खुली आँखें खुले डैने : केदारनाथ अग्रवाल

Khuli Aankhein Khule Daine : Kedarnath Agarwal



दाल-भात खाता है कौआ

दाल-भात खाता है कौआ मनुष्य को खाता है हौआ नकटा है नेता धनखौआ न कटा हो मानो कनकौआ रचनाकाल: २१-०१-१९६९

कैद है आदमी का सूरज

कैद है आदमी का सूरज आदमी की कोठरी में, आदमी के साथ। न देश-बोध होता है जहाँ- न काल-बोध, न कर्म-बोध होता है जहाँ- न सृष्टि-बोध। न आदमी रहता है जहाँ आदमी, न सूरज रहता है जहाँ सूरज, हविष्य होते हैं जहाँ दोनों- आदमी और सूरज कपाट बंद कोठरी में। रचनाकाल: १४-१०-१९६९

तुमने गाए-गीत गुँजाए

तुमने गाए- गीत गुँजाए पुरुष हृदय के कामदेव के काव्य-कंठ से उमड़े-घुमड़े; झूमे, बरसे तुम शब्दों में स्वयं समाए, चपला को उर-अंक लगाए, चले छंद की चाल, सोम-रस, पिए-पिलाए, ज्वार तुम्हारे गीतों का ही ज्वार जवानी का बन जाता, नर-नारी को रख निमग्नकर, एक देह कर एक प्राण कर, प्यार-प्यार से दिव्य बनाता। रचनाकाल: १५-०७-१९७३

खेल-खेल में उड़ा

खेल-खेल में उड़ा, पहुँचा- फट गया- आकाश में रंगीन गुब्बारा खुशी का। जिसने उड़ाया आकाश में पहुँचाया वह हुआ फिर गरीब बाप का गरीब बेटा- दुःख दर्द का चहेटा। रचनाकाल: १८-१२-१९७९

दिक्काल का भोक्ता अहं

दिक् काल का भोक्ता अहं जब निजत्व की इकाई होकर, दिक्-काल का निषेध कर, खोखली आत्मवत्ता में स्वयं समाया होता है तब वह नवाचारी होकर- अनाचारी होकर- मानवीय बोध से वंचित और विरत होता है विशाल वटवृक्ष से टूटकर गिरा पत्ता होता है, निरवलम्ब होता है, इधर-से-उधर- दिशा दृष्टिहीन उड़ने-भटकने को मजबूर होता है। रचनाकाल: ०६-०१-१९८०

गाँव की सड़क

गाँव की सड़क शहर को जाती है, शहर छोड़कर जब गाँव वापस आती है तब भी गाँव रहता है वही गाँव, काँव-काँव करते कौओं का गाँव। रचनाकाल: १०-०१-१९८०

उनको महल-मकानी

उनको दाम-दुकानी हमको कौड़ी कानी सच है यही कहानी सबकी जानी-मानी रचनाकाल: ११-०१-१९८० / ११-०६-१९९०

सभी तो लड़ते हैं

सभी तो लड़ते हैं लड़ाइयाँ अस्तित्व की व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति की इससे उससे हमसे तुमसे शब्द और अशब्द से अर्थ और अनर्थ से तुरीय और सुषुप्ति से आदमी होने के लिए अमर्त्य जीने के लिए। रचनाकाल: २७-०१-१९८०

देने को तो सब देते हैं

देने को तो सब देते हैं लेकिन देते-देते भी तो थोड़े से भी थोड़ा देते इस देने को ज्यादा देना कहते पूरी तुष्टि इसी से गहते ये-जो देते- सच से कभी न चेते- सच की नाव न खेते, हेर-फेर कर दाँव-पेंच से जीते। रचनाकाल: १०-१२-१९८१

मौत को साधे शब्द

मौत को साधे शब्द अंतरंग से बाहर यथार्थ की दुनिया में आए, अकुलाए सर्वत्र टकराए। भोगते-भोगते देश-काल की विसंगतियाँ; न सच तक पहुँच पाए, न असत्य को उखाड़ पाए; न वर पाए वरेण्य मानवीय बोध; न कर पाए अपना या दूसरों का शोध- दहन-दाह के प्रतिकूल- आत्म-प्रसार के अनुकूल; बस, झाँकते शब्द झाँकते रहे- बुदबुदाते शब्द बुदबुदाते रहे- काल से कवलित होते-होते दृश्य से अदृश्य में विगलित होते शब्द होते रहे अशब्द। रचनाकाल: ०३-११-१९८३ / २०-१२-१९९०

वह न रहा मेरे पास

वह न रहा मेरे पास जिसे होना चाहिए मेरे पास वह न रहा आपके पास जिसे होना चाहिए आपके पास वह न रहा समाज के पास जिसे होना चाहिए समाज के पास बात ही ऐसी हुई कि मैं-आप और समाज ज्ञान गुन-गौरव से, गरिमा से वंचित होते-होते, अनिवार्यताओं से विमुख होते चले गए- अनावश्यकताओं से चुम्बकित होते चले गए, समता के स्थान पर विषमता के फेर में पड़े-पड़े चरित्र की चाल में हम सब तीनों- डगर-डगर डगमगाते चलते चले गए, न्याय के नाम पर अन्याय की उपलब्धियाँ उपार्जित करते चले गए, भरण-पोषण के लिए तुच्छातितुच्छ अपहरण की अवतारणा करते चले गए, गुनाह के प्रवाह में प्रवाहित होते-होते गुमराह होते-होते चले गए अस्तित्व में अनस्तित्व का अभियान ही अभियान आयोजित करते चले गए। रचनाकाल: ३०-०५-१९८६

बाँस की बंशी बजाती

बाँस की बंशी बजाती गेहुँओं के गीत गाती- मोदमाती यह मही है, प्यार जो करती सभी को। रचनाकाल: ०८-१०-१९८६

कविता जो न सार्थक हो

कविता जो न सार्थक हो- न सटीक हो- न बोधक हो- न बेधक हो मैं नहीं लिखता ऐसी कविता जो न आदमी के पहिचान की हो न सत्यालोकित संज्ञान की हो। रचनाकाल: ०९-०३-१९८०

देता भी तो क्या देता मैं तुमको

देता भी तो क्या देता मैं तुमको प्यार-प्यार ही तो मैं देता तुमको वही दिया है- मैंने तुमको, वरण किया है आत्म-समर्पित होकर मैंने सही किया है बाहु-पाश में तुम्हें बाँधकर जीने का सुख लूट लिया है रचनाकाल: ३०-०५-१९८६

गिरे तो गिरते गए

गिरे तो गिरते गए गिरते-गिरते आचार से विचार से गिरते गए न हुए अपने न और के, वनमानुष हुए कुठौर के। रचनाकाल: ०९-०२-१९८०

न घटा जो यहाँ कभी पहले

न घटा जो यहाँ कभी पहले अब तो घटा- नवाचार के नाम पर, आदमी से आदमी कटा, लोकतंत्र का चोला फटा। रचनाकाल: १०-०१-१९८०

चित्त होते हारते चले जाते हैं

चित्त होते हारते चले जाते हैं- एक-से-एक पुरन्दर पहलवान, अपने ही अखाड़े में अपने नौसिखियों से, अपने दाँव-पेंच से पछाड़े गए। रचनाकाल: ०९-०२-१९९०

किताब में लिखे तुम

किताब में लिखे तुम, बड़े अच्छे लगते हो कविवर! किताब से बाहर, पेट में पलस्टर लगाए, अस्पताल में दाखिल बीमार दिखते हो तुम, कविवर! अस्पताल से बाहर, अस्तित्व को पाने के लिए, सम्प्रेषण कर पाने के लिए, जी-जान से कुलकते बड़े जीवंत दिखते हो तुम कविवर! रचनाकाल: १९-०९-१९९०

अब

अब, सच के पास से भी पास पहुँच तो गए आप, पर हट गए आप कट गए, आप। अब, झूठ के पास से भी पास पहुँच गए आप, और प्रिय हो गए आप, झूठ के वफादार हो गए आप, अब, झूठ का डंका बजाते हैं आप ढम-ढमाढम, झूठ का झंडा उड़ाते हैं सन सनासन। रचनाकाल: २३-०२-१९९०

गए तुम भी

गए तुम भी, गए जैसे और- सृजन के सिरमौर। शाम सोए, रहे सोए; नहीं देखी भोर। रचनाकाल: २३-०२-१९९०

उड़ी, आई

उड़ी आई, प्यार का अवलम्ब देकर- चहचहाई। गई, ऊपर मुझे तजकर; हुई ओझल, पुनः वापस नहीं आई- प्यार का अवलम्ब लेकर। मैं, बिना उसके उसे अब भी जिलाए, प्यार का अवलम्ब पाए, जी रहा हूँ जिंदगी को जगमगाए। रचनाकाल: ०४-०३-१९९०

देह-दण्ड

देह-दंड मैं भोग रहा हूँ, फिर भी, अपने पुष्ट प्राण से, स्वागत करता हूँ- कहता हूँ; आएँ, बैठें, मुझे सुनाएँ- नई-नई अपनी रचनाएँ, मुझे रिझाएँ, देह-दंड की व्यथा मिटाएँ। रचनाकाल: ०१-०४-१९९०

अब पहरुए

अब पहरुए आदमी की चाँदमारी करते हैं, सत्ता का कुंड आदमियों के रक्त से भरते हैं। रचनाकाल: ०२-०९-१९९०

जब जो मैंने कहा

जब जो मैंने कहा न बनकर कहा न बिककर कहा; तह में पहुँचकर, बहाव में बहते-बहते देर तक बहा, तब खोजकर जो गहा, शब्दार्थ में गूँथकर, रचनाओं के रूप में कहा- चेतन सृष्टि का कर्त्ता हुआ अमानवीय बोध का हर्त्ता हुआ। व्यक्तित्व जो मैंने गढ़ा, जीने की लड़ाई में गढ़ा, आगे ही आगे बढ़कर गढ़ा, सच के साथ जुड़कर गढ़ा; न भीरु हुआ मैं न भयाक्रांत हुआ मैं; द्वन्द्व में निर्द्वन्द्व जिया मैं, प्राणों से पुष्ट हुआ मैं। रचनाकाल: ०४-१०-१९९०

निरंतर बना रहेगा

निरंतर बना रहेगा जीवंत और विकासमान ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद। नासमझ हैं वे जो समझते हैं इसे मरा हुआ कुटिल काल से कवलित हुआ। यही है, यही है महान मानवीय मूल्यों का परम वैज्ञानिक बोध का बोधक चिरंतन और चिरायु चेतना से सृष्टि का शोधक। शेष जो वाद-ही-वाद हैं- जैसे आत्मवाद परमात्मवाद, अध्यात्मवाद, और भी कई-कई वाद- निरर्थक हो चुके हैं सब महान मानवीय मूल्यों के लिए, सभ्य और सांस्कृतिक विकास के लिए विश्वबंधुत्व के लिए। रचनाकाल: ०४-१०-१९९०

सुबह से शाम तक

सुबह से शाम तक पानी की प्रलम्ब प्रवाहित देह प्रकाश-ही-प्रकाश पीती है न रात में सोती- न रोती है, उच्छल तरंगित होती है; न सूखी, न रीती, जीवंत जीती है। केन है केन! प्रवाहित प्यार की- मेरी नदी केन, मेरे आत्म-प्रसार की मेरी नदी केन! रचनाकाल: २२-१२-१९९०

घना कोहरा

घना कोहरा, छिपा सूरज, गगन ओझल, धरा धूमिल, खड़े खोए पेड़-पौधे, हवा गुमसुम किंतु अब भी, शब्द-शाला में प्रदीपित अर्थमाला सोहती है- मोहती है- छंद से छल-छंद छाया मोचती है, काव्य की अभिव्यक्तियों से भेद भव का खोलती है। रचनाकाल: २१-१२-१९९०

लेनिन

लेनिन एक व्यक्ति था पहले, नामों में एक नाम था पहले, सबकी जबान पर चढ़ा। लेनिन अब हो चुका है अवनी और आकाश- पवन-पानी और प्रकाश। लेनिन नहीं है-नहीं है पत्थर की एक मूर्त्ति, तोड़ दे जिसे कोई लेनिन नहीं है-नहीं है रेखांकित एक चित्र, फाड़ दे जिसे कोई। लेनिन सूर्य है सूर्य सत्य की रश्मियों का सूर्य, असत्य को भेद रहा सूर्य! रचनाकाल: २१-०१-१९९१

मरना होगा

मरना होगा इस होने को तो होना है लेकिन तब तक इस जीने को तो जीना है जीते-जीते हर संकट से डटकर क्षण-क्षण तो लड़ना है लड़ते-लड़ते आगे-आगे बढ़ते-बढ़ते ही बढ़ना है अनगढ़ दुनिया को हाथों से सोच-समझकर ही गढ़ना है। रचनाकाल: ०१-०२-१९९१

पात पुरातन लेकर

पात पुरातन लेकर पतझर चला गया प्रिय बसंत अब आया दंड-देहधारी विटपों का दल किसलय से हरसाया। फूला, महका, लोक-तंत्र को भाया। कविता-कोकिल ने छंदों में गाया। रचनाकाल: ०३-०२-१९९१

जाते-जाते भी

जाते-जाते भी जीने का अंत न होगा बना रहेगा मेरा जीना जीवन से जीवंत प्रतिभा का पौरुष का पुंज काव्य-कला का कूजित कुंज रचनाकाल: ०१-०३-१९९१

फूलों ने होली

फूलों ने होली फूलों से खेली लाल गुलाबी पीत-परागी रंगों की रँगरेली पेली काम्य कपोली कुंज किलोली अंगों की अठखेली ठेली मत्त मतंगी मोद मृदंगी प्राकृत कंठ कुलेली रेली रचनाकाल: ०४-०३-१९९१

चन्द्र चमत्कृत

चन्द्र चमत्कृत दर्पण-देही चैत चाँदनी फगुआई है फूली है पाकर मोद-मही का अंक अशंक। रूप-रूप से परिप्लावित है, परिपूरित है प्रकृति प्रदेशी वेश। पेड़ खड़े हैं पवन प्रमोदित मुग्ध निरखते वाद्य-यंत्र से बजते। आकाशी अनुराग अनंगी व्याप गया, चहुँ ओर-अछोर मैं हूँ आत्म-विभोर। रचनाकाल: १३-०३-१९९१

अच्छा लगता है

अच्छा लगता है जब कोई बच्चा खिल-खिल हँसता है। वैभव का विष तुरत उतरता है। जीने में सचमुच जीने का सुख मिलता है। रचनाकाल: १७-०३-१९९१

मैं जिलाए और जगाए ही रहूँगा

मैं जिलाए औ’ जगाए ही रहूँगा देह का दुर्लभ दिया। चेतना से ज्योति की जीवंतता से तम यही तो हर रहा है- आंतरिक आलोक से भव भर रहा है सत्यदर्शी कर रहा है। रचनाकाल: १८-०३-१९९१

देखा, पास पहुँचकर देखा

देखा, पास पहुँचकर देखा ‘हेमहार’ तरु अमलतास को। मुझको आए याद ‘निराला’! काव्य-कृती को मैंने झुककर नमन किया, फिर से उनके साथ जिया। पत्र-पुष्प के उनके अक्षर गीत सुने, गुन-कौरव के गुरुतर अर्थ गुने। अतिशय हर्ष-हिलोर हुआ, भास्वर भाव- विभोर हुआ! रचनाकाल: २३-०३-१९९१

मेरी कलम चोंच से लिखती

मेरी कलम चोंच से लिखती चहचह करते शिल्पित शब्द। पंक्तिबद्ध हो जो उड़ते हैं, लीला लोल ललित करते हैं, मुक्त गगन में अर्थालोकित पंख पसार, बनकर जीवन की जयमाल! रचनाकाल: २८-०३-१९९१

नींद आई भी न आई

नींद आई भी न आई, और मैं सोता हुआ जगता रहा, ओस बूँदों में झलकते सूर्य को लखता रहा। रचनाकाल: १३-०८-१९९०

जी आया

जी आया अपने जीवन के अस्सी साल अब आ पहुँचा इक्यासी में। प्राण पुष्ट मैं इसे जिऊँगा, तम को ताने तना रहूँगा, नहीं झुकूँगा नहीं झुकूँगा। नए साल में नया लिखूँगा, नए लिखे में नया दिखूँगा, सत्य समर्पित सधा रहूँगा, शब्द अर्थ का श्रमिक बनूँगा। रचनाकाल: २३-०३-१९९१

जो रुचिर रुचि से रची हो

जो रुचिर रुचि से रची हो, शब्द शासित हो, प्रवाहत सरित-स्वर हो, चेतना के चारु चिंतन से लसित हो, सृष्टि हो कवि के हृदय की अर्थ की अभिव्यक्ति हो, जीवन जिए, औ’ लोक लय में झूमती हो। खिले, फूले, ज्योति की जयमाल जो हो वही कविता है सुभाषित, वह नहीं जो भ्रांतियों से हो प्रपंचित। रचनाकाल: ३०-०३-१९९१

सब कुछ देखा

सब कुछ देखा, फिर-फिर देखा, जो देखा वह देखा देखा। देखे में कुछ नया न देखा, हेर-फेर का प्रचलन देखा, दूषण देखा, शोषण का अपलेपन देखा। अपलेपन का पीड़न देखा, झोंपड़ियों को रोते देखा, अठमहलों को हँसते देखा, जाली मालामाली देखी, कंगाली बदहाली देखी, दुनियादारी डसती देखी धरती नीचे धँसती देखी। रचनाकाल: ३१-०१-१९९१

निशा-निशाकर का

निशा- निशाकर का आमोदित अंक मिला। दिवा- दिवाकर का अनुरागी कंजखिला। दुपहर देवी का, आँगन में नृत्य हुआ; सांध्य सुंदरी का दीपोत्सव दिव्य हुआ। निशा दिवा, दुपहर, संध्या को मैंने सतत जिया, सत्य-समर्पित कविताओं का सार्थक सृजन किया। रचनाकाल: ०१-०४-१९९१

भरते-भरते

भरते-भरते जितना-जितना भरता जाता उतना-उतना मन गहरे से ज्यादा गहरा होता जाता मानव का मन पूरा-पूरा कभी न भरता कुछ-कुछ खाली-खाली दिखता चाहे इसमें सिंधु समायें चाहे, शोभा सुषमा सारी संस्कृतियाँ इसकी हो जाएँ, ललित लोक पर लोक बसाएँ- इसके भीतर अपनी दुनिया। मानव का मन हरदम हरदम भरा-भरा भी भरा न लगता मथा-मथा भी मथा न लगता, शंख सरीखा बजने लगता; नादनिनादित शब्द निकलते कविताओं के साथ थिरकते। मानव का मन प्रगतिशील है गत से आगत आगत से आगम को जाता आगम को भी गत-आगत कर- आगे का आगम हो जाता, कभी न पिछड़ा- कभी न छिछला होता व्यापक से व्यापक हो जाता। रचनाकाल: ०४-०४-१९९१

जन के पथ की

जन के पथ की खबर खरी हो, साँची हो, बानी-बोली प्राणवंत हो, बाँकी हो, मानववादी सोच-समझ की साखी हो, लोकतंत्र की सत्यालोकित आँखी हो। रचनाकाल: ०४-०४-१९९१

चारु चरित्री

चारु चरित्री, चित्रित भाषा, मानवबोधी व्यंजक हो- संज्ञानी प्रतिबिंबन वाली अनुरागी, अनुरंजक हो, वस्तुपरक विवरण-बोधी भी कुंठित काय कठोर न हो, परिमल पूरित आत्मपरक हो, झंझा और झकोर न हो। रचनाकाल: ०६-०४-१९९१

न जवान

न जवान- न बूढ़ा- न जीवित- न मरा- पहचान खोया आदमी, खाक हो चुका खाक छानते-छानते! रचनाकाल: २०-०६-१९९१

साक्षी है

साक्षी है फटी कमीज कि वह भी फटा है फटेहाल है जो उसे पहने है गले से लटकाए सीने से चिपकाए! रचनाकाल: ०२-०८-१९९१

अजीब आदमी हो जी!

अजीब आदमी हो जी! फजीहत फजीहत कहते हो फजीहत फाड़कर मैदान में नहीं उतरते हो मायूस बैठे मातम मनाते हो। कुछ तो करो जी, खाल की ही खजड़ी बजाओ, उछलो कूदो नाचो गाओ माहौल तो जिंदगी जीने का बनाओ हँसो और हँसाओ। रचनाकाल: ०६-०४-१९९१

जो न होना था, हुआ

जो न होना था, हुआ; हुआ जो यह हुआ- अनजाना हुआ। अब जो आए, नए आए, अलौकिक का नया संस्करण लाए, मंत्र मारते, झूमते-झामते- इतराए। लौकिक ऊँट की नाक अलौकिक की नकेल से नाथने आए; ऊँट को चोटी पर चढ़ाने आए, न पाई उँचाई को पाने आए, न लौकिक ऊँट को नाथ पाए- न चोटी पर चढ़ा पाए- न चढ़ पाए- न निदान समझ पाए- विह्वल बिलबिलाए। रचनाकाल: ०३-०८-१९९१

प्यार-पलाश

प्यार-पलाश खिला फूला है वन में, नहीं ईंट-पत्थर के भव्य भवन में- नहीं नवोढ़ा के कामातुर तन में- नहीं प्रपंचक पूजक जन के मन में। रूप-रंग अनुराग मिला है वन को, हर्षित मुनिवर पेड़ हुए, मुसकाए; पवन प्रमोदित हुआ, प्रवाहित झूमा, पंख पसारे गाते पक्षी प्यारे। रचनाकाल: ०१-०८-१९९१

यह जो मेरा अंतःकरण है

यह जो मेरा अंतःकरण है मेरे शरीर के भीतर मैंने इसे युग और यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में द्वन्द्व और संघर्ष को झेल-झेलकर सोच-समझ से मानवीय मूल्यों का साधक और सृजन-धर्मी बनाया तब अपनाया। यही तो है मेरे चिंतन का- मानवीय बोध का परिपुष्टि केंद्र। इसी केंद्र से प्राप्त होती है मुझे अडिग अखंडित आस्था- चारित्रिक दृढ़ता। इसी परिपुष्ट केंद्र से निकली चली आती हैं मेरे आत्म-प्रसार की कविताएँ दूसरों का आत्म-प्रसार बनने वाली कविताएँ जो नहीं होतीं कुंठा-ग्रस्त जो नहीं होतीं पथ-भ्रष्ट जो नहीं होतीं धर्मान्ध जो नहीं होतीं साम्प्रदायिक जो नहीं होतीं काल्पनिक उड़ान की कृतियाँ जो नहीं होतीं भ्रम और भ्रांतियों का शिकार जो नहीं होतीं खोखले शिल्प की खोखली अभिव्यक्तियाँ जो नहीं होतीं मानवीय जीवन की, मुरदार अस्थियाँ जो नहीं होतीं तात्कालिक जैविक संस्पर्शशील, जो नहीं होतीं राजनैतिक हठधर्मिता की संवाहक जो नहीं होतीं अवैज्ञानिक या अलौकिक बोध की प्रतिविच्छियाँ। मैंने इसी परिपुष्ट और परिष्कृत केंद्र का जीवन जिया है न मैंने अंतःकरण को दगा दिया न अंतःकरण ने मुझे दिया न मैं हतप्रभ हुआ- न मेरा अंतःकरण, प्रारम्भ से ही संवेदनशील होता चला आया है मेरा अंतःकरण तभी तो मैं भी इसी के साथ-साथ संवेदनशील होता चला आया हूँ तभी तो मेरी कविताएँ भी वही संवेदनशीलता संप्रेषित करती चली आती हैं तभी तो चेतना और चिरायु होकर जीती-जागती रहती हैं, मेरी कविताएँ। रचनाकाल: १२-०४-१९९१

न पत्थर चूमता है पत्थर को

न पत्थर चूमता है पत्थर को न पत्थर बाँधता है बाँहों में पत्थर को न पत्थर करता है मर्दन पत्थर का न पत्थर देखता है पत्थर को न पत्थर उत्तेजित होता है पत्थर को देखकर न पत्थर मुग्ध होता है पत्थर को देखकर न पत्थर देता है निमंत्रण पत्थर को न पत्थर उठाता है भुजाएँ न पत्थर तोड़ता है पत्थर की जंघाएँ न पत्थर कुसुमित लता है उरोज में न पत्थर काँपता-पसीजता है न पत्थर बहता है धार-धार न पत्थर होता है पवित्र न पत्थर करता है पवित्र न पत्थर केलि करता है पत्थर से पत्थर नहीं रहता पत्थर खजुराहो में। पत्थर हो गया परिवर्तित खजुराहो में वहाँ की सुघड़ मूर्तियों में सप्राण हो गया निष्प्राण से आत्माभिव्यक्तियों में कला की कालजयी कृतियों में चिरायु चेतना की उपलब्धियों में सदेह हो गया पत्थर जीवंत जीने लगा इंद्रियातुर जीवन नर और नारियों का तभी तो वहाँ-खजुराहो में वही मिलते हैं प्रतिष्ठित एक-दूसरे को निहारते तन-मन वारते एक दूसरे को आलिंगन में आबद्ध किए एक दूसरे को चूमते प्रेमासक्त, विभोर, केलि-कला में लिप्त और लीन न कहो-न कहो इन्हें- इन सप्राण कलाकृतियों को- पत्थर-पत्थर-पत्थर रचनाकाल: ०४-०७-१९९१

नेतृत्व का नायक

नेतृत्व का नायक कभी यहाँ, कभी वहाँ भटकता है, अपना सिर बुरी तरह पटकता है, झाड़ियों के मुँह में अटकता है, सत्य की आँख में खटकता है। रचनाकाल: ०१-०८-१९९१

तुम

तुम पूनम के चंद्रोदय हो मैंने तुम पर तन-मन वारा जब आँखों ने तुम्हें निहारा रचनाकाल: २१-०८-१९९१

बादल पंख बने

बादल पंख बने पर्वत के, फड़-फड़ फड़के, घने हुए घहराए, लेकिन उसको उठा न पाए, उड़ा न पाए, लेकर भाग न पाए, झरे- झार-बौछार मारकर, पानी होकर- बरसे पानी, उसके चारों ओर, देह पाहनी शीतलकाय हुई; यह दिन मुझको याद रहेगा वर्षा मंगल का। रचनाकाल: २८-०८-१९९१

ऊपर गर्जन-तर्जन करते

ऊपर गर्जन-तर्जन करते, मेघ मंडलाकार घहरते, क्षण-क्षण कोप कटाक्ष तड़ित से, भयाक्रांत अम्बर को करते। नीचे, नदिया केन किशोरी, माँ धरती के आँगन में- प्रवहमान है धीर नीर से भरी-भरी, पुलकित लहरों से सँवरी छल-छलना वाले मेघों से नहीं डरी। रचनाकाल: २९-०८-१९९१

चला भी न चला वह

चला भी न चला वह समय के साथ, जहाँ सब चलते हैं जमीन में जीने के लिए, गंध और गमक से गमगमाते शब्द और अर्थ से खिलखिलाते। न हुई सुबह उसकी सुबह; न हुआ दिन उसका दिन, न हुई शाम उसकी शाम, न हुई रात उसकी रात। न चुका भी चुका है वह दूसरों के लिए, अपने लिए नहीं। रचनाकाल: ३०-०८-१९७५ / ३०-०८-१९९१

प्रकाशित खड़ा है

प्रकाशित खड़ा है पारदर्शी दिन तेजस्वी सूर्य का सिर ऊपर उठाए चराचर सृष्टि को चिन्मय बनाए मुझे आत्मीय भाव से अपनाए। रचनाकाल: १६-०९-१९९१

सब हैं व्यस्त

सब हैं व्यस्त संकट-ग्रस्त सब तरह से पीड़ित त्रस्त फुरसत किसे है अब कहाँ पास आए बैठे यहाँ कहे अपनी, सुने मेरी खुश हो और खुश बनाए। रचनाकाल: १७-०९-१९९१

अंबर का छाया मेघालय

अंबर का छाया मेघालय तड़-तड़-तड़-तड़ तड़का टूटा, रोर-रोर ही फूटा, फैला चपला चौंकी- फिर-फिर चौंकी, बाहर आकर चम-चम चमकी, गदगद-गदगद गिरा दौंगरा, पानी-पानी हुआ धरातल, कल-कल छल-छल लहरा आँचल। रचनाकाल: १९-०९-१९९१

सूरदास ने कभी कहा था

सूरदास ने कभी कहा था नारी को शृंगार भाव से, ‘अद्भुत एक अनूपम बाग’। युग बदला, अब नारी बदली, नहीं रही वह बाग पुरातन। अब नारी है नर के साथ। करनी करते उसके हाथ। रचनाकाल: २१-०९-१९९१

दिन का दर्पण

दिन का दर्पण नित्य दिखाता दिनकर, संप्रेषित करता दर्पण से, अवनी तल का व्यापक अंक, जहाँ- अतुल अनुमोदन होता, अविनश्वर अनुरंजक। मैं अनुरंजक आमोदन का आसव पीता हूँ जग में जीवन अविकल जीता हूँ। रचनाकाल: ०२-०९-१९९१

मैदान में

मैदान में अकुंठित खड़ा नीम का निर्भ्रांत गोलवा पेड़ वनस्पतीय बोध से चहचहाता है पत्तियाँ लहराता है झूम-झूम जाने को गाने को बुलाता है जीने की लालसा जगाता और बलि बलि जाता है। रचनाकाल: २२-०९-१९९१

सुबह!

सुबह! न निकले सूर्य की केवल, उत्तर के केसरिया रंग की- आ बैठी मेरी आँखों में और मुझे अपनाए है। मैं उसका हूँ, वो मेरी है, दिशा-दिशा में, रोम-रोम में, पुलक व्याप्त है। अब, ज्यों ही सूरज निकलेगा मैं स्वागत तत्काल करूँगा लोकालोकित लय में दिन भर सृजन करूँगा, रवि-रंजित जीवंत जिऊँगा। रचनाकाल: १७-१०-१९९१

धूप धूपाया

धूप धूपाया यह दिन भाया, जैसे हो मेरी ही काया- कविताओं ने जिसे बनाया, जिसको लय से गाया! शाम हुए भी मेरी शाम न होगी! मेरी काया कभी अनाम न होगी! रचनाकाल: १७-१०-१९९१

धरती घूमी

धरती घूमी, छिपा ओट में सूरज! सूर्यमुखी अब सूर्य-विमुख हो गई धरा। रात हुई, मैं लेटा, बंद अकेले कमरे में बल्ब बुझाकर सोया, आई नींद। मैंने, सपने की दुनिया में, सूर्यमुखी दिन फिर से देखा! चकित, चमत्कृत किया चेतना ने फिर मुझको सम्मुख देखा; वह पहाड़ भी सिंह-पुरुष की तरह खड़ा है, मंदिर के भीतर का घंटा गरज रहा है! पेड़ हरे हँसते लहराते स्वाभिमान से खड़े हुए हैं, प्राकृत छवि का काव्य-पाठ-सा करते। भावावेशित पवन प्रहर्षित प्रवहमान है! शब्द-शब्द के प्रेम-पखेरू, स्वर-ध्वनियों के पंख पसारे, उड़ते-उड़ते चहक रहे हैं दूर, नदी के तट पर पहुँचे जल-प्रवाह में तैर रहे हैं! माटी के आमोद अंक का यह उत्सव है, जीवन के वंदन का उत्सव! इस जीवन-वंदन उत्सव से मुदित हुआ मैं! सब कुछ प्रिय है- मनमोहक है, किंचित् कहीं कचोट नहीं है! यही सृष्टि है शुभ सुषमा की- मानवबोधी मानवधर्मी- परम प्रेरणा-दायक, अच्छी! मैं, बूढ़ा भी, रहा न बूढ़ा, आयुष्मान कुलकता हूँ, ऐसे दुर्लभ दिन के साथ, आगे भी, ऐसे ही दुर्लभ दिन जीने को! रचनाकाल: १९-१०-१९९१

हाथ से बेहाथ होकर

हाथ से बेहाथ होकर गिरा, टूटा, फर्श पर दम तोड़ बैठा, काँच का मेरा गिलास! भूख का भाषण हुआ अब दूध का व्याकुल विलाप। पेट खाली रहा खाली, और, मैं भी चुप रहा, इस त्रासदी को सह गया, बेहाल होकर रह गया। रचनाकाल: २०-१०-१९९१

मालवा में गीत मेरे गूँज जाएँ

मालवा में गीत मेरे गूँज जाएँ, मैं यहाँ पर गीत गाऊँ, वह वहाँ पर घनघनाएँ, मालवा में आग का डंका बजाएँ। मालवा में गीत मेरे गूँज जाएँ, मैं यहाँ से नाग छोडूँ, वह वहाँ पर फनफनाएँ, मालवा में क्रांति का भूचाल लाएँ। मालवा में गीत मेरे गूँज जाएँ, मैं यहाँ से तीर मारूँ, वह वहाँ पर सनसनाएँ, मालवा में रक्त की ज्वाला जलाएँ। मालवा में गीत मेरे गूँज जाएँ, मैं यहाँ पर बीज बोऊँ, वह वहाँ पर जन्म पाएँ, मालवा की गोद में फल-फूल लाएँ। रचनाकाल: २९-०९-१९५०

मेरा फूल नहीं खिलता है

मेरा फूल नहीं खिलता है, सूने और अकेलेपन में, सूनेपन के जर्जर वन में, बंध्या धरती के आँगन में। मेरा फूल सदा खिलता है, ऊँचे चौड़े वक्षस्थल पर, कर्मठ हाथों के करतल पर, युग के बजते पल प्रतिपल पर। रचनाकाल: ३०-०७-१९५३

कल, दुर्गा की

कल, दुर्गा की भुवन-मोहिनी दिव्य मूर्तियाँ जल-समाधि ले चली गईं संसार से शक्ति-शौर्य-साहस-संगोपन हुआ समर्पित काल को। नगर पुनः अब नगर हो गया पहले जैसा अपनी चाल चला फिर पैसा दाँव-पेंच अधिकाई चक्कर-मक्कर की बन आई। रचनाकाल: १८-१०-१९९१

मेरे ही प्रतिरूप पेड़ पर

मेरे ही प्रतिरूप पेड़ पर उड़कर आई, बैठी, चंचल दृग नेहातुर चिड़िया- बया नाम की- सस्वर बोली अपने मुँह से मेरी कविता मुग्ध पत्तियाँ झूमीं, धूप धवल मुसकाई, प्रकृति मनोरम मुझको भाई। रचनाकाल: ०२-११-१९९१

आदमी का जाया

आदमी का जाया उपजाया भी, न हुआ अब तक वह आदमी, धरा-धाम का- गौरव-गुन-ग्राम का- कौड़ी का-छदाम का- काम और नाम का। रचनाकाल: २५/२६-१२-१९९१, बाँदा

मनहर जैविक

मनहर, जैविक जीवन-धारी रंग-बिरंगे पंखों वाला यह कठफोड़वा, प्रकृति-प्रिया की शिल्प-सँवारी अनुपम कृति का छंद है जो आता है, मुझको देकर शिल्प सँवारा छंद, उड़ जाता है, मन से कभी न उड़ पाता है, भाषा भाषी बन जाता है। रचनाकाल: २९-१२-१९९१

बिजली बनी

बिजली बनी काँच की चूड़ी, चम-चम चमकी चढ़ी कलाई- खन-खन खनकी, काम-कुंड में डूबी। यही पहेली अनबूझी थी- मैंने बूझी- मुझको अच्छी सूझी रचनाकाल: ३१-१२-१९९१

बकझक-बकझक

बकझक बकझक नहीं करो, उल्टे पाँव नहीं डगरो; सच की साँस चलो गाँस-फाँस से बच निकलो; अपने प्राण पलो फूलो और फलो। रचनाकाल: ३१-१२-१९९१

उड़कर आए

उड़कर आए नीलकंठ जी मेरे घर में दर्शन देकर मुझे रिझाने मेरे दुख-संताप मिटाने। मैंने देखा किंतु न रीझा। मैंने पूछा- बनते हो शिव-शंभू! कहाँ गया वह जटाजूट? कहाँ गई सिर की गंगा? कहाँ गया वह चंद्र दुइज का? कहाँ गई मुंडों की माला? कहाँ ब्याल की माल गई? कहाँ गया डमरू? त्रिशूल अब कहाँ गया? नंदी कहाँ? कहाँ अर्द्धांगी? आ धमके, विषपायी जैसा स्वाँग दिखाने। हटो, हटो, मैं नहीं चाहता तुम्हें देखना, तुम्हें देखकर भ्रम में रहना। तुम क्या संकट काट सकोगे? शक्तिहीन केवल चिड़िया हो। विष पीते तो मर ही जाते, उड़कर यहाँ न आ पाते। तुम वरदान भला क्या दोगे? खुद फिरते हो मारे मारे। शापित हो तुम, चक्कर-मक्कर काट रहे हो, तुम क्या दोगे त्राण किसी को? भ्रम को पाले पूज्य बने हो, पूज्य बने तुम, झूठे मन से हर्षित हो लो, मुझे न हर्षित कर पाओगे। जाओ, दाना चुगो, पेट की भूख मिटाओ शंकर के प्रतिरूप न बनकर भ्रम फैलाओ, नहीं ठगो, अब उड़कर जाओ झाड़ी-जंगल में छिप जाओ, झूठ प्रतिष्ठा नहीं कमाओ। रचनाकाल: ३०-१२-१९९१

हवा ठंडी

हवा ठंडी- बहुत ठंडी मारती है चपत मुझको बार-बार। धूप मेरी पीठ करती ताप तापित बार-बार। द्वन्द्व यह निर्द्वन्द्व होकर झेलता हूँ मार खाता पीठ अपनी सेंकता हूँ- रचनाकाल: ११-१-१९९२

शशक

शशक तुम- प्राकृत जैविक तनधारी हरी घास पर बैठे मुझको दिखते प्रिय लगते हो श्वेत कपासी परम अभाषिक मौन समान, भाषिक होकर जो बन जाता मेरी कविता की प्रतिमूर्ति, जिससे होती सम्मोहन की पूर्ति रचनाकाल: १४-१-१९९२

जन्म-मरण का होना

जन्म-मरण का ‘होना’ और ‘न होना’ यही प्रकृति का अटल नियम है। देश काल भी इसी नियम के अंतर्गत है। गत से आगत- आगत से आगम होता है; यही-यही क्रम फिर-फिर चलता; आगम से आगे का आगम इसी तरह से होता और न होता कभी न इससे बचता। नित-नित नूतन विकसित होता, यह विकास भी विगलित होता, विगलित होकर रूप बदलकर प्रचलित होता। परिवर्तन से परिवर्तन- फिर-फिर परिवर्तन होता, प्रत्यावर्तन कभी न होता। कभी न होगा ‘शून्य’ ‘शून्य’ ही सदा-सर्वदा भरा रहेगा सृष्टि-सृष्टि से। किंतु चेतना के अर्जन से ‘होने’ और ‘न होने’ पर भी अमिट प्रभाव पड़ा है; प्रकृति चेतना से अनुकूलित होते-होते मानवबोधी चेतन सृष्टि हुई है यह लौकिक मानव की प्रियतम सिद्ध हुई है परम अलौकिकता से उसको मुक्ति मिली है। द्वन्द्व और संघर्ष निरंतर चला करेगा लौकिक मानव लौकिक जीवन जिया करेगा। मुक्ति और निर्वाण नहीं है। नाश और निर्माण है प्राण और निष्प्राण है। चेतन रहकर जीने में कल्याण है, एकमात्र बस यही सत्य-संज्ञान है। रचनाकाल: १८-१-१९९२

धवल, यशस्वी

धवल, यशस्वी, कांतिकाय तुम, शरद-पूर्णिमा के आत्मज से, पुलक-प्यार के पंख पसार, उड़ आए मेरे आँगन में बहुत दिनों के बाद! अरे कबूतर! मुग्ध हुआ मैं तुम्हें देखकर, भूल गया अब सब कुछ अपना। एक हुआ मैं तुमसे, तुम मेरे- मैं हुआ तुम्हारा! करो करो जी, खूब गुटरगूँ, मैं भी करूँ गुटरगूँ बिना दाँत के मुँह से। यही गुटरगूँ प्राणवंत अनुरक्ति है अर्थवंत अभिव्यक्ति है। रचनाकाल: २४-०१-१९९२

यह-दैहिक

यह- दैहिक, दोलन-उत्तोलन महिलाओं का लोक-मंच पर;- आदिम, जैविक, इंद्रियबोधी यह उत्सर्जन;- विषयातुर अंगों की थिरकन, लगातार पदचाई चंचल गमनागमनी;- घूम-घुमौवल, झूम-झुमौवल, आवेशी उद्रेकी नर्तन, मुझे न भाया- मैंने इसमें युग यथार्थ का द्वन्द्व और संघर्ष न पाया। मैंने इसमें कर्मशील कर्तव्य-परायण लोक-मंगलाचार न पाया। मैंने इसमें जो भी पाया वह तो केवल महिलाओं के हाड़-मांस का अर्पण और समर्पण पाया, नहीं आत्म आमोदन पाया, नहीं चेतना का संप्रेषण पाया। रचनाकाल: २४-०१-१९९२

सागर तट पर

देह मिली हो पानी-ही-पानी की तुमको! इसी देह से तरुण तरंगित घोड़ों को तुम बे लगाम दौड़ाते हो, और, चौकड़ी भरते हिरनों की रंगरेली दिखलाते हो, नीलकाय तुम श्वेतकाय हो फेन-फेन बन जाते हो किंतु चेतना नहीं प्राप्त कर पाते हो आदिकाल से अब तक केवल प्राकृत जीवन जीते हो महासिंधु-सागर-पयोधि, बस, कहलाते हो, आज तुम्हारे तट पर आकर, मैंने तुमको अपनाया है, और तुम्हारी ऊर्जा को अपनी ऊर्जा में बदल लिया है अब मैं बूढ़ा महाकाल से नहीं डरूँगा लड़ते-लड़ते, जीते-जीते नहीं मरूँगा। रचनाकाल: ०४-०३-१९९२

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