मत कहो, आकाश में कुहरा घना है (ग़ज़ल) : दुष्यन्त कुमार


मत कहो, आकाश में कुहरा घना है

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है । सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से, क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है । इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है, हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है । पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं, बात इतनी है कि कोई पुल बना है रक्त वर्षों से नसों में खौलता है, आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है । हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था, शौक से डूबे जिसे भी डूबना है । दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है, आजकल नेपथ्य में संभावना है । (ग़ज़ल-संग्रह 'साये में धूप' में से)

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