कविता मेरी साँस : सी.नारायण रेड्डी

Kavita Meri Saans : C. Narayana Reddy


नागार्जुन सागर

इक्ष्वाकु वंश के राजचन्द्रों की कीर्ति-चन्द्रिकाएँ जब चारों दिशाओं में फैली थीं, अपनी मधुर ध्वनियों से सारी दिशाओं को भर दिया था, श्री पर्वत जब सिंहलदेशागत बौद्ध भिक्षुओं का विज्ञान पीठ बना था, जब सिद्धार्थ के विशुद्ध सिद्धांत-बीज बड़े-बड़े वृक्ष बनकर फैल गए थे, तब मैं अपने को विद्यामान मानकर अपने हृदय का विस्तार करके गीत-काव्य लिखता हूँ। लो, देखो ! कृष्णा नदी नव अप्सरा के समान आंध्रभूमि के नंदन वन में टहलती है। लो दर्शन करो ! कृष्णा नदी द्रवमान बौद्ध धर्म के रूप में बहती है। वह एक बार बढ़े तो अवनत शातवाहनों की वैभनोन्नति आज भी उसमें आकाश-गंगा की तरंगों का स्पर्श करेगी। वह एक बार मुख खोलकर गर्जन करे तो ऐसा विदित होता है कि मानों सहस्रों किन्नर और किन्नरियाँ वीणाओं के हृदय-तारों को झंकृत करते हों। वह एक बार चौंक पड़े तो ऐसा मालूम होता है कि अमरावती के मंदिरांतर्गत शिलारूपी शय्याओं से जाग पड़ने वाली अप्सराओं के शरीर की लचक हो और सौन्दर्य की बिजली दौड़ती हो। सुंदर चाप भी उसकी भौंहों के समान नहीं होगा ऐसा कोई रूप नहीं है जिसे उसकी तरंगों ने न ग्रहण किया हो। उसकी लहरें ज्यों अभिसारिकाओं के मंदवायु में हिलने वाले कोमल वसनांचल के समान, शरदाकाश में रूई के समान धीरे-धीरे आगे बढ़ने वाले मेघों की भाँति, चित्र-विचित्र गतियों से बढ़ती हैं। ऐसा भान होता है कि वे स्वयं कविताएँ हों। उसकी लहरें बोधिसत्व के सिर पर सदा परिवेष्टित एवं दुर्निरीक्ष्य तेजोमय लहरों के समान तथा उनके अपांगों की छाया में लहराने वाली करुणार्द्र भावनाओं की तरंगों के सदृश अत्यधिक दिव्यरूपों को धारण करती हैं और दृष्टि से ओझल होती हैं। उसदी गोद में हरे-भरे मैदान निद्रित शिशुओं की भाँति शोभित हैं। उसकी दाहिनी ओर सहनशीलता की राशि श्री पर्वत स्थित है। नागार्जुन के पदार्पण-मात्र से श्री पर्वत-चंद्रिका-सदृश शोभित हुआ है। नागार्जुन के उपदेशामृत की ध्वनि में श्री पर्वत नवनीत के रूप में विकसित हुआ है। नागार्जुन के मस्तिष्क में असीम वैभव के साथ विज्ञान रसायन-ज्ञान के रूप में उमड़ पड़ा। नागार्जुन का दिखाया हुआ नवीन मार्ग बौद्ध-धर्म-रूपी सौध तक पहुँचने का सोपान है। नागार्जुन के प्रति उमडऩेवाली भक्ति के अपार संभ्रम में श्रीपर्वत अपना नाम तक भूल गया। यहाँ तक कि नागार्जुन पर्वत नाम से नव-वैभव के साथ प्रवर्तित हो चला। (अनुः आलूरि बैरागी चौधरी)

दीप के नूपुर

चलती-फिरती मिट्टी की गगरी-सा मेरा तन, जिसमें शिक्षा-जाल को छु कर स्पन्दित विद्युत्-धारा। आधिभौतिक देह मेरी वेदिका आधियाजिक रूप नूपुर बाँधकर वह है जगन्मोहिनी, जो दीप के नूपुर से अनुरणित और अक्षरवाहिनी अन्तरात्मा के लिए जो दृश्य है। पल्लवारुण अँगलियाँ होकर तरंगायित अन्तःकरण की कर गयीं क्षालित तमिस्रा तब हृदय मेरा हविष-उद्गगत धूम-सा होता प्रसारित तब अन्तरात्मा कामधेनु पावसने लगी। ब्रह्माण्ड पन्थी-सा हुआ दीपित उस पन्थी में स्नेहामृतवर्ती ईश-सा हो उठा आलोकित। हे दीप-नूपुर वाणि ! हे दिव्यत्व भासिनि! शाश्वत करो मुझको अनुरणित। जब तुम्हारी अँगुलियों की दीप्ति मेरे हृदय में प्रति दिवस होगी प्रसारित मायाग्रस्त मेरा जीवन महत्कान्ति का मण्डल बनेगा। तुम्हारे नूपुरों की झनकार मुझे देगी सुनायी अहर्निश मृण्मय देह में तब चिन्मय नाद होगा यह निनादित। (अनुः डॉ. श्रीराम शर्मा)

मनश्शैशव

लोकगति का अति इच्छुक; तामसिक वासना तृप्त हो; मदमस्त भ्रमर-सा रूपांतरित मेरे हृदय में, आज विचित्र-सा रस-भीना शैशव जागा। यह मेरे हृदय नीड़ में पली नूतन अनुभूति, हरियाली के नये पंखों पर गिरकर रात औ' दिन हिम बिंदुओं-सी ढुरकी। मुझमें मयूर पंख नाच उठा, गगन में मेघ का टुकड़ा भी नहीं मैं गगन स्पर्शी चाँदनी बन गया, शरद निशा की छाया तक नहीं मुझमें पद्यगंध फूट पड़ा पूर्व के गिरिशृङ्ग पर लाली नहीं मैं कोकिल का कह-स्वर बन गया, आम बौराया नहीं सृष्टि नियमों के विरुद्ध अलग-अलग लक्षण प्रकट हो नवलोक से आवत मेरे हृदय में शैशवानन्द का आधार बन गया। कुछ देर अभी विकसे मंदारों से आँख-मिचौनी कर कुछ देर हवा के गुब्बारे फूँक, पकड़कर झूल कुलाँच मार कुछ देर नभ तक उठकर इंद्रधनुष के टुकड़े पर फिसल कर कुछ देर चाँद कटोरे में जलती शिखा के लिए हाथ बढ़ा इष्ट क्रीड़ा विलास में तैर, पूर्ण संतृप्त हृदय से जग को मोगरे की गेंद-सा बना शैशवामृत क्षण में डोल गया। कितना भी उड़ूँ पुष्प-समूह ही दिखते हैं, नाम सिकोड़ने वाले ठूठ नहीं किधर भी देखू पूर्ण चन्द्र ही खिले हैं, फुंफकारने वाली अँधेरियाँ नहीं किधर भी सुनूँ शीतल मंदहास ही है,मानवरूपी वाले मोर नहीं किधर भी जोहूँ शीतल मंदहास ही है,मानवरूपी भुजंग नहीं यह शरद, यह वर्ष, वह बसन्त, कह सकने का विवेक पार कर मनोहारी मृदुभाव-संपुटि में शैशव ने मुझे रसपरिपूर्ण बनाया। जाने किस पूर्व-जन्म का पुण्य-फल इस तरह अंकुरित हुआ शैशव रूप धर मेरे हृदय में; वही पुण्य आज जीवन का लक्ष्य बना! (अनु. : आलूरि बैरागी चौधरी)

अक्षर-गवाक्ष

अक्षर-गवाक्ष खोल अवलोकन कर रहा अंबर का अर्ध-मृत भाव-जीवियों को चमत्कृति-भिक्षा दाता अंबर को देखो, वे गगन के वितान तले झूलते अंगूर आषाढ़-योषा की लहराती अलकों के छोर शेल्ली के शब्दों में सूर्य और सागर की संतान नया कहूँ तो गगन-जलधि में तिरती काली बरफ की चट्टानें, और उन में श्रेष्ठ शफरी-सी क्या तलफ रही,बताऊँ क्या? उस के नख-शिख-वर्णन की उत्प्रेक्षाएँ जताऊँ क्या? चर्वित-चर्वण यदि करूँ तो मदिर मदवतियों को अंगड़ाई: और कटु चित्रण करूँ तो गुलामों की पीठों पर कोड़ों की मार,भाई! जहाँ तहाँ आँखें फाड़ फाड़ ताकते मेरे यारो! पंचशील के सूत्र अक्षरशः आचरण में लाते तुम व्यर्थ प्रलाप नहीं करते; आपस में घुल-मिल जाते तुम। 'यथा-स्नेह तथा वर्तिका' को चरितार्थ करने वाले साधु मीत! समरस रहते हो; आज पूनों, कल अमास; यह नहीं तुम्हारी रीत। न तुम अफसर हो, न चपरासी हो, हाँ भई, हमेशा झिलमिलाते तुम, दिव के 'एन.जी.ओ.' हो। (शेल्ली=अंग्रेजी कवि) (अनु. : आलूरि बैरागी चौधरी)

मुझे ज़हर पीने दो

मुझे पीने दो! ज़हर पीने दो मुझे! वही मेरा जीवन रस है। आप इसे हलाहल समझेंगे कहीं नहीं नहीं, पके हुए अँधेरों के गुच्छों को निचोड़ कर मैंने यह रागरस तैयार किया है। यही तो मेरा जीवन रस है। इसे पीने दो! ज़हर पीने दो मुझे! धतूरे का वह फूल जिसे शाही भौरों के पैरों की धूल भी न मिल सकी, वह धतूरे का फूल मेरा प्याला है! ज़हर पीने दो मुझे! शिवजी से मुकाबला करने की मेरी तमन्ना नहीं और न सुकरात के हमनशीं बनने की ख्वाहिश ही है। फिर क्यों? अजब लज़्ज़तों का मज़ा ले कर चाँदनी के तकियों पर लेट कर जो मेरी यह ज़िन्दगी जमूद (स्तब्ध) हुई है, उसमें बारीक-बारीक शोले भड़काने के लिए मुझे पीने दो! ज़हर पीने दो मुझे! सीनों के लबों पर जो मयखाने हैं उनमें घूम-घूम कर जो मेरी ये नजरें मदहोश हुई हैं, उनको कड़वाहट का ज़रा मज़ा चखाने के लिए मुझे पीने दो! ज़हर पीने दो मुझे! (अनु. : डॉ. भीमसेन 'निर्मल')

मानव-गीत

तेरा यह गीत, मीत! मेरा यह गीत, मीत! तेरी मेरी मैया धरती का गीत मीत! भू पर चमकते नयन- जल की बूंदें चुनता। धूल भरे नर के उर के अफ़साने बुनता। स्वेद सनी माटी को चंदन सा उर धरता। निश्वास-निहित स्वर को ओंकार समझ स्मरता। माटी की कुटिया में नव हृदयाशय रचता। स्वर्ण-सौध से जीवन- पाठ सीखता, पचता। कंठ-मध्य गरल धार बाँट रहा स्मिति अमृत। शिव के प्रति-रूप मनुज के आगे मैं प्रणमित। सर के वर करुणामय मानव के सिवा कौन? मंदिर-रहित देवता मानव के सिवा कौन? जिसने अणु को फोड़ा जग को किया अखाड़ा नहीं नहीं वह मानव छद्म-वेष में दानव। शतदल-से खिले जगत को पल में क्षार-क्षार करने के दैत्य-यत्न का विरोध दुर्निवार। देख भले को सम्मुख बुरा झुका लेता सिर शिशु की मुस्कान देख पशु-विषाण जाते फिर। जंग लगेगा म्यानों में खड्गों पर यारो! लगेगी फफूँदी उन छुपे बमों पर यारो! हाथ हाथ मिला, खिले फिर नर में नरम स्नेह। सिकुड़े उर में दौड़े उष्ण-रुधिर का प्रवाह। कौन गंध को रोके, गंध-वाह को टोके मनुज-रवि-ऋचा, कवि का वचन भला क्यों चूके? (अनु. : आलूरि बैरागी चौधरी)

मोड़

दुर्लभ प्राचीन-प्रति-सम हृदय की रक्षा करता हुआ मंज़िल पर पहुँचने के स्वप्न देखता हुआ टीलों पर चढ़ता, उन्हें मरकत की कालीन समझता पगडंडी कहीं फूलों की कहानी सुनता मोड़ पर पहुँच, मुड़ रहा मानव। ढलके अतीत के बारे में निश्वास छोड़ने वालों को पिघलते वर्तमान को देख घबराने वालों को भावी प्रकाश को देख खिडकियाँ बंद करने वालों को धता बता आगे बढ़ रहा मानव। मोड़ पर पहुँच, मुड़ रहा मानव। सपनों में पी हुई सहारा की शोभा को शैशव के कोमल कपोलों पर पाटल की अरुण आभा को हृदय में घुट घुट पीता, मन ही मन जुगाली भरता आगे आगे बढ़ रहा मानव। मोड़ पर पहुँच, मुड़ रहा मानव। ठूठ के माथे पर पल्लवित प्रवालों की रेखा को देखता मरु-स्थल में विरचित मरकत-मालाओं को देखता हिम का उष्णीस1 धरे शीत-शैल की ओर ताकता पाथेय की उपेक्षा कर पाथो-राशि2 लाँघता पवमान की भाँति क्षिप्र प्रस्थान कर रहा मानव। 1. पगड़ी 2. समुद्र (अनु.: आलूरि बैरागी चौधरी)

रेखा-चित्र

बीज में सोए हए पौधे-सी हृदय में पंख मूंदे कामना प्यारी अथक पलकों के किनारे पर ढुल-मुल ढुलकती नींद की कुमारी। ऊषा को हेमंत-शर्वरी की भेंट हरी-भरी दूब के गले में झिलझिल मुक्ता-हार। अंगीठी में ऊँघती बढ़ी आग की कराह, एक सौ छः डिग्री का बुखार। मन का मैल धो जाती गंगा कजरारी आँखों को धो जाती जमुना आँसओं की एक ही धारा के अनेक रूप मानव को वरे हुए मधुर शाप। काल के कपोल पर लाल एक तिल खिला मौत को पौ फटते समय प्रात का तारा भला; जीवन-संधि-पत्र पर वे काली रेखाएँ चरम-संध्या-पर्व में शमी-तरु की लेखाएँ। (अनु. : आलूरि बैरागी चौधरी)

मध्यवर्ग की मुस्कान

मैं मुस्काता हूँ छन्दरहित भाषा में किन्तु भूल नहीं सका- मुस्कान भी छन्दबद्ध होती है! सागर के उदर से- सर ग म के सुर- चुन-चुन लाता हूँ समाज के अन्तस्तल में डमरू-नाद सुनता हूँ देखता हूँ आह भरता हूँ शारदीय दुग्ध धवल- मेघ फेनों में घलती नीलिमा और- दधि जैसी शरच्चन्द्रिका में स्निग्ध गाँठे प्लास्टिकी मस्कान के पीछे छिपनेवाले- संसृति-रहस्य का अवलोकन करता हूँ नाइलोनी जीवन से आवेष्टित करुण कथा छानता हूँ। बढ़ती हुई कीमतों पर होठों से फिसलती उपेक्षा भी- मैंने समेट ली है और सीखा है- कई घड़े सपने पी कर- अपना उदर भरना। हृत्पिण्ड दो खण्डों में बँटा- उस दिन मैं ऐसा पक्षी था जिसका एक पंख कट कर गिर गया था वही भग्न हृदय जब हज़ार टुकड़ों में बँटता हो मैं आग भखने लगा हूँ विवश, अवश! विषपायी नीलकंठ की पीढ़ी का मैं अन्तिम वारिस हूँ बाप-दादा-परदादा की- कीर्ति-परम्परा का- अवशिष्ट-ताम्रपत्र मात्र हूँ! सस्मित सजीव शव का- मैं हूँ रत्नहार। मध्यवर्ग के मनोवपु का- निराला नासूर हैं, मैं ऐसे हंस की चोंच का अन्वेषी हूँ जो वंचना से साधुता को पृथक कर दे। और लतियातें विधायकों की दुग्धोनी को सहला रहा हूँ पीयूष पाने के लिए। निःश्वासों का सेत पग-पग पार कर सदाचार तक पहुँचा हूँ। निराशा की वट-जटाओं को पकड़कर अम्बर का आँचल छूता हूँ। धनुष-सी झुकी कमर से विजयादशमी मनाता हूँ! मोड़ बँधे आदर्शों से- करोड़ों दीपक सँजोता हूँ। (अनु. : डॉ. श्रीराम शर्मा)

जिस दिन आज़ादी ने जन्म लिया

जिस दिन हमारा सिर गर्व से ऊपर उठता है अतीत का स्मरण लहर उठता है वह दिन बड़े भाग्य से मिलता है. कभी कभी तो आता है जब यह दिन आता है दिल का दरवाजा खटखटाता है मंदमति भी महावीर बन जाता है। सामरिकों की हुंकृतियाँ समीर-पथ को झंकृत करती हैं अमरजीवियों की आत्मिक शोभा अंतरिक्ष में आभा फैलाती है 'जनगण' गायन के जलप्रपात में से राष्ट्र-भाग्य की विद्युत-निधियाँ विकसित होती हैं। किसी के लगाए पौधे अभी वृक्ष नहीं बन पाए किसी के दिखाए तारे अभी चन्द्रमा नहीं बन पाए जहाँ डाल दिया कंबल वहीं पड़ा रहा तो क्या हुआ? कच्छप गति से चलने वाली वार्षिक योजनाओं को झरनों की तरह बहना चाहिए मरुधारा-सी बहने वाली नदी-मालाओं को बंजर खेतों के कंठहार बनाना है ठंडी पड़ी आशय-ज्वालाओं को सुरभित सुमनों का रूप देना है (अनु : पांडुरंग)

सावधान!

बन्दी बना दिनकर आ रहा है, परतों को चीर कर सुमनो! सावधान! सुप्त-युग की चेतना तीसरा नेत्र खोल रही है, हे निशाचरो! सावधान! आहत नर कंठीरव दहाड़ता उठ रहा है, देवताओ! सावधान! छली गयी धर्म की प्रवृत्ति निगाह डाल देख रही है, शैतानो! सावधान! अणु-अणु में विश्वशांति अमृत-सी झर रही है, युद्ध पिपासुओ! सावधान! मानव की दानवता अंतिम साँसें गिन रही है, हे अणु-जगत्! सावधान! (अनुः: डॉ. एम. रंगय्या)

विषय-सूची

धनु का झुकना सहज है वायुयान का उड़ना सहज है भूत का घटना आगत का बढ़ना व्याप्त पवन-सा सहज है। फिर क्यों कर यह देरी? यह सर्व विदित गोप्य है मृत भूत की समाधि बना विकसित आगत का शिखर खड़ा कर। गत के साथ स्वगत का विसर्जन करने वाले, धर्म के साथ अभिगत का विसर्जन नहीं करने वाले, चाहिए अद्यतन आगत में। छिपे चैतन्य-तरु के नन्हें बीज में सामर्थ्य हो तो तरु के रूप में परिणत होगा ही निरन्तर बढ़ने का गुण हो तो अनेक ढंग से बेल बढ़ेगी ही। काँटेदार ये रास्ते मिट कर दण्ड और राजदण्ड हट कर सड़क का आदमी जब मनु बनेगा वेदावली, जातक कथावली यदि पुनः निज भाषा में नहीं लिखी जाएँगी तो निश्चित है उसे न भाएंगी। विक्रान्ति काव्य की यह विषय-सूची है नूतन भाष्य की यह प्रथम पंक्ति है। (अनुः: डॉ. एम. रंगय्या)

दीप जले

हिमाद्रि कितना ऊँचा है? हेमाद्रि किसका धन है? महात्मा तुम्हारा रूप तुहिनाद्रि का संक्षिप्त स्वरूप बापू तुम्हारा चित्त विश्व का उपलब्ध वित्त! नरक के नन्दनों का आरोपण कर संकीर्ण हृदयों में स्वर-लहरी छोड़कर मिट्टी के ढेले मणि-बिम्बों में बदलकर राष्ट्र के हिमीभूत रक्त में- सहस्रदल खिला कर- शुष्क देश-वृक्ष पर- बसन्त निमंत्रित कर जब तुम मुस्कराए महर्षि साम्राज्य थर-थराया! यह- एक विचित्र विष-वलय है गलियों में- चाँदनी का वेश पहने- बारात में शामिल अमावस्याओं के लिए- आनन्द निलय है! ऐसा कोई बगुला नहीं- जो तुम्हारा नाम नहीं जपता! (अनु : डॉ. एम. रंगय्या)

नक्षत्र

आकाश के श्यामपट पर अदृश्य हस्त के लिखे अक्षर हैं नक्षत्र वे दृष्टिगोचर कब होंगे? अज्ञान अंधकार के छा जाने पर, आलोक-दृष्टि के फैल जाने पर। गगन-महानगरी में सर्वत्र रोमांचित विद्युत के दीप हैं नक्षत्र वे बुझेंगे कब? अवनी की आँख खुलने पर, विवेक के पंख खुलने पर। अंतरंग के आँगन में आनंद-सीख की रची रंगोली हैं नक्षत्र वे कभी बुझने वाले नहीं सहस्र रवि-राग-से द्युतिकर कवि-कल्पना के शीर्षक हैं सुखकर। (अनु : डॉ. एम. रंगय्या)

एकाकी दीप

एकाकी दीप की जलती बाती, यों ही दिशाओं को निहार रही है चारों ओर देखती है। उन्मत्त तरुण तिमिर काले-काले बालों की लटें खोले नाच रहा है, नाच रहा है। मिट्टी का दीन दीप उसमें नन्हीं-सी बाती देखती रह जाती है। युवा पवन इधर से उधर झूम झूम विचरता है पंगु दीप की अविचल बाती टुकुर-टुकुर झाँकती है। बाती सोचने लगी- मैं भी- तरुण तिमिर की तरह तांडव कर पाती, युवा पवन की भाँति झूम झूम इठलाती, तो- इस पन्थी के पंजर से छूट जाती पंछी बन कर अनन्त गगन में उड़ जाती। दीपक के नेत्रों में- अज्ञान घिर आया अचानक हवा के झोंके का थप्पड़ पड़ा बेचारी बाती की साँस घुट गई शापग्रस्त शरीर की भाँति- काली पड़ गई। बाती पछताती है- तरुण तिमिर की तरह नाच-नाच कर दुनिया के मुँह पर कालिख लगाने से पन्थी में बन्दी बन कनक किरण बाँटना ही अच्छा है! (अनुः डॉ. श्रीराम शर्मा)

सन्ना ज़ाजी फूला माला

(हैदराबाद नगर में सन्ध्या समय कुछ लोग फूल बेचने निकलते हैं। महिलाएँ उनकी प्रतीक्षा करती हैं। फूल बेचने वाले बालक, युवा, बूढ़े, सभी आयु के होते हैं। मौसम के अनुसार फूल बदलते रहते हैं। चमेली के फूल और उनकी माला बेचते समय संगीत भरे स्वर में आवाज लगाते हैं-सन्ना ज़ाजी फूला माला। प्रत्येक शब्द का अन्तिम स्वर प्लुत रहता है। ज़ाजी (चमेली) के फूल बेचने वाले एक मुसलमान लड़के से प्रेरित होकर यह कविता लिखी गयी है। - अनुवादक) एक मुसलमान बालक के कंठ से गोलि की बेला चीख उठी है- सन्नाss ज़ाजीss फूलाss मालाss भूखे लड़के की फटी ज़िन्दगी से- महकनेवाली भूख- कितनी खूबसूरत है! कितने ही क़बरी-भार बाट जोहते होंगे, चौकड़ियाँ भर कर टोहते होंगे, चमेली की इस माला के लिए इस गन्ध-लहरी के लिए। सन्ध्या और कजरारी हो गयी लड़के का कंठ तृप्त हो गया चमेली से गुंथे हृदयों में- सौन्दर्य-लालसा करवटें लेने लगी चमेली के फूल- शहनाई के जो सुर भर रहे हैं नन्हा लड़का उन्हें क्या जाने! ये चमेली के फूल- चाँदनी की जो पगडंडियाँ बिछा रहे हैं- वह भूखा बेचारा उन्हें क्या जाने! व ह माँ का दुलारा मुट्ठी के पैसों को बार-बार माथे से लगाता है और- खटिया पर लेटी बुढ़िया माँ की ओर- पंख लगा कर उड़ जाता है। (अनु.: डॉ. श्रीराम शर्मा)

चाँद की आत्महत्या

चाँद कुँए में जा गिरा। शर्वरी को प्रणयपाठ सिखाने वाला शरच्चन्द्र कुँए में जा गिरा। रोज़ बरोज़ नई साड़ियाँ चाहने वाली रोहिणी के तकाजे को सह न सक; दूध के डिब्बों के बस न होने पर, चीख चीख रोने वाले नक्षत्र-शिशुओं को चुप न कर सकने पर, घूँटों-भर अमृत पीकर पहलवान बने तीन करोड़ पियक्कड़ों के एक साथ अपने पर टूटकर रही-सही कलाओं को छीन लेने पर, सह न सक, दिन प्रतिदिन नोचने के लिए आने वाले लोहे की चोंच वाले राकेटों के शोरगल को न सुन सक-कुछ कह न सक; बेचारा चाँद कुँए में जा गिरा। क्षण भर आत्महत्या करने तैयार हुआ। (अन :डॉ भीमसेन 'निर्मल')

आग और आदमी

दो पहर खड़ी सरासर! ज्वलित आग। फ़ौलादी इमारतों से सीमेंट के शिखरों से क़िलों से, विल्लाओं से विकट अट्टहास करती हुई, सहस्रफण खोलती लपलप लपटें, विकट आग!! अधिकारी आँख खोल रहे हैं। अपना-सा मुँह लिये जा रहे हैं। टेलीफोन हैं-चीखते-रो पड़ते, फैरिंजन हैं-चीत्कार करते। भगदड़ भोंपू भोंकार करते, जल फूँकार करते! आग बुझती नहीं- मस्तकों में, मस्तिष्कों में आँखों में, पाँवों में निर्मित अट्टालिकाओं में, लपेटी वस्त्रावली में, है पागल आग!! लाल लपटें!! बिलकुल बुझती नहीं, किसी को कुछ सूझती नहीं, ऊसर-सर खुजलाने वाली उंगलियाँ, पृष्ठ धरा के कुरेदने वाली पैर की उंगलियाँ, क्षणों को लपेट लेने वाली आहें, मिनटों को जलाने वाली सिगरेटें, पाताल-गुफा में प्रविष्ट हुईं परस्पर कुछ समझौता कर। कमरे भर में जम्भाई ली धुएँ ने अयाल हिला उठ खड़ी हुई वंचना! आग बुझाने की दवा है एक मात्र, विद्युत् प्रसार बन्द हुआ हठात्। बात बतंगड बन गयी। यंत्रों की आँखें पड़ गयीं पीली घर-आँगन हो गये सूने। हाथ-पैर पड़ गये ठण्डे। ताकत ने मानी हार, बन्द हुआ रक्त प्रसार। नगरों के मुख पर है फेन, नागरिकता की देहभर स्वेद गर्मी ठंडी हुई। नाडी मंद पड़ गयी। गति गयी रुक कांति हुई अवाक् लपटें हुईं ढेर। एकदम गयीं बुझ। आग बुझ गयी, पर आदमी गया नहीं बुझ। प्रचंड मार्तण्डबिम्ब जैसा, प्रबल आंदोलन जैसा, मनीषी मनस्वी मानुष बुझा नहीं। मार्कंडेय जैसा, मारुति जैसा, महोज्ज्वल भावी चिंरजीव मानव बुझ नहीं सकता। (अनु.: डॉ. रामुलु और डॉ. रेगुलपाटि)