कुंभ में छूटी औरतें : हरभगवान चावला
Kumbh Mein Chhooti Aurtein : Harbhagwan Chawla



रक्त में जगह

मेरे जन्म से साढ़े ग्यारह साल पहले मेरे बहुत युवा पिता छोड़ आये थे मुल्तान मैंने कभी नहीं देखा मुल्तान फिर मुल्तान मेरे सपनों में क्यों आता है ? मेरे अंतस् को झिंझोड़ मुझे क्यों बुलाता है ? मैं मुल्तान से मिलने को क्यों छटपटाता हूँ ? मुल्तान का कोई दरवाज़ा क्यों खटखटाता हूँ ? कोई बताए तो कितनी पीढ़ियों तक रक्त में बसी रहती है कोई जगह ?

दूब

पेड़ होता तो तुम्हारी कुल्हाडियाँ मुझे कब की ईंधन में बदल चुकी होतीं पर मैं दूब था हर बार तुम्हारे वारों से बच निकलती थीं कुछ जड़े फिर-फिर फूट आता रहा मैं ज़मीन में छूट गयी इन्हीं जड़ों से ।

चुनरी

माई री माई ! बोल मेरी बिटिया आँधी आ गई आने दे बादल छा गए छाने दे मेघा बरसे बरसन दे छप्पर टपका टपकन दे खटिया भीगी भीगन दे गैया खीझी खीझन दे माई री माई मेरी चुनरी उड़ गयी संभाल मेरी बिटिया अकास चढ़ी चुनरी जुलम हुआ बिटिया ।

संसार के सबसे करुण गीत

एक होली से दूसरी होली तक औरत ने ज़िन्दा रखी उपलों में आग कुओं और बावड़ियों को पूजकर अगले सावन तक बचाए रखा पानी औरत पेड़ों पी बाँधती रही रक्षा-सूत्र और बचाती रही उन्हें कुल्हाड़ियों से उसी ने रोका रेगिस्तान का फैलाव आँसुओं की सूई से सिलती रही उधड़ रहे रिश्तों की सीवन औरत ने ही ज़िन्दा रखा दुनिया में प्यार औरत का सीना बना बच्चों का बिछौना औरत ने ही रचा चाँद सा खिलौना इतनी सारी चीज़ों को एक साथ बनाने और बचाने की उधेड़बुन में औरत ने रचे संसार के सबसे करुण गीत।

ख़जाना

औरतों के पास दुखों का ख़जाना होता है इन दुखों का कोई नाम नहीं होता दुखों का यह ख़जाना कभी ख़ाली नहीं होता हर मौसम में, हर दिन इस ख़जाने में जमा होते रहते हैं नये-नये दुख जब भी ख़ुशी का कोई मौक़ा आता है औरतें ख़जाने में से कोई दुख निकालती हैं और उस दुख को तीली की तरह जला देती हैं फिर फड़फड़ा कर जलने लगती है ख़ुशी ठहाके होठों से आँखों में चले जाते हैं ख़जाने में से बरबस बिखरने लगते हैं मोती भरपूर बरसने के बाद भी भरपूर बना रहता है ख़जाना फिर ऐसे ही किसी ख़ुशी के मौक़े पर ढुलक पड़ने के लिए।

कुंभ में छूटी औरतें

हर बार कुंभ में छूट जाती हैं कुछ औरतें कुंभ में छूटी औरतें बूढ़ी होती हैं ये बूढ़ी औरतें अपने बेटों के सिर पर पाप की गठरी की तरह लदी रही होती हैं पाप-मुक्ति के लिए कुंभ से अच्छा अवसर और मंदिर की सीढ़ियों से बेहतर जगह भला कौन सी हो सकती है ? ये बूढ़ी औरतें कुछ दिनों तक अपने बेटों का इन्तज़ार करती हैं उनकी कुशलता को लेकर चिंतित होती हैं रोती-कलपती ये औरतें बैठी रहती हैं मंदिर की सीढ़ियों पर ठीक उसी जगह जहाँ बैठाकर गए थे उनके बेटे कुछ दिनों बाद विलुप्त हो मोक्ष पा जाती हैं कुंभ में छूटी औरतें ।

देवता

दक्ष प्रजापति ने आहूत की देवताओं की सभा अचानक सभा पर बकासुर ने हल्ला बोल दिया एक दैत्य, सहस्रों देवता ! देवताओं में बल था कि वे बकासुर को परास्त कर देते पर देवता लड़े नहीं प्राण बचाने को वे बन गए पक्षी और वृक्ष फिर देवताओं में नहीं बचा बल कि वे अपने मूल रूप में लौट सकें युगों-युगों से बकासुर काट रहा है पक्षी और वृक्ष युगों-युगों से कट रहे हैं देवता और चुप हैं।

विजय उत्सव

‘यह कैसा विजय उत्सव है युधिष्ठिर!’ क्या यह उन योद्धाओं की मृत्यु का उत्सव है जो यदि बचे रहे होते तो धरती को उन पर गर्व होता? क्या यह संसार के मरघट बनने का उत्सव है? क्या यह विधवाओं के विलाप का उत्सव है? तुम्हारे चषकों में मदिरा है या तरल अहंकार? तुम्हारी प्रजा का विवश रुदन तुम्हारे लिए अट्टहास क्यों? यह कैसा विजय-उत्सव है युधिष्ठिर! युधिष्ठिर वाचक को अपलक देख रहा था अचानक युधिष्ठिर ने धरती पर घुटने टेक दिये युधिष्ठिर की सिसकियों से भर गया उत्सव-स्थल चषक थामे सभी वीर मौन....स्तब्ध....विचलित..... तभी भीड़ को चीरता पुरोहित गुर्राया- ‘यह लोकायत है....वेद निंदक..... वेद निंदकों के लिए निर्धारित है दण्ड जीते जी अग्निदाह....’ उस लोकायत को धकेल कर बाहर ले जाया गया वेद निंदक को दण्ड मिला वही जो तय था किसी ने नहीं सुनी युधिष्ठिर की थरथराती बाणी- ‘यह लोकायत सच कह रहा है, इसे सुनो, दण्ड मत दो’ सहस्रों वर्ष बीत गए हैं आज भी सच कहने के लिए दण्ड का वही विधान है घुटनों के बल बैठा निरुपाय युधिष्ठिर युगों से बड़बड़ा रहा है- ‘यह लोकायत सच कह रहा है, इसे सुनो, दण्ड मत दो’

तुम

जब तुम थीं तो बरसों का वक़्त हमारे पास से इस तेज़ी से गुज़र गया कि मैं उसका चेहरा तक न देख सका अब जब तुम नहीं हो तो वक़्त का एक पल मेरे दरवाज़े पर आकर घंटों खड़ा रहता है एक भिखारी की तरह और भीख में मेरी ज़िन्दगी का एक हिस्सा ले जाता है।

युद्ध

उनके पास प्रेम की हत्या के लिए तमाम तरह के तर्क थे उनके पास शस्त्र थे उनके पास शास्त्र थे उनके पास सांस्कृतिक शुचिता की परम्परा थी मेरे पास कविता थी और मैं प्रेम के हत्यारों के ख़िलाफ़ युद्ध लड़ रहा था यह न पूछें कि युद्ध में कौन जीता बस इतना बता सकता हूँ कि कविता ने अभी हार नहीं मानी है।

शाप

ज़मीन ठेके पर चढ़ा गाँव को भूल जाने वाले गाँव की मिट्टी से सारे रिश्ते तोड़ देने वाले जब तू बुढ़ापे में घर लौटे तो अल्लाह करे तुझे गाँव का कोई आदमी न पहचाने तेरे खेत में ककड़ियाँ न उगें बाँझ हो जायें तेरे खेत की बेरियाँ तेरे कुएँ का पानी खारा हो जाये तेरी घर वाली भूल जाये अंगारों पर रोटी सेंकना।

मौजूदगी

तुझे कहाँ-कहाँ से बेदख़ल करूँ तू कहाँ नहीं है मौजूद तू धर्म-गुरुओं के आश्रमों में रहता है टोकरे की तरह कि जिसमें बुहार कर डाल दी जाती हैं भक्तों की सारी मन्नतें तू भूखे के घर में मौजूद है ख़ाली बोरी की तरह भूखे की सारी उम्र इस आशा में निकल जाती है कि कभी तो गेहूँ से भरेगी यह बोरी तू बेबसों के साथ रहता है मणिधारी नाग बनकर वे तुझसे ड़रते हैं और पूजते हैं और उम्मीद करते हैं कि कभी तू उनके घर में मणि छोड़कर चुपचाप चला जायेगा तू अमीरों के यहाँ रहता है तिजोरी बनकर कि जिसमें प्रवेश पा सारे पाप पुण्य में बदल जाते हैं तू धुंध सा छाया है संसार की चेतना पर धुंध छँटे तू हटे तो दिखे कोई रास्ता ओ ईश्वर!

नरक

एक ने ईश्वर से धन माँगा मिला उसने भव्य मन्दिर बनाया दूसरे ने पुत्र माँगा मिला वह चारों धाम की यात्रा कर आया तीसरे ने सत्ता माँगी चौथे ने सौन्दर्य पाँचवें ने स्वर्ग माँगा छठे ने मोक्ष जिस-जिसने जो-जो माँगा वही-वही पाया ईश्वर ने मुझसे कहा- तू भी कुछ माँग मैंने कहा- संसार के सब प्राणियों को इतना भर दे दो कि वे सम्मान से जी सकें -तू अपने लिए भी कुछ माँग- दुनिया को अमन और प्यार दो -दुनिया के लिए नहीं अपने लिए कुछ माँग- मैं अलग कहाँ हूँ दुनिया से दुनिया से ही हैं मेरे सुख मेरे दुख ईश्वर खीझ कर बोले- माँग ले अपने लिए कुछ भी मैंने कहा- नष्ट कर दो सृष्टि से सारे धर्म और सारे अस्त्र-शस्त्र कुपित हो गए ईश्वर, कहा- अंतिम बार कहता हूँ, माँग मैंने कहा- मुझे तुम्हारी शर्तों पर भीख में नहीं चाहिए कुछ भी इस बार ईश्वर कुछ नहीं बोले तब से मैं नरक में हूँ।

ईश्वर के लिए सब कुछ

हमने ईश्वर को दिया सबसे सुन्दर चेहरा नीरोग देह सबसे तेज़ दिमाग़ असंख्य हाथ और बहुत सी चमत्कारी शक्तियाँ हमने ईश्वर को सौंप दी अपनी अजरता अपनी अमरता आदमी के पास जो कुछ भी ख़ूबसूरत था उसने ईश्वर को दे दिया इतना सम्पूर्ण बनाया हमने ईश्वर कि धरती पर कोई साबुत मनुष्य नहीं बचा।

गर्व

पहले-पहल हिन्दू होना गर्व का विषय हुआ फिर यह गर्व जातियों में प्रसारित हुआ गर्ववाद के चलन ने ऐसा ज़ोर पकड़ा कि सब तरफ गर्व ही गर्व दिखने लगा हर हिन्दुस्तानी के लिए यह अनिवार्य हो गया कि वह अपने कुछ भी होने पर गर्व अवश्य करे मैंने अपने मानव होने पर गर्व किया पर इस गर्व को गर्व नहीं माना गया मेरा यह गर्व हँसी का पात्र हो गया फिर मैंने तय किया कि मुझे मेरे विश्व मानव होने पर गर्व करना चाहिए इससे महान भारतीय संस्कृति का प्रसार होगा वसुधैव कुटुम्बकम का महान मंत्र हमीं ने तो दिया है मेरे इस गर्व ने मुझे घृणा का पात्र बना दिया मेरा अपराध माना गया कि मैंने गर्व के गौरव को अपमानित किया है विश्व मानव होने से तो अपने हो जायेंगे विश्व के सभी प्राणी अमेरिकन, अफ्रीकन, पाकिस्तानी, ईरानी भला क्या भेद रह जायेगा सुरों और असुरों में हिन्दुओं, मुसलमानों, यहूदियों, इसाइयों में जब कोई दुश्मन ही नहीं रहेगा तो कैसे बच पायेगा गर्व का अस्तित्व मैंने जाना कि गर्व का गौरव तभी तक है जब तक कि वह किसी वर्ग या क्षेत्र में है वर्ग और क्षेत्र से बाहर आते ही गर्व बिला जाता है। धर्म और जाति पर गर्व करना मुझे मंज़ूर नहीं था पर किसी न किसी चीज़ पर गर्व करना ज़रूरी था मैंने तय किया कि मैं भारतीय होने पर गर्व करूँगा यद्यपि गर्व के योद्धाओं को भारतीय होने का गर्व बहुत अधिक रुचता नहीं था भारतीय होने पर गर्व करने वाला आदमी उन्हें गर्ववादियों का सिपाही तो नहीं ही लगता था पर वे इसका सीधा विरोध भी नहीं कर सकते थे भारतीय होने पर गर्व करना बहुत निरापद था इसलिए मैं अपने भारतीय होने पर गर्व करता रहा यद्यपि मुझे अपने इस गर्व का कोई औचित्य समझ में नहीं आया जिस देश में हज़ारों भूख और ठण्ड से मरते हों जहाँ करोड़ों हाथों के पास करने को काम न हो जहाँ किसी का कहीं भी क़त्ल हो सकता हो जहाँ हर कोने में गंदगी के ढेर लगे हों जिस देश के कर्णधारों के खरबों रुपये विदेशी बैंकों में हों और देश का गुज़ारा कर्ज़ और अनुदान से चलता हो जहाँ गर्वीले सिपाही कन्याओं को गर्भ में मार देते हों जहाँ पग-पग पर अराजकता और मक्कारी हो उस देश का वासी होना गर्व की बात कैसे है मेरे भीतर से कोई चीख़ता था- ‘भारत को गर्व के लायक बनाओ’ ‘भारत को ख़ूनी भेड़ियों से बचाओ’ मुझे ख़तरा था कि मैं यदि गर्व नहीं करूँगा तो देशद्रोही घोषित कर दिया जाऊँगा गर्व शब्द से बार-बार लज्जा की गँध आती है फिर भी मेरे अंग-प्रत्यंग में गर्व की ध्वजा लहराती है।

तालिबानी निज़ाम में औरतें

1. मैं दुल्हन बनी थी मेरे हाथों में मेंहदी लगी थी कि अचानक मुट्ठी की शक्ल में बुरक़े से बाहर आ गई मेरी उंगलियाँ और उसी दिन मैं अपने हाथों को खो बैठी। 2. चौक में लटकी थी नजीबुल्ला की देह उसके गले में रस्सी थी मेरे शौहर उसे देखकर ख़ुशी से चीख नहीं सके उनकी आँखों में नमी आ गई अगले ही दिन मेरे शौहर एक चौराहे पर लटके थे नजीबुल्ला की तरह। 3. मेरे भाइयों के कंधों पर मेरे अब्बा की मय्यत थी मय्यत को रोक कर अब्बा को सुनाई गई तीस कोड़ों की सज़ा कुसूर? उनकी दाढ़ी वैसी नहीं थी जैसा कि फ़रमान था। 4. शहर में कोई जनाना अस्पताल नहीं था और मेरा बच्चा दुनिया में आने को था मैं दर्द से बेहाल थी पर किसी मर्द हक़ीम के पास जाना कुफ्र था मैं मर गई अपने बच्चे समेत।

अगर मुझे कामयाब होना था

मुझे गलना था और ढलना था बदलते समय के साँचे में मुझे अपनी क़लम में एक व्यभिचारी निब डालनी थी और उस निब से लिखनी थीं सभी युगों के राजाओं की प्रशस्ति गाथायें मुझे राजाओं और राजकुमारों के लिए चालीसे और आरतियाँ लिखनी थीं और बदले में पाने थे लोककवि और राजकवि के ख़िताब मुझे अपनी ज़बान से उतारना था लज्जा का लेप मुझे सत्ताधीशों को किसानों और मज़दूरों का मसीहा कहना था या जन-जन के हृदय-सम्राट या युवा दिलों की धड़कन....आदि....आदि.... अगर मुझे बनना था कामयाब इन्सान तो मुझे एक दुम उगानी थी और उस दुम को हर वह दहलीज़ बुहारनी थी जहाँ-जहाँ पड़ते आक़ाओं के क़दम उनके मुखारविंद से जब-जब फूटते बोल मुझे अपनी दुम हिलानी थी।

तुम्हारे लिए

धनहीन, बलहीन, भाग्यहीन सभी आयें देव-चरणों में माथा रगड़ें, गिड़गिड़ायें पूर्वजन्म के कर्मों के लिए क्षमा माँगें, पछतायें सौभाग्य की भिक्षा माँगें, अश्रु ढरकायें वैभव की कामना करें, प्रशस्तियाँ गायें देवालयों में चढ़ायें दक्षिणा, प्रसाद पायें सब संतोष से जीना सीखें, ईश शरण में आयें तुम्हारे ही लिए स्थापित हैं भव्य देव-प्रतिमायें।

प्रार्थना सुनें

स्वर्ग चाहने वाले स्वर्ग में जायें मोक्ष चाहने वाले मोक्ष पायें स्वर्ग और मोक्ष के आकांक्षी पर मेरी एक प्रार्थना सुनें— संसार में जो मुक्त हैं स्वर्ग और मोक्ष के लोभ से उन्हें भी जीने दें शान्ति से कृपया इस संसार को नरक न बनायें।

पाप

भव्य मन्दिर आपको पापों से मुक्त कराते हैं एक गंगास्नान से सारे पाप धुल जाते हैं ईश्वर का नाम लेने से होती है स्वर्ग की सृष्टि धर्मराज की बही से मिटती है पापों की प्रविष्टि सैंकड़ों व्रत ऐसे कि हर व्रत दे अकूत पुण्य तीर्थ-तीर्थ पर निर्मित हैं मोक्ष की सीढ़ियाँ जितने पाप, उनसे ज्यादा पाप से मुक्ति के उपाय पाप जितना जघन्य, मुक्ति का रास्ता उतना सरल फिर पापों से भय कैसा?

ईश्वर

ईश्वर ग़रीब के सीने में खूँटे सा गड़ा है खूँटे से बँधा ग़रीब औंधे मुँह पड़ा है।