यार बुझा देना॥

लुटे हुए दीनों की आशा, तू दासों की उज्जवल रत्न ।
भारतीय स्वातंत्र्य प्राप्ति की तू चिरजीवी सात्विक यत्न ॥

मरे हुए को अमर बनाने-
वाली तू संजीवन मन्त्र ।
प्रिय स्वराज्य-सञ्चालन को
एकमात्र तू जीवित यन्त्र॥

..........
..........

गरदन कटी हमारी रण में
पड़ा हमारा ही हथियार।
पर मालिक बन गये और ही
दिया दासता का उपहार॥

ऐसे समय सहारा तेरा है बच्चों की यही पुकार।
कर ये दूर धाक धमकी के नौकरशाही के अधिकार ॥

वायु बहे स्वच्छन्द भारती,
भारत का फूले उद्यान।
नव वसन्‍त के साथ भारती
देखे भारत का उत्थान॥

आयी हो वरदायिनि ! आओ, आओ-आओ बारम्बार ।
त्रुटियों की कुटिया प्रस्तुत है और तुम्हारा है अधिकार ॥

इस कुटिया को महल समझना
हम हैं बालक अज्ञानी ।
पूजा को तैयार खड़े हें,
स्वागत ! आओ महरानी !!

35. स्वागत गीत

कर्म के योगी, शक्‍ति-प्रयोगी
देश-भविष्य सुधारियेगा ।
हाँ, वीर-वेश के दीन देश के,
जीवन प्राण पछारियेगा ।।

तुम्हारा कर्म-चढ़ाने को हमें डोर हुआ ।
तुम्हारी बातों से दिल-में हमारे जोर हुआ ।।
तुम्हें कुचलने को दुश्मन का जी कठोर हुआ ।
तुम्हारे नाम का हर ओर आज शोर हुआ ।।

हां, पर-उपकारी, राष्ट्र-बिहारी ।
कर्म का मर्म सिखाइयेगा ।।

तुम्हारे बच्चों को कष्टों में आज याद हुई ।
तुम्हारे आने से पूरी सभी मुराद हुई ।।
गुलामखानों में राष्ट्रीयता आबाद हुई ।
मादरे हिन्द यों बोली कि मैं आजाद हुई ।।

हां, दीन के भ्राता, संकट त्राता,
जी की जलन बुझाइयेगा ।।

राष्ट्र ने कहा कि महायुद्ध का नियोग करो ।
कम्पा दो विश्व को, अब शक्ति का प्रयोग करो ।
हटा दो दुश्मनों को, डट के असहयोग करो ।
स्वतंत्र माता को करके, स्वराज्य भोग करो ।।

हां, हिंसा-हारी, शस्त्र-प्रहारी
रार की रीति सिखाइयेगा ।।

36. स्वदेश के प्रति

आ, स्वतंत्र प्यारे स्वदेश आ,
स्वागत करती हूँ तेरा।
तुझे देखकर आज हो रहा,
दूना प्रमुदित मन मेरा।

आ, उस बालक के समान
जो है गुरुता का अधिकारी।
आ, उस युवक-वीर सा जिसको
विपदाएं ही हैं प्यारी।

आ, उस सेवक के समान तू
विनय-शील अनुगामी सा।
अथवा आ तू युद्ध-क्षेत्र में
कीर्ति-ध्वजा का स्वामी सा।

आशा की सूखी लतिकाएं
तुझको पा, फिर लहराईं।
अत्याचारी की कृतियों को
निर्भयता से दरसाईं।

37. मत जाओ

यों असहाय छोड़ कर असमय
कैसे जाते हो भगवान ?
लौटो, तुम्हें न जाने देंगे,
दुखी देश के जीवन-प्राण !

भारत मैया की नैया के
चतुर खेवैया लौट चलो ।
इस कुसमय में साथ न छोड़ो,
रुक जाओ, ठहरो, सुन लो ।।

आशा-बेलि स्वदेश-भूमि की
यों न हाय ! मुर्झाने दो !

लौटो, लौटो, भारत के घन !
उसे ज़रा हरियाने दो॥

जननि निछावर होगी तुमपर
जनता वलि - वलि जावेगी ।
श्रद्धा और प्रीति से तुमको
नयनों में बिठलावेगी॥

लौटो, आओ, मदराले में
मन्दिर हम बनवा देंगे।
यहाँ हथकड़ी और बेड़ियाँ-
का घण्टा टंगवा देंगे॥

तुम बन जाना प्रमुख पुजारी
करते रहना नित टंकार ।
हम सब मिलकर करें प्रार्थना
हो स्वराज्य का मन्त्रोचार ॥

तब स्वतंत्रता देवी देगी
प्रमुदित हो प्यारा वरदान ।
यह पहिनो जयमाल गले में
........
........

38. विस्मृत की स्मृति

उधर गो- भक्त कहाता देश
इधर ये लाखों गायें कटें।
उधर करती वैतरणी पार
इधर वे हाय ! छुरी से छटें ॥

उधर मचता है हाहाकार
इधर ये क़दम न पीछे हटें ।
देखकर ये उलटे व्यवहार
हमारे हृदय शोक से फटें॥

उधर तुम कहलाते गोपाल
इधर ये गौएँ दिन - दिन कटें ।
कहो, तुमही कह दो गोपाल
तुम्हें अब कौन नाम से रटें? ॥

बचाने को तुमने गो- वंश
उठाया था गोवर्धन हाथ।
किन्तु अब गोबध होता देख
क्‍यों नहीं आते हो तुम नाथ ?॥

मनाते जन्‍म - दिवस ही रहे
कृष्ण ! तुम बोलो आये कहाँ ?
व्यर्थ क्यों धोखा देकर गये
कि "आऊँगा मैं फिर भी यहाँ ॥"

..........
..........
छले जाते हैं. यद्यपि नित्य
किन्तु हम करते हैं विश्वास।
एक दिन आओगे तुम कृष्ण
दुष्ट-दल का करने को नाश ॥

अभी भी यहाँ बहुत से कंस
मचाते हैं नित अत्याचार ॥
नष्ट होता प्यारा गोवंश
बढ़ा जाता पृथ्वी का भार॥

तुम्हारे स्वागत के हित बने-
हुए हैं अब भी कारागार।
घटायें नभ में काली घिरीं
बरसतीं देखो मूसलधार ॥

अँधेरा छाया है यह घना
जन्म का प्रस्तुत है सामान ।
यही है कृष्ण, जन्म का समय
वचन पूरा कर दो भगवान॥

(इस रचना पर अभी काम चल रहा है )

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