मात्रिक छंदों की कविताएँ : बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
Matrik Chhand Poems : Basudeo Agarwal Naman



1. 32 मात्रिक छंद (हम और तुम)

बम बम के हम उद्घोषों से, धरती गगन नाद से भरते। बोल 'बोल बम' के पावन सुर, आह्वाहन भोले का करते।। पर तुम हृदयहीन बन कर के, मानवता को रोज लजाते। बम के घृणित धमाके कर के, लोगों का नित रक्त बहाते।। हर हर के हम नारे गूँजा, विश्व शांति को प्रश्रय देते। साथ चलें हम मानवता के, दुखियों की ना आहें लेते।। निरपराध का रोज बहाते, पर तुम लहू छोड़ के लज्जा। तुम पिशाच को केवल भाते, मानव-रुधिर, मांस अरु मज्जा।। अस्त्र हमारा सहनशीलता, संबल सब से भाईचारा। परंपरा में दानशीलता, भावों में हम पर दुख हारा।। तुम संकीर्ण मानसिकता रख, करते बात क्रांति की कैसी। भाई जैसे हो कर भी तुम, रखते रीत दुश्मनों जैसी।। डर डर के आतंकवाद में, जीना हमने तुमसे सीखा। हँसे सदा हम तो मर मर के, तुमसे जब जब ये दिल चीखा।। तुम हो रुला रुला कर हमको, कभी खुदा तक से ना डरते। सद्विचार पा बदल सको तुम, पर हम यही प्रार्थना करते।। ============= 32 मात्रिक छंद विधान - 32 मात्रिक छंद चार पदों का सम मात्रिक छंद है जो ठीक चौपाई का ही द्विगुणित रूप है। इन 32 मात्रा में 16, 16 मात्रा पर यति होती है तथा दो दो पदों में पदान्त तुक मिलाई जाती है। 16 मात्रा के चरण का विधान ठीक चौपाई छंद वाला ही है। यह राधेश्यामी छंद से अलग है। राधेश्यामी छंद के 16 मात्रिक चरण का प्रारंभ त्रिकल से नहीं हो सकता उसमें प्रारंभ में द्विकल होना आवश्यक है जबकि 32 मात्रिक छंद में ऐसी बाध्यता नहीं है। इस छंद के अंत में जब भगण (211) रखने की अनिवार्यता रहती है तो यह समान सवैया या सवाई छंद के नाम से जाना जाता है।

2. अहीर छंद (प्रदूषण)

बढ़ा प्रदूषण जोर। इसका कहीं न छोर।। संकट ये अति घोर। मचा चतुर्दिक शोर।। यह भीषण वन-आग। हम सब पर यह दाग।। जाओ मानव जाग। छोड़ो भागमभाग।। मनुज दनुज सम होय। मर्यादा वह खोय।। स्वारथ का बन भृत्य। करे असुर सम कृत्य।। जंगल किए विनष्ट। सहता है जग कष्ट।। प्राणी सकल कराह। भरते दारुण आह।। धुआँ घिरा विकराल। ज्यों उगले विष व्याल।। जकड़ जगत निज दाढ़। विपदा करे प्रगाढ़।। दूषित नीर समीर। जंतु समस्त अधीर।। संकट में अब प्राण। उनको कहीं न त्राण।। प्रकृति-संतुलन ध्वस्त। सकल विश्व अब त्रस्त।। अन्धाधुन्ध विकास। आया जरा न रास।। विपद न यह लघु-काय। शापित जग-समुदाय।। मिलजुल करे उपाय। तब यह टले बलाय।। ============== अहीर छंद विधान - अहीर छंद 11 मात्रा प्रति चरण का सम मात्रिक छंद है जिसका अंत जगण 121 से होना आवश्यक है। एक छंद में कुल 4 चरण होते हैं और छंद के दो दो या चारों चरण सम तुकांत होने चाहिए। इन 11 मात्राओं का विन्यास ठीक दोहा छंद के 11 मात्रिक सम चरण जैसा है बस 8वीं मात्रा सदैव लघु रहे। दोहा छंद के सम चरण का कल विभाजन है: अठकल+3 (ताल यानी 21) अठकल में 2 चौकल हो सकते हैं। अठकल और चौकल के सभी नियम अनुपालनीय हैं। अहीर छंद में अठकल की निम्न संभावनाएँ हो सकती हैं। 3,3,11 2, जगण,11 3, जगण, 1 4,2,11 4,3,1

3. आल्हा छंद (आलस्य)

कल पे काम कभी मत छोड़ो, आता नहीं कभी वह काल। आगे कभी नहीं बढ़ पाते, देते रोज काम जो टाल।। किले बनाते रोज हवाई, व्यर्थ सोच में हो कर लीन। मोल समय का नहिं पहचाने, महा आलसी प्राणी दीन।। बोझ बने जीवन को ढोते, तोड़े खटिया बैठ अकाज। कार्य-काल को व्यर्थ गँवाते, मन में रखे न शंका लाज। नहीं भरोसा खुद पे रखते, देते सदा भाग्य को दोष, कभी नहीं पाते ऐसे नर, जीवन का सच्चा सन्तोष।। आलस ऐसा शत्रु भयानक, जो जर्जर कर देता देह। मान प्रतिष्ठा क्षीण करे यह, अरु उजाड़ देता है गेह।। इस रिपु से जो नहीं चेतते, बनें हँसी के जग में पात्र। बन कर रह जाते हैं वे नर, इसके एक खिलौना मात्र।। कुकड़ू कूँ से कुक्कुट प्रतिदिन, देता ये पावन संदेश। भोर हुई है शय्या त्यागो, कर्म-क्षेत्र में करो प्रवेश।। चिड़िया चहक चहक ये कहती, गौ भी कहे यही रंभाय। वातायन से छन कर आती, प्रात-प्रभा भी यही सुनाय।। पर आलस का मारा मानस, इन सब से रह कर अनजान। बिस्तर पे ही पड़ा पड़ा वह, दिन का कर देता अवसान।। ऊहापोह भरी मन स्थिति के, घोड़े दौड़ा बिना लगाम। नये बहाने नित्य गढ़े वह, टालें कैसे दैनिक काम।। मानव की हर प्रगति-राह में, खींचे आलस उसके पाँव। अकर्मण्य रूखे जीवन पर, सुख की पड़ने दे नहिं छाँव।। कार्य-क्षेत्र में नहिं बढ़ने दे, हर लेता जो भी है पास। घोर व्यसन यह तन मन का जो, जीवन में भर देता त्रास।। ============= आल्हा छंद विधान / वीर छंद विधान - आल्हा छंद वीर छंद के नाम से भी प्रसिद्ध है जो 31 मात्रा प्रति पद का सम पद मात्रिक छंद है। यह चार पदों में रचा जाता है। इसे मात्रिक सवैया भी कहते हैं। इसमें यति16 और 15 मात्रा पर नियत होती है। दो दो या चारों पद समतुकांत होने चाहिए। 16 मात्रा वाले चरण का विधान और मात्रा बाँट ठीक चौपाई छंद वाली है। 15 मात्रिक चरण का अंत ताल यानी गुरु लघु से होना आवश्यक है। तथा बची हुई 12 मात्राएँ तीन चौकल के रूप में हो सकती हैं या फिर एक अठकल और एक चौकल हो सकती हैं। चौकल और अठकल के सभी नियम लागू होंगे। ’यथा नाम तथा गुण’ की उक्ति को चरितार्थ करते आल्हा छंद या वीर छंद के कथ्य अक्सर ओज भरे होते हैं और सुनने वाले के मन में उत्साह और उत्तेजना पैदा करते हैं। जनश्रुति इस छंद की विधा को यों रेखांकित करती है - "आल्हा मात्रिक छंद, सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य। गुरु-लघु चरण अन्त में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य। अलंकार अतिशयताकारक, करे राइ को तुरत पहाड़। ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़।" परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं कि इस छंद में वीर रस के अलावा अन्य रस की रचना नहीं रची जा सकती।

4. उल्लाला छंद (किसान)

हल किसान का नहिं रुके, मौसम का जो रूप हो। आँधी हो तूफान हो, चाहे पड़ती धूप हो।। भाग्य कृषक का है टिका, कर्जा मौसम पर सदा। जीवन भर ही वो रहे, भार तले इनके लदा।। बहा स्वेद को रात दिन, घोर परिश्रम वो करे। फाके में खुद रह सदा, पेट कृषक जग का भरे।। लोगों को जो अन्न दे, वही भूख से ग्रस्त है। करे आत्महत्या कृषक, हिम्मत उसकी पस्त है।। रहे कृषक खुशहाल जब, करे देश उन्नति तभी। है किसान तुमको 'नमन', ऋणी तुम्हारे हैं सभी।। ================ उल्लाला छंद विधान - उल्लाला छंद द्वि पदी मात्रिक छंद है। स्वतंत्र रूप से यह छंद कम प्रचलन में है, परन्तु छप्पय छंद के 6 पदों में प्रथम 4 पद रोला छंद के तथा अंतिम 2 पद उल्लाला छंद के होते हैं। इसके दो रूप प्रचलित हैं। (1) 26 मात्रिक पद जिसके चरण 13-13 मात्राओं के यति खण्डों में विभाजित रहते हैं। इसका मात्रा विभाजन: अठकल + द्विकल + लघु + द्विकल है। अंत में एक गुरु या 2 लघु का विधान है। इस प्रकार दोहा छंद के चार विषम चरणों से उल्लाला छंद बनता है। इस छंद में 11वीं मात्रा लघु ही होती है। (2) 28 मात्रिक पद जिसके चरण 15 -13 मात्राओं के यति खण्डों में विभाजित रहते हैं। इस में शुरू में द्विकल (2 या 11) जोड़ा जाता है, बाकी सब कुछ प्रथम रूप की तरह ही है। तथापि 13-13 मात्राओं वाला छंद ही विशेष प्रचलन में है। 15 मात्रिक चरण में 13 वीं मात्रा लघु होती है। तुकांतता के दो रूप प्रचलित हैं। (1)सम+सम चरणों की तुकांतता। (2)दूसरा हर पंक्ति में विषम+सम चरण की तुकांतता। शेष नियम दोहा छंद के समान हैं।

5. उड़ियाना छंद (विरह)

क्यों री तू थमत नहीं, विरह की मथनिया। मथत रही बार बार, हॄदय की मटकिया।। सपने में नैन मिला, हँसत है सजनिया। छलकावत जाय रही, नेह की गगरिया।। गरज गरज बरस रही, श्यामली बदरिया। झनकारै हृदय-तार, कड़क के बिजुरिया।। ऐसे में कुहुक सुना, वैरन कोयलिया। विकल करे कबहु मिले, सजनी दुलहनिया।। तेरे बिन शुष्क हुई, जीवन की बगिया। बेसुर में बाज रही, बैन की मुरलिया।। सुनने को विकल श्रवण, तेरी पायलिया। तेरी ही बाट लखे, सूनी ये कुटिया।। विरहा की आग जले, कटत न अब रतिया। रह रह मन उठत हूक, धड़कत है छतिया।। 'नमन' तुझे भेज रहा, अँसुवन लिख पतिया। बेगी अब आय मिलो, सुन मन की बतिया।। ============= उड़ियाना छंद विधान - उड़ियाना छंद 22 मात्रा का सम मात्रिक छंद है। यह प्रति पद 22 मात्रा का छंद है। इस में 12,10 मात्रा पर यति विभाजन है। यति से पहले त्रिकल आवश्यक। मात्रा बाँट :- 6+3+3, 6+1+1+2 (S) (त्रिकल के तीनों रूप (21, 12, 111) मान्य। अंत सदैव दीर्घ वर्ण से। चार पद, दो दो पद समतुकांत या चारों पद समतुकांत।

6. कामरूप छंद (गरीबों की दुनिया)

कैसी गरीबी, बदनसीबी, दिन सके नहिं काट। हालात माली, पेट खाली, वस्त्र बस हैं टाट।। अति छिन्न कुटिया, भग्न खटिया, सार इसमें काम। है भूमि बिस्तर, छत्त अंबर, जी रहे अविराम।। बच्चे अशिक्षित, घोर शोषित, सकल सुविधा हीन। जन्मे अभागे, भीख माँगे, जुर्म में या लीन।। इक दूसरे से, नित लड़ें ये, गालियाँ बक घोर। झट थामते फिर, भूल किर किर, प्रीत की मृदु डोर।। घर में न आटा, वस्तु घाटा, सह रहे किस भांति। अति सख्त जीवन, क्षीण यौवन, कुछ न इनको शांति।। पर ये सुखी हैं, नहिं दुखी हैं, मग्न अपने माँहि। मिलजुल बिताये, दिन सुहाये, पर शिकायत नाँहि।। इनकी जरूरत, खूब सीमित, कम बहुत सामान। पर काम चलता, कुछ न रुकता, सब करे आसान।। हँस के बितानी, जिंदगानी, मन्त्र मन यह धार। जीवन बिताते, काट देते, दीनता दुश्वार।। ============= कामरूप छंद विधान - वैताल छंद के नाम से भी यह छंद जानी जाती है। कामरूप छंद 26 मात्रा प्रति पद का सम मात्रिक छंद है, जिसका पद 9 मात्रा, 7 मात्रा और 10 मात्रा के तीन यति खण्डों में विभक्त रहता है। इस छंद के प्रत्येक चरण की मात्रा बाँट निम्न प्रकार से है :- (1) प्रथम यति- 2 + 3 (केवल ताल) + 4 = 9 मात्रा। इसका वर्णिक विन्यास 22122 है। (2) द्वितीय यति- इसका वर्णिक विन्यास 2122 = 7 मात्रा है। (3) तृतीय यति- इसका वर्णिक विन्यास 2122 21 = 10 मात्रा है। इसको 1222 21 रूप में भी रखा जा सकता है, पर चरण का अंत सदैव ताल (21) से होना आवश्यक है। 22122, 2122, 2122 21 (अत्युत्तम)। चूंकि यह छंद एक मात्रिक छंद है अतः इसमें 2 (दीर्घ वर्ण) को 11 (दो लघु वर्ण) करने की छूट है। चार पद की छंद जसके दो दो पद समतुकांत या चारों पद समतुकांत रहते हैं। आंतरिक यति भी समतुकांत हो तो और अच्छा परन्तु जरूरी भी नहीं।

7. कुंडल छंद (ताँडव नृत्य)

नर्तत त्रिपुरारि नाथ, रौद्र रूप धारे। डगमग कैलाश आज, काँप रहे सारे।। बाघम्बर को लपेट, प्रलय-नेत्र खोले। डमरू का कर निनाद, शिव शंकर डोले।। लपटों सी लपक रहीं, ज्वाल सम जटाएँ। वक्र व्याल कंठ हार, जीभ लपलपाएँ।। ठाडे हैं हाथ जोड़, कार्तिकेय नंदी। काँपे गौरा गणेश, गण सब ज्यों बंदी।। दिग्गज चिघ्घाड़ रहें, सागर उफनाये। नदियाँ सब मंद पड़ीं, पर्वत थर्राये।। चंद्र भानु क्षीण हुये, प्रखर प्रभा छोड़े। उच्छृंखल प्रकृति हुई, मर्यादा तोड़े।। सुर मुनि सब हाथ जोड़, शीश को झुकाएँ। शिव शिव वे बोल रहें, मधुर स्तोत्र गाएँ।। इन सब से हो उदास, नाचत हैं भोले। वर्णन यह 'नमन' करे, हृदय चक्षु खोले।। *********************** कुंडल छंद विधान - कुंडल छंद 22 मात्रा का सम मात्रिक छंद है जिसमें 12,10 मात्रा पर यति रहती है। अंत में दो गुरु आवश्यक; यति से पहले त्रिकल आवश्यक। मात्रा बाँट :- 6+3+3, 6+SS चार पद का छंद। दो दो पद समतुकांत या चारों पद समतुकांत।

8. कुण्डलिया छंद (मोबायल)

मोबायल से मिट गये, बड़ों बड़ों के खेल। नौकर, सेठ, मुनीमजी, इसके आगे फेल। इसके आगे फेल, काम झट से निपटाता। मुख को लखते लोग, मार बाजी ये जाता। निकट समस्या देख, करो नम्बर को डॉयल। सौ झंझट इक साथ, दूर करता मोबायल।।१।। मोबायल में गुण कई, सदा राखिए संग। नूतन मॉडल हाथ में, देख लोग हो दंग। देख लोग हो दंग, पत्नियाँ आहें भरती। कैसी है ये सौत, कभी आराम न करती। कहे 'बासु' कविराय, लोग अब इतने कायल। दिन देखें ना रात, हाथ में है मोबायल।।२।। मोबायल बिन आज है, सूना सब संसार। जग के सब इसपे चले, रिश्ते कारोबार। रिश्ते कारोबार, व्हाटसप इस पर फलते। वेब जगत के खेल, फेसबुक यहाँ मचलते। मधुर सुनाए गीत, दिखाए छमछम पायल। झट से फोटो लेत, सौ गुणों का मोबायल।।३।। मोबायल क्या चीज है, प्रेमी जन का वाद्य। नारी का जेवर बड़ा, बच्चों का आराध्य। बच्चों का आराध्य, रखे जो खूबी सारी। नहीं देखते लोग, दाम कितने हैं भारी। दो पल भी विलगाय, कलेजा होता घायल। कहे 'बासु' कविराय, मस्त है ये मोबायल।।४।। ============= कुण्डलिया छंद विधान - कुण्डलिया छंद दोहा छंद और रोला छंद के संयोग से बना विषम छंद है। इस छंद में ६ पद होते हैं तथा प्रत्येक पद में २४ मात्राएँ होती हैं। यह छंद दो छंदों के मेल से बना है जिसके पहले दो पद दोहा छंद के तथा शेष चार पद रोला छंद से बने होते हैं। दोहा छंद एक अर्द्ध समपद छंद है। इसका हर पद यति चिन्ह द्वारा दो चरणों में बँटा होता है और दोनों चरणों का विधान एक दूसरे से अलग रहता है इसीलिए इसकी संज्ञा अर्द्ध समपद छंद है। इस प्रकार दोहा छंद के दोनों दल में चार चरण होते हैं। इसके प्रथम एवं तृतीय चरण यानी विषम चरण १३-१३ मात्राओं के तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण यानी सम चरण ११-११ मात्राओं के होते हैं। कुण्डलिया छंद में दोहे का चौथा चरण रोला छंद के प्रथम चरण में सिंहावलोकन की तरह यथावत दोहरा दिया जाता है। रोला छंद के प्रत्येक पद में २४ मात्राएँ होती हैं। चूँकि दोहे का चौथा चरण कुण्डलिया छंद में रोला के प्रथम चरण में यथावत रख दिया जाता है इसलिए इस छंद में रोला छंद के चारों पदों की समरूपता बनाये रखने के लिए रोला के चारों विषम चरणों की यति ११वीं मात्रा पर रखनी आवश्यक है, साथ ही इस चरण का अंत भी ताल यानी गुरु लघु से होना आवश्यक है। वैसे तो रोला छंद की मात्रा बाँट तीन अठकल की है पर कुण्डलिया छंद में रोला की प्रथम यति ताल अंत (21) के साथ ११ मात्रा पर सुनिश्चित है जिसकी मात्रा बाँट ८-३(गुरु लघु) है। अतः बाकी बची १३ मात्राएँ केवल ३-२-८ की मात्रा बाँट में ही हो सकती हैं क्योंकि रोला छंद का दूसरा अठकल केवल ३-३-२ में ही विभक्त होगा। शायद इसी कारण से इसी मात्रा बाँट में रोला छंद आजकल रूढ हो गया है। कुण्डलिया छंद का प्रारंभ जिस शब्द या शब्द-समूह से होता है, छंद का अंत भी उसी शब्द या शब्द-समूह से होता है। सोने में सुहागा तब है जब कुण्डलिया के प्रारंभ का और अंत का शब्द एक होते हुए भी दोनों जगह अलग अलग अर्थ रखता हो। साँप की कुण्डली की तरह रूप होने के कारण ही इसका नाम कुण्डलिया पड़ा है।

9. गीतिका छंद (चातक पक्षी)

मास सावन की छटा सारी दिशा में छा गयी। मेघ छाये हैं गगन में यह धरा हर्षित भयी।। देख मेघों को सभी चातक विहग उल्लास में। बूँद पाने स्वाति की पक्षी हृदय हैं आस में।। पूर्ण दिन किल्लोल करता संग जोड़े के रहे। भोर की करता प्रतीक्षा रात भर बिछुड़न सहे।। 'पी कहाँ' है 'पी कहाँ' की तान में ये बोलता। जो विरह से हैं व्यथित उनका हृदय सुन डोलता।। नीर बरखा बूँद का सीधा ग्रहण मुख में करे। धुन बड़ी पक्की विहग की अन्यथा प्यासा मरे।। एक टक नभ नीड़ से लख धैर्य धारण कर रखे। खोल के मुख पूर्ण अपना बाट बरखा की लखे।। धैर्य की प्रतिमूर्ति है यह सीख इससे लें सभी। प्रीत जिससे है लगी छाँड़ै नहीं उसको कभी।। चातकों सी धार धीरज दुख धरा के हम हरें। लक्ष्य पाने की प्रतीक्षा पूर्ण निष्ठा से करें।। ================ गीतिका छंद विधान - गीतिका छंद चार पदों का एक सम-मात्रिक छंद है। प्रति पद 26 मात्राएँ होती है तथा प्रत्येक पद 14-12 अथवा 12-14 मात्राओं की यति के अनुसार होता है। निम्न वर्ण विन्यास पर गीतिका छंद सर्वाधिक मधुर होता है, जो रचनाकारों में एक प्रकार से रूढ है। 2122 2122 2122 212 चूँकि गीतिका एक मात्रिक छंद है अतः गुरु को आवश्यकतानुसार 2 लघु किया जा सकता है परंतु 3 री, 10 वीं, 17 वीं और 24 वीं मात्रा सदैव लघु होगी। अंत सदैव गुरु वर्ण से होता है। इसे 2 लघु नहीं किया जा सकता। चारों पद समतुकांत या 2-2 पद समतुकांत।

10. ग्रंथि छंद (देश का ऊँचा सदा)

"गीतिका विधा" देश का ऊँचा सदा, परचम रखें, विश्व भर में देश-छवि, रवि सम रखें। मातृ-भू सर्वोच्च है, ये भाव रख, देश-हित में प्राण दें, दमखम रखें। विश्व-गुरु भारत रहा, बन कर कभी, देश फिर जग-गुरु बने, उप-क्रम रखें। देश का गौरव सदा, अक्षुण्ण रख, भारती के मान को, चम-चम रखें। आँख हम पर उठ सके, रिपु की नहीं, आत्मगौरव और बल, विक्रम रखें। सर उठा कर हम जियें, हो कर निडर, मूल से रिपु-नाश का, उद्यम रखें। रोटियाँ सब को मिलें, छत भी मिले, दीन जन की पीड़ लख, दृग नम रखें। हम गरीबी को हटा, संपन्न हों, भाव ये सारे 'नमन', उत्तम रखें। ============= ग्रंथि छंद विधान - ग्रंथि छंद चार पदों का एक सम मात्रिक छंद है जिसमें प्रति पद 19 मात्राएँ होती हैं तथा प्रत्येक पद 12 और 7 मात्रा की यति में विभक्त रहता है। इसकी मात्रा बाँट निम्न है। 2122 212,2 212 चूँकि ग्रंथि छंद एक मात्रिक छंद है अतः गुरु को आवश्यकतानुसार 2 लघु किया जा सकता है। चारों पद समतुकांत या 2-2 पद समतुकांत।

11. चंचरीक छंद (बाल कृष्ण)

घुटरूवन चलत श्याम, कोटिकहूँ लजत काम, सब निरखत नयन थाम, शोभा अति प्यारी। आँगन फैला विशाल, मोहन करते धमाल, झाँझन की देत ताल, दृश्य मनोहारी।। लाल देख मगन मात, यशुमति बस हँसत जात, रोमांचित पूर्ण गात, पुलकित महतारी। नन्द भी रहे निहार, सुख की बहती बयार, बरसै यह नित्य धार, जो रस की झारी।। करधनिया खिसक जात, पग घूँघर बजत जात, मोर-पखा सर सजात, लागत छवि न्यारी। माखन मुख में लिपाय, मुरली कर में सजाय, ठुमकत सबको रिझाय, नटखट सुखकारी। यह नित का ही उछाव, सब का इस में झुकाव, ब्रज के संताप दाव, हरते बनवारी।। सुर नर मुनि नाग देव, सब को ही हर्ष देव, बरनत कवि 'बासुदेव', महिमा ये सारी।। **************** चंचरीक छंद विधान - इस छंद को हरिप्रिया छंद के नाम से भी जाना जाता है। यह छंद चार चरणों का प्रति चरण 46 मात्राओं का सम मात्रिक दण्डक है। इसका यति विभाजन - (12+12+12+10) =46 है। मात्रा बाँट 12 मात्रिक यति में 2 छक्कल का तथा अंतिम यति में छक्कल+गुरु गुरु है। इस प्रकार मात्रा बाँट 7 छक्कल और अंत गुरु गुरु (SS) का है। सूर ने अपने पदों में इस छंद का पुष्कल प्रयोग किया है। तुकांतता दो दो चरण या चारों चरण समतुकांत रखने की है। आंतरिक यति में भी तुकांतता बरती जाय तो अति उत्तम अन्यथा यह नियम नहीं है। यह छंद चंचरी छंद या चर्चरी छंद से भिन्न है। भानु कवि ने छंद प्रभाकर में "र स ज ज भ र" गणों से युक्त वर्ण वृत्त को चंचरी छंद बताया है जो 26 मात्रिक गीतिका छंद ही है। जिसका प्रारूप निम्न है। 21211 21211 21211 212 केशव कवि ने रामचन्द्रिका में भी इसी विधान के अनुसार चंचरी नाम से अनेक छंद रचे हैं। ===================

12. चौपइया छंद (राखी)

पर्वों में न्यारी, राखी प्यारी, सावन बीतत आई। करके तैयारी, बहन दुलारी, घर आँगन महकाई।। पकवान पकाए, फूल सजाए, भेंट अनेकों लाई। वीरा जब आया, वो बँधवाया, राखी थाल सजाई।। मन मोद मनाए, बलि बलि जाए, है उमंग नव छाई। भाई मन भाए, गीत सुनाए, खुशियों में बौराई।। डाले गलबैयाँ, लेत बलैयाँ, छोटी बहन लडाई। माथे पे बिँदिया, ओढ़ चुनरिया, जीजी मंगल गाई।। जब जीवन चहका, बचपन महका, तुम थी तब हमजोली। मिलजुल कर खेली, तुम अलबेली, आए याद ठिठोली।। पूरा घर चटके, लटकन लटके, आंगन में रंगोली। रक्षा की साखी, है ये राखी, बहना तुम मुँहबोली।। हम भारतवासी, हैं बहु भाषी, मन से भेद मिटाएँ। यह देश हमारा, बड़ा सहारा, इसका मान बढ़ाएँ।। बहना हर नारी, राखी प्यारी, सबसे ही बँधवाएँ। त्योहार अनोखा, लागे चोखा, हमसब साथ मनाएँ।। ****************** चौपइया छंद विधान - चौपइया छंद प्रति पद 30 मात्राओं का सममात्रिक छंद है। 10, 8,12 मात्राओं पर यति। प्रथम व द्वितीय यति में अन्त्यानुप्रास तथा छंद के चारों पद समतुकांत। प्रत्येक पदान्त में गुरु (2) आवश्यक है, पदान्त में दो गुरु होने पर यह छंद मनोहारी हो जाता है। इस छंद का प्रत्येक यति में मात्रा बाँट निम्न प्रकार है। प्रथम यति: 2 - 6 - 2 द्वितीय यति: 6 - 2 तृतीय यति: 6 - 2 - 2 - गुरु (भए प्रगट कृपाला दीन दयाला इसी छंद में है।)

13. चौपाई छंद (श्रावण सोमवार)

सावन पावन भावन छाया। सोमवार त्योहार सुहाया।। शंकर किंकर-हृदय समाया। वन्दन चन्दन देय सजाया।। षटमुख गजमुख तात महानी। तू शमशानी औघड़दानी।। भंग भुजंग-सार का पानी। आशुतोष तू दोष नसानी।। चंदा गंगा सर पर साजे। डमरू घुँघरू कर में बाजे।। शैल बैल पर तू नित राजे। शोभा आभा लख सब लाजे।। गरिमा महिमा अति है न्यारी। पापन-नाशी काशी प्यारी।। वरदा गिरिजा प्रिया दुलारी। पाप त्रि-ताप हरो त्रिपुरारी।। ================ चौपाई छंद विधान - चौपाई छंद 16 मात्रा का बहुत ही व्यापक छंद है। यह चार चरणों का सम मात्रिक छंद है। चौपाई के दो चरण अर्द्धाली या पद कहलाते हैं। जैसे- "जय हनुमान ज्ञान गुण सागर। जय कपीश तिहुँ लोक उजागर।।" ऐसी चालीस अर्द्धाली की रचना चालीसा के नाम से प्रसिद्ध है। इसके एक चरण में आठ से सोलह वर्ण तक हो सकते हैं, पर मात्राएँ 16 से न्यूनाधिक नहीं हो सकती। दो दो चरण समतुकांत होते हैं। चरणान्त गुरु या दो लघु से होना आवश्यक है। चौपाई छंद चौकल और अठकल के मेल से बनती है। चार चौकल, दो अठकल या एक अठकल और दो चौकल किसी भी क्रम में हो सकते हैं। समस्त संभावनाएँ निम्न हैं। 4-4-4-4, 8-8, 4-4-8, 4-8-4, 8-4-4 चौपाई में कल निर्वहन केवल चतुष्कल और अठकल से होता है। अतः एकल या त्रिकल का प्रयोग करें तो उसके तुरन्त बाद विषम कल शब्द रख समकल बना लें। जैसे 3+3 या 3+1 इत्यादि। चौकल और अठकल के नियम निम्न प्रकार हैं जिनका पालन अत्यंत आवश्यक है। चौकल = 4 - चौकल में चारों रूप (11 11, 11 2, 2 11, 22) मान्य रहते हैं। (1) चौकल में पूरित जगण (121) शब्द, जैसे विचार महान उपाय आदि नहीं आ सकते। (2) चौकल की प्रथम मात्रा पर कभी भी शब्द समाप्त नहीं हो सकता। चौकल में 3+1 मान्य है परन्तु 1+3 मान्य नहीं है। जैसे 'व्यर्थ न' 'डरो न' आदि मान्य हैं। 'डरो न' पर ध्यान चाहूँगा 121 होते हुए भी मान्य है क्योंकि यह पूरित जगण नहीं है। डरो और न दो अलग अलग शब्द हैं। वहीं चौकल में 'न डरो' मान्य नहीं है क्योंकि न शब्द चौकल की प्रथम मात्रा पर समाप्त हो रहा है। 3+1 रूप खंडित-चौकल कहलाता है जो चरण के आदि या मध्य में तो मान्य है पर अंत में मान्य नहीं है। 'डरे न कोई' से चरण का अंत हो सकता है 'कोई डरे न' से नहीं। अठकल = 8 - अठकल के दो रूप हैं। प्रथम 4+4 अर्थात दो चौकल। दूसरा 3+3+2 है जिसमें त्रिकल के तीनों (111, 12 और 21) तथा द्विकल के दोनों रूप (11 और 2) मान्य हैं। (1) अठकल की 1 से 4 मात्रा पर और 5 से 8 मात्रा पर पूरित जगण - 'उपाय' 'सदैव 'प्रकार' जैसा शब्द नहीं आ सकता। (2) अठकल की प्रथम और पंचम मात्रा पर शब्द कभी भी समाप्त नहीं हो सकता। 'राम नाम जप' सही है जबकि 'जप राम नाम' गलत है क्योंकि राम शब्द पंचम मात्रा पर समाप्त हो रहा है। पूरित जगण अठकल की तीसरी या चौथी मात्रा से ही प्रारंभ हो सकता है क्योंकि 1 और 5 से वर्जित है तथा दूसरी मात्रा से प्रारंभ होने का प्रश्न ही नहीं है, कारण कि प्रथम मात्रा पर शब्द समाप्त नहीं हो सकता। 'तुम सदैव बढ़' में जगण तीसरी मात्रा से प्रारंभ हो कर 'तुम स' और 'दैव' ये दो त्रिकल तथा 'बढ़' द्विकल बना रहा है। 'राम सहाय न' में जगण चौथी मात्रा से प्रारंभ हो कर 'राम स' और 'हाय न' के रूप में दो खंडित चौकल बना रहा है। एक उदाहरणार्थ रची चौपाई में ये नियम देखें- "तुम गरीब से रखे न नाता। बने उदार न हुये न दाता।।" "तुम गरीब से" अठकल तथा तीसरी मात्रा से जगण प्रारंभ। "रखे न" खंडित चौकल "नाता" चौकल। "नाता रखे न" लिखना गलत है क्योंकि खंडित चौकल चरण के अंत में नहीं आ सकता। "बने उदार न" अठकल तथा चौथी मात्रा से जगण प्रारंभ। किसी भी गंभीर सृजक का चौपाई छंद पर अधिकार होना अत्यंत आवश्यक है। आल्हा छंद, ताटंक छंद, लावणी छंद, सार छंद, सरसी छंद इत्यादि प्रमुख छंदों का आधार चौपाई ही है क्योंकि इन छंदों के पद का प्रथम 16 मात्रिक चरण चौपाई छंद का ही चरण है।

14. छप्पय छंद (अग्रसेन महाराज)

अग्रसेन नृपराज, सूर्यवंशी अवतारी। विप्र धेनु सुर संत, सभी के थे हितकारी। द्वापर का जब अंत, धरा पर हुआ अवतरण। भागमती प्रिय मात, पिता वल्लभ के भूषण। नागवंश की माधवी, इन्हें स्वयंवर में वरी। अग्रोहा तब नव बसा, झोली माँ लक्ष्मी भरी।। ================ छप्पय छंद विधान - छप्पय छंद एक विषम-पद मात्रिक छंद है। यह भी कुण्डलिया छंद की तरह छह पदों का एक मिश्रित छंद है जो दो छंदों के संयोग से बनता है। इसके प्रथम चार पद रोला छंद के हैं, जिसके प्रत्येक पद में 24-24 मात्राएँ होती हैं तथा यति 11-13 पर होती है। आखिर के दो पद उल्लाला छंद के होते हैं। उल्लाला छंद के दो भेदों के अनुसार इस छंद के भी दो भेद मिलते हैं। प्रथम भेद में 13-13 यानी कुल 26 मात्रिक उल्लाला छंद के दो पद आते हैं और दूसरे भेद में 15-13 यानी कुल 28 मात्रिक उल्लाला छंद के दो पद आते हैं।

15. जनक छंद (2019 चुनाव)

करके सफल चुनाव को, माँग रही बदलाव को, आज व्यवस्था देश की। *** बहुमत बड़ा प्रचंड है, सत्ता लगे अखंड है, अब जवाबदेही बढ़ी। **** रूढ़िवादिता तोड़ के, स्वार्थ लिप्तता छोड़ के, काम करे सरकार यह। *** राजनीति की स्वच्छता, सभी क्षेत्र में दक्षता, निश्चित अब तो दिख रही। *** आसमान को छू रहा, रग रग से यह चू रहा, लोगों का उत्साह अब। *** आशा का संचार है, भ्रष्टों का प्रतिकार है, बी जे पी के राज में। *** युग आया विश्वास का, सर्वांगीण विकास का, मोदी के नेतृत्व में। =========== जनक छंद विधान - जनक छंद रच के मधुर, कविगण कहते कथ्य को, वक्र-उक्तिमय तथ्य को। *** तेरह मात्रिक हर चरण, ज्यों दोहे के पद विषम, तीन चरण का बस 'जनक'। **** पहला अरु दूजा चरण, समतुकांतता कर वरण, 'पूर्व जनक' का रूप ले। *** दूजा अरु तीजा चरण, ले तुकांतमय रूप जब, 'उत्तर जनक' कहाय तब। *** प्रथम और तीजा चरण, समतुकांत जब भी रहे, 'शुद्ध जनक' का हो भरण। *** तुक बन्धन से मुक्त हों, इसके जब तीनों चरण, 'सरल जनक' तब रूप ले। *** सारे चरण तुकांत जब, 'घन' नामक हो छंद तब, 'नमन' विवेचन शेष अब। *** जनक छंद परिचय - जनक छंद कुल तीन चरणों का छंद है जिसके प्रत्येक चरण में 13 मात्राएं होती हैं। ये 13 मात्राएँ ठीक दोहा छंद के विषम चरण वाली होती हैं। विधान और मात्रा बाँट भी ठीक दोहा छंद के विषम चरण की है। यह छंद व्यंग, कटाक्ष और वक्रोक्तिमय कथ्य के लिए काफी उपयुक्त है। यह छंद जो केवल तीन पंक्तियों में समाप्त हो जाता है, दोहे और ग़ज़ल के शेर की तरह अपने आप में स्वतंत्र है। कवि चाहे तो एक ही विषय पर कई छंद भी रच सकता है। तुकों के आधार पर जनक छंद के पाँच भेद माने गए हैं। यह पाँच भेद हैं:— 1- पूर्व जनक छंद; (प्रथम दो चरण समतुकांत) 2- उत्तर जनक छंद; (अंतिम दो चरण समतुकांत) 3- शुद्ध जनक छंद; (पहला और तीसरा चरण समतुकांत) 4- सरल जनक छंद; (सारे चरण अतुकांत) 5- घन जनक छंद। (सारे चरण समतुकांत

16. आँसू छंद (कल और आज)

भारत तू कहलाता था, सोने की चिड़िया जग में। तुझको दे पद जग-गुरु का, सब पड़ते तेरे पग में। तू ज्ञान-ज्योति से अपनी, संपूर्ण विश्व चमकाया। कितनों को इस संपद से, तूने जीना सिखलाया।।1।। तेरी पावन वसुधा पर, नर-रत्न अनेक खिले थे। बल, विक्रम और दया के, जिनको गुण खूब मिले थे। अपनी मीठी वाणी से, वे जग मानस लहराये। सन्देश धर्म का दे कर, थे दया-केतु फहराये।।2।। प्राणी में सम भावों की, वीणा-लहरी गूँजाई। इस जग-कानन में उनने, करुणा की लता खिलाई। अपने इन पावन गुण से, तू जग का गुरु कहलाया। जग एक सूत्र में बाँधा, अपना सम्मान बढ़ाया।।3।। तू आज बता क्यों भारत, वह गौरव भुला दिया है। वह भूल अतीत सुहाना, धारण नव-वेश किया है। तेरी दीपक की लौ में, जिनके थे मिटे अँधेरे। वे सिखा रहें अब तुझको, बन कर के अग्रज तेरे।।4।। तूने ही सब से पहले, उनको उपदेश दिया था। तू ज्ञान-भानु बन चमका, जग का तम दूर किया था। वह मान बड़ाई तूने, अपने मन से बिसरा दी। वह छवि अतीत की पावन, उर से ही आज मिटा दी।।5।। तेरे प्रकाश में जग का, था आलोकित हृदयांगन। तूने ही तो सिखलाया, जग-जन को वह ज्ञानांकन। वह दिव्य जगद्गुरु का पद, तू पूरा भूल गया है। हर ओर तुझे अब केवल, दिखता सब नया नया है।।6।। अपना आँचल फैला कर, बन कर के दीन भिखारी। थे कृपा-दृष्टि के इच्छुक, जो जग-जन कभी तिहारी। अब दया-दृष्टि का उनकी, रहता सदैव तू प्यासा। क्या भान नहीं है इसका, कैसे पलटा यह पासा।।7।। अपने रिवाज सब छोड़े , बिसराया खाना, पीना। त्यज वेश और भूषा तक, छोड़ा रिश्तों में जीना। निज जाति, वर्ण अरु कुल का, मन में अभिमान न अब है। अपनाना रंग विदेशी, तूने तो ठाना सब है।।8।। कण कण में व्याप्त हुई है, तेरे भीषण कृत्रिमता। बस आज विदेशी की ही, तुझ में दिखती व्यापकता। ये दृष्टि जिधर को जाती, हैं रंग नये ही दिखते। नव रंग रूप ये तेरी, हैं भाग्य-रेख को लिखते।।9।। **************** आँसू छंद विधान - आँसू छंद प्रति पद 28 मात्रा का सम पद मात्रिक छंद है। छंद का पद 14 - 14 मात्रा के दो यति खण्डों में विभक्त रहता है। दो दो पद में सम तुकांतता बरती जाती है। मात्रा बाँट प्रति चरण:- प्रथम दो मात्राएँ सदैव द्विकल के रूप में रहती हैं जिसमें 11 या 2 दोनों रूप मान्य हैं। बची हुई 12 मात्रा में चौकल अठकल की निम्न तीन संभावनाओं में से कोई भी प्रयोग में लायी जा सकती है। तीन चौकल, चौकल + अठकल, अठकल + चौकल मानव छंद में किंचित परिवर्तन कर प्रसाद जी ने पूरा 'आँसू' खंड काव्य इस छंद में रचा है, इसलिए इस छंद का नाम ही आँसू छंद प्रचलित हो गया है।

17. ताटंक छंद (नारी की पीड़ा)

सदियों से भारत की नारी, पीड़ा सहती आयी हो। सिखलाया बचपन से जाता, तुम तो सदा परायी हो। बात बात में टोका जाता, दूजे घर में जाना है। जन्म लिया क्या यही लिखा कर? केवल झिड़की खाना है।।1।। घोर उपेक्षा की राहों की, तय करती आयी दूरी। नर-समाज में हुई नहीं थी, आस कभी तेरी पूरी। तेरे थे अधिकार संकुचित, जरा नहीं थी आज़ादी नारी तुम केवल साधन थी, बढ़वाने की आबादी।।2।। बंधनकारी तेरे वास्ते, आज्ञा शास्त्रों की नारी। घर के अंदर कैद रही तुम, रीत रिवाजों की मारी। तेरे सर पर सदा जरूरी, किसी एक नर का साया। पिता, पुत्र हो या फिर वह पति, आवश्यक उसकी छाया।।3।। देश गुलामी में जब जकड़ा, तेरी पीड़ा थी भारी। यवनों की कामुक नज़रों का, केंद्र देह तेरा नारी। कर गह यवन पकड़ ले जाते, शासक उठवाते डोली। गाय कसाई घर जाती लख, बन्द रही सबकी बोली।।4।। यौवन की मदमाती नारी, भारी थी जिम्मेदारी। तेरे हित पीछे समाज में, इज्जत पहले थी प्यारी। पीहर छुटकारा पाने को, बाल अवस्था में व्याहे। दे दहेज का नाम श्वसुर-गृह, कीमत मुँहमाँगी चाहे।।5।। घृणित रीतियाँ ये अपनाना, कैसी तब थी लाचारी। आन, अस्मिता की रक्षा की, तुम्ही मोहरा थी नारी। सदियों की ये तुझे गुलामीे, गहरी निद्रा में लायी। पर स्वतन्त्रता नारी तुझको, अब तक उठा नहीं पायी।।6।। कभी देश में हुआ सवेरा, पूरा रवि नभ में छाया। पर समाज इस दास्य-नींद से, अब तक जाग नहीं पाया। नारी नारी की उन्नति में, सबसे तगड़ा रोड़ा है। घर से ही पनपे दहेज अरु, आडम्बर का फोड़ा है।।7।। नहीं उमंगें और न उत्सव, जब धरती पे आती हो। नेग बधाई बँटे न कुछ भी, हृदय न तुम हर्षाती हो। कर्ज समझ के मात पिता भी, निर्मोही बन जाते हैं। खींच लकीरें लिंग-भेद की, भेद-भाव दर्शाते हैं।।8।। सभ्य देश में समझी जाती, जन्म पूर्व पथ की रोड़ी। हद तो अब विज्ञान रहा कर, कसर नहीं कुछ भी छोड़ी। इस समाज में भ्रूण-परीक्षण, लाज छोड़ तेरा होता। गर्भ-मध्य तेरी हत्या कर, मानव मानवता खोता।।9।। घर से विदा तुझे करने की, चिंता जब लग जाती है। मात पिता के आड़े दुविधा, जब दहेज की आती है। छलनी होता मन जब सुनती, घर में इसी कहानी को। कोमल मन बेचैन कोसता, बोझिल बनी जवानी को।।10।। पली हुई नाजों से कन्या, जब पति-गृह में है आती। सास बहू में घोर लड़ाई, अधिकारों की छा जाती। माँ की ममता मिल पाती क्या, पीहर में जो छोड़ी थी। छिन्न भिन्न होने लग जाती, आशाएँ जो जोड़ी थी।।11।। तेरी पीड़ा लख इस जग में, कोई सीर नहीं बाँटा। इस समाज ने तुझे सदा से, समझा आँखों का काँटा। जीवन की गाड़ी के पहिये, नर नारी दोनों होते। नारी जिसने सहा सहा ही, 'नमन' उसे जगते सोते।।12।। ****************** ताटंक छंद विधान - ताटंक छंद सम-पद मात्रिक छंद है। इस चार पदों के छंद में प्रति पद 30 मात्राएँ होती हैं। प्रत्येक पद 16 और 14 मात्रा के दो चरणों में बंटा हुआ रहता है। विषम चरण 16 मात्राओं का और सम चरण 14 मात्राओं का होता है। दो-दो पद की तुकान्तता का नियम है। 16 मात्रिक वाले चरण का विधान और मात्रा बाँट ठीक चौपाई छंद वाला है। 14 मात्रिक चरण की अंतिम 6 मात्रा सदैव 3 गुरु होती है तथा बची हुई 8 मात्राएँ दो चौकल हो सकती हैं या फिर एक अठकल हो सकती है। चौकल और अठकल के सभी नियम लागू होंगे।

18. तोमर छंद (अव्यवस्था)

हर नगर है बदहाल। अब जरा देख न भाल।। है व्यवस्था लाचार। दिख रही चुप सरकार।। वाहन खड़े हर ओर। चरते सड़क पर ढोर।। कुछ बची शर्म न लाज। हर तरफ जंगल राज।। मन मौज में कुछ लोग। हर चीज का उपयोग।। वे करें निज अनुसार। बन कर सभी पर भार।। ये दौड़ अंधी आज। जा रही दब आवाज।। आराजकों का शोर। बस अब दिखाये जोर।। ****** तोमर छंद विधान - यह 12 मात्रा का सम-पद मात्रिक छंद है। अंत ताल (21) से आवश्यक। इसकी मात्रा बाँट:- द्विकल-सप्तकल-3 (केवल 21) (द्विकल में 2 या 11 मान्य तथा सप्तकल का 1222, 2122, 2212,2221 में से कोई भी रूप हो सकता है।) चार चरण। दो दो समतुकांत।

19. त्रिभंगी छंद (भारत की धरती)

भारत की धरती, दुख सब हरती, हर्षित करती, प्यारी है। ये सब की थाती, हमें सुहाती, हृदय लुभाती, न्यारी है।। ऊँचा रख कर सर, हृदय न डर धर, बसा सुखी घर, बसते हैं। सब भेद मिटा कर, मेल बढ़ा कर, प्रीत जगा कर, हँसते हैं।। उत्तर कशमीरा, दक्षिण तीरा, सागर नीरा, दे भेरी।। अरुणाचल बाँयी, गूजर दाँयी, बाँह सुहायी, है तेरी। हिमगिरि उत्तंगा, गर्जे गंगा, घुटती भंगा, मदमाती।। रामेश्वर पावन, बृज वृंदावन, ताज लुभावन, है थाती। संस्कृत मृदु भाषा, योग मिमाँसा, सारी त्रासा, हर लेते। अज्ञान निपातन, वेद सनातन, रीत पुरातन, हैं देते।। तुलसी रामायन, गीता गायन, दिव्य रसायन, हैं सारे। पादप हरियाले, खेत निराले, नद अरु नाले, दुख हारे।। नित शीश झुकाकर, वन्दन गाकर, जीवन पाकर, रहते हैं। इस पर इठलाते, मोद मनाते, यश यह गाते, कहते हैं।। नव युवकों आओ, आस जगाओ, देश बढ़ाओ, तुम आगे। भारत की महिमा, पाये गरिमा, बढ़े मधुरिमा, सब जागे।। ============== त्रिभंगी छंद विधान - त्रिभंगी छंद प्रति पद 32 मात्राओं का सम पद मात्रिक छंद है। प्रत्येक पद में 10, 8, 8, 6 मात्राओं पर यति होती है। यह 4 पद का छंद है। प्रथम व द्वितीय यति समतुकांत होनी आवश्यक है। परन्तु अभ्यांतर समतुकांतता यदि तीनों यति में निभाई जाय तो सर्वश्रेष्ठ है। पदान्त तुकांतता दो दो पद की आवश्यक है। प्राचीन आचार्य केशवदास, भानु कवि, भिखारी दास के जितने उदाहरण मिलते हैं उनमें अभ्यान्तर तुकांतता तीनों यति में है, परंतु रामचरित मानस में तुकांतता प्रथम दो यति में ही निभाई गई है। कई विद्वान मानस के इन छंदों को दंडकला छंद का नाम देते हैं जिसमें यति 10, 8, 14 मात्रा की होती है। मात्रा बाँट निम्न प्रकार से है:- प्रथम यति- 2+4+4 द्वितीय यति- 4+4 तृतीय यति- 4+4 पदान्त यति- 4+S (2) चौकल में पूरित जगण वर्जित रहता है तथा चौकल की प्रथम मात्रा पर शब्द समाप्त नहीं हो सकता। पदान्त में एक दीर्घ (S) आवश्यक है लेकिन दो दीर्घ हों तो सौन्दर्य और बढ़ जाता है।

20. निधि छंद (सुख-सार)

उनका दे साथ। जो लोग अनाथ।। ले विपदा माथ। थामो तुम हाथ।। दुखियों के कष्ट। कर दो तुम नष्ट।। नित बोलो स्पष्ट। मत होना भ्रष्ट।। मन में लो धार। अच्छा व्यवहार।। मत मानो हार। दुख कर स्वीकार।। जग की ये रीत। सुख में सब मीत।। दुख से कर प्रीत। लो जग को जीत।। जीवन का भार। चलना दिन चार।। अटके मझधार। कैसे हो पार।। कलुष घटा घोर। तम चारों ओर।। दिखता नहिं छोर। कब होगी भोर।। आशा नहिं छोड़। भाग न मुख मोड़।। साधन सब जोड़। निकलेगा तोड़।। सच्ची पहचान। बन जा इंसान।। जग से पा मान। ये सुख की खान।। =========== निधि छंद विधान - यह नौ मात्रा का सम मात्रिक चार चरणों का छंद है। इसका चरणान्त ताल यानी गुरु लघु से होना आवश्यक है। बची हुई 6 मात्राएँ छक्कल होती हैं। तुकांतता दो दो चरण या चारों चरणों में समान रखी जाती है।

21. पीयूष वर्ष छंद (वर्षा वर्णन)

बिजलियों की गूंज, मेघों की घटा। हो रही बरसात, सावन की छटा।। ढोलकी हर ओर, रिमझिम की बजी। हो हरित ये भूमि, नव वधु सी सजी।। नृत्य दिखला मोर, मन को मोहते। जुगनुओं के झूंड, जगमग सोहते।। रख पपीहे आस, नभ को तक रहे। स्वाति की जलधार, कब नभ से बहे।। नार पिय से दूर, रह कर जो जिए। अग्नि सम ये वृष्टि, उसके है लिए।। पीड़ मन की व्यक्त, मेघों से करे। क्यों हृदय में ज्वाल, वारिद तू भरे।। छा गया उत्साह, कृषकों में नया। दूर सब अवसाद, मन का हो गया।। नारियों के झूंड, कजरी गा रहे, कर रहे हैं नृत्य, हाथों को गहे।। ======== पीयूष वर्ष छंद विधान - यह चार पदों का 19 मात्रा का सम पद मात्रिक छंद है। प्रत्येक पद 10, 9 मात्रा के दो चरणों में विभक्त रहता है। दो दो पद सम तुकांत रहने आवश्यक हैं। पद की मात्रा बाँट 2122 21, 22 21S होती है। गुरु वर्ण को 2 लघु करने की छूट है। पद का अंत लघु दीर्घ (1S) वर्ण से होना आवश्यक।

22. प्लवंगम छंद (सरिता)

भूधर बिखरें धरती पर हर ओर हैं। लुप्त गगन में ही कुछ के तो छोर हैं।। हैं तुषार मंडित जिनके न्यारे शिखर। धवल पाग भू ने ज्यों धारी शीश पर।। एक सरित इन शैल खंड से बह चली। बर्फ विनिर्मित तन की थी वह चुलबली।। ले अथाह जल अरु उमंग मन में बड़ी। बलखाती इठलाती नदी निकल पड़ी।। बाधाओं को पथ की सारी पार कर। एक एक भू-खंडों को वह अंक भर।। राहों के सब नाले, मिट्टी, तरु बहा। हुई अग्रसर गर्जन करती वह महा।। कभी मधुरतम कल कल ध्वनि से वह बहे। श्रवणों में ज्यों रागों के सुर आ रहे।। कभी भयंकर रूप धरे तांडव मचे। धारा में जो भी पड़ जाये ना बचे।। लदी हुई मानव-आशा के भार से। सींचे धरती वरदानी सी धार से। नगरों, मैदानों को करती पार वह। हर्ष मोद का जग को दे भंडार वह।। मधुर वारि से सींच अनेकों खेत को। कृषकों के वह साधे हर अभिप्रेत को।। हरियाली की खुशियों भरी खिला कली। वह अथाह सागर के पट में छिप चली।। ******************** प्लवंगम छंद विधान - 21 मात्रा। चार चरण, दो दो तुकांत। मात्रा बाँट:- अठकल*2 - द्विकल -लघु - द्विकल (अठकल चौकल या 3-3-2 दो हो सकता है। द्विकल 2 या 11 हो सकता है।)

23. बरवै छंद (शिव स्तुति)

सदा सजे शीतल शशि, इनके माथ। सुरसरिता सर सोहे, ऐसो नाथ।। सुचिता से सेवत सब, है संसार। हे शिव शंकर संकट, सब संहार। आक धतूरा चढ़ते, घुटती भंग। भूत गणों को हरदम, रखते संग।। गले रखे लिपटा के, सदा भुजंग। डमरू धारी बाबा, रहे मलंग।। औघड़ दानी तुम हो, हर लो कष्ट। दुख जीवन के सारे, कर दो नष्ट।। करूँ समर्पित तुमको, सारे भाव। दूर करो हे भोले, भव का दाव।। ============== बरवै छंद विधान - यह बरवै दोहा भी कहलाता है। बरवै अर्द्ध-सम मात्रिक छंद है। इसके प्रथम एवं तृतीय चरण में 12-12 मात्राएँ तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरण में 7-7 मात्राएँ हाती हैं। विषम चरण के अंत में गुरु या दो लघु होने चाहिए। सम चरणों के अन्त में ताल यानि 2 1 होना आवश्यक है। मात्रा बाँट विषम चरण का 8+4 और सम चरण का 4+3 है। अठकल की जगह दो चौकल हो सकते हैं। अठकल और चौकल के सभी नियम लगेंगे।

24. मरहठा छंद (कृष्ण लीलामृत)

धरती जब व्याकुल, हरि भी आकुल, हो कर लें अवतार। कर कृपा भक्त पर, दुख जग के हर, दूर करें भू भार।। द्वापर युग में जब, घोर असुर सब, देन लगे संताप। हरि भक्त सेवकी, मात देवकी, सुत बन प्रगटे आप।। यमुना जल तारन, कालिय कारन, जो विष से भरपूर। कालिय शत फन पर, नाचे जम कर, किया नाग-मद चूर।। दावानल भारी, गौ मझधारी, फँस कर व्याकुल घोर। कर पान हुताशन, विपदा नाशन, कीन्हा माखनचोर।। विधि माया कीन्हे, सब हर लीन्हे, गौ अरु ग्वालन-बाल। बन गौ अरु बालक, खुद जग-पालक, मेटा ब्रज-जंजाल।। ब्रह्मा इत देखे, उत भी पेखे, दोनों एक समान। तुम प्रभु अवतारी, भव भय हारी, ब्रह्म गये सब जान।। ब्रज विपदा हारण, सुरपति कारण, आये जब यदुराज। गोवर्धन धारा, सुरपति हारा, ब्रज का साधा काज। मथुरा जब आये, कुब्जा भाये, मुष्टिक चाणुर मार। नृप कंस दुष्ट अति, मामा दुर्मति, वध कर दी भू तार।। शिशुपाल हने जब, अग्र-पूज्य तब, राजसूय था यज्ञ। भक्तन के तारक, दुष्ट विदारक, राजनीति मर्मज्ञ।। पाण्डव के रक्षक, कौरव भक्षक, छिड़ा युद्ध जब घोर। बन पार्थ शोक हर, गीता दे कर, लाये तुम नव भोर।। ब्रज के तुम नायक, अति सुख दायक, सबका देकर साथ। जब भीड़ पड़ी है, विपद हरी है, आगे आ तुम नाथ।। हे कृष्ण मुरारी! जनता सारी, विपदा में है आज। कर जोड़ सुमरते, विनती करते, रखियो हमरी लाज। ************* मरहठा छंद विधान - मरहठा छंद प्रति पद कुल 29 मात्रा का सम-पद मात्रिक छंद है। इसमें यति विभाजन 10, 8,11 मात्रा का है। मात्रा बाँट:- प्रथम यति 2+8 =10 मात्रा द्वितीय यति 8, तृतीय यति 8+3 (ताल यानि 21) = 11 मात्रा अठकल की जगह दो चौकल लिये जा सकते हैं। अठकल चौकल के सब नियम लगेंगे। 4 पद सम तुकांत या दो दो पद समतुकांत। अंत्यानुप्रास हो तो और अच्छा।

25. मानव छंद (नारी की व्यथा)

आडंबर में नित्य घिरा। नारी का सम्मान गिरा।। सत्ता के बुलडोजर से। उन्मादी के लश्कर से।। रही सदा निज में घुटती। युग युग से आयी लुटती।। सत्ता के हाथों नारी। झूल रही बन बेचारी।। मौन भीष्म भी रखे जहाँ। अंधा है धृतराष्ट्र वहाँ।। उच्छृंखल हो राज-पुरुष। करते सारे पाप कलुष।। अधिकारी सारे शोषक। अपराधों के वे पोषक।। लूट खसोट मची भारी। दिखे व्यवस्था ही हारी।। रोग नशे का फैल गया। लुप्त हुई है हया दया।। अपराधों की बाढ जहाँ। ऐसे में फिर चैन कहाँ।। बने हुये हैं जो रक्षक। वे ही आज बड़े भक्षक।। हर नारी की घोर व्यथा। पंचाली की करुण कथा।। ============= मानव छंद विधान - मानव छंद 14 मात्रिक चार पदों का सम पद मात्रिक छंद है। तुक दो दो पद की मिलाई जाती है। 14 मात्रा की बाँट 12 2 है। 12 मात्रा में तीन चौकल हो सकते हैं, एक अठकल एक चौकल हो सकता है या एक चौकल एक अठकल हो सकता है। मानव छंद में ही किंचित परिवर्तन से मानव जाति के दो और छंद हैं। 4*2 211S = (हाकलि छंद) यह छंद दो चौकल भगण और दीर्घांत से बनता है। 4*2 2SS = (सखी छंद) यह छंद दो चौकल द्विकल और अंत में दो दीर्घ वर्ण से बनता है।

26. मुक्तामणि छंद (गणेश वंदना)

मात पिता शिव पार्वती, कार्तिकेय गुरु भ्राता। पुत्र रत्न शुभ लाभ हैं, वैभव सकल प्रदाता।। रिद्धि सिद्धि के नाथ ये, गज-कर से मुख सोहे। काया बड़ी विशाल जो, भक्त जनों को मोहे।। भाद्र शुक्ल की चौथ को, गणपति पूजे जाते। आशु बुद्धि संपन्न ये, मोदक प्रिय कहलाते।। अधिपति हैं जल-तत्त्व के, पीत वस्त्र के धारी। रक्त-पुष्प से सोहते, भव-भय सकल विदारी।। सतयुग वाहन सिंह का, अरु मयूर है त्रेता। द्वापर मूषक अश्व कलि, हो सवार गण-नेता।। रुचिकर मोदक लड्डुअन, शमी-पत्र अरु दूर्वा। हस्त पाश अंकुश धरे, शोभा बड़ी अपूर्वा।। विद्यारंभ विवाह हो, गृह-प्रवेश उद्घाटन। नवल कार्य आरंभ हो, या फिर हो तीर्थाटन।। पूजा प्रथम गणेश की, संकट सारे टारे। काज सुमिर इनको करो, विघ्न न आए द्वारे।। भालचन्द्र लम्बोदरा, धूम्रकेतु गजकर्णक। एकदंत गज-मुख कपिल, गणपति विकट विनायक।। विघ्न-नाश अरु सुमुख ये, जपे नाम जो द्वादश। रिद्धि सिद्धि शुभ लाभ से, पाये नर मंगल यश।। ग्रन्थ महाभारत लिखे, व्यास सहायक बन कर। वरद हस्त ही नित रहे, अपने प्रिय भक्तन पर।। मात पिता की भक्ति में, सर्वश्रेष्ठ गण-राजा। 'बासुदेव' विनती करे, सफल करो सब काजा।। =========== मुक्तामणि छंद विधान - दोहे का लघु अंत जब, सजता गुरु हो कर के। 'मुक्तामणि' प्रगटे तभी, भावों माँहि उभर के।। मुक्तामणि चार पदों का 25 मात्रा प्रति पद का सम पद मात्रिक छंद है जो 13 और 12 मात्रा के दो यति खण्डों में विभाजित रहता है। 13 मात्रिक चरण ठीक दोहे वाले विधान का होता है। दो दो पद समतुकांत होते हैं। मात्रा बाँट: विषम चरण- 8+3 (ताल)+2 कुल 13 मात्रा। सम चरण- 8+2+2 कुल 12 मात्रा। अठकल की जगह दो चौकल हो सकते हैं।द्विकल के दोनों रूप (1 1 या 2) मान्य हैं। यह छंद पदांत में दो दीर्घ (SS) रखने से कर्णप्रिय लगता है जो कुछ ग्रंथों में विधान के अंतर्गत भी है।

27. राधिका छंद (संकीर्ण मानसिकता)

अपने में ही बस मग्न, लोग क्यों सब हैं। जीवन के सारे मूल्य, क्षीण क्यों अब हैं।। हो दिशाहीन सब लोग, भटकते क्यों हैं। दूजों का हर अधिकार, झटकते क्यों हैं।। आडंबर का सब ओर, जोर है भारी। दिखते तो स्थिर-मन किंतु, बहुत दुखियारी।। ऊपर से चमके खूब, हृदय है काला। ये कैसा भीषण रोग, सभी ने पाला।। तन पर कपड़े रख स्वच्छ, शान झूठी में। करना चाहें अब लोग, जगत मुट्ठी में।। अब सिमट गये सब स्नेह, स्वार्थ अति छाया। जीवन का बस उद्देश्य, लोभ, मद, माया।। मानव खोया पहचान, यंत्रवत बन कर। रिश्तों का भूला सार, स्वार्थ में सन कर।। खो रहे योग्य-जन सकल, अपाहिज में मिल। छिपती जाये लाचार, काग में कोकिल।। नेता अभिनय में दक्ष, लोभ के मारे। झूठे भाषण से देश, लूटते सारे।। जनता भी केवल उसे, बिठाये सर पे। जो ले लुभावने कौल, धमकता दर पे।। झूठे वादों की बाढ़, चुनावों में अब। बहुमत कैसे भी मिले, लखे नेता सब।। हित आज देश के गौण, स्वार्थ सर्वोपर। बिक पत्रकारिता गयी, लोभ में खो कर।। है राजनीति सर्वत्र, खोखले नारे। निज जाति, संगठन, धर्म, लगे बस प्यारे।। ओछे विचार की बाढ़, भयंकर आयी। जग-गुरु को कैसे आज, सोच ये भायी।। मन से सारी संकीर्ण, सोच हम त्यागें। रख कर नूतन उल्लास, सभी हम जागें।। हम तुच्छ स्वार्थ से आज, तोड़ लें नाता। धर उच्च भाव हम बनें, हृदय से दाता।। *************** राधिका छंद विधान - राधिका छंद प्रति पद 22 मात्रा का सम-पद मात्रिक छंद है। इस छंद में 13,9 मात्रा पर यति होती है। यति से पहले और बाद में त्रिकल आता है। कुल चार पद होते हैं तथा क्रमागत दो-दो पद तुकांत होते हैं। चरणों की मात्रा बाँट निम्न प्रकार से है। 2 6 2 3 = 13 मात्रा, प्रथम यति (चरण)। द्विकल के दोनों रूप (2, 1 1) और त्रिकल के तीनों रूप (2 1, 1 2, 1 1 1) मान्य हैं। छक्कल के नियम लगेंगे जैसे प्रथम और पंचम मात्रा पर शब्द का समाप्त नहीं होना तथा प्रथम चार मात्रा में पूरित जगण (विचार आदि) का नहीं होना। 3 2 2 2 = 9 मात्रा, द्वितीय यति। द्विकल त्रिकल के सभी रूप मान्य।

28. राधेश्यामी छंद (नसबन्दी बनाम नोटबन्दी)

आपातकाल पचहत्तर का, जिसकी यादें मन में ताजा। तब नसबन्दी ने लोगों का, था खूब बजाया जम बाजा, कोई भी बचे नहीं इससे, वे विधुर, वृद्ध, या फिर बच्चे। सब ली चपेट में नसबन्दी, किन्नर तक भी झूठे सच्चे। है ज़रा न बदला अब भी कुछ, सरकार नई पर सोच वही, छाया आर्थिक आपातकाल, जनता जिस में छटपटा रही। आपातकाल ये कुछ ऐसा, जो घोषित नहीं अघोषित है, कुछ ही काले धन वालों से, जनता अब सारी शोषित है। तब कहर मचाई नसबन्दी, थी त्राहि त्राहि हर ओर मची, अब नोटों की बन्दी कर के, मोदी ने वैसी व्यथा रची। तब जोर जबरदस्ती की उस, बन्दी का दुख सबने झेला, अब आकस्मिक इस बन्दी में, लोगों का बैंकों में रेला। भारत की सरकारों का तो, बन्दी से है गहरा नाता, लेकिन बेबस जनता को यह, थोड़ा भी रास नहीं आता। नस की हो, नोटों की हो या, बन्दी चाहे हो भारत की, जनता को सब में पिसना है, कोई न सुने कुछ आरत की। तर्कों में, वाद विवादों में, संकट का हल है कभी नहीं, सरकारी लचर व्यवस्था का, रहता हरदम परिणाम वहीं। तब भी न ज़रा तैयारी थी, वह अब भी साफ़ अधूरी है, सरकार स्वप्न सुंदर दिखला, जनता से रखती दूरी है। ****************** राधेश्यामी छंद विधान - यह छंद मत्त सवैया के नाम से भी प्रसिद्ध है। पंडित राधेश्याम ने राधेश्यामी रामायण 32 मात्रिक पद में रची। छंद में कुल चार पद होते हैं तथा क्रमागत दो-दो पद तुकान्त होते हैं। प्रति पद पदपादाकुलक का दो गुना होता है l तब से यह छंद राधेश्यामी छंद के नाम से प्रसिद्धि पा गया। पदपादाकुलक छंद के एक चरण में 16 मात्रा होती हैं , आदि में द्विकल (2 या 11) अनिवार्य होता है किन्तु त्रिकल (21 या 12 या 111) वर्जित होता है। राधेश्यामी छंद का मात्रा बाँट इस प्रकार तय होता है: 2 + 12 + 2 = 16 मात्रा (पद का प्रथम चरण) 2 + 12 + 2 = 16 मात्रा (पद का द्वितीय चरण) द्विकल के दोनों रूप (2 या 1 1) मान्य है। तथा 12 मात्रा में तीन चौकल, अठकल और चौकल या चौकल और अठकल हो सकते हैं। चौकल और अठकल के नियम निम्न प्रकार हैं जिनका पालन अत्यंत आवश्यक है। चौकल:- (1) प्रथम मात्रा पर शब्द का समाप्त होना वर्जित है। 'करो न' सही है जबकि 'न करो' गलत है। (2) चौकल में पूरित जगण जैसे सरोज, महीप, विचार जैसे शब्द वर्जित हैं। अठकल:- (1) प्रथम और पंचम मात्रा पर शब्द समाप्त होना वर्जित है। 'राम कृपा हो' सही है जबकि 'हो राम कृपा' गलत है क्योंकि राम शब्द पंचम मात्रा पर समाप्त हो रहा है। यह ज्ञातव्य है हो कि 'हो राम कृपा' में विषम के बाद विषम शब्द पड़ रहा है फिर भी लय बाधित है। (2) 1-4 और 5-8 मात्रा पर पूरित जगण शब्द नहीं आ सकता।

29. रास छंद (कृष्णावतार)

हाथों में थी, मात पिता के, सांकलियाँ। घोर घटा में, कड़क रहीं थी, दामिनियाँ। हाथ हाथ को, भी नहिं सूझे, तम गहरा। दरवाजों पर, लटके ताले, था पहरा।। यमुना मैया, भी ऐसे में, उफन पड़ी। विपदाओं की, एक साथ में, घोर घड़ी। मास भाद्रपद, कृष्ण पक्ष की, तिथि अठिया। कारा-गृह में, जन्म लिया था, मझ रतिया।। घोर परीक्षा, पहले लेते, साँवरिया। जग को करते, एक बार तो, बावरिया। सीख छिपी है, हर विपदा में, धीर रहो। दर्शन चाहो, प्रभु के तो हँस, कष्ट सहो।। अर्जुन से बन, जीवन रथ का, स्वाद चखो। कृष्ण सारथी, रथ हाँकेंगे, ठान रखो। श्याम बिहारी, जब आते हैं, सब सुख हैं। कृष्ण नाम से, सारे मिटते, भव-दुख हैं।। ==================== रास छंद विधान - रास छंद 22 मात्राओं का सम पद मात्रिक छंद है जिसमें 8, 8, 6 मात्राओं पर यति होती है। पदान्त 112 से होना आवश्यक है। चार पदों का एक छंद होता है जिसमें 2-2 पद सम तुकांत होने चाहिये। मात्रा बाँट प्रथम और द्वितीय यति में एक अठकल या 2 चौकल की है। अंतिम यति में 2 - 1 - 1 - 2(ऽ) की है।

30. रूपमाला छंद (राम महिमा)

राम की महिमा निराली, राख मन में ठान। अन्य रस का स्वाद फीका, भक्ति रस की खान। जागती यदि भक्ति मन में, कृपा बरसी जान। नाम साँचो राम को है, लो हृदय में मान।। राम को भज मन निरन्तर, भक्ति मन में राख। इष्ट पे रख पूर्ण आश्रय, मत बढ़ाओ शाख। शांत करके मन-भ्रमर को, एक का कर जाप। राम-रस को घोल मन में, दूर हो सब ताप।। नाम प्रभु का दिव्य औषधि, नित करो उपभोग। दाह तन मन की हरे ये, काटती भव-रोग।। सेतु सम है राम का जप, जग समुद्र विशाल। आसरा इसका मिले तो, पार हो तत्काल।। रत्न सा जो है प्रकाशित, राम का वो नाम। जीभ पे इसको धरो अरु, देख इसका काम।। ज्योति इसकी जगमगा दे, हृदय का हर छोर। रात जो बाहर भयानक, करे उसकी भोर।। गीध, शबरी और बाली, तार दीन्हे आप। आप सुनते टेर उनकी, जो करें नित जाप।। राम का जप नाम हर क्षण, पवनसुत हनुमान। सकल जग के पूज्य हो कर, बने महिमावान।। राम को जो छोड़ थामे, दूसरों का हाथ। अंत आयेगा निकट जब, कौन देगा साथ। नाम पे मन रख भरोसा, सब बनेंगे काज। राम से बढ़कर जगत में, कौन दूजो आज।। ************ रूपमाला छंद विधान - "मदन छंद" के नाम से भी यह छंद जानी जाती है।यह 24 मात्रा प्रति पद का सम-पद मात्रिक छंद है, जिसके प्रत्येक पद में 14 और 10 के विश्राम से 24 मात्राएँ और पदान्त गुरु-लघु से होता है। यह चार पदों का छंद है, जिसमें दो-दो पदों पर तुकान्तता होती है। इसकी मात्रा बाँट 3 सतकल और अंत ताल यानी गुरु लघु से होती है। इस छंद में सतकल की मात्रा बाँट 3 2 2 है जिसमें द्विकल के दोनों रूप (2, 11) और त्रिकल के तीनों रूप (2 1, 1 2, 111) मान्य है।अतः निम्न बाँट तय होती है: 3 2 2 3 2 2 = 14 मात्रा और 3 2 2 2 1 = 10 मात्रा इस छंद को 2122 2122, 2122 21 के बंधन में बाँधना उचित नहीं। प्रसाद जी का कामायनी के वासना सर्ग का उदाहरण देखें। स्पर्श करने लगी लज्जा, ललित कर्ण कपोल, खिला पुलक कदंब सा था, भरा गदगद बोल। किन्तु बोली क्या समर्पण, आज का हे देव! बनेगा-चिर बंध नारी, हृदय हेतु सदैव।

31. रोला छंद (दो राही)

जग-ज्वाला से दग्ध, पथिक इक था अति व्याकुल। झूठे रिश्ते नातों के, प्रति भी शंकाकुल।। मोह-बन्ध सब त्याग, शांति की चला खोज में। जग झूठा जंजाल, भाव ये मन-सरोज में।1। नश्वर यह मानव-तन, लख वैराग्य हुआ था। क्षणभंगुरता पर जग की, नैराश्य हुआ था।। उसका मन जग-ज्वाल, सदा रहती झुलसाती। तृष्णा की ये बाढ़, हृदय रह रह बिलखाती।2। स्वार्थ बुद्धि लख घोर, घृणा के उपजे अंकुर। ज्ञान मार्ग की राह चले, मन था अति आतुर।। अर्थी जग की धनसंचयता, से उद्वेलित। जग की घोर स्वार्थपरता से, मन भी विचलित।3। बन सन्यासी छोड़, चला वह जग की ज्वाला। लगा ढूंढने मार्ग, शांति का हो मतवाला।। परम शांति का एक मार्ग, वैराग्य विचारा। आत्मज्ञान का अन्वेषण, ही एक सहारा।4। एक और भी देह, धरा था जग में राही। मोह और माया के, गुण का ही वह ग्राही।। वृत्ति स्वार्थ से पूर्ण, सदा उसने अपनाई। रहता इसमें मग्न, अधम वह कर कुटिलाई।5। पाप लोभ मद के पथ पर, वह हुआ अग्रसर। विचरण करता दम्भ क्षोभ, नद के नित तट पर।। भेद-नीति से सब पर, अपनी धौंस जमाता। पाशवता के निर्झर से, वह तृषा मिटाता।6। एकमात्र था लक्ष्य, नित्य ही धन का संचय। अन्यों का शोषण करना, उसका दृढ़ निश्चय।। जुल्म अनेकों अपने से, अबलों पर ढ़ाहे। अन्यों की आहों पर, निर्मित निज गृह चाहे।7। अंतर इन दोनो पथिकों में, बहुत बड़ा है। एक चाहता मुक्ति, दूसरा यहीं अड़ा है।। मोक्ष-मार्ग पहले ने, बन्धन त्यज अपनाया। पड़ा मोह माया में दूजा, रुदन मचाया।8। नश्वर जग में धन्यवान, केवल पहले जन। वृत्ति सुधा सम धार, अमिय मय करते जीवन।। ज्ञान-रश्मि से वे प्रकाश, जग में फैलाते। प्रेम-वारि जग उपवन में, वे नित बरसाते।9। ******************** रोला छंद विधान - रोला छंद चार पदों का सम मात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक पद में 24 मात्रा तथा पदान्त गुरु अथवा 2 लघु से होना आवश्यक है। तुक दो दो पद में होती है। कुण्डलिया छंद के कारण रोला बहु प्रचलित छंद है। कुण्डलिया में प्रथम दो पंक्ति दोहा छंद की तथा अंतिम चार पंक्ति रोला छंद की होती है। दोहा का चौथा चरण रोला के प्रथम पद के प्रथम चरण में पुनरुक्त होता है, अतः कुण्डलिया छंद में रोला के पद का प्रथम चरण 11 मात्रा पर होना सर्वथा सिद्ध है। साथ ही इस चरण का ताल (2 1) से अंत भी होना चाहिये। इस चरण की मात्रा बाँट अठकल + ताल (21) की है। रोला का दूसरा चरण 13 मात्राओं का होता है जिसकी मात्रा बाँट त्रिकल + द्विकल + अठकल की होती है। त्रिकल में 21,12, 111 तीनों रूप तथा द्विकल में 2 या 11 दोनों रूप मान्य है। अठकल में 4, 4 या 3, 3, 2 हो सकते हैं। पर अति प्रतिष्ठित कवियों की रचनाओं से देखा गया है कि रोला छंद इस बंधन में बंधा हुआ नहीं है। रोला बहुत व्यापक छंद है। भिखारीदास ने छंदार्णव पिंगल में रोला को 'अनियम ह्वै है रोला' तक कह दिया है। रोला छंद 11, 13 की यति में भी बंधा हुआ नहीं है और न ही प्रथम यति का अंत गुरु लघु से होना चाहिये, इस बंधन में। अनेक प्रतिष्ठित कवियों की रचनाओं के आधार पर रोला की मात्रा बाँट तीन अठकल की है। 8 = 3, 3, 2 या 2 चौकल। यति भी 11, 12, 14, 16 मात्रा पर सुविधानुसार कहीं भी रखी जा सकती है। प्रसाद जी की कामायनी की कुछ पंक्तियाँ देखें। मैं यह प्रजा बना कर कितना तुष्ट हुआ था, किंतु कौन कह सकता इन पर रुष्ट हुआ था। मैं नियमन के लिए बुद्धि-बल से प्रयत्न कर, इनको कर एकत्र चलाता नियम बना कर। रूप बदलते रहते वसुधा जलनिधि बनती, उदधि बना मरुभूमि जलधि में ज्वाला जलती। विश्व बँधा है एक नियम से यह पुकार-सी, फैल गयी है इसके मन में दृढ़ प्रचार-सी। परन्तु कुण्डलिया छंद के कारण रोला छंद का कुण्डलिया वाला रूप ही रूढ सा हो गया है और अधिक प्रचलन में है।

32. लावणी छन्द (विष कन्या)

कई कौंधते प्रश्न अचानक, चर्चा से विषकन्या की। जहर उगलती नागिन बनती, कैसे मूरत ममता की।। गहराई से इस पर सोचें, समाधान हम सब पाते। कलुषित इतिहासों के पन्ने, स्वयंमेव ही खुल जाते।। पहले के राजा इस विध से, नाश शत्रु का करवाते। नारी को हथियार बना कर, शत्रु देश में भिजवाते।। जहर बुझी वो नाग-सुंदरी, रूप-जाल से घात करे। अरि प्रदेश के प्रमुख जनों के, तड़पा तड़पा प्राण हरे।। पहले कुछ मासूम अभागी, कलियाँ छाँटी थी जाती। खिलने से पहले ही उनकी, जीवन बगिया मुरझाती।। घोर बिच्छुओं नागों से फिर, उनको डसवाया जाता। कोमल तन प्रतिरोधक विष का, इससे बनवाया जाता।। पुरुषों को वश में करने के, दाव सभी पा वह निखरे। जग समक्ष तब अल्हड़ कन्या, विषकन्या बन कर उभरे।। छीन लिया जिस नर समाज ने, उससे बचपन मदमाता। भला रखे कैसे वह उससे, नेह भरा कोई नाता।। पुरुषों के प्रति घोर घृणा के, भाव लिये तरुणी गुड़िया। नागिन सी फुफकार मारती, जहर भरी अब थी पुड़िया।। जिससे भी संसर्ग करे वह, नख से नोचे या काटे। जहर प्रवाहित कर वह उस में, प्राण कालिका बन चाटे।। नये समय ने नार-शक्ति में, ढूंढा नव उपयोगों को। वश में करती मंत्री, संत्री, अरु सरकारी लोगों को।। दौलत से जो काम न सुधरे, वह सुलझा दे झट नारी। कोटा, परमिट सब निकलाये, गुप्तचरी करले भारी।। वर्तमान की ये विषकन्या, शत्रु देश को भी फाँसे। अबला सबला बन कर देती, प्रेम जाल के ये झाँसे।। तन के लोभी हर सेना में, कुछ कुछ तो जाते पाये। फिर ऐसों से साँठ गाँठ कर, राज देश के निकलाये।। नारी की सुंदरता का नित, पुरुषों ने व्यापार किया। क्षुद्र स्वार्थ में खो कर उस पर, केवल अत्याचार किया।। विष में बुझी कटारी बनती, शदियों से नारी आयी। हर युग में पासों सी लुढ़की, नर की चौपड़ पर पायी।। ******************** लावणी छंद विधान - लावणी छंद सम-पद मात्रिक छंद है। इस छंद में चार पद होते हैं, जिनमें प्रति पद 30 मात्राएँ होती हैं। प्रत्येक पद दो चरण में बंटा हुआ रहता है जिनकी यति 16-14 पर निर्धारित होती है। अर्थात् विषम चरण 16 मात्राओं का और सम चरण 14 मात्राओं का होता है। दो-दो पदों की तुकान्तता का नियम है। पदान्त सदैव गुरु या 2 लघु से होना चाहिये। 16 मात्रिक वाले चरण का विधान और मात्रा बाँट ठीक चौपाई छंद वाला है। 14 मात्रिक चरण की बाँट 12+2 है। 12 मात्रिक 3 चौकल, एक अठकल एक चौकल या एक चौकल एक अठकल हो सकते हैं। चौकल और अठकल के सभी नियम लागू होंगे।

33. शक्ति छंद (फकीरी

फकीरी हमारे हृदय में खिली। बड़ी मस्त मौला तबीयत मिली।। कहाँ हम पड़ें और किस हाल में। किसे फ़िक्र हम मुक्त हर चाल में।। वृषभ से पड़ें हम रहें हर कहीं। जहाँ मन, बसेरा जमा लें वहीं।। बना हाथ तकिया टिका माथ लें। उड़ानें भरें नींद को साथ लें।। मिले जो उसीमें गुजारा करें। मिले कुछ न भी तो न आहें भरें।। कमंडल लिये हाथ में हम चलें। इसी के सहारे सदा हम पलें। जगत से न संबंध कुछ भी रखें। स्वयं में रमे स्वाद सारे चखें।। सुधा सम समझ के गरल सब पिएँ। रखें आस भगवान की बस जिएँ।। ************ शक्ति छंद विधान - यह (122 122 122 12) मापनी पर आधारित मात्रिक छंद है। चूंकि यह एक मात्रिक छंद है अतः गुरु (2) वर्ण को दो लघु (11) में तोड़ने की छूट है। दो दो चरण समतुकांत होने चाहिए।

34. शृंगार छंद (सुख और दुख)

सुखों को चाहे सब ही जीव। बिना सुख के जैसे निर्जीव।। दुखों से भागे सब ही दूर। सुखों में रहना चाहें चूर।। जगत के जो भी होते काज। एक ही है उन सब का राज।। लगी है सुख पाने की आग। उसी की सारी भागमभाग।। सुखों के जग में भेद अनेक। दोष गुण रखे अलग प्रत्येक।। किसी की पर पीड़न में प्रीत। कई समझें सब को ही मीत।। किसी की संचय में है राग। बहुत से जग से रखे न लाग।। धर्म में दिखे किसी को मौज। पाप कोई करता है रोज।। झेल दुख को जो भरते आह। छिपी सुखकी उन सब में चाह। जगत में कभी मान अपमान। जान लो दोनों एक समान।। कभी सुख कभी दुखों का साथ। धैर्य का किंतु न छोड़ें हाथ। दुखों की झेलो खुश हो गाज़। इसी में छिपा सुखों का राज।। ******************* शृंगार छंद विधान - शृंगार छंद बहुत ही मधुर लय का 16 मात्रा का चार चरण का छंद है। तुक दो दो चरण में है। इसकी मात्रा बाँट 3 - 2 - 8 - 3 (ताल) है। प्रारंभ के त्रिकल के तीनों रूप मान्य है जबकि अंत का त्रिकल केवल दीर्घ और लघु (21) होना चाहिए। द्विकल 1 1 या 2 हो सकता है। अठकल के नियम जैसे प्रथम और पंचम मात्रा पर शब्द का समाप्त न होना, 1 से 4 तथा 5 से 8 मात्रा में पूरित जगण का न होना और अठकल का अंत द्विकल से होना अनुमान्य हैं। शृंगार छंद का 32 मात्रा का द्विगुणित रूप महा शृंगार छंद कहलाता है। यह चार पदों का छंद है जिसमें तुकांतता 32 मात्रा के दो दो पदों में निभायी जाती है। यति 16 - 16 मात्रा पर पड़ती है।

35. सरसी छंद (राजनाथजी)

भंभौरा में जन्म लिया है, यू पी का यक गाँव। रामबदन खेतीहर के घर, अपने रक्खे पाँव।। सन इक्यावन की शुभ बेला, गुजरातीजी मात। राजनाथजी जन्म लिये जब, सबके पुलके गात।। पाँव पालने में दिखलाये, होनहार ये पूत। थे किशोर तेरह के जब ये, बने शांति के दूत।। जुड़ा संघ से कर्मवीर ये, आगे बढ़ता जाय। पीछे मुड़ के कभी न देखा, सब के मन को भाय।। राजनाथ जी सदा रहे हैं, सभी गुणों की खान। किया दलित पिछड़ों की खातिर, सदा गरल का पान।। सदा देश का मान बढ़ाया, स्पष्ट बात को बोल। हिन्दी को इनने दिलवाया, पूरे जग में मोल।। रक्षा मंत्रालय है थामा, होकर के निर्भीक। सिद्धांतों पर कभी न पीटे, तुष्टिकरण की लीक।। अभिनन्दन 'संसार करत है, 'नमन' आपको 'नाथ'। बरसे सौम्य हँसी इनकी नित, बना रहे यूँ साथ।। ***** सरसी छंद विधान - सरसी छंद चार पदों का सम-पद मात्रिक छंद है। जिस में प्रति पद 27 मात्रा होती है। यति 16 और 11 मात्रा पर है अर्थात प्रथम चरण 16 मात्रा का तथा द्वितीय चरण11 मात्रा का होता है। दो दो पद तुकान्त। मात्रा बाँट- 16 मात्रिक चरण ठीक चौपाई वाला चरण और 11 मात्रा वाला ठीक दोहा का सम चरण। छंद के 11 मात्रिक खण्ड की मात्रा बाँट अठकल+त्रिकल (ताल यानी 21) होती है। एक स्वरचित पूर्ण सूर्य ग्रहण के वर्णन का उदाहरण देखें। हीरक जड़ी अँगूठी सा ये, लगता सूर्य महान। अंधकार में डूब गया है, देखो आज जहान।। पूर्ण ग्रहण ये सूर्य देव का, दुर्लभ अति अभिराम। दृश्य प्रकृति का अनुपम अद्भुत, देखो मन को थाम।।

36. सार छंद (भारत गौरव)

जय भारत जय पावनि गंगे, जय गिरिराज हिमालय; सकल विश्व के नभ में गूँजे, तेरी पावन जय जय। तूने अपनी ज्ञान रश्मि से, जग का तिमिर हटाया; अपनी धर्म भेरी के स्वर से, जन मानस गूँजाया।। उत्तर में नगराज हिमालय, तेरा मुकुट सजाए; दक्षिण में पावन रत्नाकर , तेरे चरण धुलाए। खेतों की हरियाली तुझको, हरित वस्त्र पहनाए; तेरे उपवन बागों की छवि, जन जन को हर्षाए।। गंगा यमुना कावेरी की, शोभा बड़ी निराली; अपनी जलधारा से डाले, खेतों में हरियाली। तेरी प्यारी दिव्य भूमि है, अनुपम वैभवशाली; कहीं महीधर कहीं नदी है, कहीं रेत सोनाली।। महापुरुष अगणित जन्मे थे, इस पावन वसुधा पर; धीर वीर शरणागतवत्सल, सब थे पर दुख कातर। दानशीलता न्यायकुशलता, उन सब की थी थाती; उनकी कृतियों की गुण गाथा, थकै न ये भू गाती।। तेरी पुण्य धरा पर जन्मे, राम कृष्ण अवतारी; पा कर के उन रत्नों को थी, धन्य हुई भू सारी।। आतताइयों का वध करके, मुक्त मही की जिनने; ऋषि मुनियों के सब कष्टों को, दूर किया था उनने।। तेरे ऋषि मुनियों ने जग को, अनुपम योग दिया था; सतत साधना से उन सब ने, जग-कल्याण किया था। बुद्ध अशोक समान धर्मपति, जन्म लिये इस भू पर; धर्म-ध्वजा के थे वे वाहक, मानवता के सहचर।। वीर शिवा राणा प्रताप से, तलवारों के चालक; मिटे जन्म भू पर हँस कर वे, मातृ धरा के पालक। भगत सिंह गांधी सुभाष सम, स्वतन्त्रता के रक्षक; देश स्वतंत्र किये बन कर वे, अंग्रेजों के भक्षक।। सदियों का संघर्ष फलित जो, इसे सँभालें मिल हम; ऊँच-नीच के जात-पाँत के, दूर करें सारे तम। तेरे यश की गाथा गाए, गंगा से कावेरी; बारंबार नमन हे जगगुरु, पुण्य धरा को तेरी।। *************** सार छंद विधान - सार छंद चार पदों का अत्यंत गेय सम-पद मात्रिक छंद है। प्रति पद 28 मात्रा होती है। यति 16 और 12 मात्रा पर है। दो दो पद तुकान्त। मात्रा बाँट- 16 मात्रिक चरण ठीक चौपाई वाला और 12 मात्रा वाले चरण में तीन चौकल, एक चौकल और एक अठकल या एक अठकल और एक चौकल हो सकता है। 12 मात्रिक चरण का अंत गुरु या 2 लघु से होना आवश्यक है किन्तु गेयता के हिसाब से गुरु-गुरु से हुआ चरणान्त अत्युत्तम माना जाता है लेकिन ऐसी कोई अनिवार्यता भी नहीं है। छन्न पकैया - इसी छंद का एक और प्रारूप है जो कभी लोक-समाज में अत्यंत लोकप्रिय हुआ करता था। किन्तु अन्यान्य लोकप्रिय छंदों की तरह रचनाकारों के रचनाकर्म और उनके काव्य-व्यवहार का हिस्सा बना न रह सका। सार छंद के इस प्रारूप को ’छन्न पकैया’ के नाम से जानते हैं। सार छंद के प्रथम चरण में ’छन्न-पकैया छन्न-पकैया’ लिखा जाता है और आगे छंद के सारे नियम पूर्ववत निभाये जाते हैं। ’छन्न पकैया छन्न पकैया’ एक तरह से टेक हुआ करती है जो उस छंद के कहन के प्रति श्रोता-पाठक का ध्यान आकर्षित करती हुई एक माहौल बनाती है। इस में रचनाकार बात की बात में, कई बार गहरी बातें साझा कर जाते हैं।

37. सुजान छंद (पर्यावरण)

पर्यावरण खराब हुआ, यह नहिं संयोग। मानव का खुद का ही है, निर्मित ये रोग।। अंधाधुंध विकास नहीं, आया है रास। शुद्ध हवा, जल का इससे, होय रहा ह्रास।। यंत्र-धूम्र विकराल हुआ, छाया चहुँ ओर। बढ़ते जाते वाहन का, फैल रहा शोर।। जनसंख्या विस्फोटक अब, धर ली है रूप। मानव खुद गिरने खातिर, खोद रहा कूप।। नदियाँ मैली हुई सकल, वन का नित नाश। घोर प्रदूषण जकड़ रहा, धरती, आकाश।। वन्य-जंतु को मिले नहीं, कहीं जरा ठौर। चिड़ियों की चहक न गूँजे, कैसा यह दौर।। चेतें जल्दी मानव अब, ले कर संज्ञान। पर्यावरण सुधारें वे, हर सब व्यवधान।। पर्यावरण अगर दूषित, जगत व्याधि-ग्रस्त। यह कलंक मानवता पर, हो जीवन त्रस्त।। ********** सुजान छंद विधान - सुजान छंद २३ मात्राओं का द्वि पदी मात्रिक छंद है. इस छंद में हर पद में १४ तथा ९ मात्राओं पर यति तथा गुरु लघु पदांत का विधान है। 14 मात्राओं की मात्रा बाँट :- 8, 4, 2; 4, 8, 2; 4, 4, 4, 2 है। तथा 9 मात्राओं की मात्रा बाँट. :- 6, 3 (21) है। छक्कल में 4, 2 या 3, 3 हो सकते हैं। छंद के पद का अंत ताल 21 से होना आवश्यक है।

38. सोरठा छंद (कृष्ण महिमा)

नयन भरा है नीर, चखन श्याम के रूप को। मन में नहिं है धीर, नयन विकल प्रभु दरस को।। शरण तुम्हारी आज, आया हूँ घनश्याम मैं। सभी बनाओ काज, तुम दीनन के नाथ हो।। मन में नित ये आस, वृन्दावन में जा बसूँ। रहूँ सदा मैं पास, फागुन में घनश्याम के।। फूलों का शृंगार, माथे सजा गुलाल है। तन मन जाऊँ वार, वृन्दावन के नाथ पर।। पड़े न थोड़ा चैन, टपक रहे दृग बिंदु ये। दिन कटते नहिं रैन, श्याम तुम्हारे दरस बिन।। हे यसुमति के लाल, मन मोहन उर में बसो। नित्य नवाऊँ भाल, भव बन्धन सारे हरो।। ***** सोरठा छंद विधान - दोहा छंद की तरह सोरठा छंद भी अर्द्धसम मात्रिक छंद है। इसमें भी चार चरण होते हैं। प्रथम व तृतीय चरण विषम तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण सम कहे जाते हैं। सोरठा छंद में दोहा छंद की तरह दो पद होते हैं और प्रत्येक पद में २४ मात्राएँ होती हैं। सोरठा छंद और दोहा छंद के विधान में कोई अंतर नहीं है केवल चरण पलट जाते हैं। दोहा के सम चरण सोरठा में विषम बन जाते हैं और दोहा के विषम चरण सोरठा के सम। तुकांतता भी वही रहती है। यानी सोरठा में विषम चरण में तुकांतता निभाई जाती है जबकि पंक्ति के अंत के सम चरण अतुकांत रहते हैं। दोहा छंद और सोरठा छंद में मुख्य अंतर गति तथा यति में है। दोहा छंद में 13-11 पर यति होती है जबकि सोरठा छंद में 11 - 13 पर यति होती है। यति में अंतर के कारण गति में भी भिन्नता रहती है। मात्रा बाँट प्रति पंक्ति 8+2+1, 8+2+1+2 परहित कर विषपान, महादेव जग के बने। सुर नर मुनि गा गान, चरण वंदना नित करें।।

39. हरिगीतिका छंद (भैया दूज)

तिथि दूज शुक्ला मास कार्तिक, मग्न बहनें चाव से। भाई बहन का पर्व प्यारा, वे मनायें भाव से। फूली समातीं नहिँ बहन सब, पाँव भू पर नहिँ पड़ें। लटकन लगायें घर सजायें, द्वार पर तोरण जड़ें।। कर याद वीरा को बहन सब, नाच गायें झूम के। स्वादिष्ट भोजन फिर पका के, बाट जोहें घूम के। करतीं तिलक लेतीं बलैयाँ, अंक में भर लें कभी। बहनें खिलातीं भ्रात खाते, भेंट फिर देते सभी।। ************ हरिगीतिका छंद विधान - हरिगीतिका छंद चार पदों का एक सम-पद मात्रिक छंद है। प्रति पद 28 मात्राएँ होती हैं तथा यति 16 और 12 मात्राओं पर होती है। यति 14 और 14 मात्रा पर भी रखी जा सकती है। इसकी भी लय गीतिका छंद वाली ही है तथा गीतिका छंद के प्राम्भ में गुरु वर्ण बढ़ा देने से हरिगीतिका छंद हो जाती है। गीतिका छंद के प्रारंभ में एक गुरु बढ़ा देने से इसका वर्ण विन्यास निम्न प्रकार से तय होता है। 2212 2212 2212 221S चूँकि हरिगीतिका छंद एक मात्रिक छंद है अतः गुरु को आवश्यकतानुसार 2 लघु किया जा सकता है परंतु 5 वीं, 12 वीं, 19 वीं, 26 वीं मात्रा सदैव लघु होगी। अंत सदैव गुरु वर्ण से होता है। इसे 2 लघु नहीं किया जा सकता। चारों पद समतुकांत या 2-2 पद समतुकांत होते हैं। इस छंद की धुन "श्री रामचन्द्र कृपालु भज मन" वाली है। एक उदाहरण:- मधुमास सावन की छटा का, आज भू पर जोर है। मनमोद हरियाली धरा पर, छा गयी चहुँ ओर है। जब से लगा सावन सुहाना, प्राणियों में चाव है। चातक पपीहा मोर सब में, हर्ष का ही भाव है।। (स्वरचित)

40. आल्हा छंद (अग्रदूत अग्रवाल)

अग्रोहा की नींव रखे थे, अग्रसेन नृपराज महान। धन वैभव से पूर्ण नगर ये, माता लक्ष्मी का वरदान।। आपस के भाईचारे पे, अग्रोहा की थी बुनियाद। एक रुपैया एक ईंट के, सिद्धांतों पर ये आबाद।। ऊँच नीच का भेद नहीं था, वासी सभी यहाँ संपन्न। दूध दही की बहती नदियाँ, प्राप्य सभी को धन अरु अन्न।। पूर्ण अहिंसा पर जो आश्रित, वणिक-वृत्ति को कर स्वीकार। सवा लक्ष जो श्रेष्ठि यहाँ के, नाम कमाये कर व्यापार।। कालांतर में अग्रसेन के, वंशज 'अग्रवाल' कहलाय। सकल विश्व में लगे फैलने, माता लक्ष्मी सदा सहाय।। गौत्र अठारह इनके शाश्वत, रिश्ते नातों के आधार। मर्यादा में रह ये पालें, धर्म कर्म के सब व्यवहार।। आशु बुद्धि के स्वामी हैं ये, निपुण वाकपटु चतुर सुजान। मंदिर गोशाला बनवाते, संस्थाओं में देते दान।। माँग-पूर्ति की खाई पाटे, मिलजुल करते कारोबार। जो भी इनके द्वारे आता, पाता यथा योग्य सत्कार।। सदियों से लक्ष्मी माता का, मिला हुआ पावन वरदान। अग्रवंश के सुनो सपूतों, तुम्हें न ये दे दे अभिमान।। धन-लोलुपता बढ़े न इतनी, स्वारथ में तुम हो कर क्रूर। 'ईंट रुपैयै' की कर बैठो, रीत सनातन चकनाचूर।। 'अग्र' भाइयों से तुम नाता, देखो लेना कभी न तोड़। अपने काम सदा आते हैं, गैर साथ जब जायें छोड़।। उत्सव की शोभा अपनों से, उनसे ही हो हल्का शोक। अपने करते नेक कामना, जीवन में छाता आलोक।। सगे बिरादर बांधव से सब, रखें हृदय से पूर्ण लगाव। जैसे भाव रखेंगे उनमें, वैसे उनसे पाएँ भाव।। अपनों की कुछ हो न उपेक्षा, धन दौलत में हो कर चूर। नाम दाम सब धरे ही रहते, अपने जब हो जातें दूर।। बूढ़े कहते आये हरदम, रुपयों की नहिं हो खनकार। वैभव का तो अंध प्रदर्शन, अहंकार का करे प्रसार।। अग्रसेन जी के युग से ही, अपनी यही सनातन रीत। भाव दया के सब पर राखें, जीव मात्र से ही हो प्रीत।। वैभव में कुछ अंधे होकर, भूल गये सच्ची ये राह। जीवन का बस एक ध्येय रख, मिल जाये कैसे भी वाह।। अंधी दौड़ दिखावे की कुछ, इस समृद्ध-कुल में है आज। वंश-प्रवर्तक के मन में भी, लख के आती होगी लाज।। छोड़ें उत्सव, खुशी, व्याह को, अरु उछाव के सारे गीत। बिना दिखावे के नहिं निभती, धर्म कर्म तक की भी रीत।। 'बासुदेव' विक्षुब्ध देख कर, 'अग्र' वंश की अंधी चाल। अब समाज आगे आ रोके, निर्णय कर इसको तत्काल।। ******************** आल्हा छंद विधान / वीर छंद विधान आल्हा छंद वीर छंद के नाम से भी प्रसिद्ध है जो 31 मात्रा प्रति पद का सम पद मात्रिक छंद है। यह चार पदों में रचा जाता है। इसे मात्रिक सवैया भी कहते हैं। इसमें यति16 और 15 मात्रा पर नियत होती है। दो दो या चारों पद समतुकांत होने चाहिए। 16 मात्रा वाले चरण का विधान और मात्रा बाँट ठीक चौपाई छंद वाली है। 15 मात्रिक चरण का अंत ताल यानि गुरु लघु से होना आवश्यक है। तथा बची हुई 12 मात्राएँ तीन चौकल के रूप में हो सकती हैं या फिर एक अठकल और एक चौकल हो सकती हैं। चौकल और अठकल के सभी नियम लागू होंगे। ’यथा नाम तथा गुण’ की उक्ति को चरितार्थ करते आल्हा छंद या वीर छंद के कथ्य अक्सर ओज भरे होते हैं और सुनने वाले के मन में उत्साह और उत्तेजना पैदा करते हैं। जनश्रुति इस छंद की विधा को यों रेखांकित करती है - आल्हा मात्रिक छन्द, सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य। गुरु-लघु चरण अन्त में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य। अलंकार अतिशयताकारक, करे राइ को तुरत पहाड़। ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़। परन्तु इसका यह अर्थ भी नहीं कि इस छंद में वीर रस के अलावा अन्य रस की रचना नहीं रची जा सकती। भारत के जवानों पर कुछ पंक्तियाँ। संभाला है झट से मोर्चा, हुआ शत्रु का ज्योंही भान। उछल उछल के कूद पड़े हैं, भरी हुई बन्दूकें तान। नस नस इनकी फड़क उठी है, करने रिपु का शोणित पान। झपट पड़े हैं क्रुद्ध सिंह से, भारत के ये वीर जवान।। रिपु मर्दन का भाव भरा है, इनकी आँखों में अति क्रूर। गर्ज मात्र ही सुनकर जिनकी, अरि का टूटे सकल गरूर। मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, दृढ़ निश्चय कर जो तैयार। दुश्मन के छक्के छुट जायें, सुन कर के उनकी हूँकार।।