Jhara Palok : Jibanananda Das; Translator - Sameer Varun Nandi

झड़ा पालक (ঝরা পালক) : जीवनानंद दास; अनुवादक - समीर वरण नंदी


नीलिमा

स्पर्श से- टूट जाती है, कीटप्राय धरणी की रौद्र-झिलमिल उषा का आकाश, मध्यरात्रि का नील, अपार ऐश्वर्य वेश में तुम दिखाई देती बार-बार निःसहाय नगरी के कारागार की प्राचीर के पार। उठ रही है यहाँ लपट चूल्हे की आग अनिवार आरक्त सारे कंकर मरुभूमि के तप्तश्वास मिला मरीचिका से ढका है। अनगिनत यात्रियों के प्राण ढूँढ़ता खोजता नहीं मिलता पथ का संधान पाँव में बँधी है, शासन की मजबूत जंजीर, है नीलिमा निष्पलक लक्ष्य विधि विधान के इस कारातल को अपने ही माया दण्ड से तोड़ती हो तुम भी मायावी। जन कोलाहल में अकेला बैठा सोचता है- कहीं दूर-जादूपुर-रहस्य का इन्द्रजाल फैलाये स्फटिक रोशनी में अपना नीलाम्बर फैलाये मौन स्वप्न-मोर के पंख की तरह वास्तविकता के रक्त किनारे आई हो एकाकी मेरी आँखों से पोंछ जाती है व्याध विद्ध धरती की रक्तलिपि जल उठती है असीम प्रकाश की उज्ज्वल दीपशिखा। वसुधा के आँसू के बूँद, आतप्त सैकत, छिन्नवस्त्र, नग्नशिर, भिक्षुदल करुणाहीन ये राजपथ, लाखों करोड़ों अब-तब मरते लोगों का कारागार, ये धूल-धम्र-गर्म विस्तृत अंधकार डूब जाती है नीलिमा में स्वप्नयुत मुग्ध आँख पाते, शंख शुभ्र मेघ पुंज में, शुक्लाकाश में नक्षत्र की रात में। तुम्हारे चकित विशीर्ण निस्तब्धता, है अतन्द्र बहुत दूर है कल्पलोक।

पिरामिड

समय बहता जा रहा है, गोधूलि की मेघ-सीमा पर धूम्रमौन साँझ, रोज़ बजता है, नये दिन का मृत्यु घंटा, श्मशान पर शताब्दी के शवदाह की भस्माग्नि जल रही है, पथिकों को म्लान चिता पर चढ़ाते-चढ़ाते एक-एक कर मिट गए देश जाति संसार समाज। किसके लिए, किसके लिए हे समाधि! तुम बैठी हो अकेली- कैसे, किसी विक्षुब्ध प्रेत की तरह अतीत का सब ताम-झाम पल में खोकर अब क्या ढूँढ़ती रहती हो। किस दिवा अवसान पर लाखों मुसाफ़िर चिराग़ बुझा, घर-आँगन छोड़ गये, चली गई प्रिया चले गये प्रेमी युगान्तर में मणिमय गृहवास छोड़ चकित हो चले गये वासना के पंसारी- कब किस बेला के अन्त में- हाय, दूर अस्त माथे की देह पर। तुम्हें गये नहीं वे अन्तिम अभिनन्दन का अर्ध्य चढ़ाये, साँझ की ओस-नील समुद्र मथकर तुम्हारे मर्म में बैठी नहीं उनकी विदावाणी। तोरण तक आये नहीं लाखों लाख मृत्यु संधानी, करुणा से पीले हुए-छल-छल गिरते आँसू जंगले और दरवाजे़ पर काला पर्दा डाल गये नहीं जानते हो तुम, नहीं जानती मिस्र की मूक मरुभूमि भी उनका संधान हे निर्वाक् पिरामिड! अतीत का स्तब्ध प्रेत प्राण, अविचल स्मृति का मंदिर, आकाश का प्राण तकते बैठे हो स्थिर, निष्पलक दोनों भौंहे ताने हुए देख रहे हो अनागत पेट की ओर रक्तमेघ मयूर के प्राण से, जला जा रहे हैं नित्य-निशि अवसान पर नव भास्कर। चीख़ उठता है अनाहत मेमनों का स्वर नवोदित अरुण के लिए किस आश-दुराशा में स्थायी क्षण पर उँगली रखे पाषाण पिरामिड के मर्म के आस-पास नाचता जाता है पल देा पल खून का फ़व्वारा- एक प्रगल्भ उष्म उल्लास का संकेत लिए रुक जाती है किसी मुहूर्त में एक पथिक-वीणा, शताब्दी का स्थिर विरही मन- नीरव, आकाश के पीत-रक्ताभ सागर के पार मरता-फिरता रहता है संतरी स्फीत, रेत सागर में चंचल मृगतृष्णा के द्वार पर मिस्र के अपहृत अन्तर के लिए भिक्षा माँगते हो मौन! कब खुलेगा रुद्र माया द्वार मुखरित होगा प्राण संचार कब बोलेगा ख़ामोश नीला आकाश इसलिए टूटी रातों में बैठे हो, हाथ! कितने आगन्तुक, काल अतिथि-सभ्यता तुम्हारे द्वार आकर कह जाते हैं चट तुम्हारे अन्तर की बात उठा जाते हैं उच्छृंखल रुद्र कोलाहल निरुत्तर निर्वेद निश्चल रहते तुम मौन अन्यमंनस्क प्रिया की छाती पर बैठे नीरव में शव साधनारत- हे खण्डित अस्थि प्रेमी स्वराट् अपने सुप्त उत्सव से उठोगे कब जगकर? सुस्मित आँखें उठाकर कब अपनी प्रिया के स्वेद कृष्ण-पाण्डु चूर्ण व्यथित माथे पर अंकित करोगे चुम्बन? मिस्र के आँगन में गरिमा का दीया कब जलेगा? किसके लिए बैठे हो आज भी अश्रुहीन, स्पन्दहीन, उलटते-पलटते युग-युगान्तर के श्मशान की राख प्रेम पर देते हुए पहरा अपनी प्रेत आँख खोले हुए। शुरू होगा हमारे जीवन का पतझर जाते हुए हेमन्त के कोहरे में- जलती दोनों आँखें खोले? दो दिन की ओट में हम गढ़ते हैं स्मृति का श्मशान नव उत्फुल्ल सुन्दरी के गीत हमें भुलाये रखते हैं विचित्र आकाश में। अतीत की हिमगर्भी इस क़ब्र के पास भूल जाते हैं दो बूँद आँसू गिराना।

उस दिन इस धरती की

उस दिन इस धरती की हरे द्वीप की छाया-उच्छल तरंगित भीड़ मेरी आँखों में जगे-जगे धीरे-धीरे खो गयी कुहासे में टूटे शरीफे की तरह। चारों ओर डूब गया कोलाहल, सहसा ज्वार जल में भाटा बह गया, सुदूर आकाश का मुख आकर मेरी छाती में उठ गया हाहाकार। उसी दिन हुआ मेरा अभिसार मिट्टी के रिक्त प्रूाले की व्यथा तोड़कर बक के पंख की तरह सफे़द लघु मेघ में तैर रही थी आतुर उदासी, बन की छाया के नीचे तैरती है कोई भीगी आँख रोती है बार-बार कोई बाँसुरी उस दिन को सब नहीं सुना, क्षुधातुर दो आँख उठाये सुदूर सितारों की कामना में आँखें अपनी रखीं थी खुलीं। मेरी यह शिरा-उपशिरा चौंक कर टूट गयी धरती में शिरा बन्धन, सुना था कान लगाये जननी का स्थाविर क्रन्दन- मेरे लिए पीछे से तुम्हारी पुकार मिट्टी है-माँ- पुकारा था भीगी घास हेमन्त के हिममास ने जुगनुओं के झुंड ने, पुकारा था जली हुई भूमि की लाल माटी ने, श्मशान की खेयाघाट ने आकर, कंकालों का ढेर, लहकी-लहकी चिता, कितने पूर्व जातक के पितामह-पिता, सर्वनाशी-व्यसन-वासना कितने मृत साँपों का फन, कितनी तिथियाँ, कितने अतिथि- कितने सौ योनिचक्र स्मृति ने किया था मुझे उथला। आधे अंधेरे-आधे उजाले मेरे साथ मेरे पीछे भागे आये, मिट्टी के चुम्बन से सिहर उठे मेरे होंठ, मेरे रोम-रोम। जलता मैदान-धान खेत-कांसफूल वनहंस-बालू चर जैसे बगुले के बच्चे की तरह मेरी छाती पर इधर-उधर पंख खोले मेरे साथ नाचते चले, बीच-बीच में रुक गये वे सब, गिद्ध की तरह शून्य में पंख फैलाये, दूर-दूर और दूर और दूर में चला उड़ा निःसहाय मनुष्य का शिशु एकाकी-अनन्त के शुक्ल अन्तःपुर में असीम के आँचल तले- स्फीत सागर की तरह आनन्द के आर्त कोलाहल में तुरन्त चढ़ गया सैकल पर दूर छाया पथ पर। पृथ्वी की प्रेत आँख सहसा तैर उठी तारों के दर्पण में मेरे अपहृत मुख का प्रतिबिम्ब खोजता, भू्रणनष्ट सन्तान के पास मिट्टी दौड़ी आयी माँ छाती फाड़ विनती करती, साथ लिए गंगा शिशु-वृद्ध मृत पिता, जच्चाघर और श्मशान की चिता लिए मेरे पास खड़ी रही, वह गर्भिणी के क्रोध से मेरे दो शिशु आँख तारों के लोभ में से उठा पीनस्थल जननी का प्राण, उसके जरायु के डिम्ब में जन्मी है जो वांछित संतान उसी के नीचे काल-काल में बिछाया है उसने शैवाल का बिछौना और शाल तमाल की छाया, लायी है वह नई-नई ऋतुराग-पौषनिशा के अन्त में फागुनी फाग की माया, उसके नीचे वैतरणी के तीर पर उसने ढाली है गंगा की गगरी, मौत का अंगार लपेटे स्तन उसके रस से हो उठे हैं तर। शोभा हो उठी दूब धान की, मानव के लिए वह जो ले आया मानवी, उस मसालेदार इस मिट्टी की झाँझ बहुत रे- फिर क्यों दो पल के आँसू अमानिशा छाती में तेरी उठा जाती है दूर आकाश तले नशाख़ोर मक्खी की तृषा। धीरे से आँखें मूँदे-शेष रोशनी बुझ गई पलातका नीलिमा के पार, सद्य प्रसूति की तरह अँधेरी वसुन्धरा फिर से मुझे।

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