किस करवट जीवन : राजगोपाल
Kis Karwat Jeevan : Rajagopal

किस करवट जीवन...
कुछ बातें अनकही



परिचय...

पृष्ठ पलटने से पहले... प्रेम-प्रसंग नैसर्गिक हैं. उनके दो पात्र भी सृष्टि-स्वरुप हैं. लेकिन इन पात्रों के चरित्र स्वयंभू हैं. इसमें ईश्वर का अधिक हाथ नहीं है. जब धीरे-धीरे सहभागिता बूढी होने लगती है, जीवन में नये आभास होते हैं. तृष्णा-वितृष्णा, मान-अपमान, और सुख-दुःख के अप्रत्याशित अनुभव होते है. पुरुष कभी पशु तो कभी वस्तु सा लगता है. सच तो यह है कि सुख का कोई मानदंड नहीं है. केवल अपने कर्म और भाग्य हैं. इस काव्य संग्रह में दो लंबी रचनाएँ हैं - किस करवट जीवन और प्रणय परिक्रमा. दोनों ही रचनाएँ यथार्थ से जुडी हैं. राजगोपाल अप्रैल-मई २०२०

किस करवट जीवन

चल बसा इतिहास आज इस मन से मुड कर देखूं किस ओर क्षितिज का नहीं कोई छोर रात गयी आज हुई नही भोर अभी तक था थामे तुम्हे कितने लगन से चल बसा इतिहास आज इस मन से ||१|| तुम मिली तो यह जीवन ठहरा दुःख पर उभरा धीरे प्यार गहरा मिथ्या बन बैठा कानों पर बहरा आकाशगंगा में तुम्हे ढूंढ़ता रहा मगन से चल बसा इतिहास आज इस मन से ||२|| दिन बीते पर महकती रही कस्तूरी तन-मन में उलझी रही संसृति पूरी फिर क्यों रह गयी कोई रात अधूरी देखो प्यार बह रहा किसी नयन से चल बसा इतिहास आज इस मन से ||३|| आज ठहर गया समय, थम गया जीवन उलझे हैं आँखों में कल के अपने चित्र सुबह सिधारा यौवन, कैसी माया, कैसे मित्र भावनाएं मरीं, हुआ प्यार का पिंड-पितृ उड़ा धुंआ स्मृतियों से, कर गया हल्का मन आज ठहर गया समय, थम गया जीवन ||४|| बार-बार वही दृश्य आँखों में छाता है, तुमसे ही छूटा यथार्थ ह्रदय भेद जाता है स्पर्श तो आज भी रात जगा रुलाता है अब तो शून्य देख कर भी हँसता है मन आज ठहर गया समय, थम गया जीवन ||५|| एक ही दिशा में, कितनी नावों में कितनी बार सोचा नहीं लगेगी फिर लहरों की मार पर पत्थरों से कटी, बहती सरिता की धार मैं बैठा रहा कगार पर, देखता डूबता हुआ मन आज ठहर गया समय, थम गया जीवन ||६|| आज सोचता हूँ क्या ऐसा ही जीवन है इतिहास के अँधेरे में भी उजाला देखा जब निर्वासित हथेली पर उभरी थी भाग्य रेखा तुम बनी भविष्य, बांचती चित्रगुप्त की लेखा रात में तुम दिखती हो, तो लगता जैसे दर्पण है आज सोचता हूँ क्या ऐसा ही जीवन है ||७|| तुममे स्वप्न भी, और यथार्थ भी झलकता है मन कभी अधरों के पास, तो कभी दूर दरकता है कुछ बीती सोच बात करें, तो मन कहीं भटकता है टंगी तस्वीर भी कहती, कहाँ वह बीता समर्पण है आज सोचता हूँ क्या ऐसा ही जीवन है ||८|| जब निकले थे प्यार ढूँढने, हम थे दशकों पुराने नंगे पांव, कांटे भी लगे हरित तृणों से सुहाने रात नहीं, दुपहरी भी ढँक लेते, अँधेरे के बहाने छल गए यही नयन मुझे, अब तो बस क्रंदन है आज सोचता हूँ क्या ऐसा ही जीवन है ||९|| छल ही सही, हवा से व्यर्थ लड़ाई है कल का सुख एक अनुभव है आज का दुःख निष्प्रयास उदभव है फिर मन में क्यों मूढ़ हुआ कलरव है क्या पूछ लिया मैंने, जो मन पर मिट्टी छाई है छल ही सही, हवा से व्यर्थ लड़ाई है ||१०|| तुम मिली, एकांत टूटा, मन हुआ वसंत फिर प्यार खिला, अधर जुड़े अनंत ऋतुएं बदलीं, नीड़ बनें, समय हुआ जीवंत फिर क्यों छोटी सी बात, सुख पर चढ़ आई है छल ही सही, हवा से व्यर्थ लड़ाई है ||११|| विधा पुरुष की एक ही, रंक से रावों तक काया, माया, और छाया सर से पावों तक मन-संबंध, गिरते-उठते हैं इनके दावों तक मैंने ऐसा क्या माँगा जो मुँह की खाई है छल ही सही, हवा से व्यर्थ लड़ाई है ||१२|| मौन दीवार देखता, मैं स्वयं पर रोता-हँसता हूँ बंद आँखों में मुझे भी संसार मिला है दूर-हाथ नवनीत भरा उपहार मिला है पर उसे छूने का नहीं अधिकार मिला है सूखे अश्रु भी सारे, फिर क्यों तृष्णा में धंसता हूँ मौन दीवार देखता, मैं स्वयं पर रोता-हँसता हूँ ||१३|| पशु लगूं उसे जब मन का सत्य कहूँ रस-रंग भूल मधु-लिपटा व्यंग्य सहूँ घर के कोनें नोचूं फिर भी यहीं रहूँ अस्तित्व ढूंढता अपने ही जाल में जा फंसता हूँ मौन दीवार देखता, मैं स्वयं पर रोता-हँसता हूँ ||१४|| मैं अपने जीवन को नित समझाऊँ मन से शरीर कैसे अलग कर पाऊँ खुले नयनों से यह द्वन्द-दहन कैसे कर जाऊं उसे अनछुये ही, मैं नित बिखरता संयम कसता हूँ मौन दीवार देखता, मैं स्वयं पर रोता-हँसता हूँ ||१५|| यह घर नहीं, अब पशुओं का तबेला है आँखों में पुरानी पहचान नहीं है जो आज है लगती वही सही है ‘कल’, तो रात गए, भटकी राह में कहीं है खो गया हूँ कहीं, लगा अन्दर ही कोई मेला है यह घर नहीं, अब पशुओं का तबेला है ||१६|| अब कमरे में ही अनजान बना रहता हूँ विक्षिप्त सा अपनी ही मार सहता हूँ गूगे-बहरों की भाषा में दीवारों से कहता हूँ सब कुछ मिट्टी है, सुख चाँद नही, उड़ता रेला है यह घर नहीं, अब पशुओं का तबेला है ||१७|| एक ही खूंट से दो भैंस बंधें हैं नित सोने और जुगाली करने में सधे हैं अपरिचित से, सर हिलाते, धरा पर लदे हैं इनकी तरह, मैंने भी धूप-छांव, और सावन झेला है यह घर नहीं, अब पशुओं का तबेला है ||१८|| आज स्वर्ग दिखा, छल गए ये नयन मुझे भी बड़ी आँखें, गोल मुख वाली चन्द्रमा सी दिखती सारी रात जिसके कृष्ण-कुञ्ज से कस्तूरी महकती मन की लिप्सा उठती जब धीरे से निशा सरकती जहाँ मधु-लिप्त जीने का, मिला था वचन मुझे भी आज स्वर्ग दिखा, छल गए ये नयन मुझे भी ||१९|| उसके तारुण्य से स्त्रावित होता था सुख हवा भी रुक कर स्पर्श कर लेती उसका मुख सौ सुखों के बीच कहीं छिपा था एक दुःख जो तोड़ रति की माया, दिखा गया दर्पण मुझे भी आज स्वर्ग दिखा कर, छल गए ये नयन मुझे भी ||२०|| समय बीता, मन बदले, संबंध भी हुए शापित दरकी दीवारें, वाद-प्रतिवाद हुए हमसे पोषित रातें नीरस हुईं, दिन हुए मौन, हवा को भी कर दर्पित तुमसे पीठ किये मिली आंसुओं की तपन मुझे भी आज स्वर्ग दिखा कर, छल गए ये नयन मुझे भी ||२१|| देखो टूटा नीड़, प्यार के बिखरे कितने तिनके खींचता हूँ तुम तक प्रणय की रेखा समर्पण, सच तुमने भी यह देखा शब्दों से जीवन तक, बरसों की थी ऐसी लेखा आज अकेले बैठे हैं हम, अनछुए निशब्द बुत बन के देखो टूटा नीड़, प्यार के बिखरे कितने तिनके ||२२|| हमने अपना संसार तो प्यार से रचा उसमे कभी अनुराग, कभी दंगल मचा पर रिसा मन आज सारा, हाथ केवल शून्य बचा खोजते रहे दोष हम, अहम् के साथ बन-ठन के देखो टूटा नीड़, प्यार के बिखरे कितने तिनके ||२३|| प्रणय-मांगता पुरुष, है कोई श्वान नहीं यह नियति है कोई छल-अज्ञान नहीं मन की नहीं समझना, है कोई अभिमान नहीं मधु-घट भी सूखा, पास नही कोई रसिक अब भिनके देखो टूटा नीड़, प्यार के बिखरे कितने तिनके ||२४|| पुरानी आशाओं का, आज मैंने हठ छोड़ दिया गीले तरु और पत्तियों से टपक रही बूँदें कितने सावन देखे, मैंने ऐसे ही आँखें मूंदे सोचा कभी छिप जाऊं तुममे गर्म उनींदे अपमानित हुआ पुरुषार्थ, मैंने पग मोड़ लिया पुरानी आशाओं का, आज मैंने हठ छोड़ दिया ||२५|| दर्पण ही साथ हुआ, मेरा जो सहता सारा दम उस पर चिल्लाता, रोता-गाता, भूल मन के सारे भ्रम निकल वहां से होता फिर मितभाषी राघव पुरुषोत्तम निर्वासित मैंने, परिक्रमा कर, काली हांड़ी फोड़ दिया पुरानी आशाओं का, आज मैंने हठ छोड़ दिया ||२६|| कुछ माँगा जो नहीं मिला, पर तानों को न आंच दो वर्तमान को कहती हो, जाओ इतिहास बांच लो जीने का आडम्बर भूल, कभी तो दूरियां भी जाँच लो देखो अब कौन-कहाँ, हवा में ही मन मरोड़ दिया पुरानी आशाओं का, आज मैंने हठ छोड़ दिया ||२७|| मै ऐसा ही हूँ, मेरा मत नव-निर्माण करो अब मति भी थकी उसका मत विस्तार करो प्यार बहुत मिला तुमसे, उसमे और न विकार भरो तन-मन ही जीवन है, ईश्वर का आभार करो स्पर्श प्रकृति है पुरुष की, स्वार्थ समझ मत निष्प्राण करो मै ऐसा ही हूँ, मेरा मत नव-निर्माण करो ||२८|| मैं मूक ही सही, पर जड़ नहीं मेरी भावना कह नहीं पाता हूँ कुछ, होता जब तुमसे सामना बंदी सा एकाकी, मरने की नहीं है मेरी कामना विवश मै भी हूँ सृष्टि में, मेरा मत अपमान करो मै ऐसा ही हूँ, मेरा मत नव-निर्माण करो ||२९|| अथक प्रयासों के बाद भी मन कितना है बदला देखा तुम्हे अपलक तो फिर हुआ मन बावला यह तो गति है अनंत, इसे कौन रोक सका है भला समझो विधा यही है, इस व्यथा का अब परित्राण करो मै ऐसा ही हूँ, मेरा मत नव-निर्माण करो ||३०|| रात पेट तो भरा, पर मन भूखा ही सोया रात मालपुए खाया, सपने गदराये छन-छन आँख खुली तो देखा, छाई आशाएं घन-घन लौट गया मन, तकिये पर आंसू छोड़ गए लोचन एक ईप्सा भटकी, यौवन निर्जल सूखा ही सोया रात पेट तो भरा, पर मन भूखा ही सोया ||३१|| व्यवहार कुशल हो कर भी रोता है मन शुद्ध नहीं होता तन, झाड़ते बिखरे राज-कण पांव में चुभता है कंकड़ सा बिखरा आलिंगन उर से कट कर, आज जीवन का यह अंश भी रोया रात पेट तो भरा, पर मन भूखा ही सोया ||३२|| रात सुनती रही, सुप्त शरीर से आती ध्वनियाँ मन करता जोड़ लूँ फिर काया की टूटी कड़ियाँ भोर हुए छुई उँगलियाँ, वह गुर्रायी, उड़ गयी चिड़ियाँ प्यार जगाया, इतिहास बनाया, और सब कुछ खोया रात पेट तो भरा, पर मन भूखा ही सोया ||३३|| निरुत्तर हूँ, क्यों पाषण हुआ जीवन मेरा प्रणय-प्रसंग पर पहले तुम लज्जा से जल-जल होती आज उसे ही मैल समझ कूट-कूट कर हो धोती ताने कसने से, आँख मूँद विधा नहीं चुप सोती दिन बीते, फिर भी गूंजेगा कानों में क्रंदन मेरा निरुत्तर हूँ, क्यों पाषण हुआ जीवन मेरा ||३४|| रात हुई कडवी, सर पर निमौरियां छाई सन्नाटे में झाँका, तो तनिक आँख नहीं भायी स्पर्श-शब्द सब नीम चढ़े, मैंने फिर मुँह की खायी सूखे निमौरियों सा मुरझाया प्रति-पल तन मेरा निरुत्तर हूँ, क्यों पाषण हुआ जीवन मेरा ||३५|| समझ सुन्दरी गले पडूं तो वह मुँह बिचकाती मौन रहूँ तो तर्क-वितर्क कर सच बहकाती मूर्छित हो गिरता तो वह संजीवनी बन इठलाती गिरते-उठते ऐसे ही कटता क्षण-क्षण मेरा निरुत्तर हूँ, क्यों पाषण हुआ जीवन मेरा ||३६|| हम कितने अच्छे, रहते जैसे नभ के तारे सारे हमें देख सभी कहते, कितना है सुख, स्नेह-सगाई सच जानता है, कितना देता है घर-बाहर दिखलाई प्यार का स्वाद अलग है, कभी फटा दूध, कभी मलाई उल्का सा आलिंगन, आश्वस्त नहीं करता है दिन सारे हम कितने अच्छे, रहते जैसे नभ के तारे सारे ||३७|| वह कहती वानप्रस्थ बीत रहा, झांको जीवन ताल में सन्यास ले सिधारो, मत फसों इस चिकुर जाल में त्याग नहीं, हम उलूक बने बैठे हैं अनछुये डाल-डाल में मन ही एक प्रबल है, संबंधों में शास्त्र, संयम सब हारे हम कितने अच्छे, रहते जैसे नभ के तारे सारे ||३८|| मैं सामंती नहीं, संबंधों की मेरी परिधि बतला दो अनरागी हूँ मैं तुम्हारा, न चाहो तो मुक्ति दिखला दो दूर से ही, फिर एक बार प्रेयसी सा प्यार जतला दो आज ग्रहण चाँद पर लगा, दुखी हुए तारे बेचारे हम कितने अच्छे, रहते जैसे नभ के तारे सारे ||३९|| आज नग्न हुआ यथार्थ, पीठ किये खड़े हैं हम मन पर पड़ी मिट्टी, किस पर किसका है ध्यान तन मिथ्या है इसका जीवन में नहीं कोई स्थान अब मुझसे आकर्षण कैसा, मिला है तुम्हे तो यक्ष ज्ञान सर घूमा, बुद्धि फटी, अब जीने का नहीं है दम आज नग्न हुआ यथार्थ, पीठ किये खड़े हैं हम ||४०|| मरुभूमि के कुएं में घबराया पानी सूखा मै फिर भी कंकड़ डालता खड़ा हूँ भूखा इस आशा में कि होगा तर यौवन रूखा मरीचिका में दौड़ रहा हूँ जान कर भी ऐसा है भ्रम आज नग्न हुआ यथार्थ, पीठ किये खड़े हैं हम ||४१|| हम कहाँ आ पहुंचे, चिन्दियाँ जोड़ मन बहलाते अन्दर की छोड़ बाहर दशकों के प्रेमी कहलाते सच को ढँक, झूठ से ही हम अपने को सहलाते टूटे शपथ, बर्फ पड़ी दरवाजे, अब न होंगे हम कभी गरम आज नग्न हुआ यथार्थ, पीठ किये खड़े हैं हम ||४२|| देख नियति हमारी, क्यों रोऊँ मै जो तुमसे हारा पहले बातों का कितना विस्तार था जग से नहीं, अपने संबंधों से प्यार था समय, स्पर्श, सुख कितना अपार था बह गया पानी सा, प्यार जो तुम पर उंढेला था सारा देख नियति हमारी, क्यों रोऊँ मै जो तुमसे हारा ||४३|| वह कभी प्रभंजन, कभी क्षणदा सी कौंधी जान-बूझ कर, मन की इच्छा कितने बार रौंदी बरगद से टपकी माया, अब गिरी धरा पर औन्धी कुछ बचा कहीं मन के कोने, तो उसे दंभ ने दे मारा देख नियति हमारी, क्यों रोऊँ मै जो तुमसे हारा ||४४|| एकाकीपन में ही तुमने ढूंढ लिया मेला मैं कहीं गया दूर, यदि वर्ष भर अकेला दीमक लगे बीते बरसों को, हुआ सब मिट्टी का ढेला मर-खप जाऊं आँख से परे, तो इतिहास बनेगा प्यारा देख नियति हमारी, क्यों रोऊँ मै जो तुमसे हारा ||४५|| अच्छा होता, यदि मैं पुरुष नहीं, किन्नर होता मै विधा की गति में बहता, न कभी इस पार होता मन बहलाता नाचता कहीं, पर न तुमसे प्यार होता अपने भाग्य पर रोता, तुमसे कभी न अभिसार होता न आशाओं की आती आंधी, न कभी उर जर्जर होता अच्छा होता, यदि मैं पुरुष नहीं किन्नर, होता ||४६|| मै ग्रंथों में लिखा जाता, वृहन्नला बन तृप्त होता न ही इप्साओं में फंसता, न छल में लिप्त होता स्वर्ग में हँसता, पड़ा धरा पर न विक्षिप्त होता फिर दुःख रिसता कैसा, जब यौवन ही बंजर होता अच्छा होता, यदि मैं पुरुष नहीं, किन्नर होता ||४७|| उदासीन ही मै आभास कर सकता सुख का परिमाण जग की छोड़, मांग लेता ईश्वर से अपना स्वाभिमान नहीं दौड़ता काया-माया के पीछे, झेल कर भी अपमान चलता जब सर के बल, मिट्टी झटक, पावों पर अम्बर ढोता अच्छा होता, यदि मैं पुरुष नहीं, किन्नर होता ||४८|| लगता है कभी, मिल जाती सागर सी शांति कभी शब्द फिसले, यह सोचना भी अपराध है पलायनवादी मुझे कह दिया, यह मेरा अवसाद है स्वर्ग तो मिला पर छोटी सी पीड़ा का आर्तनाद है हवा भी दोहराती है वही बात, होती है दिग्भ्रांति लगता है कभी, मिल जाती सागर सी शांति ||४९|| मनुष्य है पलायनवादी, नर-नारी की यह बात नहीं गृहस्थ बन साथ चला हूँ, अकेले एक न बीती रात कहीं किसी करवट अनजान पड़े रहना, कहते इसे साथ नहीं दीवारों से लड़ते कभी तो उठेगी मन में क्रांति लगता है कभी, मिल जाती सागर सी शांति ||५०|| जिसके पीछे पागल हो दौड़ा जीवन भर, जब ठहर कहीं कुछ माँगा, रात हंसी मुझ पर कह गई ले सुख दर्पण से, रह खड़ा उस पर ही तन कर कहने-सुनने की दृति में, अब हासिल आई है केवल श्रांति लगता है कभी, मिल जाती सागर सी शांति ||५१|| बुद्धि छोड़, मनुष्यों में सारा पशुत्व भरा है छोटा सा सर, कितनी बड़ी है काया जिस पर छाई है काया से भी भारी माया यह ढंकती फिर अधरों से अंगूठे तक साया पुरुष में भी सृष्टि का यही गुरुत्व भरा है बुद्धि छोड़, मनुष्यों में सारा पशुत्व भरा है ||५२|| पशुओं में सम्बन्धों के सीमित नियम हैं मुझमे कोई नियम नहीं, पर थोडा संयम है तुम पर अधिक स्नेह, श्रद्धा थोड़ी कम है मैं पीछे-पीछे फिरता हूँ, क्योंकि तुममे जीवन तत्व भरा है बुद्धि छोड़, मनुष्यों में सारा पशुत्व भरा है ||५३|| पशु ही सही, मुझे इस तरह सीमित मत करो मनोरथ टूटा इस करवट, उस ओर न कोई हठ करो असमय बूढ़े होने की इच्छा, मुझ पर रोपित मत करो अभिसार से ही तन-मन है, नहीं तो यह अस्तित्व मरा है बुद्धि छोड़, मनुष्यों में सारा पशुत्व भरा है ||५४|| दिन रहते बहरे, रात हमारी मौन युद्ध-भूमि है सुबह उठे कबूतरों से, उड़ते ढूंढने दाना-पानी बहरों से पढ़ते रहते, कुछ पूछा-माँगा तो बस जय भवानी दोपहरी स्वयं ही थकती, तब आँखों ने किसकी मानी रात हुई गूंगी, करवट आवाज लगाती, कहती यह वृद्ध-भूमि है दिन रहते बहरे, रात हमारी मौन युद्ध-भूमि है ||५५|| यौवन ने यदि झाँक लिया, चादर ठूंस उसे करते निष्प्राण चाँद खिड़की से हँसता, सोचता कैसा है झूठा अभिमान कभी मन खड़ा हुआ, उधर हुंकार उठी, मिली सही पहचान जाने कितने आत्मघात किये, अभिसार जीतने यह कुद्ध-भूमि है दिन रहते बहरे, रात हमारी मौन युद्ध-भूमि है ||५६|| कभी कनखियों से देखा तो प्रश्न हुआ क्यों ऐसे घूरा फूटे आँख उत्तर देते, न पूरा मिला न रहा अधूरा छि: तन की बात कोई करता है, यह तो है बड़ा धतूरा मरी आशाएं, हारा सब कुछ, यह तो शुद्ध-भूमि है दिन रहते बहरे, रात हमारी मौन युद्ध-भूमि है ||५७|| यह अंतिम विनती है तुमसे, कर दो मेरा अवसान, पाप-पुण्य के पोथे में बस एक रह गया शेष अधर निर्लज्ज, मरे नहीं छूते ही करते क्लेश कुछ भी बात करूँ, मुख मढ़ता है श्वान का ही वेश झूठा स्नेह जोड़ मधुमास का कैसे कर दूँ अपमान यह अंतिम विनती है तुमसे, कर दो मेरा अवसान ||५८|| न स्पर्श, न दृष्टि, न ही सृष्टि, कैसी है यह छाया अस्पृश्य हुआ मैं मानव, वह ठहरी दैवी माया मै रोऊँ तो और रुलाती, कहती क्यों आसमान ढाया अब बचा नहीं कुछ जीवन, मन-धन का हुआ अधिदान यह अंतिम विनती है तुमसे, कर दो मेरा अवसान ||५९|| वही बात कब तक कहूँ, कान भी हुए बहरे सुख-दर्शन के द्वार, लगे अभी भी हैं पहरे घर को ही उपवन समझ, देख रहा सपने सुनहरे पुनर्जन्म तुम्हारी इच्छा, पर न देना फिर पुरुष का वरदान यह अंतिम विनती है तुमसे, कर दो मेरा अवसान ||६०||

प्रणय-परिक्रमा

युग बीते पर चाह दबी है मन में   प्रेम-प्रसंग अनेक पर एक सृष्टि है गगन-विस्तृत नयनों की एक दृष्टि है तुम्हें देख फिर स्मृतियाँ उभरी जीवन में  युग बीते पर चाह दबी है मन में ||१||  तुम्हारे गोद में लेटा जब आसमान देखा लगा सुख-दुःख है जीवन की एक ही रेखा अकेला नहीं मैं, है साथ कोई इस विजन में युग बीते पर चाह दबी है मन में ||२||  आंखे मिलीं, बातें बनी, और स्पर्श हुआ निशा वक्ष पर फिर अलौकिक हर्ष हुआ किंतु काल हंसा, कहीं श्राप छिपा है तन में  युग बीते पर चाह दबी है मन में ||३||  मन रुआंसा भूला नहीं आज तक इतिहास  आशा अंधेरे से उजाले की ओर बढ़ी  उर पर धीरे अमरलता सी चढ़ी  स्वप्न में, कभी यथार्थ में दे जाती मृदु आभास  मन रुआंसा भूला नहीं आज तक इतिहास ||४|| अब हुई पूरी साथ रहने की लंबी प्रतीक्षा जयमाला पहन कर मिली जीने की दीक्षा  अग्नि की परिक्रमा फिर जगा गई कितने मधुमास  मन रुआंसा भूला नहीं आज तक इतिहास ||५|| चादर ओढ़ छिपी रजनी लज्जा से  पर अंदर मुस्कुराती रही सुमुखि सज्जा से  अधर जुड़े, दिशा बदली, खिले तपन में अमलतास  मन रुआंसा भूला नहीं आज तक इतिहास ||६|| सुख की कल्पना भस्म हुई उसी कुंड में  पहले उसके फिर मेरे पग राह में पड़ते  कितने स्वप्न फिर आपस में छल से लड़ते दुःख बिसुराये अब, सुख झूठा ही भरे मुंड में  सुख की कल्पना भस्म हुई उसी कुंड में ||७|| प्रथम दिवस से ही यत्न में जुटे  बटोर लें जितना स्वर्ग, चाहे राह में लुटें  खो कर सब आज, हम मिले अंधों के झुंड में  सुख की कल्पना भस्म हुई उसी कुंड में ||८|| अभी भी क्यों टिकी है माया पर आँख मेरी  समझ अभी भी, काया सिधारी, बची है राख मेरी  मिथ्या है प्यार, फिर कैसा है अभिसार तुण्ड से  सुख की कल्पना भस्म हुई उसी कुंड में ||९|| प्यार की पिपासा, चुनौती नहीं मन की रुग्णता है  आशाओं की असमर्थता कितनी करुण है  अश्रु भी सांत्वना देते, उर तो कल सा ही तरुण है मन कहता, सोचो  हिमपात में भी कितनी उष्णता है  प्यार की पिपासा चुनौती नहीं, मन की रुग्णता है ||१०||  परिक्रमा पूरी हुई,  तो लगा घूमें हम संसार बांधे  दिन बीते, रातों में प्रणय रोया फिर प्रतिकार बांधे मन  मूर्छित हुआ, पर तन में भरी कितनी सहिष्णुता है  प्यार की पिपासा चुनौती नहीं, मन की रुग्णता है ||११||  उसकी किशोर स्मृतियाँ मेरे शीश मढ़े हैं  नित करता हूँ अर्ध्य, आरती के सुमन चढ़े हैं  सुख लांघ गया मैं, दुःख की यही निपुणता है  प्यार की पिपासा चुनौती नहीं, मन की रुग्णता है ||१२||  कल तक हँसता प्राण, आज हवन सा जला है  अग्नि की परिधि पर स्पर्श हुआ अनूठा मन उछला, दुःख छूटा, जग का भ्रम टूटा  फिर मरीचिका के पीछे, दिन-रात ह्रदय ढला है  कल तक हँसता प्राण, आज हवन सा जला है ||१३||  समय चले प्रणय हुआ प्रहरों पर निछावर मूर्ति बनी वह स्नेह लुटाई निर्बंध निभा कर  फिर अंतरंग सिमटा, मन बुझा, जाने जीवन कहाँ चला है  कल तक हँसता प्राण, आज हवन सा जला है ||१४||  मन भ्रमर सा है, सुमन देख झूमता है  अपमान सह कर भी पास ही घूमता है  निर्वासित हो कहाँ जाता, उसी छाँव में जो पला है कल तक हँसता प्राण, आज हवन सा जला है ||१५||  रात चढ़ी, आँखों में फिर तुम्हारी प्रतीक्षा है  वे छोटे दिन, लंबी रातें, और अधरों की हाला  आज ह्रदय से उतर कहीं खो गयी है मधुबाला  प्रणय अधूरा फंदा बाँधा, यह कैसी नयी परीक्षा है  रात चढ़ी, आँखों में फिर तुम्हारी प्रतीक्षा है ||१६|| मन कट्टर हो जाता, पर काया की है बात निराली फिर लड़ती शत नग्न सत्य से, जो यम सी है काली थका अब मैं, नयी दिशा चलूँगा,तुमने ही बांटी दीक्षा है  रात चढ़ी, आँखों में फिर तुम्हारी प्रतीक्षा है ||१७|| तुमने जो छोड़ा, राह मैं अपनी स्वयं चलूंगा पर जन्मों तक तुम्हारा यह लेश नहीं भूलूंगा धर्म की सांत्वना भी, तुम्हारी झूठी भिक्षा है रात चढ़ी, आँखों में फिर तुम्हारी प्रतीक्षा है ||१८ || कितनी बार लौटा, किवाड़ तो दिनों से बंद है  आसमान नहीं, मैंने तुमसे समय का एक टुकड़ा माँगा अभिसार सींचने, तुम्हारी आंखों में एक स्वप्न टांगा  छल गया वह भी, क्या करूं अनुराग की मति मंद है   कितनी बार लौटा, किवाड़ तो दिनों से बंद है ||१९|| हर सुबह सोचता हूँ, आज स्नेह कुछ नया है जोड़ता हूँ फिर तिनके,जैसे छा गया सावन है   मैं गर्दभ, समझूँ  वैशाख में ही रिम-झिम आनंद है कितनी बार लौटा, किवाड़ तो दिनों से बंद है ||२०|| तुम प्राण मेरी, कहो तो त्याग दूँ यह काया  निष्ठुर न बनो, अब तो दे जाओ थोड़ी माया मैं निर्लज्ज शिला, जिसे अब अवज्ञा ही पसंद है   कितनी बार लौटा, किवाड़ तो दिनों से बंद है ||२१|| तुम्हारी परिक्रमा में मूर्छित,आज मैं विक्षिप्त हुआ  सामने तुम हो पर वह अनुभव अब अदृश्य हुआ  प्यार ढूंढता मैं सवर्णों में ही आज अस्पृश्य हुआ  जीवन के इस मंथन में, मैं विष पीकर ही तृप्त हुआ  तुम्हारी परिक्रमा में मूर्छित,आज मैं विक्षिप्त हुआ ||२२|| दोष मेरा ही है जो तुझमें गगन सा विस्तार देखा  वह बादलों का रेला था, ले उडा अपनी सीमा रेखा  फिर चांदनी भी बिसुरी, मन आंसुओं में ही लिप्त हुआ  तुम्हारी परिक्रमा में मूर्छित,आज मैं विक्षिप्त हुआ ||२३|| रात में प्यार कहता, अब अंधेरे ही दिया जलाओ  आपस की कुछ रही नही, फिर क्यों जग झुठलाओ  दूरियों में ही सुख है, देख तारों को यह ज्ञान प्रदीप्त हुआ  तुम्हारी परिक्रमा में मूर्छित,आज मैं विक्षिप्त हुआ ||२४|| मति पर मिट्टी डाले, मन बावला अपनी ही माने  पत्थर से टकरा कर, उस पर ही सर फोड़े  ऐसे पुरुषार्थ की गरिमा कोई कैसे तोड़े  मदिरा पी, चला  मैं बंद सीपियों में कंचन पाने  मति पर मिट्टी डाले, मन बावला अपनी ही माने ||२५|| ‘नही’ का अर्थ समझ जाऊं तो क्यों ‘हाँ’ की आस करूँ  अंधे कुएँ की दीवार नोचता  क्यों अपना ही उपहास करूँ  रात बरसी अवहेलना, फिर भी छू जाता है उसे अनजाने   मति पर मिट्टी डाले, मन बावला अपनी ही माने ||२६|| प्यार कहीं खोया, मन-मस्तिष्क बवंडर हुआ  सींचा-बोया हाथों से, बसा घर खंडहर हुआ कौन सहलाता प्यार, उसने तो मरने की ठानी  मति पर मिट्टी डाले, मन बावला अपनी ही माने ||२७|| आज परिक्रमा टूटी, प्रणय से मुक्त यह जीवन हुआ वमन हुआ प्यार का, रात बहुत रोयी   अलग हुए कमरे, माया अंधियारे में खोयी   चिता बुझी प्यार की, राख उठा उसका तर्पण किया  आज परिक्रमा टूटी, प्रणय से मुक्त यह जीवन हुआ ||२८|| रात गए, दशकों का प्यार क्षण में  प्रेत बना रंगो भरा इतिहास आँखों में समाया श्वेत-घना   साथ बचा केवल मैं, और दूर रात में बोलता घुघुआ आज परिक्रमा टूटी, प्रणय से मुक्त यह जीवन हुआ ||२९|| यह गणिकाओं की कथा नहीं, नग्न सत्य है मेरा  इतनी भी वितृष्णा कैसी, तुमने मुझसे जो मुंह फेरा नीड़ से उड़े बच्चे, तुम बिछुड़ी, बचा दुःख ही क्षण-क्षण छुआ   आज परिक्रमा टूटी, प्रणय से मुक्त यह जीवन हुआ ||३०||