होली की ठिठोली (ग़ज़ल) : दुष्यन्त कुमार


होली की ठिठोली

(दुष्यंत कुमार टू धर्मयुग संपादक) पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर । संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर । अब ज़िंदगी के साथ ज़माना बदल गया, पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर । कल मयक़दे में चेक दिखाया था आपका, वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर । शायर को सौ रुपए तो मिलें जब ग़ज़ल छपे, हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर । लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप, शी! होंठ सिल के बैठ गए, लीजिए हुजूर । [धर्मयुग सम्पादक टू दुष्यंत कुमार (धर्मवीर भारती का उत्तर बक़लम दुष्यंत कुमार)] जब आपका ग़ज़ल में हमें ख़त मिला हुज़ूर । पढ़ते ही यक-ब-यक ये कलेजा हिला हुज़ूर । ये "धर्मयुग" हमारा नहीं सबका पत्र है, हम घर के आदमी हैं हमीं से गिला हुज़ूर । भोपाल इतना महँगा शहर तो नहीं कोई, महँगी का बाँधते हैं हवा में किला हुज़ूर । पारिश्रमिक का क्या है बढ़ा देंगे एक दिन, पर तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुज़ूर । शायर को भूख ने ही किया है यहाँ अज़ीम, हम तो जमा रहे थे यही सिलसिला हुज़ूर । (उपरोक्त दोनों ही ग़ज़लें 1975 में ’धर्मयुग’ के होली-अंक में प्रकाशित हुई थीं।)

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