इसी आकाश में : हरभगवान चावला
Isi Akash Mein : Harbhagwan Chawla



कविता का सूरज

कविता मेरी आत्मा का सूरज है इस सूरज के उजाले में दिपदिपा उठते हैं मेरी आत्मा के रत्न सोया प्रेम जागता है उनींदी घृणा फुफकारती है फड़फड़ा उठते हैं गुह्य संवेदन एक-एक कर लुप्त हो जाते हैं सारे आवरण मैं शिशु-सा आवरणहीन होता हूँ आत्मा के धरातल पर जब मेरे सामने होता है कविता का सूरज- मेरी आत्मा का सर्वश्रेष्ठ सृजन।

कविता-एक

कविता हलुआ नहीं हो सकती कविता को कम से कम रोटी जैसा तो होना ही चाहिए कि कौर तोड़ते ही उभर आएँ नुकीले कोने।

कविता- दो

प्यास से आकुल कोई चिड़िया चिकनी चट्टानों की ढलानों पर से फिसलते पानियों में चोंच मार देती है कविता यूँ भी आकार लेती है।

जब कविता नहीं थी

क्या पानी तब भी ऐसे ही लय में बरसता था बारिश की शक्ल में क्या तब भी नदियाँ यूँ ही बहती थीं चट्टानों पर मचलती-थिरकतीं क्या पत्थरों के रंध्रों में तब भी फूट आती थी घास अनायास क्या तब भी फूल खिलते थे बिना यह देखे कि कोई उन्हें देखता है कि नहीं क्या तब भी पेड़ों की टहनियों पर पक्षी चहचहाते थे उड़ जाते थे स्वच्छंद आकाश में जब कविता नहीं थी जब कविता नहीं थी क्या तब भी किसी के छू देने भर से दिल धड़कता था होंठ काँपते थे क्या कोई ऐसा समय था जब कविता नहीं थी ?

परवरिश

मैंने अपनी कविता को हमेशा धूप, धूल और धुएँ से बचाया कभी उसके सामने नहीं आने दिए भूखे, नंगे, बदबू उगलते लोग किसी मलिन बस्ती का साया भी उस पर नहीं पड़ने दिया कि कहीं सिद्धार्थ की तरह विरक्त न हो जाए मेरी कविता मेरी कविता ने नहीं धरे किसी कँटीली पगडंडी पर पाँव चाँदनी-सी गोरी, उजली कविता उजले रेशमी वस्त्र पहन बग्घी में बैठ भ्रमण करती रही राजमार्गों और मनोहारी उद्यानों का मैंने उसे राजकुमारी की तरह पाला पर इतने लाड़-प्यार और ऐश्वर्य के होते भी निरंतर पीली पड़ती जा रही है मेरी राजकुमारी मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कहाँ कमी रही उसकी परवरिश में।

ज्ञानेन्द्रियाँ

ईँधन की मानिंद भट्टियों में झोंक दिए जाते हैं ज़िंदा इन्सान तुम्हारी कविता को गंध नहीं आती अंधेरे तक को कँपाती गूँजती रहती हैं अबलाओं की चीख़ें तुम्हारी कविता कुछ नहीं सुनती भूख निरंतर मिटाती रहती है हथेलियों की भाग्य और जीवन-रेखाएँ तुम्हारी कविता कुछ नहीं देखती शहर रोज़ लहू से तरबतर होता है और तुम्हारी कविता के वस्त्र उजले और बेदाग़ बने रहते हैं कहाँ से लाते हो तुम अपनी कविता की ज्ञानेन्द्रियाँ कवि ?

मायाजाल

मैं जानता हूँ क़ब्र से ऊँचा नहीं है मेरा क़द मेरे दोस्तो ! पर तुम मुझे हिमालय कहो मैं जानता हूँ किसी भी तर्क या विचार से ज़्यादा असरदार है प्रचार प्रचार की ताक़त से रच दिए जा सकते हैं ऐसे-ऐसे मायाजाल कि जिनके धुंधलके में विलीन हो जाएँ तमाम तार्किक संरचनाएँ मायाजाल रचना आता हो तो टनों दूध पी जाती हैं पत्थर की मूर्तियाँ जन्म से विकृत बच्चे देवता हो जाते हैं लोगों को भेड़ों में बदल देते हैं धर्मगुरु यही मायाजाल झूठ को स्थापित करता है सच की तरह सबसे बड़े सूरमा हो जाते हैं अख़बारों में लड़ने वाले काठ के योद्धा कुछ भी संभव है इस मायावी देश में मेरे दोस्तो ! तुम क़ब्र पर जमाते जाओ प्रशंसा की मायावी बर्फ़ की परतें एक दिन हिमालय हो जाएगी यह क़ब्र और क़ब्र की आड़ में अदृश्य खड़ा होगा सचमुच का हिमालय।

प्रेम के देश में

प्रेम के देश में कभी साँझ नहीं होती न रात सुबह भी नहीं होती प्रेम के देश में प्रेम के देश में हमेशा पौ फटने से पहले का उजास रहता है और इस उजास में अपनी धुन में मस्त उड़ता फिरता है कोहरा।

तुम्हें बनाने में

मैंने देखा- पहाड़ों पर बर्फ़ नहीं थी ज्वालामुखियों में आग नहीं थी न समुद्रों में नमक मैं हैरान था- पहाड़ों की बर्फ़ का क्या हुआ ज्वालामुखियों की आग कहाँ गई कहाँ ग़ायब हुआ समुद्रों का नमक मैंने तुम्हें देखा और सोचा- तुम्हें बनाने में कुदरत ने कितना कुछ गँवा दिया पहली बार मुझे कुदरत की इस फ़िज़ूलख़र्ची पर गुस्सा नहीं आया।

गुलाबी उजाला

मेरे घर से मेरे प्यार तक एक समंदर का फासला है इस समंदर में अक्सर तूफ़ानों की हलचल रहती है समंदर भरा है आक्टोपस और शार्क मछलियों से जल में डूबी बगुले-सी खड़ी हैं घात लगाए नुकीली चट्टानें मैं रोज़ उस समंदर को तैरकर पार करती हूँ घर से जाते हुए एक गुलाबी उजाला मेरे सामने होता है घर लौटते हुए मेरे भीतर होता है वही गुलाबी उजाला।

तुम्हारी आवाज़- एक

तुम कृष्ण की बाँसुरी तो नहीं पर वैसी ही किसी बाँसुरी से फूटती है तुम्हारी आवाज़ मैं राधा नहीं पर तुम्हारी आवाज़ सुनते ही तुम्हारी ओर दौड़ती है कोई तरंग तुम्हारी आवाज़ के कोहरे से ढक जाता है मेरे भातर का आकाश सूरज कहीं ठिठका रहता है आसमान की आड़ में इस तिलिस्म को देखता हुआ।

तुम्हारी आवाज़- दो

तुम्हारी आवाज़ का लोच कभी मंथर, कभी द्रुत गति से मचलता, बहता जल। तुम्हारी आवाज़ का माधुर्य पत्थर के आलिंगन से अभी-अभी छूटा छलछलाता जल। तुम्हारी आवाज़ का शिल्प किनारे के पेड़ को देख ठिठक कर हाथ हिलाता जल। तुम्हारी आवाज़ एक हिमालयी नदी कि जिसकी आर्द्रता रिस जाती पोर-पोर में तुमसे बात करता हूँ तो लगता है बात कर रहा हूँ ज़िंदा इन्सान से परछाई से नहीं।

भाषा

तुमसे किस भाषा में बात करूँ कि मैं जो कह रहा हूँ तुम वही सुनो, वही समझो वही महसूस करो अक्सर बात करते हुए बातों में अनायास घुस आता है दिमाग़ और भाषा को चमकदार पर बेजान मोतियों में बदल देता है मैं कहाँ से लाऊँ वह भाषा जिस भाषा में मछली जल से बात करती है बादल पौधों से तारे सूरज से झरना चट्टान से झाड़ी रेत से जिस भाषा में चंद्रकांत मणि चाँद से बात करती है भूखा शिशु माँ से जिस दिन हम पा जायेंगे ऐसी भाषा दुनिया में किसी भाषा की ज़रूरत नहीं रह जाएगी।

मिलन

बहुत-बहुत बरसों बाद जब बादल ख़ूब बरसते हैं सीझ जाते हैं धरती के पपड़ियाए होंठ धरती बरसते रस को आँखें बंद किए सोखती रहती है उसके रोम-रोम में उन्माद भर जाता है वह अपनी बाहें बादल की काली पीठ पर कस देती है वह भूल जाती है वे सारे दुःख जो उसे बादल से कहने थे वे सारे उलाहने जो बादल को देने थे वह उसे ऐसे देखती है कि बादल बेआब हो जाता है और धरती की आँखें समंदर।

कौन जानता है

कौन जानता है तितली के पंखों के रंगों का स्रोत कौन बता सकता है क़िस्सों की उम्र कौन रख सकता है देह के ठीक उस हिस्से पर उंगली जहाँ प्यार पनपता है तड़प उमड़ती है।

नदीः एक

मेरे प्राण नदी में बसते थे और नदी सूख रही थी मैं नदी की धारा को कलकल बहते देखना चाहता था और धारा को रेत ने ढाँप लिया था मैं अपनी अंजुरियों से निरंतर हटा रहा था रेत नदी पुकार उठती बार-बार- ‘सूख जाना मेरी नियति है व्यर्थ प्रयत्न मत करो, लौट जाओ’ हताश मैं लौटने को होता तो तड़प उठती नदी थोड़ा दृष्टि से ओझल होता तो सुनाई पड़ता कातर स्वर- ‘कहाँ हो ?’ मैं नदी के पास पहुँच फिर रेत से लड़ने लगता रेत से लड़ते-लड़ते छलनी हो गए मेरे हाथ मेरे हाथ देख विचलित हो उठी नदी उसने उमड़ कर थाम लिए मेरे हाथ मुझे ताकती रही और बड़बड़ाती रही नदी- ‘क्यों हठ करते हो क्यों रेत हो जाना चाहते हो मेरी तरह लौट जाओ, लौट जाओ !’ मैं हठ ठानकर रेत से लड़ रहा हूँ और अचरज कि नदी खुद रेत से प्यार करने लगी है मुझे अब भी बार-बार सुन पड़ती है नदी की करुण प्रार्थना- ‘लौट जाओ, मैं मृगतृष्णा हूँ मेरे पास आओगे तो प्यास के सिवा कुछ नहीं पाओगे रेत से लड़ोगे तो हार जाओगे’ मैं नदी की पुकार सुनता हूँ फिर भी वहीं खड़ा हूँ मुझे ड़र है तो लौटा तो तुरंत रेत हो जाएगी नदी रेत से लड़ते हुए रेत हो जाना स्वीकार है मुझे सूखने के लिए कैसे छोड़ दूँ नदी में मेरे प्राण बसते हैं।

नदीः दो

तुम चाहते हो नदी हमेशा बहती रहे शांत और संयत उसमें इतना भर पानी रहे कि तुम किनारे बैठे रहो और तुम्हारे पाँव जल में डूबे रहें नदी न कभी तुम्हारा हाथ छुए न तुम्हारे चेहरे को भिगोए कभी फुहार नदी कभी आह्लादित न हो, न बहुत उदास बरसात के मौसम में कहीं-कहीं से आकर नदी में मिलता रहे जल नदी तब भी बनी रहे स्वच्छ और संयमित कितने भी पत्थर टूटकर गिरें नदी का प्रवाह न हो बाधित मौसम कैसा भी हो वह बहे एकरस तुम्हारे पाँवों को छूती हुई तुम्हें भी पता है लाख कोशिशों के बावजूद ऐसे ही नहीं बहती रह सकती कोई नदी !

बातें

आँखों को पढ़नी थी प्यार की लिपि आँखों को बरसना था प्यासी धरा पर आँखों को ही देनी थी आश्वस्ति हाथों को देनी थी कंधे पर थपकी हाथों को थामनी थी लरजती नदी हाथों को अंजुरी बन सहेजना था बहाव होठों को चुन लेनी थी सारी तपन होठों को सोखनी थी सारी लवणता होठों को पीनी थी सारी गमकती उफनती धारा जो आँखों को करना था बातों ने किया जो हाथों को करना था बातों ने किया जो होठों को करना था बातों ने किया बातें भी कितना करतीं और कब तक थक गईं बातें तो कड़वी हो गईं इतना सब करते सहज रहतीं भी तो कैसे कड़वी हुईं बातें तो सूख गया उनका रस बातें सूखीं तो सूखकर रेत हो गई मचलती नदी भी।

झील

मैं झील हूँ जीवन की शुष्क ढलान पर लटकी अटकी किसी पथरीली चट्टान में कभी मुझे हर समय छूकर गुज़रती थी चंदनी हवा मैं झूम-झूम जाती मेरे किनारे के पेड़ मुझे बूँद-बूँद पीते मेरे जल में भीगती रहती धानी दूब कभी मुझे इस तरह से झिंझोड़ती हवा कि मैं पत्थरों से टकरा जाती व्यथा से कराह उठती पर उस व्यथा से भी चंदन की गंध आती थी निरंतर गतिशील थी मैं और ऊर्जस्वित फिर एक दिन रास्ता बदल गई चंदनी हवा लुप्त हो गई मेरी ऊर्जा गति जड़ हो गई सड़ने लगा जल, मैंने व्यग्र होकर हवा को पुकारा कि देखो मैं सड़ रही हूँ गल रही हूँ छू लो मुझे उत्तर में मुझ तक पहुंची मर्मर ध्वनि- ‘तुम सूख क्यों नहीं जातीं’ मैं भी चाहती हूँ सूख जाऊँ पर पता नहीं मेरी पथरीली गहराइयों में कहाँ छुपा है कोई सोता कि मैं सूख भी नहीं पाती।

तर्क

मेरे सपनों का परिंदा आकाश में उड़ा कि तुम्हारे तर्क के तीर ने उसे बेंधकर धरती पर पटक दिया मैंने तुम्हारे सामने खोला अपना हृदय कि जिसमें तुम्हारे लिए उमड़ते थे प्रेम के अथाह समंदर तुम्हारे निर्मम तर्क ने हृदय को माँस के एक वीभत्स लोथड़े में बदल दिया मैं तितली के पंखों के रंग देख रहा था कि देखते ही देखते स्याह हो गए सारे रंग कभी तुम छलछलाती नदी नज़र आती हो फिर पल भर में ही जलती रेत हो जाती हो लगता है छू लिया तो जल जाऊँगा मुझे तुमसे ड़र लगता है तुम तिरोहित कर देती हो वो सारी वजहें जिनसे कि सृष्टि में बना है आकर्षण तुम्हारी मौजूदगी में पदार्थ हो जाती हैं सारी संवेदनाएँ किसी दिन हम दोनों के बीच मेज़ पर स्फटिक की गेंद-सा रखा होगा हमारा प्यार हम उस गेंद के मध्य से मुग्ध होकर एक-दूसरे को देखते होंगे कि सहसा लुप्त हो जाएगी गेंद तुम अचानक गुर्रा उठोगी- ‘कौन हो तुम और यहाँ क्या कर रहे हो ?’

स्मृतियाँ

स्मृतियाँ सूरज होती हैं सूने-अँधेरे घर में छाया रहता है स्मृतियों का आलोक स्मृतियाँ नाव होती हैं जिसमें बैठ हम पार कर जाते हैं दुःखों का समुद्र स्मृतियाँ बादल होती हैं बरसती हैं हमारे मन की सूखी रेत पर स्मृतियाँ छलावा भी होती हैं कभी किसी अंधे मोड़ पर अचानक गुम हो जाती हैं हमें अकेला छोड़कर।

उड़ान

सबसे पहले घोंसला छूटता है घोंसले के साथ माँ-बाप फिर पेड़ छूटता है पेड़ के साथ टहनियों पर बैठे बंधु-बांधव परिंदा ज्यों-ज्यों ऊपर उड़ता है पीछे छूट जाते हैं कतार में एक साथ उड़ते पक्षी नज़रों से ओझल हो जाती है धरती साथ छोड़ देती है खुशबू की ड़ोर जैसे-जैसे आकाश के क़रीब होता जाता है परिंदा अकेला होता जाता है आदमी के बारे में भी यही सच है।

आँख

माँ बाँध रही है बेटी के लिए कितनी ही पोटलियाँ चने की दाल, मूँग के लड्डू शक्करपारे, मठरियाँ, ग्वारफली अलग-अलग बाँधकर बहुत सँभाल कर बड़े थैल में रखती जाती है कि कहीं कुछ छूट-टूट न जाए कपड़े अलग से रख दिए हैं सूटकेस में बेटी बाल सँवार रही है बस अब दो-चार पल में उसे निकलना है ससुराल के लिए माँ के दिल से बेटी के लिए निकलती है ख़ामोश दुआ- “सदा सुखी रहो” ख़ूब खुश है बेटी ससुराल में पर माँ की आँख है भर ही जाती है रह-रह कर।

मुल्तान की औरतें

अस्सी पार की ये औरतें जो चलते हुए काँपती हैं लडखड़ाती हैं या लाठी के सहारे क़दम बढ़ाती हैं धीरे-धीरे सन सैंतालीस में ज़िला मुल्तान से आई थीं जब अचानक बैठे-बिठाए बदल गया था उनका मुल्क तब ये युवतियाँ थीं या युवतियाँ हो जाने वाली थीं उस वक्त जब समझदार लोग किसी भी तरह जान बचाना चाहते थे या सोना-चाँदी ये लड़कियाँ तंदूर पर पकती रोटियों को याद करती थीं या कुएँ के ठंडे मीठे पानी को वे अपने साथ लाना चाहती थीं मुसलमान सहेलियों के होठों पर छूट गई अपनी हँसी कपास और शलगम के पौधों पर छूट गए अपने गीत पर सामने मौत थी मौत के जबड़े ख़ून से सने थे रास्ते में कट गईं कितनी सहेलियाँ कितनी नहरों में कूद गईं कितनी क़ैद कर ली गईं कितनी आग में जल मरीं इन लड़कियों ने बेबस आँखों से अपनों को मरते देखा इन्होंने सुनी मरते परिजनों की आख़िरी चीख़ें ये चीख़ें उनकी देह से चिपक गईं जैसे पत्थर की छाती को छेनी से काटकर लिख दी गई हों इबारतें ये चीख़ें आज भी उनकी नींद में चली आती हैं तब ये बूढ़ी औरतें फिर से युवतियाँ होकर मूक विलाप करतीं हैं ये बूढ़ी औरतें हँसती भी हैं कुएँ के पानी-सी छलछलाती हँसी पर उनकी हँसी की धवलता में जाने कहाँ से आ घुलता है लाल रंग उन्हें हूबहू याद हैं अपने गाँव अक्सर वे सोचती हैं अब बूढ़ी हो गई होंगी पीछे छूटी सहेलियाँ उन्हीं की तरह उनकी हँसी में भी शायद कभी घुल जाता होगा लाल रंग इनमें से एक औरत सैंतालीस में पोटली में बाँध लाई थी गाँव की मिट्टी ये सब औरतें एक साथ कभी-कभी पोटली खोलती हैं सूखी मिट्टी फिर से गीली हो जाती है।

प्यास

कोई थका-हारा प्यासा हिरण पानी में दाख़िल हो गले से नीचे उतारता है एक घूँट पानी कि तपस्वी की तरह मौन साधे नदी के तल में निश्चेष्ट पड़ा मगरमच्छ झपट कर जकड़ लेता है उसे अपने जबड़ों में पता नहीं उस समय क्या चलता होगा हिरण के मन में क्या होगी उसकी प्राथमिकता जान बचाना या मर जाने से पहले प्यास भर पानी पी लेना? मैंने देखा है जबड़ों से छूटने की जद्दोजहद में भी हिरण की थूथन पानी की ओर लपकती है उसका भोजन बन जाने से पहले हिरण बुझा ले अपनी प्यास इतनी सी भी इजाज़त उसे नहीं देता मगरमच्छ आख़िर हिरण कहाँ और कैसे बुझाएँ प्यास कि पानी के हर स्रोत में समाधिस्थ हैं मगरमच्छ।

पवित्रता

मंदिरों में करोड़ों के गहने कौन चुपचाप चढ़ा जाता है? ज़ाहिर है कोई मेहनतकश तो नहीं दो हाथों की कमाई से तो पेट भी पूरा नहीं भरता तो फिर कौन हैं ये दानी ग़रीब का पेट काट बेइन्तहा धन कमाने वाले पापमुक्ती के लिए वहीं धन मंदिरों में चढ़ाने वाले ऐसे धन को स्वीकारने वाले भगवानों के पास कहाँ बची है इतनी पवित्रता कि उनके सामने अनायास झुक जाएँ शीश?

पाप का घड़ा

अंजुरी भर-भर घड़े में उँड़ेल दो अपने सारे पाप पाप का घड़ा अभी बहुत ख़ाली है घड़ा जब तक भरेगा नहीं ईश्वर कुछ करेगा नहीं।

पाप

अपने पापों को आटे में गूँथकर पेड़ा बनाइये अपने हाथों पेड़ा गाय को खिलाइये और फिर से पाप करने में जुट जाइये।

दुनिया के सबसे अच्छे लोग

सबसे पहले अपना दिमाग़ किसी धर्मगुरु की अँधेरी गुफा में फेंक आते हैं दुनिया के सबसे अच्छे लोग ये निरंतर नाम जपते हैं और आज्ञाकारी होते जाते हैं ये जीवन-भर खटते रहते हैं धर्मगुरु के खेतों और कारख़ानों में जिस भी रास्ते से गुज़रता है धर्मगुरु उस रास्ते पर तनी रहती हैं इनकी लाठियाँ कि धर्मगुरु के आराम में ख़लल न ड़ाले कोई परिंदा, जानवर या इन्सान जब भी आज्ञा होती है ये सड़कें रोक देते हैं या बसें जला देते हैं रक्तदान करते हैं या बुहार देते हैं शहर का कूड़ा और आज्ञा होते ही शहर को कूड़ेदान में बदल देते हैं धर्मगुरु को ख़ुश करने के लिए कभी-कभी कर लेते हैं आत्मदाह भी दुनिया के सबसे अच्छे लोग क़ानून इनके लिए क़ागज़ होता है और दुनिया गेंद ये जब चाहें क़ागज़ को चिंदियों में बदल हवा में उड़ा देते हैं गेंद को उछाल देते हैं आकाश में इनके ऐसे कारनामों पर इतने मुग्ध होते हैं राजा और दरबारी कि धर्मगुरु के चरणों में विह्वल होकर झुके रहते हैं इनके शीश बाढ़ से उफनती नदी-सा सब तरफ़ फैला है इनका प्रभुत्व इसी बाढ़-से प्रभुत्व में डूबती-उतराती रही हैं सारी सत्ताएँ, सारी व्यवस्थाएँ सतत प्रयत्नशील रहते हैं राजा और दरबारी कि उन पर कृपादृष्टि बनाए रखें धर्मगुरु और हमेशा उनके मददगार बने रहें दुनिया के सबसे अच्छे लोग।

दिमाग़

‘मैंने अपना दिमाग़ तुम्हारे पास गिरवी रखकर तुमसे नामदान लिया था धर्मगुरु ब्याज के रूप में मैंने तुम्हें सौंप दी अपनी आधी ज़िंदगी इस दौरान मेरी ज़िंदगी में मेरा कुछ नहीं था जो कुछ था वो तुम्हारा था तुमने जो सोचने के लिए कहा, मैंने वही सोचा तुमने जो करने के लिए कहा, मैंने वही किया मैं हर उस जगह को अपनी पलकों से बुहारता रहा जहाँ-जहाँ तुम्हारे चरण पड़ते रहे तुम जब भी दिखे, मैंने दण्डवत् प्रणाम किया नहीं दिखे तो तुम्हारी तस्वीर के सामने हाथ जोड़े खड़ा रहा रात-दिन मेरी जुबान तुम्हारे दिए नाम को बुदबुदाती रही कहीं तुम्हारी निंदा होती तो त्याग देता वह जगह तुम्होरे लिए भिड़ जाता रहा मैं मेरे अपनों से अब बाक़ी बची ज़िदगी मैं अपने लिए जीना चाहता हूँ इसलिए अपना नाम वापस लो और मुझे मेरा दिमाग़ लौटा दो धर्मगुरु! भौंचक हैं धर्मगुरु आज तक किसी ने वापस नहीं माँगा अपना गिरवी दिमाग़ लाखों दिमाग़ बोरों में बंद आश्रम के कूड़ाघर में पड़े हैं। दफ़न होने की प्रतीक्षा में लाखों दफ़न किए जा चुके हैं पहले ही अब क्या करें धर्मगुरु, कुछ समझ नहीं आता वे तय करते हैं आपात् बैठक बुलाएँ प्रबंधकों की प्रबंधकों की बैठक में गहन मंत्रणा के बाद समिति के अध्यक्ष ने बाहर बैठे उस आदमी से कहा- ‘हमारे साथ चलो और पहचानो अपना दिमाग़’ थोड़ी देर बाद अध्यक्ष धर्मगुरु के सामने था- ‘आप निश्चिंत हो जाइए धर्मगुरु अब कभी कोई वापस नहीं माँगेगा अपना दिमाग़ ऐसे लोगों के लिए बना दिया गया है नया क़ानून ठीक वैसा जैसा आप ने कहा था’ बरसों बीत गए हैं अपने गिरवी दिमाग़ धर्मगुरु से वापस पाने के इच्छुक लोग उस आदमी के लौट आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं जो नाम लौटाकर अपना दिमाग़ वापस लाने आश्रम के भीतर गया था।

निज़ाम

हर सुबह चिड़िया गाय के गोबर को खँगालती गोबर से अलगा कर अपनी चोंच बीनती गोबर में छिपे अनाज के दाने मैं हर रोज़ उसे देखता मुझे देखते देखती तो उड़ जाती चिड़िया धीरे-धीरे मेरी उपस्थिति की निरापदता की अभ्यस्त होती गई चिड़िया चिड़िया अक्सर मुझे देखती और पूरी तन्मयता से अपना काम करती रहती जैसे कि मैं होऊँ ही नहीं अब तो वह मेरे पैर पटकने पर भी नहीं उड़ती ढीठ हो गई है वह देश के निज़ाम की तरह जो बिना किसी डर और शर्म के दानों को गोबर में बदल रहा है।

राहत शिविर

अपने ही मुल्क में अपने घरों से बेघर ये लोग रहते हैं राहत शिविरों में तम्बू की छत इतनी नीची कि सर उठाकर इनमें घुसा नहीं जा सकता कभी-कभी कैमरे पहुँचते हैं वहाँ तब हम देख पाते हैं मर्दों के गालों के दढ़ियल गड्ढ़ों में तरल अँधेरे-सा हिचकोले खाता संताप औरतों की सूनी आँखों में कौंधता घर सर पर चीकट टोपी ओढ़े बच्चे की ख़ौफ़ज़दा मासूम मुस्कुराहट औरतों का दिन लकड़ियाँ बीनने में गुज़रता है और रात आग जलाने में लकड़ियाँ राख हो जाती हैं पर तम्बू के भीतर का शीत अजर-अमर बना रहता है आत्मा की तरह हर आँख किसी मसीहे का इंतज़ार करती है ऐसे में बहुत मुमकिन है कि मसीहे के भेस में इनका हाथ थाम ले कोई शैतान !

गाँव से लौटते हुए

गाँव से लौटने लगा तो भाई कंधे पर उठा लाया बीस-पच्चीस किलो बाजरा माँ ने गाड़ी की डिक्की में रख दिया दो-ढाई किलो घी और सरसों का तेल भाई की पत्नी उठा लाई पाँच-छह किलो मूँग मैंने माँ से आशीष ली फिर हड़ियल भाई को देखा सैंतीस की उम्र में बूढ़ा लगा भाई उसकी पाँच साल की बेटी उसकी टाँग पकड़े खड़ी थी और मेरी कार को देख रही थी मुझे लगा भाई के बच्चों के मुँह से छीने जा रहा हूँ बीस-पच्चीस दिनों का भोजन गाड़ी स्टार्ट हुई तो भाई पैर छूकर बोला- आ जाया कीजिए दो-चार महीने में एकाध बार उसकी आँखों में मणियाँ दिपदिपा रहीं थीं और धँसी गालों में महक रहे थे गुलाब।