कुण्डलिया छंद : त्रिलोक सिंह ठकुरेला

Kundaliya Chhand : Trilok Singh Thakurela

कुण्डलिया छंद

कुंडलिया दोहा और रोला के संयोग से बना छंद है। इस छंद के 6 चरण होते हैं तथा प्रत्येकचरण में 24 मात्राएँ होती है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि कुंडलिया के पहले दो चरण दोहा तथा शेष चार चरण रोला से बने होते है।

दोहा के प्रथम एवं तृतीय चरण में 13-13 मात्राएँ तथा दूसरे और चौथे चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं।

रोला के प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती है। यति 11वीं मात्रा तथा पादान्त पर होती है। कुंडलिया छंद में दूसरे चरण का उत्तरार्ध तीसरे चरण का पूर्वार्ध होता है।

कुंडलिया छंद का प्रारंभ जिस शब्द या शब्द-समूहसे होता है, छंद का अंत भी उसी शब्द या शब्द-समूह से होता है। रोला में 11वीं मात्रा लघु तथा उससे ठीक पहले गुरु होना आवश्यक है।

कुंडलिया छंद के रोला के अंत में दो गुरु, चार लघु, एक गुरु दो लघु अथवा दो लघु एक गुरु आना आवश्यक है।


कुण्डलिया छंद के उदाहरण-

रत्नाकर सबके लिए, होता एक समान । बुद्धिमान मोती चुने, सीप चुने नादान ।। सीप चुने नादान, अज्ञ मूंगे पर मरता । जिसकी जैसी चाह, इकट्ठा वैसा करता । 'ठकुरेला' कविराय, सभी खुश इच्छित पाकर । हैं मनुष्य के भेद, एक सा है रत्नाकर ।। - त्रिलोक सिंह ठकुरेला थोथी बातों से कभी, जीते गये न युद्ध । कथनी पर कम ध्यान दे, करनी करते बुद्ध ।। करनी करते बुद्ध, नया इतिहास रचाते । करते नित नव खोज, अमर जग में हो जाते । 'ठकुरेला' कविराय, सिखातीं सारी पोथी । ज्यों ऊसर में बीज, वृथा हैं बातें थोथी ।। - त्रिलोक सिंह ठकुरेला सावन बरसा जोर से, प्रमुदित हुआ किसान । लगा रोपने खेत में, आशाओं के धान ।। आशाओं के धान, मधुर स्वर कोयल बोले । लिए प्रेम-सन्देश, मेघ सावन के डोले । 'ठकुरेला' कविराय, लगा सबको मनभावन । मन में भरे उमंग, झूमता गाता सावन ।। - त्रिलोक सिंह ठकुरेला चढ़ती चींटी सर्वदा, अनथक करे प्रयास । ले जाती है शीर्ष तक, बस मंजिल की आस ।। बस मंजिल की आस, सदा श्रम करती जाती । हो जाता श्रम साध्य, और मंजिल को पाती । कहे 'साधना' सत्य, लगन ही आगे बढ़ती । देती श्रम की सीख, तुच्छ चींटी जब चढ़ती ।। - साधना ठकुरेला चलती रहती जिंदगी, ज्यों कागज़ की नाव । लोग भटकते लक्ष्य से, करते नहीं चुनाव ।। करते नहीं चुनाव, हवा खे कर ले जाती । कुछ हो जाती पार, कहीं पर भँवर डुबाती । कहे 'साधना' सत्य, करो मत कोई गलती । हाथ रखो पतवार, नाव तब ढंग से चलती ।। - साधना ठकुरेला

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