मौन प्रसंग : राजगोपाल
Maun Prasang : Rajagopal

मौन प्रसंग
एक प्रणय काव्य-कथा



परिचय...

...प्रेम, प्रणय, संबंध सभी अनौपचारिक आश्वासनों पर निर्मित होते हैं. अनौपचारिकता धीरे-धीरे व्यवहार मे बदल जाते हैं और विश्वास बन जाते हैं. विश्वास सम्बन्धों को सुरक्षित रखते हैं. जब विश्वास टूटता है तो अपार पीड़ा होती है और जीवन में संवाद- शून्यता की स्थिति आती है जो कुछ समय तक सम्बन्धों को और अधिक टूटने से रोकती हैं. उस समय प्रणय, परिचित, परिवार सभी निस्तब्ध हो जाते हैं. केवल मन जागृत रहता है और हृदय प्राण थामे बजता जाता है. मन तो मूक ठहरा, भावनाओं से किसे समझाता. ऐसी दशा जीवन को संवेदनहीन और जड़ बना देती है. इस कविता संग्रह के तीन भाग हैं-तुमसे क्या बोलूँ, जब तुमसे कुछ कहता था, और चित्रा. ‘तुमसे क्या बोलूँ’ एक काव्य-कथा है जो इस रचना का परिष्कृत संस्करण है. ‘समय’इस काव्य-कथा का सूत्रधार है. आशा है इन रचनाओं मे छिपी भावनाएं आपके आस-पास भी होंगी. सादर... राजगोपाल मेक्सिको सिटी जनवरी 2021

तुमसे क्या बोलूँ

...मैं ‘समय’ हूँ, इस कथा का सूत्रधार... इस संबंध को दशकों बीत गए. जीवन के तीसरे दशक के प्रारम्भ मे अनायास चित्रा से भेंट हुयी. उसे देख कर ऐसा आभास हुआ जैसे जीवन को एक दिशा मिल गयी. आरंभ आकर्षक हुआ. तन- मन के समीकरण जीवन के खांचे मे सटीक बैठे. उन दिनों थकान से टूटती रातें भी रतिमय होती. आंखों मे छा जाता उन्माद, एक हाथ की दूरी खो जाती अँधियारे में कहीं, और न जाने यौवन समय पर लदा कब सो जाता. कर्म से फल तक की गतिविधियां धीरे-धीरे दशकों की दिनचर्या बनी और यही दिनचर्या आगे स्वभाव बनी. स्वभाव प्रकृति है, जिसे बदल पाना कठिन है. समय बढ़ता गया. बच्चों के साथ पहले नीड़ फैला, फिर सिमटता गया जब उनके भी परिवार बढ़े. इस प्रयाण में लगा जैसे अब हम फिर लौट आये हैं अभिसार के आयामों में, जहां समय हमे जीवन दान दे गया हो. यह मिथ्या कुछ ही दिनों की थी. आज बदल गयी सम्बन्धों की परिभाषा. हम संवेदनहीन से देखते एक दूसरे को. तर्क-वितर्क होता अपने-अपने जीवन के दर्शन पर. जैसे-जैसे समय बढ़ता गया न प्रणय रहा, न रहा वह ऐतिहासिक अभिसार का आभास. चित्रा यथार्थवादी बनी किन्तु मेरी रगों में अभी भी प्रणय- अनुराग का रक्त दौड़ रहा था. माना काया शिथिल हुई पर मन का आवेग रुका नहीं. इसमे दोष किसी का नहीं था यह तो स्वभाव है, जैसा है वैसा ही रहेगा. कभी-कभी आँखों मे इतिहास चलचित्र सा घूम जाता है. मौन हुये आँखों मे जीवन दोहराना रोमांचक लगता है. कुछ स्मृतियाँ कोलाहल भी मचा जाती हैं और रात बहुत दूभर कर जातीं हैं. कुछ प्रश्न भी उठते हैं पर किससे पूछें- दिशाएँ जो अपनी-अपनी हैं. न ही प्रणय मिलता, न ही आशाएँ मरती. वृहद द्वंद है जीवन. चित्रा कहती, यही जीवन है, मरीचिका के पीछे न दौड़ो. यही मरीचिका कभी कस्तूरी उड़ाती थी, मन उसे अच्छी तरह पहचानता है. कुछ ऐसे ही कडवे संवादों मे मन पक्षघात से मरा, मूलतः जब चित्रा ने प्रणय को ‘अब नहीं’ कह कर शेष जीवन के लिये निष्कासित कर दिया. परिणामस्वरूप अश्रु भी सूखे, वह पाषाण सी बनी रही...मन कहता अब तुमसे क्या बोलूँ... यह रात गयी सूनी, अब तुमसे क्या बोलूँ आज बंद आँखों मे रंगमंच रचा परदे गिरे, स्मृतियों का ही अवशेष बचा फिर क्यों मन में कोलाहल व्यर्थ मचा रसिक नहीं कोई, किसके लिए मैं मधु घोलूँ यह रात गयी सूनी, अब तुमसे क्या बोलूँ मन शिथिल हुआ, पर लजायी नहीं काया कनखियों से झाँकती रही मन्मथ की माया ढूँढता रहा प्यार जो छोड़ गया अपनी छाया लुढ़की हाला, मैं झूठा ही मदिरा मे लय डोलूँ यह रात गयी सूनी, अब तुमसे क्या बोलूँ अंत से पहले ही, ‘अब नहीं’ कह दिया तुमने आरंभ बना इतिहास, जीवन ने टेक दिये घुटने अब प्रतीक्षा किसकी, सिधार गये सारे सपने बंद हुये सब दरवाजे, तुम्ही बतलाओ कैसे खोलूँ यह रात गयी सूनी, अब तुमसे क्या बोलूँ ... रात गयी पर बात नहीं गयी. अब तो केशव शून्य घूरता सारा दिन स्मृतियों से जूझता रहता. आंखे फटी रहती और कान बहरे हो जाते. कानों मे मन की बातें सुनाई देती और वाद-संवाद-प्रतिवाद सभी कानों मे बजते. ऐसे लगता जैसे मन वाचाल हुआ, दिग्भ्रमित सियार सा ‘हुआ-हुआ’ करता रहता. जब कभी शब्द फिसल जाते, फिर संसार-सागर के भंवर मे कहीं डूब जाते. परिणाम यह होता कि मन कई दिनों तक खिन्न सा जीता-मरता रहता. बरसों पुराने सम्बन्धों पर जब ‘अब नहीं’ की मुहर लग जाती है तब मन छटपटाता है और मूर्छित हो जाता है. यह मानसिक विकार नहीं, जीवन की एक अवस्था है, जो बहुत दुख देती है. अंधेरे मे ढूँढता है वह बरसों से बना स्वर्ग पर नहीं मिलता है कोई सुरंग जिसे पार कर फिर पा लेता वही पुराना सुख. ‘नहीं’ शब्द सत्य है, सम्पूर्ण विधा है. यह शब्द चुभता है कंकड़ सा पुरुषार्थ के सीने में. जिस नीड़ का निर्माण किया था दोनों ने, आज समाया अधोगति में. धन- वैभव की कमी से नहीं, अपितु संवेदना, भावना, मिठास के खो जाने से लगता है आज स्वर्ग भी विलुप्त हुआ. धीरे-धीरे स्मृतियाँ भी मिट जाएंगी. चित्रा के साथ जिये पलों की रजत-रेखा धूमिल हो जाएगी. मृत्यु के उस पार किसने देखा है. कुछ दिन और स्मृतियाँ बनी रहतीं तो जीवन को संबल मिलता. प्रणय सिधारा, अभिसार की इच्छा प्रेत बनी. तर्पण हुआ मन-मंगल भावनाओं का, फिर भी हम दोनों जीवित हैं वृक्षों की तरह निस्तब्ध. प्यार की बात नहीं करते-उसका तो अध्याय ही समाप्त हो गया. हम स्वयं को आश्वासित करते, यह कह कर कि प्रणय न पहले था, न अभी है, न होगा आगे, वे तो केवल परिस्थितियाँ थी जिन्हें हम झेल गये. यथार्थ और छल के बीच फंसा मन रोता है, कभी वाचाल सा बड़बड़ाता है...निष्प्रयोजन... स्मृतियों मे खोया, मन क्यों इतना वाचाल हुआ बरसों हुए, पर लगता है आँखों में आज उर के अंदर ही फिर बजा है कोई साज खुले कान, किसी ने सुनी नहीं आवाज़ जब मुंह से निकला कोई शब्द, भूचाल हुआ स्मृतियों मे खोया, मन क्यों इतना वाचाल हुआ बरसों तक अधरों से मधु टपका हाला समझ उस पर यौवन लपका कंकड़ सा लगा जब भयभीत पलक झपका उसके स्नेह का स्वर्ग आज पाताल हुआ स्मृतियों मे खोया, मन क्यों इतना वाचाल हुआ कभी सहलाते यादों को, कुछ और जी लेते अभिसार भी सिधारा,देख उसे क्या कर लेते जीवित हैं हम, पर देख प्यार उस से मुंह फेर लेते मूक ही झरते आँसू, जीवन क्षण-क्षण निढाल हुआ स्मृतियों मे खोया, मन क्यों इतना वाचाल हुआ ... कर्मठ जीवन मे सब कुछ बटोर लेना बहुत दूभर प्रयास है. प्रेयसी के पत्नी बन जाने के उपरांत भी उसे प्रेयसी का स्तर आयु पर्यंत देना प्रणय की परिभाषा के परे नहीं है. धन- वैभव-सुख प्रत्याशा के अनुरूप प्रेयसी को समर्पित करना और उसे देख कर सुख का आभास करना पुरुष की सात्विक मानसिकता है. पुरुष फिर भी सुर-तुल्य नहीं होता. वह किसी भी नक्षत्र मे जन्म लिया हो, कहीं अन्तर्मन मे तमस छिपा ही रहता है. किसी से तनिक भी सुख मांगना तामसिकता है, भले ही वह पत्नी क्यों न हो लेकिन यदि सुख झोली मे गिर स्वतः जाये तो राजसिकता है. लेकिन समय के साथ-साथ मनोभाव भी बदलते हैं. कभी आशा से अधिक मांग लिया तो जीवन मे विशेषण जुड़ जाते हैं जो धीरे-धीरे मनोबल ही नहीं पुरुषार्थ भी क्षीण कर जाते हैं. प्यार, उल्लास, और उन्माद वसंत ऋतु सी हैं. जब रंग बिखरती हैं तो लगता है यही सृष्टि है. कुछ कुसुम होते हैं जो ज्येष्ठ तक जी लेते हैं. उन्हे देख कर लगता है सृष्टि कितनी संबल है. यही चित्रा थी जो वसंत की उल्लास ही नहीं, जेष्ठ की घनी छाया भी थी. आज अंजलि मे केवल उस वसंत की स्मृतियाँ शेष हैं. ‘अब नहीं’ के आव्हान ने याचक की सीमा बांध दी. जीवन यही है- सत्य सीमित है, अमेय नहीं जो भावना और संवेदना की नींव पर खड़ा होता है. जीवन के इतने लंबे प्रयाण के बाद जब अंतिम चरण मे प्रेयसी-पत्नी से पुरुष कुछ मांगे तो निष्ठुर उत्तर हृदय झकझोर जाता है. उस समय लगता है जीवन मे न वसंत था, न ही कोई मधुमय पल था. जो भी मिला वह सा आषाढ़ सा बह गया... सन्नाटे मे केवल मौन क्रंदन का आभास शेष रह गया. आषाढ़ सा बह गया यह जीवन मेरा तुम खिली वसंत सी मुस्कुराती ज्येष्ठ गए पलाश सी लहराती कल तक यौवन घन बरसाती आज स्मृतियों के काल समाया मन मेरा आषाढ़ सा बह गया यह जीवन मेरा आशाएँ तिनकों सी बह कर बांध बनी प्यासी आंखे, क्षितिज घूरती हुयी घनी भूखा तन, सोचता तुम रूप की कितनी धनी गिरता-उठता हार गया मैं यह रण तेरा आषाढ़ सा बह गया यह जीवन मेरा पहले बरसों लेटा रहा मैं तुम्हारी ही छाया फिर आज क्यों नहीं मैं उसके मन भाया मांगा एक स्पर्श, वह भी निष्ठुर ठुकराया मैं सुन रहा सन्नाटे में आज मौन क्रंदन मेरा आषाढ़ सा बह गया यह जीवन मेरा ... आज जीवन शून्य लग रहा था जैसे कभी आरंभ ही न हुआ हो. ‘नहीं’ शब्द ‘काल’ है, ‘निर्वाण’ है, ‘मृत्यु’ या ‘समाधि’ है. उसके आगे न कोई तर्क-वितर्क, न ही कोई युक्ति चलती है. अब मौन जीवन का साधन बना. हम घना यथार्थ जी रहे थे, जिसमे न ही कोई संवाद रहे, न कोई भाव. चित्रा कहती अब वातावरण भारी हो चुका है. जब उर पर पत्थर पड़े तो स्वयं पर हँसते. कमरे बदले, जड़ तकियों पर आँसू बहे, लेकिन प्रणय तो सिधार चुका था. हम वहीं थे ‘नहीं’ के साथ. हम एक-दूसरे पर पीठ किए अपनी करवट सोते. कोई दीवार देखता तो दूसरा खिड़की से आती पराई रोशनी. चित्रा मे कोई अब भाव शेष नहीं थे जो संबंध फिर संभाल लेते. एक हाथ की दूरी भी मरीचिका लगती थी. यदि स्पर्श नहीं तो कोई मधुर शब्द भी संजीवनी बन सकते थे. अब यह सब कुछ सोच कर क्या होगा... रात गए उर पर पत्थर रख, आज वह हंसा आप पर... उर पर पत्थर रख, आज मैं हंसा आप पर अंधेरा उठा, बंद हुये सारे संवाद न पुरानी बातें न कोई प्रतिवाद चल रहे शून्य में हम, अपना ही बोझ लाद कौन सुना इन जड़ तकियों में विलाप कर उर पर पत्थर रख, आज मैं हंसा आप पर जब चमकती उस आषाढ़ की दामिनी शब्दों से रच जाती वह मिलन-यामिनी विवश हुई स्मृतियाँ, निष्प्राण हुई कामिनी मरे प्रेम-गीत, रोये अपने ही आलाप पर उर पर पत्थर रख, आज मैं हंसा आप पर एक शब्द मधुर कहती, मन फिर भर जाता बरसों का बीता सुख, आँखों मे उभर आता एक पल भी, युगों सा तुमसे निथर जाता जी लेता फिर काम-कृत सबसे निष्पाप हो कर उर पर पत्थर रख, आज मैं हंसा आप पर ... ‘समय’ निराकार नियंत्रक है. जीवन हमेशा उसे भूल जाता है और जड़-क्रंदन करता रहता है. धीरे-धीरे समय बदला, परिस्थितियाँ बदलीं, और चित्रा भी बदल गयी. किन्तु, अचल थी मन की अभिलाषा, प्रणय की पुकार, और वही पुरानी आलिंगन की अपेक्षा. समय जो इन सब से परे, कर्म-फल का अधिपति है, उसके आगे मन-संवेदना की कुछ न चली. अंततः मन अकेला ही रह गया. जब चित्रा से मिला था, वह समय कुछ और था. उसने ही किया नीड़ का निर्माण. वही भाग्य बनी जीवन में. बच्चे हुये, उनकी ओर जीवन का झुकाव बढ़ा, पर सम्बन्धों का संतुलन बना रहा. वे जीवन के बहुत ही मनोरंजक पल थे. बच्चों को बड़ा करने मे थोड़ी सी पीड़ा तो हुयी परंतु अधिक सुख का आभास हुआ. हम कनखियों से कहीं न कहीं सुख ढूंढ ही लेते थे. आज तो आँखें फाड़ कर उन क्षणों को नहीं ढूंढ पाते हैं. हम कहाँ प्रकृति से दूर थे, समय बढ़ता गया और जीवन भी समझौते करता गया. बच्चे बड़े हुये, उनके अपने नीड़ बने, सुख-दुख की उनकी अपनी झोलियाँ बनी. आज स्तब्ध दीवारों के बीच फिर से हम दोनों ही शेष रहे. हृदय तो वही पुराना था लेकिन भावनाएं उलझती गयी. धीरे से उड़ गयी कस्तूरी, मधु का घट खाली हुआ. चित्रा की ‘नहीं’ का आशाओं के आयतन मे कोई परिवर्तन नहीं आया. कहीं से मधु टपकता तो बात कुछ और ही होती... लेकिन आज समय लूट गया मेरे जीवन का प्रिय-धन... आज समय लूट गया मेरे जीवन का प्रिय-धन टूटी छत तले जब उसे पाया भूख मिटी, भाग्य देहरी चढ़ आया पारिजात सा प्यार टोकनी भर लाया नीड़ बना, फिर बरसों बरसे तन-मन सघन आज समय लूट गया, मेरे जीवन का प्रिय-धन साँझ पड़े घर दौड़ते रात से आगे अधरों पर बिछते, सोते अंधेरे में जागे बच्चे हुये, फिर लिये जीवन चार-पहर भागे आशा-प्रत्याशा में फंसे, उम्र भर ढूंढते रहे कंचन आज समय लूट गया, मेरे जीवन का प्रिय-धन प्रपंच छूटने लगा, आज बचे हम रूखे मन फिर भी भीगा रहता चाहे तन तपता सूखे कहीं से मधु टपकता तो न रहते भूखे कभी प्राण रहते देना अभिसार का वचन आज समय लूट गया, मेरे जीवन का प्रिय-धन एक ओर चित्रा का अस्वीकार और दूसरी ओर मन का उन्माद, इतना सर चढ़ कर बोलते कि मस्तिष्क मे तनाव बढ़ता ही गया. रात मे न ही शांति कि नींद आती, न ही आँखों मे स्मृतियों का रेला रुकता. कभी स्वयं का सर फोड़ने का मन करता, कभी अपने आप को मरा देखता. इतनी असमर्थता पहले कभी न हुयी थी. कहाँ जाता, शब्दों के बाण किसी भी दिशा मे लगते. उसकी ओर मुड़ूँ तो स्वार्थी, दूसरी छांव चलूँ तो पलायनवादी, किसी और शहर से दूर साथ चलें तो सामंतवादी, या फिर काया-माया में गिरा हुआ पुरुष. ऐसी दशा मे जड़ तकियों में सिर छिपा कर मौन आँसू बहाते सो जाने मे ही बुद्धिमत्ता थी. यथार्थ यही था, प्रणय का इतिहास छल कर सम्बन्धों को कर गया मीलों दूर. मन बावला फिर भी सोचता, कोई मन सहलाता, मैं सो जाता, सपनों मे खो जाता. लेकिन प्रायः रातों के लंबे पल फटी आँखों मे ही बीत जाते. हृदय जलता, मन कहता ऐसी निष्ठुर न थी चित्रा... कौन विकल यहाँ सुनने मन की बातें... सुख- दुख मे गिरता-उठता फिर ऐसे ही मैं सो जाता... कोई मन सहलाता, मैं सपनों मे खो जाता तुम्हारा सौन्दर्य रजनी में बिछा शून्य मे ही अभिसार रचा जड़ तकियों में थका सिर छिपा मौन आँसू बहाते, मैं अंधेरा थामे सो जाता कोई मन सहलाता, मैं सपनों मे खो जाता बहुत बरसा प्यार जैसे उठा हो सावन फिर बहा समय में जब दौड़ा जीवन सूखा आज मरुभूमि सा निष्कृत यौवन फिर भी मैं आँखें फाड़े तिमिर मे सो जाता कोई मन सहलाता, मैं सपनों मे खो जाता अपनी ही लौ मे मन मोम सा गला छूटी माया, अब अवशेष भी जला उठा धुआँ, बचा जो अंगारों पर ढला सुख-दुख मे गिरता-उठता मैं फिर सो जाता कोई मन सहलाता, मैं सपनों मे खो जाता ... ऐसे ही दिन-पर-दिन बीत गए. आशाएँ मरी, सपने भी अब छोड़ गए नयन. चित्रा कहती थी किसी भी एक जैसे व्यवहार की छह सप्ताह मे आदत पड़ जाती है, मन- शरीर उस क्रिया से अभ्यस्थ हो जाता है. प्रणय के आरंभ मे लगा यही संसार है, संसृति है. पर यह तो थोड़ा सा सत्य, उससे अधिक मिथ्या का मुरब्बा था. जीवन के अंत मे प्रज्ञा जागती है, उस समय स्वयं से पूछते हैं-स्वर्ग कहाँ है? अनभिज्ञता मे दोष किसी का नहीं, यह तो प्रकृति है- आशाएँ असीम होती हैं और इन्हे तर्क से नही बांधा जा सकता है. सप्तपदी, धर्म-संबंध सभी समाज के नियम हैं पर ये निभते तो व्यक्तिगत तरह से हैं. आश्वासन कितने विश्वसनीय हैं इन्हे तो समय ही पहचानता है- कभी कुछ ही दिनों में, कभी देर से, या कभी नहीं. कभी लगता है विस्तृत संसार मे प्रणय समझने के सारे प्रयास असफल हैं क्योंकि इसे कोई पूरी तरह कभी समझ नहीं पाया...निराशा कहीं न कहीं मिल ही जाती है... मरी आशाएँ, सपने भी अब छोड़ गए नयन प्रेम हुआ, लगा यही है विश्वरूप दर्शन लपकी इच्छा, मिथ्या मे डूबे लोचन अब पछताये, जीवन नहीं है आलिंगन रूप-रस-रमणी और छल मे कर न सका चयन मरी आशाएँ, सपने भी अब छोड़ गए नयन रूठा जब मुझसे मन का कण-कण दोष ढूँढता रहा उसमे तन-यौवन बरस निचोड़ गए रस, अब सूखा मधुवन बची काया, हुये विस्मृत सब धर्म-वचन मरी आशाएँ, सपने भी अब छोड़ गए नयन नियति ने डाली तन-मन की चिर तृष्णा जलता जीवन जैसे मरुभूमि की हो उष्णा समाधि भी झूठी, माया से न होती है वितृष्णा फैली संसृति की बाहों मे, मेरे सारे व्यर्थ जतन मरी आशाएँ, सपने भी अब छोड़ गए नयन ... पीड़ा की परिभाषा उसे सहन करने वाला व्यक्ति जानता है. आस-पास के लोग केवल उस के पीड़ा का विशेषण निर्धारित करते हैं, और वही मानदंड बन जाता है. लेकिन पीड़ित की व्यथा तो वहीं रहती है जिसे वह अनुभव करता है. यह चाहे शारीरिक हो या मानसिक उसका अनुभव कभी जग-व्यापक नहीं हो सकता है. प्रणय-वेदना वैयक्तिक है, इसका जग-क्रंदन नहीं होता है. ऐसी स्थिति मे चित्रा का यह कहना की इतिहास बाँच कर खुश हो जाओ, अनुचित लगता है. भावनाएं मरी तो उन्हे जीवित भी किया जा सकता है. इसका दोषी केवल शरीर ही नहीं मन भी है-यदि चाहें तो. कुछ ऐसी ही मानसिकता मे उलझता, लगा स्वयं को पृथक कर लेना ही उचित है. लेकिन दशकों पुराने सम्बन्धों की गहराई से अकस्मात छिटक पाना सहज नहीं था. दीवारों के आड़ मे मन कब तक छिपता, अँधियारे के अकेलेपन के बाद वह उठता अकेला ही, आज कोई उसके समीप नहीं था. रात बहुत रोया मन, सुख-दुख के आयामों मे गिरते उठते, शेष जीवन को दोबारा समीप से देखा. परिणाम-शून्य जीवन की यही विधा थी-हो जाऊं समाधिस्त चेतना छोड़ पाषाण बने उर मे दबा कर अगणित चाहें. यही समझ आया जब खुली आँखों में समय ने विष घोला... उठा अकेला, आज कोई मेरे समीप नहीं खुली आँखों में समय ने विष घोला अंधेरे में दूर कहीं धीमे घुघुआ बोला जीवन घबराया, अब काल उर-संग डोला रात चढ़ी कहीं जुगुनू सा भी दीप नहीं उठा अकेला, आज कोई मेरे समीप नहीं अश्रु झरते, रात सूखती आंखे सिमटी बाहें, विचलित बगलें झाँके हिलती स्मृतियाँ, बन बरगद की शाखें ज्वार उठा, अलग हुये मोती से सीप कहीं उठा अकेला, आज कोई मेरे समीप नहीं जब तुम्हें लिए सोती थी बाहें उर मे छिपती थी अगणित चाहें अधरों मे दब जाती थी आहें लगता, होता अपना यौवन द्वीप यहीं उठा अकेला, आज कोई मेरे समीप नहीं ... जब मौन ही एकांत का पार्थ बना, रात मे खुली आँखों मे स्मृतियों के साथ लेटना और दिन मे खिड़की के बाहर क्षितिज घूरना जीवन का हिस्सा बन गया. प्रायः चित्रा के साथ बीते आरंभ के वे दिन कभी नहीं भूलते. प्रतिदिन की प्रतीक्षा और उसके आने पर उल्लास के वे क्षण आज भी जीवंत लगते हैं. उन दिनों भावनाओं मे समर्पण था, साथ हो लेने का उत्कर्ष था. आज भी आँखें ढूंढतीं हैं वही चित्रा जो देहरी पर दस्तक दे और आँखों मे झांक कर गाल पर एक मधु भरा चुंबन रख जाये. यह सौभाग्य है की वह आज तक प्रेयसी ही नहीं पत्नी भी है. लेकिन फिर न वैसी साँझ, और न ही कोई सुबह हुयी. संबंध तो ‘अब नहीं’ की दामिनी मे जल मरे, हम बची राख़ मे बुझती चिनगारियाँ ही सेंक रहे हैं. मन डूबा बहुत पर न बहल पाया क्योंकि आज उसके दृगों मे कोई भावनाएं नहीं थी-केवल एक शून्य वर्तमान बस रहा था... साँझ घिरी, तुम आज नहीं आई पलाश देख-देख मन खोया लुढ़का तन, दिवास्वप्न मे सोया देहरी पर तुम्हें ढूँढता रोया ढूँढता मृगतृष्णा, मैंने सौ मुंह की खायी साँझ घिरी, तुम आज नहीं आयी रूठ गया यौवन का मृग-क्षण घुले आंसुओं में जीवन के कण रौंद गया मन कोई,जैसे सूखे तृण बरसों की स्मृतियाँ भी आज हुयी परायी साँझ घिरी, तुम आज नहीं आयी मन डूबा पर कौन उसे बहला पाया तुम्हारा ही प्यार नहीं तुम्हें मन भाया तम-समाधि भी मिली तुम्हारे ही छाया क्यों तुमने भरी दुपहरी आग लगाई साँझ घिरी, तुम आज नहीं आयी ... स्मृतियाँ भी कितने दिन साथ देतीं, वह तो अमूर्त हैं. शाश्वत कोई नहीं पर भी अंत से पहले मन जीवन के मूर्त सत्व को छूना चाहता है. चित्रा तो जीवन की रुधिर थी- आज भी आँखों मे उसे देख कर ही सुबह होती और उसी से रात गहराती. लेकिन उसने ही तिरस्कृत किया स्पर्श, स्नेह संवाद, और सहभार्य जीवन. सुबह कभी उसकी सुंदरता झाँकने आँखों के तनिक पास आ जाती तो चित्रा मुख पर चादर खींच लेती. यदि बात चलती तो कहती, ईश्वर का दिया सब कुछ है, जो नहीं है उस पर क्यों रोते हो. प्रणय तो मन ही भूख है. कल के खाये भोजन से आज की क्षुधा तो नहीं बुझती. प्रेम और अनुराग तो साँसों की तरह है, कोई जमा पूंजी नहीं जिसके सूद से जीवन निभ जाएगा। ‘अब नहीं’ के कोलाहल मे, प्रणय तो सिधारा, रोने पर भी प्रतिबंध लगा. ईश्वर की माया अपार- यह भी भाग्य मे मढ़ा था - न पास, न दूर, न देहरी पर, न घर के बाहर, न धरा पर, और न ही स्वर्ग मे, केशव तो लेटा था चित्रा की गोद में. वह यथार्थ थी और केशव मिथ्या. चित्रा का पर्याय नंदिनी है - दुर्गा का एक नाम. वह हमेशा सही, प्रकृति के साथ, और वर्तमान मे जीवित थी. इसलिए छोटी सी आशा जब कभी लौट आती थी, उसकी छाया कुछ और दूर चली जाती थी... तुम्हारी छाया कुछ और दूर चली जाती है डूब गया वह सकल समर्पण टूट गया मन-मिथ्या का दर्पण हो गया मधु-लिप्त शब्दों तर्पण छोटी सी आशा जब कभी लौट आती है तुम्हारी छाया कुछ और दूर चली जाती है मैं निस्तब्ध निशा में छलता पड़ा अपने ही दलदल मे कमल सा गड़ा तुम क्यों उतरो मेरे मन, जो भंवर में खड़ा क्या बोलूँ, ध्वनि भी प्रायः बहरी हो जाती है तुम्हारी छाया कुछ और दूर चली जाती है गिरता-उठता है फिर भी जीवित मन मेरा मर कर भी मन जागता है हर सवेरा स्मृतियों को भी अब आँखों ने नही घेरा मेरे हिस्से की हवा भी जब छू जाती है तुम्हारी छाया कुछ और दूर चली जाती है ... प्रकृति एक, सत्य एक, और अनेक रूपों मे माया. यही जीवन का यथार्थ है. न चाह कर भी क्यों मन उस ओर आकर्षित होता है, जो प्रतिबंधित है. प्रणय टूटा, स्पर्श छूटा, और भावनाएं भी मरी, फिर भी अभिसार की आकांक्षा रखता है मन. यह कोई मनोविकार नहीं, एक नैसर्गिक व्यवहार है. यही कारण है की पुरुष याचक है और स्त्री एक मर्यादा. अपने स्वाभिमान को परे रख कर, प्रणय याचक कभी निर्लज्ज भी हो जाता है. बार-बार देहरी पर लौटना और प्रणय प्रस्ताव रखना पुरुष की विधा है. यदि इस के विपरीत चलें तो मनोविकार बढ़ता है. कभी विफलता मन को कोने मे कस देती है. जब प्रस्ताव प्रश्न बन कर निरुत्तर हो जाते हैं, जीवन से वितृष्णा होने लगती है. ऐसा आभास होता है की अब इसकी आवश्यकता नहीं है. किन्तु, प्रणय-वेदना भावनाओं से जुड़ी होती है जो झंझावत की तरह होती है, जिसकी कोई दिशा नहीं होती. किसे सुनाता सुख-दुख का ताना-बाना... कौन आतुर है यहाँ किसी की व्यथा सुनने... किसे सुनाता मैं सुख-दुख का ताना-बाना बरसों बाद उसने मुंह फेर लिया अंधी स्मृतियों ने ढलने में देर किया मौन उठा, फिर जीवन को घेर लिया जल कर शलभ भी रोता है, यह किसने माना किसे सुनाता मैं सुख-दुख का ताना-बाना मन-यौवन संग रात नहीं ढलती है समय के साथ-साथ आशाएँ जलती हैं शनैः शनैः स्पर्श से त्वचा भी गलती है साँसों की लय में छिपी ऊष्मा किसने पहचाना किसे सुनाता मैं सुख-दुख का ताना-बाना प्यार रौंद गया मन, सुन कर ‘अब-नहीं’ इस आनन-फानन में मति भी मरी कहीं निर्वासित हुई चाह लौट कर पहुंची वहीं कौन रोके इस निर्लज्ज का कहीं आना-जाना किसे सुनाता मैं सुख-दुख का ताना-बाना ...मूक प्रस्तावों की गति कैसी. वे केवल अपने मे ही कुंठित रहते हैं. यह प्रस्ताव भी लौट गया निरुत्तर, आज का दिन भी बीता...हम वहीं थे जहां कल संवाद-स्तब्ध हुये थे. परिवर्तन प्रतिबंधों से नहीं आता है, विचारधारा बदलनी होती है. मन की व्यथा आज भी जीवित थी... इसे चित्रा से कहने का क्या प्रयोजन... लौट गया निरुत्तर, दिन का यह पहर भी प्रश्न अनेक पर उत्तर हैं मौन मुंह खोलने, है यहाँ विकल कौन संबंध सब सिधारे, प्यार भी हुआ गौण क्या बोलूँ, उठती नहीं मन में कोई लहर भी लौट गया निरुत्तर, दिन का यह पहर भी चार दिन जीवन में उर से लगाया अब खेल हुआ समाप्त, मैदान से भगाया प्यार की मिठाई दिखा, मन भर रुलाया क्या बोलूँ, भूख इतनी है कि निगल लूँ जहर भी लौट गया निरुत्तर, दिन का यह पहर भी क्यों फेंक दिया मुझे सपनों से उठाकर धकेल दिया मझधार, तिनके पर बैठाकर अब न लौटूँगा, पुकार लो जितना प्यार लुटाकर क्या बोलूँ, प्रश्नों के साथ बह गया शेष कहर भी लौट गया निरुत्तर, दिन का यह पहर भी ...कुछ दिनों बाद न प्रश्न रहे, न उत्तर, और न ही कुछ कहने- सुनने की आकांक्षा. वह लौट कर फिर घिरा स्मृतियों के घेरे में. कितने वर्ष बीत गये, आज फिर एक वर्ष आरंभ हुआ. पिछले बरस भर पीठ किए सोते रहे, इस रात कैसे करते नव-वर्ष का अभिवादन. हम परिचित से अपरिचित हुये, अब कैसे करे सुखमय वर्ष की कामना. ऐसी शुभकामना मिली चित्रा से रात के अंधेरे में-जहां न ही मुख दिखा न उभरी कोई भावना. हम औपचारिक से जी रहे थे, अब हम मे कोई जीवन-तथ्य नहीं बचा. कुछ ही देर मे कमरे बदले, मन मरा, नया वर्ष हंसा, और कल फिर उन्ही पुराने सवालों मे सिर दे बैठे. वर्ष कितने ही बदल जाएँ, ‘अब नहीं’ एक पूर्ण विराम है...संभव है जीवन चक्र फिर उसी जगह पर रुकेगा जहां होगा छोटा सा घर, हाथ भर की रसोई, खिड़की से लगी चारपाई, और उस पर गिरा थका शरीर आसमान देखता सोच रहा होगा... फेंक दिया बाहर स्मृतियाँ जीवन से गठरी बनाकर और चली गयी चित्रा दूर, रात तृष्णा जगाकर... चली गयी वह दूर, रात तृष्णा जगाकर लेटकर उसकी बालों को सहलाता उन्मत्त भरे उर से प्यार से बहलाता मुट्ठी भर अभिसार तले मन मुसकुराता फेंक दिया सब जीवन से गठरी बनाकर चली गयी वह दूर, रात तृष्णा जगाकर मैं स्मृतियों की चादर ओढ़े सो जाता प्यार ढूँढता चुप अँधियारे में खो जाता छू लेती वह तो पाषाण बना रो लेता जला शलभ सा जीवन, लौ से मन लगाकर चली गयी वह दूर, रात तृष्णा जगाकर मुझसे वितृष्णा दिखा तोड़ गयी वचन फिर भी छल से लड़ता हूँ मैं क्षण-क्षण मौन ही देखता रहता उसका झूठा आकर्षण जग ने डुबोया मुझे, फिर आंसुओं मे भिगाकर चली गयी वह दूर, रात तृष्णा जगाकर ...चालीस बरसों मे चित्रा के लिए मेरे शब्दों का आकर्षण नहीं रहा. पहले-पहल मेरे शब्द ही उसे मुझ तक खींच लाये थे. अब सम्बन्धों के साथ-साथ शब्द भी मृतप्राय हो गये थे. धीरे-धीरे तर्क-वितर्क के बीच कंठ भी मरा और हाथ आया केवल मौन. अभिव्यक्ति के सारे स्त्रोत बंद हुये, पर जीने की चुनौती बनी रही...आज वही शब्द निर्लज्ज हुये, अब लतियाए नहीं जाते... ऋतु बदले, तुम्हें अब मेरे शब्द नहीं भाते इन शब्दों में कहीं छिपा है मन हँसता और रोता है इन में ही जीवन शब्दों से ही नयन बरसते हैं सघन पहले तुम छंदों की धारा मे बह जाते ऋतु बदले, तुम्हें अब मेरे शब्द नहीं भाते गोद मे लेटा बालों को सहलाता तुम्हारी ऋचा सुनाता प्यार जतलाता मूक भावनाएं इन शब्दों में बतलाता अपने छल-यथार्थ सभी इन में ही गहराते ऋतु बदले, तुम्हें अब मेरे शब्द नहीं भाते देख तुम्हें, कंठ मरा सच कहते मुरझायी आशाएँ उलाहना पर सहते बीते पल भी कब तक जीवित रहते शब्द भी निर्लज्ज हुये अब लतियाए नहीं जाते ऋतु बदले, तुम्हें अब मेरे शब्द नहीं भाते ...कभी ऐसा आभास होता है कि एक पुंसत्वहीन श्वान ही इस सम्बद्ध को संभवतः सही समझ पाता. उसकी गति वही जाने, पर वह न प्रणय की सोचता न ही मन की चोट खाता. लेकिन वह स्वामी से संबंध बनाए रखने मे सफल हो जाता क्योंकि सुबह पाँव चाट कर स्वामी को उठाता, तेज पूंछ हिलाता, पर कोई प्रस्ताव नहीं रखता. यही अंतर था चित्रा के स्वामी में और एक श्वान मे, जो मिट न सका... बिखर गया आज, जो सुख था उस प्यार में, उलझ कर प्रणय-प्रतिकार में... बिखर गया आज, जो सुख था उस प्यार में कुछ दिन उर में बसाया फिर दुख सा अंबर में छाया छल गया जो पहले बहुत मन भाया उलझ गया जीवन प्रणय-प्रतिकार में बिखर गया आज, जो सुख था उस प्यार में शाश्वत कुछ नहीं, सब मिथ्या ने निगला अस्मिता टूटी, मन स्वाभिमान नहीं उगला जलता संबंध ‘अब नहीं’ चिल्लाता निकला कंठ मरा, कौन सुनता मेरी इस छद्म संसार में बिखर गया आज, जो सुख था उस प्यार में स्वप्न टूटा, आँखों से मधुमास ढला, कंकड़-सा अवसाद आंसुओं में घुला अब रहा शेष जो, तन पर मोम सा गला लदा दुख, मैं झुका फिर तृष्णा के भार से बिखर गया आज, जो सुख था उस प्यार में ... अभिसार माँगूँ तो चित्रा को लगता है पुरुष स्वार्थी होते हैं. केशव की दृष्टि में प्रणय नहीं तो कुछ भी नहीं. चित्रा सोचती है पशु भी प्रवृत्ति से नियोजित है लेकिन पुरुषों की तो बात ही कुछ और है. सत्य यह है कि सोच की कोई पराकाष्ठा नहीं, अपने-अपने दृष्टिकोण से वह उचित ही लगती है. यदि पशुओं की बात नहीं करें तो सहभागिता की विवेचना करें-जीवन मे यदि मन को संभालना हो तो अनुराग, आलिंगन, और अभिसार की आवश्यकता तो होती ही है. स्वप्न मे मिठाई खाने से भूख नहीं मिटती है...यह तो अर्थशास्त्र भी कहता है... किन्तु आज छल गया मुझे यथार्थ... स्वप्न नहीं, आज छल गया मुझे यथार्थ नीड़ से उड़ा जब माया सा उठा यौवन सुख पाया थोड़ा तृष्णा में करता क्रंदन मैं ढूँढता रहा प्यार, जब हुआ जग-मंथन अभिसार माँगूँ तो लगता है मेरा स्वार्थ स्वप्न नहीं, आज छल गया मुझे यथार्थ हमसे तो पशु-पक्षी सारे अच्छे कभी न बनाते सम्बन्धों के लच्छे हम हैं नित उलझाते प्यार के गुच्छे मिथ्या ने कब समझा है हृदय का आर्त स्वप्न नहीं, आज छल गया मुझे यथार्थ जग लिए सिर पर, साथ चले थे जीवन में विधा बनी अधरों की, बीता सुख क्षण में परिधि बंधी, संघर्ष छिड़ा अब तन-मन में मन-माया के रण में, खो गया है मेरा पार्थ स्वप्न नहीं, आज छल गया मुझे यथार्थ ...कुछ दिनों से मौन रहने का अभ्यास हो गया. मन बंध गया और सीमा रेखा भी खींच ली. सीख लिया कुछ भी न मांगना और समय के साथ मौन चलते रहना. न जाने यह लड़ाई कैसी है- न कोई अधिकार है, और न ही सम्बन्धों का आदर है. केवल अपना-अपना स्वार्थ है. दूसरे के दुख पर अपने जीवन को सामान्य करना, मानवता की सीख नहीं है. कोई खुल कर कहता है, कोई मौन घुटता रहता है. परिणाम निश्चित एक है- युद्ध नहीं जीत लेता कोई, बांध कर सृष्टि की सीमाएं... बंधा आज मन, मिल गयी मेरी सीमा समय के साथ मौन चलते रहना मृत आशाएँ उर पर सहते रहना जड़ पत्थरों पर सरिता सा बहना रोते हुये संग जीना है जग की महिमा बंधा आज मन, मिल गयी मेरी सीमा दंड मिला अमर-प्रेम की अस्मिता का दृग भी डरे देख यह रूप सुष्मिता का हुआ मन बूढ़ा जब व्यंग्य रचाया चिता का आशा-प्रत्याशा टूटी, यौवन भी हुआ धीमा बंधा आज मन, मिल गयी मेरी सीमा मन अनंत, तन अपरिमित, किसका है दोष कभी आयु पर, कभी स्वयं पर उठता रोष सृष्टि में, घटा नहीं है कभी प्रेम का मधु-कोष युद्ध नहीं जीत लेता कोई, बांध कर संसृति की सीमा बंधा आज मन, मिल गयी मेरी सीमा ...हम दोनों मन से अंधे हो गये थे. किसी को शरीर नहीं दिखता, किसी को हृदय नहीं दिखता था. मन-विश्वास सब कुछ सिधारा. अब आप ही बतायें, अंधों के मल्लयुद्ध में, कौन गिरा किस करवट...खुली आँखों से अब न देखते थे एक-दूसरे को. विचित्र सी मनस्थिति होती थी जब सुबह उठती करवट एक-दूसरे का मुख देख लेते. दृष्टिहीन पर क्या दांव लगाते. लेकिन मौन युद्ध निरंतर होता रहा, और छूट गए पीछे जीवन के सारे सुख. मन मरा इस दंगल में, अब उर पीट कर कैसे हँसते साथ-साथ. हार गया रण जीवन, काम-क्रोध के इस दल-दल में लड़ते-लड़ते और मन ही मन ललकारते अंधों को इस मल्लयुद्ध में... अंधों के मल्लयुद्ध में, जाने कौन गिरा किस करवट तोड़ विधा सारे उपाय अपनाया दृष्टिहीन पर विश्वास लिए दांव लगाया कितने बार दृग फूटे, क्षुब्ध हुई काया अब तो मन टूटा, धैर्य बहा जीवन के तलछट अंधों के मल्लयुद्ध में, जाने कौन गिरा किस करवट नित मूक ही लड़ने का अभ्यास करते कभी बोल पड़े तो, अपना ही उपहास करते मन तो मरा, उर पीट कर क्या आभास करते इस मौन युद्ध में डूबा जग, छूट गए जीवन के तट अंधों के मल्लयुद्ध में, जाने कौन गिरा किस करवट कितने यत्न लगे, प्रेम-प्रणय के दंगल में, यथार्थ पीठ पड़ा अगणित, घूंसे खाकर छल में हार गया रण मैं, काम-क्रोध के इस दल-दल में चढ़ी मति पर माया, अब बंद हुये मन-आँखों के पट अंधों के मल्लयुद्ध में, जाने कौन गिरा किस करवट ...कहीं कोई परिवर्तन नहीं आया. हम मृत भावनाओं के साथ जीने के प्रयास मे लगे रहे. लेकिन मन की क्षुब्धता बढ़ती गयी. संवेदनशील होना जीवन मे बहुत भारी पड़ता है. यह एक ही ओर के जीवन का दर्शन है. किसी के प्रति जीवन का पूरा झुकाव, अपनी मानसिकता है, यह कोई सृष्टि की विधा नहीं है. ऐसी मनस्थिति मे सब कुछ दे देने का सुख असामान्य तो है, लेकिन स्वभाव भी तो है. पर इस मानसिकता के कारण परस्परिक सुख की अपेक्षा करना पागलपन है, असामान्यता की चरम सीमा है. ऐसा चित्रा का मानना है. अब शेष क्या रह गया... स्मृतियाँ भरे मन में, जीता हूँ बहका सा जग में- नीड़ था प्रेम का, जो टूटकर आज पंक मे धंसा... स्मृतियाँ भरे मन में, जीता हूँ बहका सा जग में इधर चढ़ती प्रणय की हाला, उधर डूबती निशा मचा भोर फिर कोलाहल,मैं जाऊं किस दिशा लौट पग फिर घर आते, मरती नहीं जिजीविषा उस स्पर्श की संवेदना, बहती है आज भी रग-रग में स्मृतियाँ भरे मन में, जीता हूँ बहका सा जग में काया की पहुँच नहीं, मन आशाओं में फंसा नीड़ था प्रेम का, टूटकर जो आज पंक मे धंसा नहीं कोई प्रेयसी, मन अपनी ही कल्पना पर हंसा आज फिर चला अकेले ही, कील लिये पग में स्मृतियाँ भरे मन में, जीता हूँ बहका सा जग में मन सबल हो कहता कभी, अब और याचना नहीं तोड़ परिधि, बिखरे कुंतलों पर होगा रण यहीं फिर बिखरा होगा गुत्थियों मे सुख यहीं-कहीं मरी तृष्णा, फिर भी कस्तूरी ढूंढ रहा हूँ मृग में स्मृतियाँ भरे मन में, जीता हूँ बहका सा जग में ...चित्रा के साथ बीते शुरुआत के दिनों मे लगा यही जीवन है. आज भी उन पलों पर गर्व है. हम दोनों ने हँसते-खेलते सहभागिता प्रदर्शित किया. दुख इस बात का है कि आज वही सत्व दूध की मक्खी सा बाहर फेंक दिया गया. न ही कोई भावना बची, और न ही सुखी रहने का कोई कारण हाथ रह गया. तिरस्कृत सा जीवन समझ पाया है की अब टूट गया वह अनंत-अभिसार का भ्रम और जैसी जग की विधा, ठहरा प्रेमी पुरुष अधम. यही है नियति...अब तुमसे क्या बोलूँ... क्या बोलूँ, टूटा आज अनंत-अभिसार का भ्रम जब प्रेयसी मिली मैं भागा पागल हो करहंसने दौड़ता ही रहा, गिरता-उठता जीवन भर कभी हाथ मिली, कभी फिसली अधरों पर दिन बीते, सारी संवेदना उसकी, मैं पुरुष अधम क्या बोलूँ, टूटा आज अनंत-अभिसार का भ्रम निभा प्यार बरसों, पर समय चुभा सूद सा आयु घटी, फटा तन-मन पुराने दूध सा कुरेदता हूँ अवसान तक स्मृतियाँ फफूंद सा प्रणय की बात उठती तो अब मैं जाता हूँ सहम क्या बोलूँ, टूटा आज अनंत-अभिसार का भ्रम मांग कर बहुत सहा पुरुष होने का अपमान अब स्पर्श नहीं, उत्कर्ष नहीं, लिखता हूँ यक्ष-गान हम पीठ किए तोड़ते हैं नित निशा का अभिमान मन रौंदे, झूठे ही हँसते, सहलाते हैं अपना अहम क्या बोलूँ, टूटा आज अनंत-अभिसार का भ्रम ...जब मन डूबने लगा, केशव हाथ जोड़ कर ईश्वर के द्वार याचक बन खड़ा हुआ. लेकिन उतनी श्रद्धा भी न जुटा सका उसका मन, और लौट आया अपने भाग्य को कोसते. कुछ नहीं बदला, मन गिरा आज अपने ही काल में... स्वर्ग सिधारा प्यार, दौड़ा वह सिर पर धरा लिये. चित्रा ने झुँझला कर कहा, ऐसी भी क्या प्रतिक्रिया है, कितने लोग जीते हैं विश्व में प्यार के बिना. सोचो जिनकी पत्नी सिधार गयी क्या वह भी पत्थर पर सिर देते फिरते हैं? केशव विधुर तो नहीं था, न ही उसे ऐसी मानसिकता से कोई परिचय था. किसी बात की कल्पना कर उसे मान लेना और यथार्थ मे जीने में अथाह अंतर है... यह प्रश्न वह आज तक नहीं सुलझा सका... यदि मन पहचान सके, तो क्या सुलझा पायेंगे ये उलझे धागे...यह तो ईश्वर ही जाने... प्रार्थना भी लौटी बहरी, अब मौन हुआ ईश्वर कुछ मांगने तुम तक बहुत बार हाथ जोड़े हुये पाषाण तुम, ये शब्द तुम्हें कैसे तोड़ें तुम्हें दिखाने हम मारुति सा अपने उर फाड़े स्वर्ग सिधारा प्यार, हम दौड़े धरा लिये सिर पर प्रार्थना भी लौटी बहरी, अब मौन हुआ ईश्वर हुआ नहीं उजियाला, डरा रहा है अंधेरा स्वप्न मरे, चढ़ा आँखों पर काला घेरा प्रेयसी नहीं सुहाती, प्यार बना प्रेतों का डेरा डूबा जीवन, बोझ लिये प्रश्नों का मन भर प्रार्थना भी लौटी बहरी, अब मौन हुआ ईश्वर तुमसे क्या बोलूँ, बात है समझ से आगे सुंदर मुख लिए अकेले कहाँ जाओगे भागे मन पहचानो, तो सुलझा पाओगे उलझे धागे स्पर्श खोया, शब्द रोये, कैसे खोलें सुख के स्वर प्रार्थना भी लौटी बहरी, अब मौन हुआ ईश्वर जीवन के तीसरे चरण मे जब घाव होते हैं, वे अंत तक नहीं भरते. इस उम्र में संवेदनहीन सा व्यवहार हृदय कचोट जाता है. इतिहास पीछा नहीं छोडता है लेकिन दूर दिखती आशा तक पहुँचने उठते नहीं हैं पाँव... जब स्मृतियाँ भंवर सा बन जाती हैं, घिर जाते हैं पलकों पर मेघ और निकलती है वही आह पुरानी, बह जाते हैं अश्रु पुराने...इस सत्य को कोई समझ पाता है, या कोई कंकड़ समझ पैरों तले रौंद जाता है... समय घट रहा, कब भरेंगे उर के घाव उम्र बढ़ी, यौवन ढला, जीवन सिमटा मन अनछुआ ही अमरबेल सा लिपटा असमय चादर ओढ़े अनुराग भी निबटा दूर दिखती है आशा तक उठते नहीं हैं पाँव समय घट रहा, कब भरेंगे उर के घाव ‘अब नहीं’ कह कर रोक दिया जीवन का वेग बह गए संबंध पर बढ़ता गया मन का उद्वेग जब स्मृतियाँ उठतीं, घिर जाते पलकों पर मेघ बिसुरता नहीं प्रेम-प्रसंग, है यह सहज स्वभाव समय घट रहा, कब भरेंगे उर के घाव तन क्या जाने मन की व्यथा अनजानी शलभ सा मरना, रस-रंग की कथा पुरानी यौवन उर सा बंद नहीं, है यह बहता पानी जीवन बौना, होता है ऊंचा प्रेम का अभाव समय घट रहा, कब भरेंगे उर के घाव ...बुढ़ापे मे आँखें तो क्षीण हो जाती हैं, हृदय भी सूखे पत्ते सा हो जाता है. हवा की चोट से भी हाथ से पीड़ा थामे बैठा रहता है. काल कह गया, उर को मृत्युंजय कवच पहना लेना क्योंकि प्रणय-वेदना तो चिता तक साथ चेलेगी. नियति है ऐसी ही... पुरुष नेत्रहीन होकर भी ढूँढता है क्षण भर की पहचान... दिखता नहीं कुछ, आँखें तो हुयी पाषाण रात फेर गयी सपनों पर पानी कह गयी बुझते अनुराग की कहानी जुगनू सी टिमटिमाती उड़ गयी रति की रानी एक हाथ भी न लांघ सका मन्मथ का बाण दिखता नहीं कुछ, आँखें तो हुयी पाषाण पथराई आँखों मे कैसे बांध बना ले झरते नयन सिसकियों को कैसे मना ले काल कह गया, उर को मृत्युंजय कवच पहना ले प्रेम तो सिधार गया, अब तुम भी होगे निष्प्राण दिखता नहीं कुछ, आँखें तो हुयी पाषाण समझा यही है प्रेम की वाणी दबी बल-बाहों की चाह पुरानी प्रणय तक पहुँचने की राह वीरानी जहां हम ढूंढते हैं क्षण भर की पहचान दिखता नहीं कुछ, आँखें तो हुयी पाषाण ...दीमक लग गए हैं उस पुराने नीड़ में. हम नित मिट्टी के घर बनाते हैं और उस मे जीने का प्रयास करते हैं. बहुत खेल चुका है जीवन इस प्यार भरे मिट्टी के घर में. लगता है अब छू लो मन, जाने कैसा अगला पल है. मन बार-बार सोचता है, अपरिचित सा जीना भी कैसा परिणय है... बहुत खेल चुका मैं, प्यार भरे मिट्टी के घर में अधरों का चुंबन क्या अभिनय है अपरिचित सा जीना कैसा परिणय है दो प्राणों के बीच घुट रहा प्रणय है रंग-महल गिरा आज आकाश से अधर में बहुत खेल चुका मैं, प्यार भरे मिट्टी के घर में अनुराग नहीं, अब बची एक श्वास है कुछ मुस्कुरा लें, दिखता अवसान पास है फिर नहीं लौट पायेंगे,यही अंतिम आभास है गिरते-उठते, सुख-दुख अब घिरे हैं भंवर में बहुत खेल चुका मैं, प्यार भरे मिट्टी के घर में बह जाने दो यह जीवन तो जल है प्रणय की तपन और ठंडक ही मरुथल है छू लो मन, जाने कैसा अगला पल है दीवारें भी पहचानी हैं, क्यों दुबके हम झूठे डर में बहुत खेल चुका मैं, प्यार भरे मिट्टी के घर में ...यदि कुछ समय से पीछे चलें तो वे दिन नहीं भूलते जब तुम्हारे गोद में लेटा आसमान देखा करता था, यह सोच कर की सुख-दुःख जीवन की एक ही रेखा है. किन्तु आज समझा है कि इन दोनों मे अथाह गहराई है. प्रेम-प्रसंग जब जीवन मे टूटते हैं, दुख की गहराई दिखाई देती है... क्या खोया और क्या पाया, इस पर कोई समझौता नहीं, अपितु भावनाओं का रण छिड़ जाता है. मन मे एक प्रश्न बार-बार उठता है, क्या यही है अनुरक्ति का सार... जब हृदय भर जाता है पीड़ा से, यदि उसे मौन ही झेल गया तो चित्रा कहती-कितने क्षीण हो तुम, तुमसे न मिलती तो जीवन कुछ और ही होता. कुछ ही शब्दों मे दशकों के दाम्पत्य की हत्या हो जाती...जीवन निस्तब्ध देख रहा है प्यार का क्षय होता... सोचता हूँ क्या यही है अनुरक्ति का सार मैं खड़ा देख रहा हूँ प्यार का क्षय आँखों मे छाया है जीने का भय करवटें बदलते टूटा है साँसों का लय कैसे बांटें, जीवन पर कितना है आभार सोचता हूँ क्या यही है अनुरक्ति का सार भूला नहीं है आलिंगन कल का तन कुचल गया है काल बल का व्याकुल मन, करता हिसाब पल-पल का खोज रहा है जीवन बुझते अंगारों में भी प्यार सोचता हूँ क्या यही है अनुरक्ति का सार उम्र देख स्वप्न भी भरमाए आज प्रणय-राग से अब गिरती है गाज संबंधों से फिर उभरी है लोक-लाज देती हो ताना, पर किसकी हुयी है हार सोचता हूँ क्या यही है अनुरक्ति का सार ... आज परिस्थिति यह है की हम क्रुद्ध हुये एक-दूसरे के मुख मौन ताकते रहते हैं. जीवन तुंड सा हो गया है-निष्प्राण. भविष्य का तो पता नही पर वर्तमान सागर मे दिशाहीन नाव सा हो गया है. आशाओं की असमर्थता भी कितनी करुण है, न मन मे रहती और न ही विलुप्त होती... मन करता है छोड़ तन-मन का द्वंद, मांग लूँ मेरी रागिनी...लेकिन चित्रा नहीं लौटेगी फिर प्रणय का आव्हान करती... छोड़ तन-मन का द्वंद, लौटा दो मेरी रागिनी नित होता स्मृतियों का यथार्थ से युद्ध मौन ताकते रहते एक-दूसरे के मुख क्रुद्ध कृपाण उठाये सोचते कौन हुआ है प्रबुद्ध काल बांधे भटक गयी है बरसों की कामिनी छोड़ तन-मन का द्वंद, लौटा दो मेरी रागिनी पहले एक ही तकिये के होते थे हिस्से फिर हाथ की दूरी पर रमते थे प्रणय के किस्से अब नहीं बनते हैं अँधियारे तन-मन के मिस्से तोड़ यौवन की सीमा उठा दो फिर आसंगिनी छोड़ तन-मन का द्वंद, लौटा दो मेरी रागिनी एक बार फिर मोद से लस लो खींच प्रणय अब तारों से कस दो रात गयी-बात गयी, जतला दो तमस को प्रेयसी का सुख लौटा दो हो कर फिर वामांगिनी छोड़ तन-मन का द्वंद, लौटा दो मेरी रागिनी ...जब उसे लौटना ही नहीं है तो कंठ खुल कर चिल्ला उठता है- बरसों से अनुरक्त मन, आज तुमने कुचल दिया. प्रणय उठा, पर तुम्हारी चुप्पी ने उसे मसल दिया. बातें करते तो क्या? जग की चर्चा करें या ‘केशव– माधव –हरि -हरि’ बोलें. संस्कार भी ऐसे नहीं है कि हम विश्व चर्चा या सत्संग लगा लें. जीवन भर अनुराग-अभिसार की बातें ही करते आयें हैं. ‘अब नहीं’ का जो तख़्ता लग गया माथे पर, जीवन जैसे थम सा गया. स्वयं के मरने से कुछ बरस पहले इतिहास की चिता जला दें तो तन-मन का समीकरण सटीक बैठेगा-न स्मृतियाँ होगी और न ही इच्छा प्रबल होगी... लेकिन यह इतना भी सरल रास्ता नहीं था. मन तो मूर्ख है, भ्रमर सा सुमन देख झूमता है और अपमान सह कर भी उसके ही पास घूमता है... नियति ही जाने यह कैसा बंधन है- न जुड़ता है, न ही पूरी तरह से टूटता है. परिवार का कोई फिर इसी आँगन मे देह खीच लाता है और मन केवल प्रेत बना भटकता है... बरसों से अनुरक्त मन, आज तुमने कुचल दिया हमारे साँसों का नित अंतर बढ़ा जड़ तकिये पर सिर शव सा पड़ा तुमसे वह अनुभव मिट्टी में गड़ा धरी रही अंतिम इच्छा, नयनों ने मुझे छल लिया बरसों से अनुरक्त मन, आज तुमने कुचल दिया कर्मठ हो कर भी मैं मन से हीन जग में मान, पर अपने ही घर क्षीण न जाने कब आह भी हुयी विलीन प्रणय उठा, पर तुम्हारी चुप्पी ने मसल दिया बरसों से अनुरक्त मन, आज तुमने कुचल दिया जग में ही विकृत सा घूम रहा हूँ कभी रोता, कभी अँधियारा चूम रहा हूँ सिर पीटता हाला में लय झूम रहा हूँ वर्तमान मरा, भविष्य को काल ने निगल लिया बरसों से अनुरक्त मन, आज तुमने कुचल दिया ...किस तरह हर रात शांतिमय बीत जाए, एक चुनौती होती है. न स्मृतियों मे जूझें, न आँख मिलाएँ, और न ही स्पर्श कर लें, यही सबसे वृहत प्रयास रहता है. सारी रात अपने शरीर को जकड़ कर एक करवट पर निर्धारित करना किसी साधारण योगी के विद्या से भी परे हो सकती है. इतने कष्ट झेल कर भी एक ही कमरे मे, एक ही बिस्तर पर सोना परिवार की परंपरा है. ...और सुबह फिर ‘रात गयी-बात गयी’ यह सोच कर मुख सुमन सा बनाकर दिन बिताना इसी परंपरा का एक हिस्सा है. यथार्थ मे हुआ यूं कि चित्रा इन विधाओं का अनुपालन करती पर अंगार बरसते उस पर जिसके आंसुओं में घुलता प्यार का बताशा और नीम चढ़े मिठास के साथ कहता...प्रिये क्या करूँ तुम संग नहीं हुआ सवेरा... रात गयी अकेले, तुम संग नहीं हुआ सवेरा रात उलझी रही प्रश्नों में झरते रहे अश्रु स्वप्नों में संवेदना ढूँढता रहा अपनों में रात प्रेम-आसक्ति पर लगा प्रेतों सा डेरा रात गयी अकेले, तुम संग नहीं हुआ सवेरा जिव्हा भूल गयी प्रेम की भाषा वाद-संवाद से बोझिल हुयी आशा घुला आंसुओं में प्यार जैसे बताशा नीम चढ़ा मिठास, आँखों पर मढ़ा काला घेरा रात गयी अकेले, तुम संग नहीं हुआ सवेरा आज यथार्थ ने मुझे लूटा फिर भी तुमसे मोह न छूटा खुली आँखों में अभिसार टूटा मुट्ठी भर जीवन में, क्यों छीना उजियारा मेरा रात गयी अकेले, तुम संग नहीं हुआ सवेरा ...प्रायः अपने आप से पूछता हूँ इस शून्यता का कौन है साथी. मन कहता कोई नहीं अपना भाग्य स्वयं ही रचा है तो शून्य मे हो या जग के कोलाहल मे कौन बनेगा साथी. चित्रा कहती तुम्हारी बुद्धि-तुम्हारी बला. पागलपन ही सही, जब जग सारा सो रहा होता है वह बरसों की धुंध में खोया दूर कहीं रोता है और जूझता है दिन-रात मन से मौन प्रार्थी बनकर. उस समय आकाशवाणी के छायागीत कार्यक्रम मे एक गीत बज रहा होता है-‘…क्या यही प्यार है’. यही प्रश्न शाश्वत है...और कुछ नहीं... बरसों की धुंध में, खोया मन कहीं दूर है रोता साथ किसी के जग सारा सो रहा है अकेले स्मृतियों में घिरा मन रो रहा है सूखी धरा पर मुक्ति के बीज बो रहा है भ्रमर परे चम्पा की आशा में क्यों हूँ रोता बरसों की धुंध में, खोया मन कहीं दूर है रोता मेरी शून्यता का कौन है साथी काटता है समय, कौन है मेरा सारथी जूझता हूँ दिन-रात मन से, बना मौन प्रार्थी मैं स्तब्ध पड़ा आभास कर रहा हूँ उर को खोता बरसों की धुंध में, खोया मन कहीं दूर है रोता हृदय फटा तो निकला अंबर सा घाव आप ही रोया, किसी में न उभरा कोई भाव ढूँढता हूँ ,पत्थर नहीं, कोई मिट्टी सा स्वभाव एक बार उर सहला जाती, मैं न चिर-निद्रा में सोता बरसों की धुंध में, खोया मन कहीं दूर है रोता ...कोई कैसे सोच सकता है प्रेयसी इतनी निष्ठुर भी हो सकती है. दृष्टि मन को बहुत सम्मोहित करती है. वही प्रेम, अनुराग, और आलिंगन का संकेत बनती है. चित्रा तो पहली ही दृष्टि मे आकर्षित हो गयी थी, उसके बाद प्रेम-प्रणय का सिलसिला आरंभ हुआ. आज जब उसे चित्रा ने ही निर्वासित कर दिया है, वह कभी मन मे, कभी चिल्ला कर कहता है ‘उठा लो मुझे जड़ तकिये से और खोल दो हृदय पल भर, तुम्हें देखने की चाह है पुरानी’… प्रणय सम्बन्ध मन और स्पर्श दोनों से ही बनते हैं. इन्हे जी कर आभास होता है जैसे जीवन मे मधु के सिवाय और कुछ नही. जब फेरों के समय अग्नि की परिधि पर स्पर्श हुआ, मन उछला, लगा अब दुख छूटा, सुख के दिन आये. हाँ, आये भी, पर कब तक रहेंगे इसका अनुमान नहीं था. उम्र के साथ जग का भ्रम टूटा, प्रणय ईश्वर नहीं जो निराकार शाश्वत है. यह तो सहभागिता है जीवन को समझने की और जीने की. बीत गये बरस पर कम न हुआ आकर्षण...कुछ मेरी तृष्णा भी समझो...अब बचे दस-बीस बरस तो पाषाण बन जाएंगे यदि तुमने अस्वीकार किया...निष्ठुर मत होना, गिरते-उठते चलना, जीवन की यह राह पुरानी... निष्ठुर मत होना, तुम्हें देखने की है चाह पुरानी उठा लो मुझे जड़ तकिये से लुढ़का दो प्रणय के पहिये में शलभ सा जल जाने दो दिये से पल भर हृदय खोल दो, माया की थाह पुरानी निष्ठुर मत होना, तुम्हें देखने की है चाह पुरानी तुम्हें देख उस संध्या मचला था यौवन मौन जिया था मैंने रजनी का क्षण-क्षण बीत गए बरस पर कम न हुआ आकर्षण गिरते-उठते चलना, जीवन की यह राह पुरानी निष्ठुर मत होना, तुम्हें देखने की है चाह पुरानी चक्रव्यूह है प्राण-प्रणय की चंचलता कौन नेत्रहीन इस भंवर के पार निकलता पल मे छूटता उच्छवास, अधर में उर मचलता आँखें मूँदे, जीवन की थाह किसने है पहचानी निष्ठुर मत होना, तुम्हें देखने की है चाह पुरानी धीरे-धीरे सहभागिता बूढी होने लगती है, पति-पत्नी की मानसिकता मे अंतर आने लगता है. यही कठिन परिस्थिति है जिसे संबल पार कर जाते हैं और निर्बल मूक बने जड़ तकियों मे विलाप करते रहते हैं. तृष्णा-वितृष्णा, मान- अपमान, और सुख-दुःख जैसे अप्रत्याशित अनुभव होते है. पुरुष कभी पशु, तो कभी वस्तु सा लगता है. सच तो यह है कि सुख का कोई मानदंड नहीं है. केवल अपने कर्म और भाग्य हैं. मिला तो जीवन की तपस्या का प्रसाद है, अन्यथा चक्रयूह है...अब आप ही बताएं क्या चित्रा का व्यवहार केशव के प्रति उचित था? यह तो समय ही बता सकेगा. कई आलोचनाओं के बीच केशव ने निर्णय लिया कि वह कुछ दिन चित्रा से दूर जीवन बिता लेगा. संभव है कि इस दूरी से मानसिकता कुछ बदलेगी और सम्बन्धों मे सुधार होगा. देहरी के बाहर पांव रखते हुये उसे आभास हुआ... चित्रा तुम्हारी आँखें कहती हैं अनुराग जीवंत रुधिर मे बहती है झरती है तुमसे आज भी मधु-धारा बिना तुम्हारे तुच्छ है धन-वैभव सारा प्यार मन मे उलझा रहता है पर मरता नहीं है. उसकी प्रतिकृति भावनाओं मे झलक ही जाती है... न जाने लौटने पर चित्रा कैसी होगी. तब तक शरीर भी शिथिल हो गया होगा... अन्तःअस्ति प्रारम्भ: ॥

जब तुमसे कुछ कहता था

रूप-रस-रमणीयता का कोई मानदंड नहीं होता. यह अपनी- अपनी अनुभूति है. चित्रा मे एक दैवीय आकर्षण था. उसके अनेक पर्याय भावनाओं से उभरे-मूलतः चित्रा के सौन्दर्य और स्वभाव के अनुरूप उसके पर्याय शचि, प्रज्ञा, आद्य, अनंता, नंदिनी, लक्ष्मी, सुरवामिनी, आदि बने . पहले मन से उसके लिये ऋचा निकलती थी वही शब्द आज भी जीवित हैं. समय के आगे कुछ नहीं छिपता न तन का आवेश, न ही कोई मनोदशा. चित्रा पर कुछ पुरानी अभिव्यक्तियाँ प्रस्तुत हैं, जब उस से कुछ कहता था... वसंत की कोमल तरुणाई सी तुम, यौवन समेटी खड़ी हो कचनार के तले, देखो ओस भी भिगा गई तुम्हारी शिखाएं, कब होगी अनावृत तुम इन नयनो के तले उषा में पारिजात से टिकी फिसलती ओस की एक बूँद अधरों से छू कर झूल रही है कैसा है साक्षात्कार, निस्तब्ध आँखें मूँद कब आत्मसात होगी ये सुधा मन लहरों सा टकरा रहा है कगार से अब कल्पना टूट कर बिखर रहीं हैं कर रहा प्रणय अनुरोध भीगे बयार से श्रृंग से झर रहा अविरल प्रवाह भीगता यौवन खोज रहा स्पर्श मन भटक रहा मधुकुंड से चिकुर जाल तक भींचने कोमल शिखाएं और उठते उत्कर्ष प्रणय सींचता रहा गुलमोहर के तले स्वप्नों में गदराये आकार हो रहे थे साकार बहती हवा ने बंधे आवरण गिरा दिए हो रहा था मधुर कंदुकाओं से साक्षात्कार कपोलों पर बिछी चंपा की एक पंखुड़ी सरक कर मृदुल श्वेतांग में खो गई ऊपर अधर नीचे अधर एक मादक एक तरल रजनी प्रणय की वेला में सिमट कर सो गई तुम चिर यौवन सी गदराई चितवन में सिमटी श्यामल अधरों में भीगी सी बसी हो यहाँ स्वप्नों में लिपटी उर्वशी की त्वचा ढँकी चंपई दलों से स्पर्श की संवेदना तपती उठी अंदर और श्यामल अधरों में समा गयी भीग गए पल, सुख सावन से सुन्दर सावन की फुहारों में जलज सी श्वेत कन्दुकाऑ के वृत्तों में संवरी चुपके से यौवन को दे रही आमंत्रण आलिंगन कूक रही है कादम्बरी मन रतिमय मयंक सा घूम रहा बहुपशों में भर लूँ दहकती उष्णता कर लूँ साक्षात्कार शिव से सर्जना तक छिपी है यहीं कोई प्रेम की प्रणिता फुहारों में भीग गया ये मन यौवन झांक रहा श्यामल घेरों से मुक्ता फिसल रही है हिमगिरी के श्रृंग से करने आलिंगन सागर की उठती लहरों से तुम्हे देख कर लगता है सुनयना इस मौसम में फिर घुला प्यार है तुम्हारे लिए ही समय को बाँध रखा है अंत तक बस तुम्हारा ही प्रसार है फिर बादलों से चांदनी बिखर गई झुक गई टहनियाँ, खिल गए पलाश रात में क्षितिज से टूटा एक तारा मांग लें आज मुट्ठी भर आकाश झांकता यौवन कैसे थपथपा गया आज आँखों में अंजन सा समाया ठंडक में भी तन जल रहा मरु सा मन अधरों की मरीचिका में भरमाया उस पार सिसकती शाम देख रही है टहनी से टपकी हिम कणिका मन जम गया है तुम्हारे बिना आना अँधियारे जैसे कोई गणिका प्यार की गुनगुनाहट और गालों गुलाल ठण्ड में जैसी हो कोई दहकती हाला उभरी शिखाओं तक यौवन मे गदराई तुम हो मेरी वही मधुभरी मधुबाला मौसम फिर बौराया, पंछी चहकने लगे कुछ गा रहे, कुछ बांच रहे बीती पीड़ा आओ हम बैठ जाएँ यहीं हाथ थामें देखते हुए विहगों की रति क्रीडा रंग सजे आसमान में प्यार की छोटी सी पहचान क्षितिज दिखाती है छांव में नीड़ के तले कुछ पल बीत जाये, हर साँस, बस यही चाहती है नीड़ से टिका तुम्हारी सुगन्ध में सीझा वक्ष तले सपनों की सेज सजा रहा सुरमई सोच रहा मैं क्या तुम हो कोई कल्पना या कोई स्पर्श जो रह गई हो अनछुई ये मन क्यों बावला सा तुम्हे ही ढूंढता रहता है तुम सत्य हो और मन-माया भी तुम्हे पाने ये विश्वास क्यों डोलता रहता है तुम प्यार हो जलधि सी गहरी श्रद्धा हो, लिए आकाश सा विस्तार सुषमा, जैसे रति का करती आह्वान हो तुम सुख हो अनुभव सा निराकार कुछ कह दो, इस मन से तुम्हारा प्यार, श्वासों की लय है जब तक प्राण है, तुम हो हर पल तुमसे ही मधुमय है तुम जब से जीवन संग मिली हो कड़ी धूप भी अब लगती है वसंत तुम्हे लिए मन उड़ चला है निर्बन्ध तितलियों सा आकाश में अनंत दूर झांक रहा चाँद बादलों के बीच मन से उठता ज्वार दूरियां बाँध रहा तुम खो न जाना कहीं आकाशगंगा में इस डर में ही जीवन अंतरिक्ष लांघ रहा सब कुछ शून्य लगता है कभी जब तुम्हारे सामने मैं अकेला रहता हूँ हर सुबह तुम में इतिहास झांकता है काश फिर वही शुरुआत हो, सोचता हूँ क्या समय कभी संबंधों को बूढ़ा करता है इस उत्तर को ढूंढ़ता मौन उतर आया है बिखराना वही वसंत तुम प्रेयसी बन कर देखो जीवन का कोई अंश बिखर गया है आँखों में गगन का विस्तार लिए तुम प्यार की किस ओट से देख रही हो मै भी कनखियों से देख लूँ तुम्हारी झांकी कैसे तुम मधु भरी श्रृंगार सेंक रही हो तुम्हे देख कोई कैसे जड़ रह सकता है तुम प्राण हो, चढ़ती श्वासों की लय हो इस पार प्रिये तुम हो, उस पार खड़ा प्यासा मधु सा सघन बरसा दो अधरों में तन्मय हो तुम मेरे जीवन की मीठी रुचिका सुख समय की सुन्दर सुषमा सारी धूप ढंकती बादलों सी चंचल छाया तुम मेरी मधुबाला, तुम पर ये जीवन बलिहारी तुम सुन्दर उन्माद भरी क्या मनु की प्रथम कल्पना हो कोई उर पर चढ़ती अमर बेल या कोई उल्का सी बहती सपना हो तुम लिपटी तरुण श्रृंगार में बहती यौवन का मकरंद बिखेरती अधरों पर मोहक पराग लिये किसे देखती हो नित आँखें सवांरती प्रिये तुम आराध्य हो आदि, अंत और प्रकृति हो ईश्वर से सदियों तक माँगा है तुम जीवन-दीप हो, मन की आरती हो

चित्रा

चित्रा किसी रंगमंच या कथा की पात्र ही नहीं, वह जीवन की बुनियाद है, आदि और अंत है. वह जीवन के निजी आयामों की स्वीकृति से ‘अब नहीं’ के खुले अस्वीकार तक के यात्रा का संस्मरण है. कुछ ऐसे ही गहरे पलों की समालोचना है चित्रा... वसंत की उस संध्या उल्का सी चमकी भव्या शचि सी हुई अवतरित फिर उर में रही अंतर्निहित उन आँखों का आकर्षण जीवन झुका तुम्हारे शरण खिचीं अब भाग्य मे चित्रा उतरी संध्या से बन रतिमित्रा फिर न छूटा कभी अभिसार दृगों मे बसा है तुम्हारा अलंकार छिपा लो यह शेष आँचल में जी लें निशा युगों की इस पल में स्मृतियों से रिसती है आह आँखों से न रुकता है प्रवाह सावन भी बरसा है घन-सघन सूखी नहीं है अब तक फिसलन चित्रा तुम्हारी आँखें कहती हैं अनुराग जीवंत रुधिर मे बहती है झरती है तुमसे आज भी मधु-धारा बिना तुम्हारे तुच्छ है धन-वैभव सारा वसुधा सी गोल तुम रति प्रिया निशा मे खिलती चंचल सुमुखि त्रिया अपने ही आँचल मे विश्व की जया तुम नीड़ बनी जीवन भर अभया कभी मुझमे भी थी सरस हंसी आज बुझती दृग-स्मृतियों मे धँसी मिलाते थे अपना कंठ कल तक आह भी रुकी मन-निर्बल तक तक मौन धरे मन नोंच रहे जड़-क्रंदन में कितने अश्रु बहे उर मे छिपी है श्वास निराशा की अब कैसी विजय अभिलाषा की मन न समझे जीवन की व्यथा कौन कहे रिया है प्रणय की प्रथा पर न स्वप्नों की कथा बंद हुयी न ही कोई कुसुम मकरंद हुयी कस्तूरी रिसती थी जैसे माया कल तक उन्मत्त झूमती थी काया अधरों पर बहती थी मधु की धारा आज छल गई वह मोहिनी सी कारा तन मे वेग भरा था कितना उल्लास छाया था अंबर जितना तुम संग निशा भी गहन होती है अकेले आँखें भी सावन सी रोती हैं मेरी चंचल कृति तुम क्या हो तिनकों से नीड़ बुनती बया हो क्यों छोड़ गयी उसे जैसे पराया हो प्रणय भी रोया जैसे कोई छल गया हो मेरी अक्षय निधि स्मृतियों की उलझ गयी जाल में जग-रतियों की समय चढ़े माधवी की रति अलसायी पर घन गरजे सावन न मधु बरसायी अलकों मे छिपते उस सुंदर मुख से सुख से सारे सपने क्यों बुझे दुख से लेश मे भी छिप कर जीवन बोल रहा अब सदगति मे भी कोई विष घोल रहा निशांत तक प्रणय-प्रज्ञा दोनों मरे सुबह चेहरे अपने ही आँखों से डरे वितृष्णा इतनी कि मुख पर चादर खींच रही बरसों की कल्याणी आज आंखे मींच रही रजनी के श्यामल अधरों पर चुंबन झरे स्मृतियों में अंबर भर अब मेरी संज्ञा भी उस करवट सोती नहीं अश्रु भी सूखे, जीवन पास बुलाती नहीं दौड़ते अणुओं को विश्राम कहाँ टकराते हैं तन-मन से निष्काम यहाँ कस्तूरी सूखी, पर रंध्रों मे है गंध भरी स्मृतियों मेँ मरुभूमि भी लगती है हरी अँधियारे उन्मत्त नृत्य की अनुभूति माया सी छायी अंग-अंग को छूती आज देहरी पर खड़ा मैं निर्वासित सा प्रणय-अवज्ञा मेँ गिरता-उठता शापित सा तम मे डूबा मधु-यौवन का काल रति के नीचे फैल रहा था चिकुर-जाल कल्पना से परे कितने हैं प्रणय-रहस्य इस करवट न छायेंगे दृगों मे कोई दृश्य अब न झाँकेगी शची अंबर से कौन विकल किसी के मरते उर से मन-जीवन उल्का बन बिखर रहा फिर क्यों प्रणय है प्रेत बना विचर रहा तुम आद्या इस नीड़ की अनंता कल तक रही प्रणय की अनुमंता तन-मन स्पर्श, रस-रंग, सब मधु भरा अनुपासित मैं ढूंढ रहा आज अपनी धरा सागर के कगार पर खड़ा तृषित अधर सूखे, मन कुंठित उच्छवासित लहरों मे तैरती पंखुड़ियों का सौरभ छोड़ गयी जीवन का प्यासा नभ तुमसे ही प्रणय उठा, सुंदर सृष्टि बनी यही नयन क्यों दे जाते हैं वृष्टि घनी आयु निगली काया, मन का अवसान हुआ पर न मरी माया, जब भी ढूंढा अवमान हुआ अग्नि-शपथ से सुख का भाव-संचार हुआ प्रणय संग तन उन्मत्त क्रीडागार हुआ तृष्णा उठी, निकली तन के ओध से आगे न माने मन, नित मरीचिका के पीछे भागे हम दोनों का सह-अस्तित्व रहा स्वभाव बना, बन कर कितना सहा आभास न हुआ कुछ अंत छू कर भी मन अनंग भटकता रहा आज उसे पा कर भी यह नीड़ तुम्हारी स्मृतियों का जीवंत प्रणय रंगमंच के कृतियों का कैसी है सृष्टि, न कोई आरंभ न अंत माया से छ जाता नभ, न होता कभी निशांत तुम रम्या अनुराग सी अमेय सिद्ध न कर सकी प्रणय प्रमेय अब शेष व्यथा किसे सुनाते भवानी सब शून्य हुआ, जब तुमने ‘अब नहीं’ की ठानी थोड़ा सा प्यार, समय के विरुद्ध हल्का सा स्पर्श कर जाता मन प्रबुद्ध अंकों के उलझन में बीत गए बरस आज शून्य मे ही गिरे सारे संबंध सरस खींची कुछ टेढ़ी मन की रेखाएँ एक राह पर चलते बदली दिशाएँ काम-वासना मढ़े जीवन पर आरोप बची भावनाओं का भी हुआ प्रलोप प्रमेय बना रहा जड़ सा जीवन मे बिछुड़े सारे आलिंगन अनुबंधन से टूटी धुरी, सिमटा अनंत आकर्षण लौटा गया जीवन वही एकाकी क्षण तुम श्रृंगार की वसन्त बन खिली जैसे यौवन की कली उतरी चुपके से तन-मन में कर रजनी को भी जग-बावली तुम शिशिर की नवल नलिनी चढ़ती धूप की दहकती पलाश सावन की सुहासिनी गुलनार तुम चांदनी, यह जीवन थका आकाश जब तुम पास नहीं होती हो मन में गहरी बसी रहती हो भूख-प्यास सब बुझा जाती हो आँखों से तुम आंसू सी बहती हो वह शाम आँखों में कभी नहीं ढली जब तुम रंग गयी थी लालिमा सी उस दिन पास ही निकला सांध्यतारा वह तुम थी मेरी आँखों में सुषमा सी मेरी हर शाम वही होती है चाहे समय आकाश लांघ गया हो पर मै तुम्हे पास देखता रहूँ पल-पल जैसे हर रात चकोर चाँद मांग लाया हो जब भी हम साथ चले हाथ पकड़ कर मुझे लगा इतिहास फिर लौट आया काश हम थाम लेते समय बाँहों में देखो यह हँस कर मन फिर कचोट गया मैं हर करवट तुम्हे देखता रहता हूँ कहीं आँख खुलते अँधेरा न हो जाये तुम हो तो ही हैं ये दिन और रातें डर लगता है कभी ये सांस न सो जाये अटल अखंड धीर-वीर सी, उथली बुनियाद पर खड़ी आकाशदीप सी झंझावत में भी अड़ी प्यार के लिए जग से लड़ी तुम जीवन का पर्याय, प्रणय की परिभाषा हो निर्जन में भी मन से बंधी परछाई हो श्वासों की लय हो, उर में छिपी कामायनी हो जन्मों का वरदान हो, आदि-अंत की गहराई हो तुम रति की प्रतिकृति सुन्दर सर्जना हो आरती हो अनुबंध में गुंथे अविरल आलिंगन की जीवन की प्रज्ञां हो, और हो दिशा चंचलता की दृष्टि हो, स्वर हो, स्पर्श हो, उठते प्रभंजन की नव लय की दिशा लिए जीवन के प्रति प्रयाण से प्रतिबद्द नव गति के ताल मे तमस को छोड़ कल की खोज में चल रही अनिरुद्ध संबंध निर्वाह का संकल्प लिए दुख भी काट गयी जैसे हँसते सुमन समय के साथ कर लिया नीड़ का निर्माण तुम्हारे प्यार को यहाँ शत-शत नमन