कहें केदार खरी खरी : केदारनाथ अग्रवाल

Kahein Kedar Khari Khari : Kedarnath Agarwal



राजनीति

राजनीति नंगी औरत है कई साल से जो यूरुप में आलिंगन के अंधे भूखे कई शक्तिशाली गुंडों को देश-देश के जो स्वामी हैं जो महान सेनाएँ रखते जो अजेय अपने को कहते ऐसा पागल लड़वाती है आबादी में बम गिरते हैं; दल की दल निर्दोषी जनता गिनती में लाखों मरती है; नष्ट सभ्यता हो जाती है- कभी किसी के, कभी किसी के, गले झूलकर मुसकाती है। हार-जीत के इस किलोल से संधि नहीं होने देती है॥ रचनाकाल: ०७-०२-१९४६

घोड़े का दाना

सेठ करोड़ीमल के घोड़े का नौकर है भूरा आरख।– बचई उसका जानी दुश्मन! हाथ जोड़कर, पाँव पकड़कर, आँखों में आँसू झलकाकर, भूख-भूख से व्याकुल होकर, बदहवास लाचार हृदय से, खाने को घोड़े का दाना आध पाव ही बचई ने भूरा से माँगा। लेकिन उसने बेचारे भूखे बचई को, नहीं दिया घोड़े का दाना; दुष्ट उसे धक्का ही देता गया घृणा से! तब बचई भूरा से बोला : ‘पाँच सेर में आध पाव कम हो जाने से घोड़ा नहीं मरेगा भूखा; वैसे ही टमटम खींचेगा; वैसे ही सरपट भागेगा; आध पाव की कमी न मालिक भी जानेगा; पाँच सेर में आध पाव तो यों ही भूरा! आसानी से घट जाता है; कुछ धरती पर गिर जाता है; तौल-ताल में कुछ कमता है; कुछ घोड़ा ही, खाते-खाते,- इधर उधर छिटका देता है। आध पाव में भूरा भैया! नहीं तुम्हारा स्वर्ग हरेगा नहीं तुम्हारा धर्म मिटेगा; धर्म नहीं दाने का भूखा!- स्वर्ग नहीं दाने का भूखा!- आध पाव मेरे खाने से कोई नहीं अकाल पड़ेगा।’ पर, भूरा ने, अंगारे सी आँख निकाले, गुस्से से मूँछें फटकारे, काले नोकीले काँटों से, बेचार बचई के कोमल दिल को छलनी छलनी कर ही डाला। जहर बूँकता फिर भी बोला : ‘नौ सौ है घोड़े का दाम!- तेरा धेला नहीं छदाम। जा, चल हट मर दूर यहाँ से।’ अपमानित अवहेलित होकर, बुरी तरह से जख्मी होकर, अब गरीब बचई ने बूझा : पूँजीवादी के गुलाम भी बड़े दुष्ट हैं;- मानव को तो दाना देते नहीं एक भी, घोड़े को दाना देते हैं पूरा; मृत्यु माँगते हैं मनुष्य की, पशु को जीवित रखकर! रचनाकाल: १२-०४-१९४६

एका का बल

डंका बजा गाँव के भीतर, सब चमार हो गए इकट्ठा। एक उठा बोला दहाड़कर : “हम पचास हैं, मगर हाथ सौ फौलादी हैं। सौ हाथों के एका का बल बहुत बड़ा है। हम पहाड़ को भी उखाड़कर रख सकते हैं। जमींदार यह अन्यायी है। कामकाज सब करवाता है, पर पैसे देता है छै ही। वह कहता है ‘बस इतना लो’, ‘काम करो, या गाँव छोड़ दो।’ पंचो! यह बेहद बेजा है! हाथ उठायो, सब जन गरजो : गाँव छोड़कर नहीं जायँगे यहीं रहे हैं, यहीं रहेंगें, और मजूरी पूरी लेंगे, बिना मजूरी पूरी पाए हवा हाथ से नहीं झलेंगें।” हाथ उठाये, फन फैलाये, सब जन गरजे। फैले फन की फुफकारों से जमींदार की लक्ष्मी रोयी!! रचनाकाल: १२-०४-१९४६

कारण-करण

गेहूँ में गेरुआ लगा, घोंघी ने खा लिया चना, बिल्कुल बिगड़ा, खेल बना। अब आफत से काम पड़ा, टूटा सुख से भरा घड़ा, दिल को धक्का लगा बड़ा। जमींदार ने कहा करो, सब लगान अब अदा करो, वरना जिंदा आज मरो। जोखू ने घर बेंच दिया रूपया और उधार लिया खंड-खंड हो गया हिया। विधि से देखा नहीं गया, जोखू बाजी हार गया लकवा उसको मार गया। रचनाकाल: १०-०८-१९४६

हाय न आई

आज भी आई कल भी आई रेल बराबर सब दिन आई! लेकिन दिल्ली से आजादी अब तक अब तक हाय न आई, हाय न आई!! चिट्ठी आई पत्री आई डाक बराबर सब दिन आई लेकिन दिल्ली से आजादी अब तक अब तक हाय न आई, हाय न आई!! आफत ही आफत सब आई लेकिन दिल्ली से आजादी अब तक अब तक हाय न आई, हाय न आई!! रचनाकाल: १५-०९-१९४६

राधा की आशा

गोकुल सेना में भरती हो लड़ने को रंगून गया था लेकिन अपनी प्रिय राधा को अपने आने की आशा में बेनिगरानी छोड़ गया था वह तो खंदक में लड़ता था टामीगन की बौछारों से बैरी की हत्या करता था राधा को-प्यारी राधा को भूला ही भूला रहता था राधा आशा में बैठी थी: गोकुल तो घर आएगा ही बाहों में बँध जाएगा ही राधा में रम जाएगा ही राधा का हो जाएगा ही लेकिन गोकुल गया न आया बैरी ने गोकुल को मारा खंदक ने उसको खा डाला बेचारी राधा जीती थी झूठी आशा में बैठी थी। रचनाकाल: १६-०९-१९४६

बैलगाड़ी

बैलगाड़ी राज्य की चल नहीं सकती प्रगति से दौड़ती। एक ही तो बैल है! दूसरा अब भी अलग है-दूर है!! हाँकने वाला बड़ा हैरान है- बैलगाड़ी में लदा है अन्न-वस्त्र; देश के हर छोर में जा, देश के हर एक जन को नाज, कपड़ा बाँटना है; देर होती जा रही है! बैलगाड़ी राज्य की चल नहीं सकती प्रगति से दौड़ती। रचनाकाल: १६-०९-१९४६

न मारौ नजरिया

हमका न मारौ नजरिया! ऊँची अटरिया माँ बैठी रहौ तुम, राजा की ओढ़े चुनरिया। वेवेल के संगे माँ घूमौ झमाझम, हमका बिसारे गुजरिया॥ संगी-सँहाती तबलचिन का लै के, द्याखौ बिदेसी बजरिया। गावौ, बजावौ, मजे माँ बितावौ, ऐसी न अइहै उमरिया॥ राजा के हिरदय से हिरदय मिलावौ करती रहौ रँगरलियाँ। हमका पियारा है भारत हमारा, तुमका पियारा फिरँगिया॥ हमका न मारौ नजरिया! रचनाकाल: २८-१२-१९४६

क्या लाए!

लंदन गए-लौट आए। बोलौ! आजादी लाए? नकली मिली या कि असली मिली है? कितनी दलाली में कितनी मिली है? आधी तिहाई कि पूरी मिली है? कच्ची कली है कि फूली-खिली है? कैसे खड़े शरमाए? बोलौ! आजादी लाए? राजा ने दी है कि वादा किया है? पैथिक ने दी है कि वादा किया है? आशा दिया है दिलासा दिया है! ठेंगा दिखाकर रवाना किया है! दोनों नयन भर लाए! अच्छी आजादी लाए? रचनाकाल: २८-१२-१९४६

आज

काल पड़ा है बँधा ताल के श्याम सलिल में ताब नहीं रह गई देश के अनल-अनिल में रचनाकाल: २०-१०-१९७६

मिल मालिक

मिल मालिक का बड़ा पेट है बड़े पेट में बड़ी भूख है बड़ी भूख में बड़ा जोर है बड़े जोर में जुलुम घोर है मिल मालिक का बड़ा पेट है अत्याचारी नीति धारता शोषण का कटु दाँव मारता गला-काट पंजा पसारता मिल मालिक का बड़ा पेट है मजदूरों को नहीं छोड़ता उन्हें चूसकर तोष तोलता एकाकी ही स्वर्ग भोगता। रचनाकाल: १५-०६-१९४६

नेता

तुम्हारे पाँव देवताओं के पाँव हैं जो जमीन पर नहीं पड़ते हम वंदना करते हैं तुम्हारी नेता! रचनाकाल: २९-१२-१९६५

जन-क्रांति

राख की मुर्दा तहों के बहुत नीचे, नींद की काली गुफाओं के अँधेरे में तिरोहित, मृत्यु के भुज-बंधनों में चेतनाहत जो अँगारे खो गए थे, पूर्वी जन-क्रांति के भूकम्प ने उनको उभारा; जिंदगी की लाल लपटों ने उन्हें चूमा-सँवारा, और वह दहके सबल शस्त्रास्त्र लेकर, रक्त के शोषण विदेशी शासकों पर, और देशी भेड़ियों पर! रचनाकाल: ०४-१२-१९४८

थैलीशाहों की...

थैलीशाहों की यह बिल्ली बड़ी नीच है। मजदूरों का खाना-दाना, सब चोरी से खा जाती है। बेचारे भूखे सोते हैं!! थैलीशाहों का यह कुत्ता महादुष्ट है। मजदूरों की बोटी बोटी, खून बहाकर खा जाता है। बेचारे तड़पा करते हैं!! थैलीशाहों की यह संस्कृति, महामृत्यु है। कुत्ता बिल्ली से बढ़कर है। मानवता को खा जाती है। बेचारी धरती रोती है!! रचनाकाल: ०८-०९-१९४९

आग लगे इस राम-राज में

[१] आग लगे इस राम-राज में ढोलक मढ़ती है अमीर की चमड़ी बजती है गरीब की खून बहा है राम-राज में आग लगे इस राम-राज में [२] आग लगे इस राम-राज में रोटी रूठी, कौर छिना है थाली सूनी, अन्न बिना है, पेट धँसा है राम-राज में आग लगे इस राम-राज में। रचनाकाल: १८-०९-१९५१

वह

सच है तुमने निरपराध को अपराधी-सा, अफसरशाही के प्रकोप से, नागपाश में जकड़ लिया है; निस्सहाय है आज किंतु वह नहीं मरा है-नहीं मरेगा! सच है तुमने जीवन का स्वर, और सत्य का मुखर सबेरा, कारागृह की दीवारों में कैद किया है; निस्सहाय है आज किंतु वह नहीं मरा है-नहीं मरेगा! रचनाकाल: २६-११-१९५२

साथी

झूठ नहीं सच होगा साथी! गढ़ने को जो चाहे गढ़ ले मढ़ने को जो चाहे मढ़ ले शासन के सौ रूप बदल ले राम बना रावण सा चल ले झूठ नहीं सच होगा साथी! करने को जो चाहे कर ले चलनी पर चढ़ सागर तर ले चिउँटी पर चढ़ चाँद पकड़ ले लड़ ले एटम बम से लड़ ले झूठ नहीं सच होगा साथी! रचनाकाल: २७-११-१९५१

जब-तब

जब कलम ने चोट मारी तब खुली वह खोट सारी तब लगे तुम वार करने झूठ से संहार करने सोचते हो मात दोगे जुल्म के आघात दोगे सत्य का सिर काट लोगे रक्त जीवन चाट लोगे भूल जाओ यह न होगा जो हुआ है वह न होगा लेखनी से वार होगा वार से ही प्यार होगा कल नगर गर्जन करेगा क्रोध विष वर्षन करेगा सत्य से परदा फटेगा झूठ का तब सिर कटेगा रचनाकाल: २७-११-१९५२

प्रश्न

मोड़ोगे मन या सावन के घन मोड़ोगे? मोड़ोगे तन या शासन के फन मोड़ोगे? बोलो साथी! क्या मोड़ोगे? तोड़ोगे तृण या धीरज धारण तोड़ोगे? तोड़ोगे प्रण या भीषण शोषण तोड़ोगे? बोलो साथी! क्या तोड़ोगे? जोड़ोगे कन या विश्वासी मन जोड़ोगे? जोड़ोगे धन या मेधावी जन जोड़ोगे? बोलो साथी! क्या जोड़ोगे? रचनाकाल: १२-०२-१९५३

सुनो

मंत्रियों! मुसकान से या शान से शासन न बदला खद्दरी यश-गान से खलिहान में आयी न कमला पंचवर्षी योजना भी हो रही है आज विफला खेत के हर बीज से है रोगिनी का हाथ निकला माननीयो! कागजी फरमान से सूरज न निकला आबनूसी रात का फैला हुआ काजल न पिघला वोट लेकर चोट करने से हुआ है देश दुबला हाय तुमने आदमी का शीष कुचला वेश कुचला शूरमाओ! पालने में पूतना के अब न झूलो आदमी की खाल ओढ़े आदमी को अब न भूलो शांति के सम्राट मेरे आक्षितिज आलोक उगलो रचनाकाल: ०९-११-१९५३

वास्तव में

पंचवर्षी योजना की रीढ़ ऋण की शृंखला है, पेट भारतवर्ष का है और चाकू डालरी है। संधियाँ व्यापार की अपमान की कटु ग्रंथियाँ हैं हाथ युग के सारथी हैं, भाग्य-रेखा चाकरी है॥ रचनाकाल: २६-०४-१९५४

मजदूर का जन्म

एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ ! हाथी सा बलवान, जहाजी हाथों वाला और हुआ ! सूरज-सा इन्सान, तरेरी आँखोंवाला और हुआ !! एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ! माता रही विचार, अँधेरा हरनेवाला और हुआ ! दादा रहे निहार, सबेरा करनेवाला और हुआ !! एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ ! जनता रही पुकार, सलामत लानेवाला और हुआ ! सुन ले री सरकार! कयामत ढानेवाला और हुआ !! एक हथौड़ेवाला घर में और हुआ !

हमारे अफसर आदमखोर

टैक्सों की भरमार- हमारी करती है सरकार! जीवन का अधिकार- हमारी हरती है सरकार!! होती है कम आय, हमारा घटता है व्यवसाय! होता है अन्याय, हमारा लुटता है समुदाय!! करते हैं व्यभिचार- हमारे अफसर आदमखोर! हम तो हैं लाचार, हमारे अफसर हैं झकझोर!! गायें कैसे गान? हमारी दुर्बल है मुसकान! जीवन है अपमान, हमारी निर्बल है संतान!! रचनाकाल: १३-१०-१९५४

बात करो केदार खरी

जय जय जय गोपाल हरी बात करो केदार खरी ठोंकी-पीटी धार-धरी लपलप चमकै ज्यों बिजरी नेतों की मति गई हरी दोनों आँखें हैं अँधरी बातें करते हैं जहरी जनता को कहते बकरी शासन की नदिया गहरी बहती है मद से अफरी किंतु नहीं भरती गगरी सुख-सुविधा से एक धरी अँगरेजों की वही दरी आज बिछाए खून भरी बैठे हैं ताने छतरी मंत्रीगन परसे पतरी रचनाकाल: १८-१०-१९५५

जनता का बल

मुझे प्राप्त है जनता का बल वह बल मेरी कविता का बल मैं उस बल से शक्ति प्रबल से एक नहीं-सौ साल जिऊँगा काल कुटिल विष देगा तो भी मैं उस विष को नहीं पिऊँगा! मुझे प्राप्त है जनता का स्वर वह स्वर मेरी कविता का स्वर मैं उस स्वर से काव्य-प्रखर से युग-जीवन के सत्य लिखूँगा राज्य अमित धन देगा तो भी मैं उस धन से नहीं बिकूँगा! रचनाकाल: २२-१०-१९५५

आज मरा फिर एक आदमी

[१] आज मरा फिर एक आदमी! राम राज का एक आदमी!! बिना नाम का बिना धाम का बिना बाम का बिना काम का मुई खाल का धँसे गाल का फटे हाल का बिना काल का अंग उघारे हाथ पसारे बिना बिचारे राह किनारे! [२] आज मरा फिर एक आदमी! राम राज का एक आदमी!! हवा न डोली धरा न डोली खगी न बोली दुख की बोली ठगी, ठठोली काम किलोली होती होली है अनमोली वही पुरानी राम कहानी पीकर पानी कहतीं नानी आज मरा फिर एक आदमी! राम राज का एक आदमी!! रचनाकाल: २३-१०-१९५५

कागज की नावें

कागज की नावें हैं तैरेंगी तैरेंगी, लेकिन वह डूबेंगी डूबेंगी डूबेंगी॥ रचनाकाल: ०५-१०-१९५७

राजमंच पर

राग-रंग की छविशाला के राजमंच पर आमंत्रित भद्रों के सम्मुख भृगु-सा भास्वर शासन के ऊपर बैठा बज्रासन मारे वह भव-भारत की जन-वीणा बजा रहा है सागर का मंथन मद का मंथन होता है ऊँचे फन की लहरों के सिर झुक जाते हैं कोलाहल जीवन करता है दिग्गज रोते मस्तक फटते हैं गज-मुक्ता गिर पड़ते हैं रचनाकाल: ०५-११-१९५८

तुम!

दोष तुम्हारा नहीं-हमारा है जो हमने तुम्हें इंद्रासन दिया; देश का शासन दिया; तुम्हारे यश के प्रार्थी हुए हम; तुम्हारी कृपा के शरणार्थी हुए हम; और असमर्थ हैं हम कि उतार दें तुम्हें इंद्रासन से-देश के शासन से, अब जब तुम व्यर्थ हो चुके हो- अपना यश खो चुके हो! रचनाकाल: १६-११-१९५९

क्या हुआ?

समाप्त हो गया नीले आसमान का खूनी व्याख्यान दबोच लिया अंधकार ने आसमान को अपनी कैद में सो गए भद्दर नींद में खून से रंगे श्रोता सन्नाटे में बोलने लगे सियार हुआ-हुआ दिन न होने की मनाते हुए दुआ राम जाने क्या हुआ न जान पाईं जगरानी बुआ रचनाकाल: १९-०९-१९६५

आपका चित्र

आपका चित्र जहाँ भी जिसने लगाया आपका आशीष उसने पाया जिंदगी का दौर उसने आपसे चलाया न आपने उसे न उसने आपको भुलाया गरीब ने गरीब रहकर भी आपका गुन गाया अमीर ने अमीरी का हौसला बढ़ाया अवसर से लाभ राजनीति ने उठाया शासन को आपके ही नाम ने जिलाया [गाँधी के चित्र को देखकर] रचनाकाल: ३०-०१-१९६८

स्थिति

बिगड़े हैं लोग और बिगड़ा है आचरण रोके नहीं रुकता अपराधों का प्रजनन रचनाकाल: २९-०४-१९६८

वह - 2

चेहरा लगाए है गुरिल्ला का सुबह आने के लिए दिन का दायित्व निभाने के लिए धूप जो मर गई है फिर भी है उसको जिलाने के लिए रचनाकाल: ३०-०४-१९६८

नेता - 2

नेता निगाह का कच्चा है नासमझ देश का बच्चा है रचनाकाल: २७-०१-१९६९

हम

आपने खाए हमारे गट्टे हैं हमारे खाए फल बहुत खट्टे हैं रचनाकाल: २७-०१-१९६९

सिपाही

सर्र से निकल गई चोर की मोटर सिपाही देखता रह गया इधर से उधर रचनाकाल: २७-०१-१९६९

पैसा

पैसा दिमाग में वैसे सुअर जैसे हरे खेत में बाप अब बाप नहीं पैसा अब बाप है पैसे की सुबह और पैसे की शाम है दुपहर की भाग-दौड़ पैसा है पैसे के साथ पड़ी रात है रचनाकाल: ३०-०१-१९६९

विकास

विकास इस दिशा में हुआ है; अब बहुत आदमी बे-सिर पैर का हुआ है पीठ के नीचे धूल पड़ी है पेट पर आसमान खड़ा है हाथ के हल गिर पड़े हैं रचनाकाल: ३१-०१-१९६९

अखबार

कल का अखबार हूँ मैं आज का नहीं इतिहास के पेट में पड़ा हूँ मैं आज के बोध से दूर भविष्य के बोध से बहुत दूर छप चुका हूँ मैं पढ़ चुके हैं लोग आज का अखबार दूसरा अखबार है रचनाकाल: २३-०३-१९७०

सिपाही हूँ

सिर नहीं- गुलाब तोड़े हैं मैंने क्योंकि मैं सिपाही हूँ- बाग में बगावत का खतरा है आग से बचाना है भीड़ को मिटाना है रचनाकाल: ०४-०४-१९७०

आग

आग को आदमी बनाए है पालतू अपने लिए आग अब करती है आदमी को झुके-झुके सलाम आग अब आग नहीं- गुलाम रचनाकाल: २३-१०-१९७०

सच-झूठ

क्या यह सच है कि सच नहीं है झूठ जैसे झूठ नहीं है कचेहरी में धूप से भरी दुपहरी में? रचनाकाल: २३-१०-१९७०

वे

हम गा रहे हैं उनकी मौत का गाना जिन्हें आता है अब इंसान को हैवान बनाना खुद अपने लिए आरामगाह और दूसरों के लिए जगह-ब-जगह कत्लगाह बनाना रचनाकाल: १२-१२-१९७०

वह - 3

वह जाकर चली आती है रूपए लेकर बलात्कार भोगकर दूसरों के साथ, ब्याह गए बुद्धू के साथ समाज की आँखों में जीने के लिए कैद और कुंठित। रचनाकाल: २०-०६-१९७२

अहिंसा

मारा गया लूमर लठैत पुलिस की गोली से किया था उसने कतल उसे मिली मौत किया था कतल पुलिस ने उसे मिला इनाम प्रवचन अहिंसा का हो गया नाकाम। रचनाकाल: २१-०६-१९७२

अफसर

ये बड़कवे, पुराने, गब्बर, पेटू अफसर चाल-फेर से चला रहे हैं राजतंत्र का चक्कर-मक्कर अब तक-अब तक, इनसे पककर टूट रही है जनता थककर, इन्हें हटा पाना है मुश्किल, इनके आगे एक नहीं चल पाती अक्किल। रचनाकाल: २५-०७-१९७२

तुम-हम

सत्ताइस साल में तुम न तुम रह गए तुम न हम रह गए हम तुम हो गए खूँखार हम हो गए बीमार अभाव-ग्रस्त लाचार रचनाकाल: ०१-०८-१९७६

संसद और संविधान

संसद हो गई सर्वोपरि संविधान हो गया संशोधित धर्म निरपेक्ष हो गया लोकतंत्र समाजवादी हो गया भारत-भाग्य-विधाता, आम आदमी हो गए अनुशासित सिर पर लिए संसद और संविधान एक ही चाल और चरित्र से अनुबंधित जीने के लिए लघुत्तम इकाई से महत्तम इकाई होने के लिए अंततोगत्वा देश के लिए होम में हविष्य हो गए रचनाकाल: ०३-०८-१९७६

साँप और शैतान

हम बाण मारते हैं न साँप मरता है- न शैतान। हम हो गए परेशान, हमें मारे डालते हैं साँप और शैतान। रचनाकाल: १३-०८-१९७६

ये साधक

ठाट-बाट के सुविधा-भोगी ये साधक-आराधक धन के निहित स्वार्थ में लीन निरंतर बने हुए हैं बाधक जन के केंद्र-बिंदु पर बैठे-ठहरे चक्र चलाते हैं शोषण के रचनाकाल: ०६-१०-१९७६

गूँज

आज सामंती पुरानी हो गई मौत के मुँह की कहानी हो गई जो भलाई थी बुराई हो गई जो कमाई थी चुराई हो गई प्यार वाली आँख कानी हो गई मात खाई जिंदगानी हो गई आज रानी नौकरानी हो गई रचनाकाल: १५-११-१९७६

पहली बार

अब इस बार पहली बार सिंह और पंडित की वर्ण-माला तोड़ी गई, तपे हुए लोहे को चुना गया लोकसभा का चुनाव लड़ने को। चक्कर मक्कारों का नहीं चला शोषक श्रीमंतों का दाँव भी नहीं चला, ऊँचे अब नीचे हुए पानी बिना सूखे हुए रचनाकाल: १७-०२-१९७७

अन्याय की जीत

न्याय से लड़ा अन्याय एक से दूसरी दूसरी से तीसरी कचेहरी में, अंत में जीता अन्याय जो था जबरजंग चौपट हो गया न्याय। रचनाकाल: २५-०२-१९७७

बीच में

चलते-चलते भी न चलकर थक गया दिमाग, पाँव की यात्रा पर गए पाँव न थके विवेक हो गया बैठ गया दूध गंतव्य के पहले ही बीच में एक जगह झाड़-झंखाड़ में फँस गई राजनीति फँसी चिड़िया उड़ नहीं पाती। रचनाकाल: २८-०३-१९७७

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