किवाड़ (कविता संग्रह) : कुमार अंबुज
Kivaad/Kivaar : Kumar Ambuj


मेरे पास

मेरे पास थोड़े-से पत्थर थे और कुछ सूखे बाँस जिनके सहारे मुझे तय करना था अपनी सभ्यता का रास्ता पुरानी सभ्यताएँ टीलों की खुदाई चाहती थीं और मुझे अपनी सभ्यता को टीलों में तबदील होने से बचाना था दीवारों पर बाहर धूप और अन्दर दीमक थी कुछ श्लोक और रूढ़ियाँ थीं मुझ पर हँसती हईं शास्त्र थे शस्त्रों की तरह मेरे पास इच्छाओं की पोटली थी और वक़्त की एक छोटी-सी लाठी जिसके सहारे पार करना था अनिर्णयों का अरण्य विस्मृति के जल में हिलते हुए कुछ धुंधले अक्स थे सूखते हुए आँसू थे पिघलती हुई आत्मा फूलों और सुगन्धियों से भरा एक नरक मेरे सामने था मेरे मोक्ष का रास्ता वहीं से होकर जाता था कुछ अलौकिक लोग थे एक स्वप्न में मिलकर दूसरे ही स्वप्न में अलग होते हुए मेरे पास शेष थी सिर्फ़ दो स्वप्नों के बीच की अनिद्रा जहाँ कुछ वरदान थे मेरे पास शाप की तरह पीछा करते हुए कुल मिलाकर एक अत्कान्त जीवन था जिसकी तुकें ढूँढ़ना था। 1990

रात तीन बजे

एक आवाज़ आती है रात तीन बजे की नींद में यह कुएँ में बाल्टी डूबने की आवाज़ है या बिल्ली कूद गई है बगल की छत पर कि एक औरत ने अपना रोना तेज़ी से रोक लिया है यह किसी पत्थर के गिरने की आवाज़ है या एक बीमार की कराह कि रात में पत्ता इसी तरह टूटता है? यह नेपाली चौकीदार के डंडे की दीवार पर फटकार की आवाज़ है या शाम से आम के पत्तों में छिपा घर से भागा-रूठा लड़का मौका देखकर कूदा है माँ की गोद के लिए या फिर किसी ने डुबकी लगाई है तालाब में यह गोली की आवाज़ है या आदमी के धूल में गिर जाने की? यह कैसी आवाज़ है जो आई है जब से मेरी नींद की छाती पर बैठ गई है! 1988

उन शब्दों की तरह

जो आत्मीयजन देह की दुष्टता भुलाते हए आत्मा की पवित्रता में विश्वास कर रहे हैं खोज रहे हैं अमरता वे सबसे भोले और सरल हैं मुझे उन पर दया करना चाहिए जो देह की खुशी में नश्वरता के भय से शामिल हए वे अनन्त पीड़ा के स्वामी बने प्रसन्नता उनके जीवन में दुख की तरह शरीक हुई सिर्फ़ इच्छाएँ कभी प्रेम नहीं होती! अन्तरिक्ष और अनन्त के बारे में सबसे निश्चित यही है कि वहाँ कोई अन्त नहीं होता जो अन्त की खोज में हैं अनन्त कामनाओं के साथ वे निरीह हैं मुझे उन पर दया आना चाहिए उन शब्दों की तरह जो दुर्घटनाओं के बाद के ब्यौरे हैं। 1990

गुफा

शुरू होता है यहाँ से भय और अँधेरा भय और अँधेरे को भेदने की इच्छा भी शुरू होती है यहीं से। 1987

नींद और नींद से बाहर

मेरी अपनी एक गहरी नींद है जिसकी उम्र में शेष है पूरी रात का समय एक धरती है मेरी अपनी जहाँ बचपन के फूल अनवरत झर रहे हैं झर रहे हैं अनाज के दाने भूख का सपना नींद के चमकदार सूप में झर रहा है और दानों के फटके जाने की आवाज़ पूरे ब्रह्मांड में गूंज रही है नदी एक आँसू है पृथ्वी के गाल पर बहता हुआ मेरी नींद से बाहर की धरती पर मेरे पूरे जीवन का समय शेष है झर रहे हैं जहाँ मेरे सलोने जवान दिन भूख झर रही है पत्ती की तरह नदी की गहराई बढ़ाते हुए पिचक गए हैं पृथ्वी के सलोने गाल नींद से बाहर नींद एक कठिन सपना है जहाँ रक्त की आवाज़ के अलावा नहीं है कहीं कोई आवाज़। 1988

यथास्थिति में

धूप तेज़ और सीधी गिरेगी मगर दानों में दूध नहीं बनेगा पानी सन्तुष्ट करने का स्वभाव खो देगा गिर जाएगा बैरोमीटर का पारा डालियाँ हो जाएँगी नंगी ब हन सत्ताईसवें बरस में भी रहेगी अनब्याही त्यौहार गुज़र जाएँगे चुपचाप रोशनी चकाचौंध पैदा करेगी पेड़ अपनी जड़ों की पूरी ताक़त ख़र्च कर देंगे गाय के रँभाने में आवाज़ आना ख़त्म हो जाएगी हवा हवा नहीं रहेगी और हम कभी न सूखनेवाला पसीना उमस को सौंप देंगे। 1985

चुप्पी में आवाज़

यह एक क़स्बे की रात की पहले पहर की चुप्पी है जिसमें एक ज़रा-सी भी आवाज़ कुएँ में दहाड़ की तरह गूंज सकती है और चुप्पी की गहनता में ही सबसे ज़्यादा याद आती है आवाज़ सबसे ज़्यादा ज़रूरी लगती है हलचल कि कहीं कुछ हो कैसे भी हो मगर एक आवाज़ हो और चुप्पी में अक्सर पिछली आवाजें ही आती हैं जिन्हें हम ही छोड़कर आए थे अकेला उनकी अँगुलियाँ टटोलती हैं हमारी देह सहलाती हैं दुबकी हुई आत्मा एक आवाज़ आती है और हम पीछे दौड़े आ रहे सहपाठी के इन्तज़ार में थोड़ा-सा रुक जाते हैं रुक जाता है समय का दुर्जेय रथ साइकिल को रिक्शे की तरह खींचते हए पिता के हाँफने की आवाज़ ठीक वैसी होती थी जो चूल्हा फूंकते हुए माँ अपनी फूंकनी से निकालती थी आवाज़ों की यह जुड़वाँ आवाज़ मुझ हिरण का व्याघ्र की तरह पीछा करती है चुप्पी में यह पीछा सबसे तेज़ होता है उम्र की इस सबसे लम्बी और तेज़ दौड़ में आवाज़ विजेता होती है फिर विजयोल्लास के भीषण नाद के बाद की काँपती हई चुप्पी में याद आती हैं कुछ और कठिन आवाजें जानवर की चमकती-हिंसक गुर्राहट की तरह ये आवाजें मेरे मन की गुफा में शासक की तरह रहती हैं और इन सबसे अलग एक तीखी आवाज़ चुप्पी में चीख़ती है यह रेल की सीटी की तरह पुलिस की सीटी की तरह बजती हुई उतरती है नसों में उस वक़्त होगी मेरी मृत्यु जब चुप्पी की गहनता में भी नहीं सुनाई देगी मुझे कोई आवाज़! 1988

किवाड़

ये सिर्फ़ किवाड़ नहीं हैं जब ये हिलते हैं माँ हिल जाती है और चौकस आँखों से देखती है-'क्या हुआ? मोटी साँकल की चार कड़ियों में एक पूरी उमर और स्मृतियाँ बँधी हुई हैं जब साँकल बजती है बहुत कुछ बज जाता है घर में इन किवाड़ों पर चन्दा सूरज और नाग देवता बने हैं एक विश्वास और सुरक्षा खुदी हुई है इन पर इन्हें देखकर हमें पिता की याद आती है भैया जब इन्हें बदलवाने को कहते हैं माँ दहल जाती है और कई रातों तक पिता उसके सपनों में आते हैं ये पुराने हैं लेकिन कमज़ोर नहीं इनके दोलन में एक वज़नदारी है ये जब खुलते हैं एक पूरी दुनिया हमारी तरफ़ खुलती है जब ये नहीं होंगे घर घर नहीं रहेगा। 1987

अक्तूबर का उतार

छतों पर स्वेटरों को धूप दिखाई जा रही थी और हवा में ताज़ा घुले हुए चूने की गन्ध झील में बतख की तरह तैर रही थी यह एक खजूर की कूँची थी जिसके हाथों मारी जा चुकी थी बरसात की भूरी काई और पुते हुए झक-साफ़ मकानों के बीच एक बेपुता मकान अपने उदास होने की सरकारी-सूचना के साथ सिर झुकाए खड़ा था टमाटरों की लाली शुरू होकर चिकने भरे हुए गालों तक पहुँच रही थी अंडे और दूध का प्रोटीन जेब खटखटा रहा था खली और नमक की खुशबू पशुओं की भूख में मुँह फाड़ रही थी शामिल हो रहा था आदम-इच्छाओं में हरे धनिए का रंग और अदरक का स्वाद बाज़ार में ऊन और कोयले के भाव बढ़ रहे थे रुई धुनकनेवाले की बीवी के खुरदरे हाथ सुई-डोरे के साथ तेज़ी से चल रहे थे रजाई-गद्दों पर (यही वह जगह होती है जहाँ सुई तलवार से और डोरा रस्सी से बड़ा हो जाता है) बढ़ई की भुजाओं की मछलियाँ लकड़ी को चिकना करते हुए खुशी से उछल रही थीं तेज़ हो रही थी लोहा कुटने की आँच खुल रहे थे बैलगाड़ियों के रास्ते आलू की सब्ज़ी शाम तक चल जाने लायक इन दिनों में एक मटमैली चिड़िया अपनी चोंच से बच्चे की चोंच में दाना डाल रही थी रावण का पुतला जल चुका था सालाना जश्न में मगर आसमान में बारूद और आवाजें बाक़ी थीं बाकी थी रोशनी और सजावट के लिए कुछ जगह थोड़ी-सी जगह बच्चों के खेल के लिए निकल आई थी और थोड़ी-सी पेड़ के नीचे एक बैंच पर इस रोनी दुनिया में मुसकराए जा सकने की गुंजाइश के साथ इमली का पेड़ लगातार हिल रहा था यह सर्दियों की चढ़ाई थी जब मकड़ियों के घर उजड़ रहे थे और अक्तबर का यह चमकदार उतार था जिस पर से फिसल रहा था एक पूरा शहर जैसे फिसल-पट्टी से फिसलता है एक बच्चा ! 1988

ज़रा-सी देर में

ज़रा-सी देर में बड़ा हो गया मैं और गाँव के सिवान से बाहर निकल आया शहर की लड़की से प्यार किया और ज़रा-सी देर में वह लड़की लिपस्टिक की दुनिया में गायब हो गई ज़रा-सी देर में मैं शराब पीने लगा कॉलेज की आखिरी साल की परीक्षा से भाग आया नौकरी खोजते हुए भूल गया मैं गेहँ-चने के खेत मेथी की भाजी और एक कोस दूर कुएँ का पानी ज़रा-सी देर में नौकरी मिली और आज तक नहीं छूटी ज़रा-सी देर में नीम पर निंबौरी आ गई और आँखों में पानी पते पीले पड़ते हुए डाल छोड़ने लगे छूट गई प्यार भरी जगह और नई जगह का पानी सेहत के ख़िलाफ़ हो गया ज़रा-सी देर में दोस्त बने और कपड़ों से बारिश की गन्ध आने लगी ख़त्म हो गई बैलों की जुगाली ज़रा-सी देर में मैदान बनते हए ख़त्म हो गए वृक्ष और पहाड़ खत्म हो गए चावल, गेहूँ और रसोईघर के चूहे ज़रा-सी देर में हरित-क्रान्ति फैल गई फैल गया हैज़ा एक हवाई जहाज़ पक्षी की तरह गिर पड़ा खिलौने की तरह लुढ़क गई रेलगाड़ी ज़रा-सी ही देर में लड़की झूल गई पंखे पर और टूट गए मज़बूत दिखने वाले पिता के कन्धे थके आदमी की गहरी नींद में बस ज़रा-सी देर में चिड़िएँ बोलने लगीं 'उठो, काम का वक्त हो गया!' 1988

अकेला आदमी

अकेला आदमी उजाड़ रास्ते पर खड़े रुख की तरह होता है रात पूरे वज़न के साथ उसके ऊपर से गुज़र जाती है दिन उसकी आँखों में चकाचौंध पैदा करता है अँधेरी सीढ़ियों से अकेला आदमी अपने तमाम अकेलेपन के साथ धीरे-धीरे उतरता है लौटता है ब्रैड का एक पैकिट लेकर सुबह के लिए बचा लेता है चार स्लाईस और अपना सब कुछ एक जंग लगे ताले के भरोसे छोड़कर चल देता है कहीं भी अकेला आदमी जब सड़क से गुज़रता है सड़क अकेली हो जाती है हवाएँ उसे छूकर उदास हो जाती हैं उसके दुलार भरे स्पर्श से चौदह बरस की लड़की एकाएक डर जाती है अकेले आदमी के कमरे की दीवारें काली और खोखली होती हैं उससे कोई नहीं कहता कभी बेतरतीब हो गई हैं उसकी मूंछें उसकी कमीज़ पर दीवार से पीठ टिकाने का निशान बन चुका है और चप्पलें खो चुकी हैं अपना रंग उससे कोई नहीं कहता आओ खाना खा लो या चलो कहीं घूमने चलें छत पर पड़े हए रात को तारों को देखता वह अक्सर सोचता है काश एक आदमी और उसके साथ होता तो वह इस रात का अँधेरा काट देता चार तारे तोड़ किसी के छप्पर में खोंस देता या बहुत मुमकिन है वह उसके साथ मिलकर ध्रुव तारे को उत्तर से हटा दक्षिण के आसमान में ही टाँक देता अकेले आदमी का चश्मा सुबह-सुबह खो जाता है उसका रूमाल उसका पेन उसे कभी नहीं मिल पाता इस दुनिया की बहुत-सी चीज़ों से बेख़बर वह अपने सुनसान अँधेरे में कुछ न कुछ ढूँढता रहता है अकेले आदमी की हँसी खौफ़ पैदा करती है उसका सुबकना किसी तीसरे कान तक नहीं पहुँचता उसकी चीख़ उसके ही निर्वात में गुम जाती है संगीत उसकी धमनियों तक नहीं पहुँचता दृश्य उसे नहीं करते आह्लादित सुगन्ध उसे प्रसन्न नहीं बनाती वह खुशी और दुख में फ़र्क करना भूल चुका होता है और कभी-कभार जब कोई छोटा बच्चा उससे पूछता है- ....

दुनियादार आदमी

उसके पास वक़्त होता है कि वह सबसे नमस्कार करता हुआ पूछ सके- 'कहो, कैसे हो?' पड़ोसी के दुख के बारे में वह मुस्कराकर जानकारी लेता है उसके पास सुन्दर उजले शब्द होते हैं कुछ खाते होते हैं बैंक में उसके और कुछ बीमा-पॉलिसी कभी-कभी वह संगीत के बारे में बात करता है नृत्य में जाहिर करता है अपनी रुचि रामलीला दुर्गापूजा के लिए देता है चंदा वह तपाक से हाथ मिलाता है कहता है- 'आपसे मिलकर ख़ुशी हुई !' हिसाब लगाकर वह जमीन खरीदता है फिर थोड़े-से शेयर्स बनवाता है आभूषण कुछ पैसा वह घर की अलमारी में बचा रखता है लाॅकर के लिए लगाता है बैंक में दरख़्वास्त कार खरीदते हुए पत्नी की तरफ़ देखकर मुस्कराता है सोचता है ज़िन्दगी ठीक जा रही है सफल हो रहा है मानव-जीवन और इस सब कुछ ठीक-ठाक में एक दिन दर्पण देखते हुए दुनियादार आदमी अपनी मृत्यु के बारे में सोचता है और रोने लगता है डर सबसे पहले दुनियादार आदमी के हृदय में प्रवेश करता है। (1988)

काली लड़की

अपने सामाजिक अंधकार से निकलकर एक काली लड़की मेरे स्वप्न के उजास में प्रवेश करती है उजास में रात की कालिमा घुल जाती है दमकती है काली लड़की की देह सप्त-धातु की बेजोड़ मूर्ति की तरह चमकता है काली लड़की का शिल्प बारिश में बिजली की तरह मुस्कराती है वह हंसों की एक पंक्ति काले आसमान से गुज़र जाती है काली लड़की की आँखें गहरी काली हैं वे मेरे स्वप्न की सुरक्षा से बाहर नहीं आना चाहतीं उन आँखों में गौर-वर्ण के अनुभवों का ठोस अँधेरा है जो लड़की के उजले सपनों में टूट-टूटकर गिरता है एटलस की तरह घूमती हुई रात्रि हर बार मेरे स्वप्न के अफ्रीका पर आकर ठहर जाती है। (1990)

सुबह के लिए

चौका-बर्तन के बाद माँ ने ढँक दिये हैं कुछ अंगारे राख से थोड़ी-सी आग कल सुबह के लिए भी तो चाहिए ! (1988)

त्योहार और स्त्रियाँ

त्योहार लाते हैं रेशम-गोटे की कढ़ी हुई साड़ियाँ और बक्से में रखे आभूषण स्त्रियों की देह पर त्योहार जगाते हैं रात भर कथा-कीर्तन के साथ उपवास कराते हैं दिन भर काम करनेवाली स्त्रियों से त्योहार कपड़े लाते हैं बच्चों को मिठाइयाँ भी और लाते हैं पुरुषों के लिए असीम प्रार्थनाएँ स्त्रियों के रोम-रोम से त्योहार की अन्तिम-वेला में जोड़-जोड़ से तड़की हुई स्त्रियाँ पोर-पोर में उल्लास लिए बिस्तर पर जा गिरती हैं- जैसे गिरती हैं अगले त्योहार की थकान में ! (1985)