कुछ प्रसिद्ध रचनाएँ : रामभद्राचार्य

Kuchh Prasiddh Rachnayen : Rambhadracharya


‘अरुन्धती’ महाकाव्य

(अरुन्धती हिन्दी भाषा का एक महाकाव्य है, जिसकी रचना जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने १९९४ में की थी। यह महाकाव्य १५ सर्गों और १२७९ पदों में विरचित है। महाकाव्य की कथावस्तु ऋषिदम्पती अरुन्धती और वसिष्ठ का जीवनचरित्र है, जोकि विविध हिन्दू धर्मग्रंथों में वर्णित है। महाकवि के अनुसार महाकाव्य की कथावस्तु का मानव की मनोवैज्ञानिक विकास परम्परा से घनिष्ठ सम्बन्ध है।) “श्रीमद् राघवो विजयते तराम्" अरुन्धती महाकाव्य

प्रथम सर्ग : सृष्टि

वर्तमान प्राकृत प्रपंच को स्वान्त वसन् में मणि ज्यों मेल; सलिल मध्य वट पत्र तल्पगत रहा एक श्यामल शिशु खेल । रहा व्याप दिशि-विदिश मध्य प्रालेय समत्र निविडतम तम; अन्धकार या कहो ज्योति पर बाल नीलिमा का संभ्रम॥ १ ॥ रहा दीख निःसुप्त तिमि सागर-सा यह नील गगन; नहीं प्रकट थे जहाँ इन्दु रवि नहीं भासते थे उड्डुगन । दुर्विभाव्य छाया समत्र था, नीरवता का यह साम्राज्य; अहो ! देवमाया का कैसा, सन्नाटे में अद्भुत राज्य ॥ २ ॥ पंचभूत तन्मात्राओं के सहित प्रकृति थी नीरव मूक; मानो उससे आज हो गई, कोई एक अतर्कित चूक । सकल सृष्टि निद्रित असीम गत कालात्यय करती चुपचाप; फिर भी थे अविराम चल रहे स्थिर सत्ता के कार्य कलाप ॥ ३ ॥ वातावरण शान्त था नीरव, नहीं चल रहा था पवमान; शब्दोपरत नियति करती थी, उस अनन्त सत्ता का ध्यान । नहीं आज खगकुल का कलकल, वियत विलसता विगत निनाद; तदपि खेलता शिशु एकाकी वीचि बीच था विरत विषाद ॥ ४ ॥ एकाकी निरपेक्ष भाव से भवप्रवाह लखता चुपचाप; निजानंद निस्यन्द महाह्रद मीन सदृश कृत केलि कलाप । नहीं वहाँ उपकरण खेल के न था वहाँ पर क्रीड़ास्थल; फिर भी रहा केलि में तन्मय चंचल-सा बालक निश्चल ॥ ५ ॥ अति अगाध कीलाल मध्य था एक विलसता वर न्यग्रोध भवप्रवाह उपरम भी जिसका कर न सका किंचित् अवरोध | डुबा न पाया जिसको अब तक प्रलय जलधि का वीचि विलास । रहा लहरता लहरों में ज्यों; वनरुह का वन मध्य पलाश ॥ ६ ॥ थी प्रलीन सब सृष्टि नहीं था किंचित् दृश्य विराट निकट; अरे ! रहा फिर भी अक्षत् शिशु बालकेलि हित अक्षय-वट । निश्चित भक्त भावनामय था यह अपूर्व वट भूतातीत; रहा तैरता प्रलय जलधि में हुआ न मन में किंचित् भीत ॥ ७ ॥ उस अनन्त न्यग्रोध विटप का, जल में तैर रहा इक पर्ण; जिसकी भाग्य विभव गरिमा पर अहो ! आज भी सेषर्य सूपर्ण । निखिल लोक जड जंगम जिसमें, चिरनिद्रित थे यथावकाश; उसी ब्रह्म शिशु का आश्रय था बना, अहो ! वट विटप पलाश ॥ ८ ॥ नील नीर ऊपर नीरज-सा अविरत पर्ण रहा था तैर; मनो नील अंचल माया का जल में केलि रहा कर स्वैर । पूर्व कल्प कौसल्या का क्या दलीभूत यह नीलाँचल ? नहीं मग्न कर पाया जिसको प्रलय वारिनिधि का भी जल ॥ ९ ॥ अकस्मात लख उसे समागत हो उस पर राघव आसीन; निज जननी की पूर्व स्मृति वश, हुए बालक्रीडा में लीन । उसी श्याम अभिराम पत्र पर, लेट चरण को कर उत्तान; पदांगुष्ठ को मुख सरोज में, मेल कर रहे सुख से पान ॥ १० ॥ निर्भर प्रेम प्रमोद मग्न शिशु, पद का रहा अंगूठा चूस; पाटल पुष्प पयोज चषक से, शशि को सौंप रहे पीयूष । वीतराग मुनि योगिवृन्द सब, त्याग गेह ममता मद काम; किस रस हित मम चरण कमल का, स्मरण कर रहे आठों याम ॥ ११ ॥ निश्चित इस अंगूठे में लसता, कोई एक अनूठा स्वाद; जिससे प्रकट जाह्नवी भरती, सकल विश्व में परमाह्लाद । मैं भी उसी अपूर्व स्वाद का, क्रीडा मिस कर लूँ अनुभव; अतः लगे पीने पदरूह को, कौतूहल वश करुणार्णव ॥ १२ ॥ मुख - सरोज में कर-सरोज श्रुत अधिक विलसता चरण- सरोज; इन्द्रनील सम्पुट निलीन ज्यों, प्रगुण त्रिगुणमय तीन पयोज । लेटे परम प्रसन्न पत्र पुट मध्य राजते बाल मुकुन्द; मरकत सम्पुट कलित कंज कल कोष मध्य मनो ललित मिलिन्द ॥ १३ ॥ निखिल लोक लावण्य धाम अभिराम जलद-सा श्यामल तन; जिस पर दमक रहा दामिनि-सा, झिलमिल झिलमिल पीत वसनं । दिव्य योगमाया अम्बर- से, कर ऐश्वर्य समावृत आप । साक्षि रूप में देख रहे थे, चुपके-चुपके प्रकृति कलाप ॥ १४ ॥ मदन महित मधुकर करम्ब-से, रुचिर चिकुर कुंचित मेचक; अनायास सोल्लास लटक थे रहे, कंज आनन को ढक । अमृत पान का लोभ नीरधर कर न सके किंचित् संवृत; तुरत निरीह निशाकर मंडल किया उन्होंने ज्यों आवृत ॥ १५ ॥ सकल लोक कर भ्रू विलास था, समुल्लसित दृग में अंजन; जिसे विलोक लजाते थे, मृग मनसिज सरसिज शिशु खंजन । आयत भाल मनोज चाप-सा, मुनि मन हरता ललित तिलक; श्रुति कुंडल छूते कपोल को, जिन्हें चूमते कुटिल अलक ॥ १६ ॥ जगत सृष्टि कारक अचेष्ट ईश्वर के उद्बोधन के हेतु; बंदी बन आये युग महिसुत युगल वृहस्पति बहुश: केतु । निखिल वेद वांग्मय निधान था, कल-वल किलकिल मधुर बचन; जिस अपूर्व अव्यक्त निलय-से, हुआ समीरित सकल सृजन ॥ १७॥ निराकार साकार सृष्टि का, हुआ जहाँ से परिणोदन; स्मित सरोज-सा विकस रहा था शिशु मुकुन्द का इन्दु वदन । त्रिशिख तिग्म ज्वाला वलीढ, सम्भूत जहाँ से हुआ अनल; जिह्वा मंजुल पद्म कोष-सी जहाँ प्रकट जन जीवन जल ॥ १८ ॥ अरुण अधर सौरभ प्रवाल-सा संकट शमनि मन्द मुस्कान; आनन अमल अनल्प कल्प कल्पना तल्प माधुर्य निधान । मांसल अंस कलभ कर सुन्दर, लघु-लघु ललित ललित सुकुमार; सिरिश मृदुल कररुह सुस्मृति से विगलित होता भव भय भार ॥ १९ ॥ बाल विभूषण वसन अंग प्रति, लसते थे, जैसे सोदर्य; पाया, किन्तु इन्होंने ही उस, शिशु के तनु से ही सौन्दर्य । सकल रूप सौभग-निधान में, अब सुषमा संरसाता कौन ? पूर्णकाम अभिराम राम को, अब अभिराम बनाताकौन ॥ २० ॥ श्री राघव के अंग संग हित, पट भूषण मिस सुर-मुनि-वृन्द; तपः पूत भूषित होते हैं, छूकर श्यामल अंग अमन्द । कोटि-कोटि कन्दर्प-दर्प-हर, अनुपम यह श्यामल शिशु रूप; ध्यान मात्र से सदा भग्न, करता भावुक जन का भवकूप ॥ २१ ॥ इस निरीह लीलारत शिशु ने, किया, भूरिशः कालात्यय; फिर, निहाल चकपकी दृष्टि से, सुभग सृष्टि का विषम प्रलय । तमस्तोम चतुरस्त्र व्याप्त था, नहीं पक्षिकुल का कलरव; नहीं गूंजते थे मिलिन्द-गण, शान्त सृष्टि निद्रित नीरव ॥ २२ ॥ सोचा शिशु ने खेल-खेल में, बीत गये बहुश: वासर; एकाकी आनन्द मग्न, मैंने, खोया स्वर्णिम अवसर । वीतराग निष्क्रिय योगी-सा, बना रहूँ कब तक नीरस ? करूँ प्रलय का पटाक्षेप अब, विरचूँ नूतन सर्ग सरस ॥ २३ ॥

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