कुण्डलिया दिवस (19 नवम्बर) विशेष

भारतीय साहित्य में छंद सौन्दर्यशास्त्र का महत्वपूर्ण अंग है। छंद कविता को लय और प्रवाह प्रदान करता है। हर छंद की अपनी उपादेयता और आकर्षण है। इन छंदों में कुण्डलिया छंद पाठकों का प्रिय छंद है। कुण्डलिया छंद दोहा और रोला के संयोग से बना छ: चरणों का वह मात्रिक छंद है, जिसके प्रत्येक चरण में चौबीस मात्राएँ होती हैं।

Image समकालीन रचनाकारों में त्रिलोक सिंह ठकुरेला ने कुण्डलिया छंद के विकास के लिए उत्कृष्ट कार्य किया है। इन्होंने 'कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर', 'कुण्डलिया कानन', 'कुण्डलिया संचयन', 'कुण्डलिया छंद के नये शिखर', 'अभिनव कुण्डलिया', 'समकालीन कुण्डलिया शतक' और 'कुण्डलिया सप्तशती' नामक अनेक कुण्डलिया संकलनों का सम्पादन कर इस इस लोकलुभावन छंद को साहित्य जगत में लोकप्रिय बनाने का अनूठा प्रयास किया है। त्रिलोक सिंह ठकुरेला ने अनेक पत्रिकाओं के कुण्डलिया विशेषांकों का सम्पादन किया है। उत्तर प्रदेश के हाथरस के निकट पिता श्री खमानी सिंह एवं माँ श्रीमती देवी के यहाँ 1 अक्टूबर 1966 को जन्मे त्रिलोक सिंह ठकुरेला कुण्डलिया छंद के साथ साथ साहित्य की अन्य विधाओं में भी उल्लेखनीय सृजन किया है। उनकी रचनाएँ राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद तथा अनेक राज्य सरकारों की हिन्दी पाठ्यपुस्तकों सहित साठ से अधिक पाठ्यपुस्तकों में सम्मिलित की गयी हैं। कुण्डलिया छंद को और अधिक विस्तार देने के लिए त्रिलोक सिंह ठकुरेला ने 19 नवम्बर को कुण्डलिया दिवस के रूप मनाने की पहल की, जिससे साहित्यकारों द्वारा 19 नवम्बर 2024 को पहला कुण्डलिया दिवस मनाया गया। कुण्डलिया दिवस के अवसर पर हिन्दी कविता के पाठकों के लिए यहाँ कुछ कुण्डलिया छंद प्रकाशित किए गए हैं।


कुण्डलिया छंद और रचनाकार

साईं अपने भ्रात को, कबहुं न दीजे त्रास। पलक दूर नहिं कीजिए, सदा राखिए पास।। सदा राखिए पास, त्रास कबहूँ नहिं दीजै। त्रास दियो लंकेश, ताहि की गति सुनि लीजै। कह गिरिधर कविराय, राम सों मिलिगो जाई। पाय विभीषण राज्य, लंक पति बाह्य साईं।। लाठी में गुण बहुत हैं, सदा राखिए संग। गहिरि नदी, नारा जहाँ, तहाँ बचावै अंग।। तहाँ बचावै अंग, झपटि कुत्ता को मारै। दुश्मन दावागीर, होय तिनहूं को झारै । कह गिरिधर कविराय, सुनो हो धर के पानी। सब हथियारन छोड़ि, हाथ में लीजै लाठी ।। -- गिरिधर * * * * * तेरे बैरी तुझी में, हैं ये तेरे फैल। फैल नहीं तो सिद्ध है, निर्मल में क्या मैल।। निर्मल में क्या मैल, मैल बिन पाप कहाँ है। बिना पाप फिर आप, आप में ताप कहाँ है। गंगादास प्रकाश, भये फिर कहाँ ॲंधेरे। और सब जगत मित्र, फैल दुश्मन हैं तेरे ।। सोई जानो जगत में, उत्तम जीव सुभाग। मधुर बचन निरमानता,सम, दम, तप, बैराग।। सम, दम, तप, बैराग, दया हिरदे में धारैं। मुख से बोले सत्त, सदा ना झूठ उचारैं। गंगादास शुभ कर्म, करें तजकर बगदोई । तन मन पर उपकार, समझ जन उत्तम सोई।। -- संत गंगादास * * * * * सोई देस विचार कै, चलिये पथी सुवेत। जाके जस आनन्द की, कविवर उपमा देत॥ कविवर उपमा देत, रङ्क भूपति सम जामें। आवागवन न होय, रहै मुद मङ्गल तामें । बरनै दीनदयाल, जहां दुख सोक न होई। ए हो पथी प्रबीन, देस को जैयो सोई॥ आछी भाति सुधारि कै, खेत किसान बिजोय। नत पीछे पछतायगो, समै गयो जब खोय॥ समै गयो जब खोय, नहीं फिर खेती ह्वैहै। लैहै हाकिम पोत, कहा तब ताको दैहै। बरनै दीनदयाल, चाल तजि तू अब पाछी। सोउ न सालि सभालि, बिहंगन तें विधि आछी॥ -- दीनदयाल गिरि * * * * * थाली हो जो सामने, भोजन से संपन्न। बिना हिलाए हाथ के, जाय न मुख में अन्न।। जाय न मुख में अन्न, बिना पुरुषार्थ न कुछ हो। बिना तजे कुछ स्वार्थ, सिद्ध परमार्थ न कुछ हो । बरसो, गरजो नहीं, धीर की यही प्रणाली, करो देश का कार्य, छोड़कर परसी थाली ।। धन के होते सब मिले, बल, विद्या भरपूर। धन से होते हैं सकल जग के संकट चूर।। जग के संकट चूर, यथा कोल्हू में घानी। धन है जन का प्राण, वृक्ष को जैसे पानी। हे त्रिभुवन के धनी ! परमधन निर्धन जन के ! है भारत अति दीन, लीन दुख में बिन धन के।। -- राय देवीप्रसाद 'पूर्ण' * * * * * होता है मुश्किल वही, जिसे कठिन लें मान। करें अगर अभ्यास तो, सब कुछ है आसान।। सब कुछ है आसान, बहे पत्थर से पानी। कोशिश करता मूढ़, और बन जाता ज्ञानी। ‘ठकुरेला’ कविराय, सहज पढ़ जाता तोता। कुछ भी नही अगम्य, पहुँच में सब कुछ होता।। ताकत ही सब कुछ नहीं, समय समय की बात। हाथी को मिलती रही, चींटी से भी मात।। चींटी से भी मात, धुरंधर धूल चाटते। कभी कभी कुछ तुच्छ, बड़ों के कान काटते। ‘ठकुरेला’ कविराय, हुआ इतना ही अवगत। समय बड़ा बलवान, नहीं धन, पद या ताकत।। -- त्रिलोक सिंह ठकुरेला * * * * * सद्भावों की गंध से, महकायें संसार। बदले में संसार से, मिले असीमित प्यार।। मिले असीमित प्यार, सभी सम्मान करेंगे। खुशियों के भण्डार, सहज बहुभाॅंति भरेंगे। हो जीवन रंगीन, सजे दुनिया ख्वावों की। फैले अगर सुगंध हमारे सद्भावों की।। छोड़ें क्षुद्र विचार को, अहंकार दें छोड़। रुढ़िवादिता के सभी, बंधन डालें तोड़।। बंधन डालें तोड़, फसादों की जड़ काटें। भरसक करें प्रयास, दिलों की खाई पाटें । मन से मन के तार, 'सरस' आपस में जोड़ें। सबसे रखें लगाव, किसी को अलग न छोड़ें।। -- तोताराम 'सरस' * * * * * बेटी को दे दीजिये , शिक्षा औ' संस्कार । भारत की संस्कृति बचे, फिर से करो विचार।। फिर से करो विचार , अपाला और गार्गी । संस्कारों की देन , बनीं वे ज्ञान-मार्गी । कहे 'साधना' सत्य , खुशी की भर दे पेटी । समुचित करो विकास , कुलों को तारे बेटी ।। वाणी औ' मन पर रखो , सदा नियंत्रण आप । स्वयं दूर हो जायेंगे , जीवन के संताप ।। जीवन के संताप ,शीलनिधि लोग कहेंगे । आकर्षक व्यक्तित्व ,धनी हम बने रहेंगे । कहे 'साधना' सत्य , ठीक कब है मनमानी। मन पर लगाम , सँभल कर बोलो वाणी ।। -- साधना ठकुरेला * * * * * पानी पीकर देश का , बनना पानीदार । यही समय की मांग है , ये ही लोकाचार ।। ये ही लोकाचार , बड़ा आदर को मानो । बहुत कीमती नीर , मोल इसका भी जानो । कह गुलिया कविराय , करो मत ये नादानी । बड़ा बड़ों का मान , फेर ना देना पानी ।। हर ले सब के कष्ट जो , दूर करे संत्रास । जादू की ऐसी छड़ी , नहीं किसी के पास ।। नहीं किसी के पास , सभी को खुशियाँ बाँटे । पुष्प बिछा दे राह , खार रस्ते से छाँटे । कह गुलिया कविराय , ईश का सुमिरन कर ले । वो ही पालनहार , विपद जो सब की हर ले ।। -- राजपाल सिंह गुलिया * * * * * सरिता बहती जा रही, बाधाओं को चीर | अपनी राहें ढूँढकर, आगे बढ़ता नीर || आगे बढ़ता नीर, और पत्थर घिस देता | बह निकले जो संग, साथ उसको ले लेता | सरिता जीवन-दर्श, लगे ज्यों कविता कहती | बढ़ हर बाधा चीर, कह रही सरिता बहती || कितनी प्यारी सी लगें, बिटिया चिड़िया धूप | रोशन करतीं चहककर, आँगन का हर रूप || आँगन का हर रूप, बदल ही इनसे जाता | इनके आते गेह, एक रौनक सी पाता | करतीं नभ पर राज, बात ये इनकी न्यारी | बिटिया चिड़िया धूप,तभी तो कितनी प्यारी।। -- परमजीत कौर 'रीत' * * * * * डंका बजता नाम का,बने हुए सिरमौर। धन-दौलत सम्मान में,दिखे न दूजा और।। दिखे न दूजा और,संपदा इतनी जोड़ी। कब जाएगी टूट,पता क्या साँस निगोड़ी। तोड़े काल घमंड, लगाए सबकी लंका। करता मौन प्रहार,बजाता काल न डंका।। हासिल करता है वही,जग में उच्च मुकाम। दृढ़ संकल्पित हो सदा,जो चलता अविराम।। जो चलता अविराम,नहीं देखे पथ मुश्किल। उसको मंजिल पास,दिखाई देती झिलमिल। रह चौकन्ना मीत ,कभी मत होना ग़ाफ़िल। यदि इच्छित परिणाम,चाहते करना हासिल।। -- डॉ. बिपिन पाण्डेय