खूँटियों पर टँगे लोग : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

Khoontiyon Per Tange Log : Sarveshwar Dayal Saxena


जंगल की याद मुझे मत दिलाओ

कुछ धुआँ कुछ लपटें कुछ कोयले कुछ राख छोड़ता चूल्हे में लकड़ी की तरह मैं जल रहा हूँ, मुझे जंगल की याद मत दिलाओ! हरे-भरे जंगल की जिसमें मैं सम्पूर्ण खड़ा था चिड़ियाँ मुझ पर बैठ चहचहाती थीं धामिन मुझ से लिपटी रहती थी और गुलदार उछलकर मुझ पर बैठ जाता था. जँगल की याद अब उन कुल्हाड़ियों की याद रह गयी है जो मुझ पर चली थीं उन आरों की जिन्होंने मेरे टुकड़े-टुकड़े किये थे मेरी सम्पूर्णता मुझसे छीन ली थी ! चूल्हे में लकड़ी की तरह अब मैं जल रहा हूँ बिना यह जाने कि जो हाँडी चढ़ी है उसकी खुदबुद झूठी है या उससे किसी का पेट भरेगा आत्मा तृप्त होगी, बिना यह जाने कि जो चेहरे मेरे सामने हैं वे मेरी आँच से तमतमा रहे हैं या गुस्से से, वे मुझे उठा कर् चल पड़ेंगे या मुझ पर पानी डाल सो जायेंगे. मुझे जंगल की याद मत दिलाओ! एक-एक चिनगारी झरती पत्तियाँ हैं जिनसे अब भी मैं चूम लेना चाहता हूँ इस धरती को जिसमें मेरी जड़ें थीं!

शब्दों का ठेला

मेरे पिता ने मुझे एक नोटबुक दी जिसके पचास पेज मैं भर चुका हूँ । जितना लिखा था मैंने उससे अधिक काटा है कुछ पृष्ठ आधे कोरे छूट गए हैं कुछ पर थोड़ी स्याही गिरी है हाशिये पर कहीं सूरतें बन गईं हैं आदमी और जानवरों की एक साथ कहीं धब्बे हैं गन्दे हाथों के कहीं किसी एक शब्द पर इतनी बार स्याही फिरी है कि वह सलीब जैसा हो गया है । इस तरह मैं पचास पेज भर चुका हूँ । इसमें मेरा कसूर नहीं है मैंने हमेशा कोशिश की कि हाथ काँपे नहीं इबारत साफ़-सुथरी हो कुछ लिखकर काटना न पड़े लेकिन अशक्त बीमार क्षणों में सफेद पृष्ठ काला दीखने लगा है और शब्द सतरों से लुढ़क गए कुछ देर के लिए जैसे यात्रा रुक गई । अभी आगे पृष्ठ ख़ाली हैं निचाट मैदान या काले जंगल की तरह । बरफ़ गिर रही है । मुझे सतरों पर से उसे हटा-हटाकर शब्दों का यह ठेला खींचना है जिसमें वह सब है जिसे मैं तुममे से हर एक को देना चाहता हूँ पर तुम्हारी बस्ती तक पहुँचू तो । मजबूत है सीवन इस नोटबुक की पसीने या आँसुओं से कुछ नहीं बिगड़ा ! यदि शब्दों की तरह कभी यह हाथ भी लुढ़क गया तो इस वीराने में तुम इसके जिल्द की टिमटिमाती रोशनी टटोलते ठेले तक आना और यह नोटबुक ले जाना जो मेरे बाप ने मुझे दी थी और जिसके पचास पेज मैं भर चुका हूँ । लेकिन प्रार्थना है अपने झबरे जंगली कुत्ते मत लाना जो वह सूँघेगे जो उन्हें सिखाया गया हो, वह नहीं जो है । 15.09.1977 (अपनी पचासवीं वर्षगाँठ पर)

फसल

हल की तरह कुदाल की तरह या खुरपी की तरह पकड़ भी लूँ कलम तो फिर भी फसल काटने मिलेगी नहीं हम को । हम तो ज़मीन ही तैयार कर पायेंगे क्रांतिबीज बोने कुछ बिरले ही आयेंगे हरा-भरा वही करेंगें मेरे श्रम को सिलसिला मिलेगा आगे मेरे क्रम को । कल जो भी फसल उगेगी, लहलहाएगी मेरे ना रहने पर भी हवा से इठलाएगी तब मेरी आत्मा सुनहरी धूप बन बरसेगी जिन्होने बीज बोए थे उन्हीं के चरण परसेगी काटेंगे उसे जो फिर वो ही उसे बोएंगे हम तो कहीं धरती के नीचे दबे सोयेंगे ।

उम्र ज्यों—ज्यों बढ़ती है

उम्र ज्यों—ज्यों बढ़ती है डगर उतरती नहीं पहाड़ी पर चढ़ती है. लड़ाई के नये—नये मोर्चे खुलते हैं यद्यपि हम अशक्त होते जाते हैं घुलते हैं. अपना ही तन आखिर धोखा देने लगता है बेचारा मन कटे हाथ —पाँव लिये जगता है. कुछ न कर पाने का गम साथ रहता है गिरि शिखर यात्रा की कथा कानों में कहता है. कैसे बजता है कटा घायल बाँस बाँसुरी से पूछो— फूँक जिसकी भी हो, मन उमहता, सहता, दहता है. कहीं है कोई चरवाहा, मुझे, गह ले. मेरी न सही मेरे द्वारा अपनी बात कह ले. बस अब इतने के लिए ही जीता हूँ भरा—पूरा हूँ मैं इसके लिए नहीं रीता हूँ.

कोट

खूँटी पर कोट की तरह एक अरसे से मैं टँगा हूँ कहाँ चला गया मुझे पहन कर सार्थक करने वाला? धूल पर धूल इस कदर जमती जा रही है कि अब मैं खुद अपना रंग भूल गया हूँ. लटकी हैं बाहें और सिकुड़ी है छाती उनसे जुड़ा एक ताप एक सम्पूर्ण तन होने का अहसास मेरी रगों में अब नहीं है. खुली खिड़की से देखता रहता हूँ मैं बाहर एक पेड़ रंग बदलता चिड़ियों से झनझनाता और हवा में झूमता: मैं भी हिलता हूँ बस हिलता हूँ दीवार से रगड़ खाते रहने के लिए; एक अरसा हुआ हाँ, एक लम्बा अरसा जब उसने चुपचाप दरवाजा बन्द किया और बिना मेरी ओर देखे,कुछ बोले बाहर भारी कदम रखता चला गया— ‘अब तुम मुक्त हो अकेले कमरे में मुक्त किसी की शोभा या रक्षा बनने से मुक्त सर्दी ,गर्मी ,बरसात, बर्फ़, झेलने से मुक्त दूसरों के लिए की जाने वाली हर यात्रा से मुक्त अपनी जेब और अपनी बटन के अपने कालर और अपनी आस्तीन के आप मालिक अब तुम मुक्त हो ,आजाद— पूरी तरह आजाद—अपने लिए.’ खूँटी पर एक अरसे से टँगा कमरे की खामोशी का यह गीत मैं हर लम्हा सुनता हूँ और एक ऐसी कैद का अनुभव करते—करते संज्ञाहीन होता जा रहा हूँ जो सलीब् अपनी कीलों से लिखती है. मुझे यह मुक्ति नहीं चाहिए. अपने लिए आजाद हो जाने से बेहतर है अपनों के लिए गुलाम बने रहना. मुझे एक सीना चाहिए दो सुडौल बाँहें जिनसे अपने सीने और बाँहों को जोड़ कर मैं सार्थक हो सकूँ बाहर निकल सकूँ अपनी और उसकी इच्छा को एक कर सकूँ एक ही लड़ाई लड़ सकूँ और पैबन्द और थिगलियों को अंगीकार करता एक दिन जर्जर होकर समाप्त हो सकूँ, उसकी हर चोट मेरी हो उसका हर घाव पहले मैं झेलूँ उसका हर संघर्ष मेरा हो मैं उसके लिए होऊँ इतना ही मेरा होना हो, खूँटी पर एक अरसे से टँगे—टँगे मैं कोट से अपना कफ़न बनता जा रहा हूँ. कहाँ हैं काली आँधियाँ? सब कुछ तहस—नहस कर देने वाले भूकम्प कहाँ हैं? मैँ इस दीवार, इस खूँटी से मुक्त होना चाहता हूँ और तेज आँधियों में उड़ता हुआ अपनी बाँहें उठाये सीना चौड़ा किये उसे खिजना चाहता हूँ— जो चुपचाप दरवाजा बन्द कर बिना मेरी ओर देखे और कुच बोले बाहर भारी कदम रखता हुआ चला गया, मैं जानता हूँ उसे कोई बुला रहा था. उसे कुछ चाहिए था. उसे एक बड़ी आँधी और भूकम्प लाने वाली ताकतों की खोज करनी थी उसे यहाँ से जाना ही था. लेकिन कहाँ? मैं उसके साथ जाना चाहता था. एक अरसे से खूँटी पर टँगे—टँगे मैं भी एक काली आँधी एक बड़े भूकम्प की ज़रूरत महसूस करने लगा हूँ. क्या वह भी मेरी तरह किसी खूँटी पर टँगे—टँगे थक गया था? कोट था?

स्वेटर

तुमने जो स्वेटर मुझे बुनकर दिया है उसमें कितने घर हैं यह मैं नहीं जानता, न ही यह कि हर घर में तुम कितनी और किस तरह बैठी हो, रोशनी आने और धुआँ निकलने के रास्ते तुमने छोड़े हैं या नहीं, सिर्फ़ यह जानता हूँ कि मेरी एक धड़कन है और उसके ऊपर चन्द पसलियाँ हैं और उनसे चिपके घर ही घर हैं तुम्हारे रचे घर मेरे न हो कर भी मेरे लिए. अब इसे पहनकर बाहर की बर्फ़ में मैं निकल जाऊँगा. गुर्राती कटखनी हवाओं को मेरी पसलियों तक आने से रोकने के लिए तुम्हारे ये घर कितनी किले बन्दी कर सकेंगे यह मैं नही जानता, इतना ज़रूर जानता हूँ कि उनके नीचे बेचैन मेरी धड़कनों के साथ उनका सीधा टकराव शुरू हो गया है. मानता हूँ जहाँ पसलियाँ अड़ाऊँगा वहाँ ये मेरे साथ होंगे लेकिन जहाँ मात खाऊँगा वहाँ इन धड़कनों के साथ कौन होगा? सदियों से हर एक एक दूसरे के लिए ऐसे ही घर रचता रहा है जो पसलियों के नीचे के लिए नहीं होते ! इससे अच्छा था तुम प्यार भरी दृष्टि मशाल की तरह इन धड़कनों के पास गड़ा देतीं कम —से—कम उनसे मैं शत्रुओं का सही— सही चेहरा तो पहचान लेता गुर्राती हवाओं के दाँत कितने नुकीले हैं जान लेता . अब तो जब मैं तूफ़ानों से लड़ता— जूझता औंधे मुँह गिर पड़ूँगा तो आँखों की बुझती रोशनी में तुम्हारी सिलाइयाँ नंगे पेड़ों—सी दीखेंगी जिन पर न कोई पत्ता होगा न पक्षी जो धीरे—धीरे बर्फ़ से इस कदर सफ़ेद हो जायेंगी जैसे लाश गाड़ी में शव ले जाने वाले. इसके बाद तूफ़ान खत्म हो जाने पर शायद तुम मेरी खोज में आओ और मेरी लाश को पसलियों पर चिपके अपने घरों के सहारे पहचान लो और खुश होओ कि तुमने मेरी पहचान बनाने में मदद की है और दूसरा स्वेटर बुनने लगो

पिछड़ा आदमी

जब सब बोलते थे वह चुप रहता था, जब सब चलते थे वह पीछे हो जाता था, जब सब खाने पर टूटते थे वह अलग बैठा टूँगता रहता था, जब सब निढाल हो सो जाते थे वह शून्य में टकटकी लगाए रहता था लेकिन जब गोली चली तब सबसे पहले वही मारा गया।

रिश्ते

खुद कपड़े पहने दूसरे को कपड़े पहने देखना खुद कपड़े पहने दूसरे को कपड़े न पहने देखना खुद कपड़े न पहने दूसरे को कपड़े न पहने देखना तीन अलग- अलग रिश्ते बनाना है इनमें से पहले से तुम्हें मन बहलाना है दूसरे को खोजने जाना है तीसरे के साथ मिलकर क्रान्ति और सृजन का परचम उठाना है।

हंजूरी

काम न मिलने पर अपने तीन भूखे बच्चों को लेकर कूद पड़ी हंजूरी कुएँ में कुएँ का पानी ठंडा था। बच्चों की लाश के साथ निकाल ली गई हंजूरी कुएँ से बाहर की हवा ठंडी थी। हत्या और आत्महत्या के अभियोग में खड़ी थी हंजूरी अदालत में अदालत की दीवारें ठंडी थीं। फिर जेल में पड़ी रही हंजूरी पेट पालती जेल का आकाश ठंडा था। लेकिन आज अब वह जेल के बाहर है तब पता चला है कि सब-कुछ ठंडा ही नहीं था- सड़ा हुआ था सड़ा हुआ है सड़ा हुआ रहेगा कब तक?

देशगान

क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है। बिन अदालत औ मुवक्किल के मुकदमा पेश है। आँख में दरिया है सबके दिल में है सबके पहाड़ आदमी भूगोल है जी चाहा नक्शा पेश है। क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है। हैं सभी माहिर उगाने में हथेली पर फसल औ हथेली डोलती दर-दर बनी दरवेश है। क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है। पेड़ हो या आदमी कोई फरक पड़ता नहीं लाख काटे जाइए जंगल हमेशा शेष हैं। क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है। प्रश्न जितने बढ़ रहे घट रहे उतने जवाब होश में भी एक पूरा देश यह बेहोश है। क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है। खूँटियों पर ही टँगा रह जाएगा क्या आदमी ? सोचता, उसका नहीं यह खूँटियों का दोष है। क्या गजब का देश है यह क्या गजब का देश है।

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