हीरालाल मिश्र ‘मधुकर’: हिंदी काव्य परंपरा के संवाहक और एक साहित्य-नायक - डॉ. अलका दूबे

हिंदी कविता केवल भावों का सौंदर्य नहीं, वह भारतीय सांस्कृतिक चेतना की अंतर्ध्वनि है और इस चेतना के प्रामाणिक साधकों में एक नाम श्रद्धा-भाव से आता है— हीरालाल मिश्र ‘मधुकर’। वे ऐसे रचनाकार हैं जिनका लेखन नदी की तरह प्रवाहमय, चिंतन पर्वत की तरह स्थिर, और व्यक्तित्व धूप में तपे चंदन-सा सुगंधित है।

साहित्य की यात्रा में कई लोग शब्द लिखते हैं, परंतु कुछ ही लोग शब्दों के पीछे जीवन का दर्शन लिख पाते हैं। मधुकर जी उन्हीं दुर्लभ साहित्य साधकों में से एक हैं।

जीवन का उद्गम : एक संस्कार-संपन्न पृष्ठभूमि

हीरालाल मिश्र ‘मधुकर’ का जन्म जेष्ठ शुक्ल 14, दिन रविवार, 24 जून 1945 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी (प्राक्तन-भदोही) जनपद के धनवतिया ग्राम में हुआ। उनकी माँ यशःशेष धनपत्ती देवी और पिता कीर्तिशेष पं. यज्ञनारायण मिश्र थे— जिनके संस्कारों की छाया मधुकर जी के पूरे साहित्य और व्यक्तित्व में दिखाई देती है।
उनकी धर्म-पत्नी श्रीमती शारदा मिश्र ने जीवन-यात्रा में उनकी साहित्य-साधना को वह संबल दे रही हैं, जो हर बड़े साधक के पीछे अदृश्य शक्ति की तरह कार्य करता है।
मधुकर जी ने मात्र आठ वर्ष की आयु से लोक साहित्य का सृजन प्रारंभ कर दिया था। यह साधारण शुरुआत नहीं थी— यह एक प्रतिभा का नैसर्गिक प्रस्फुटन था। वे बचपन से ही लोकगीतों, कजली, फगुआ, और ग्राम्य संवेदनाओं के बीच पले-बढ़े, इसलिए उनकी रचनाओं में मिट्टी की सोंधी खुशबू और लोक-जीवन की धड़कन अनायास बस गई।

कृतित्व का विस्तार : 62 पुस्तकों की विराट साहित्य-यात्रा।

मधुकर जी का प्रकाशित साहित्यिक अवदान 62 पुस्तकों का है, जिसमें कविता, गीत, नवगीत, ग़ज़ल, लोकगीत, कहानी, उपन्यास, समालोचना और संपादन सभी विधाएँ सम्मिलित हैं। इतनी विशाल संख्या केवल लेखन-गणना नहीं— यह साहित्य के प्रति समर्पण की दीर्घ साधना का प्रमाण है।

उनकी रचनाओं में प्रमुख हैं :

कजली साहित्य का इतिहास – लोक साहित्य पर प्रामाणिक शोध
राष्ट्रीय चेतना – राष्ट्र-भावना से ओतप्रोत काव्य-संग्रह
गुलिस्ताँ – संवेदनशील ग़ज़लों का संग्रह
हम तो चंदन हैं – आत्मीयता और सामाजिक सरोकार की ग़ज़लें
तरकश के तीर – मार्मिक मुक्तकों की श्रृंखला
बाँहों में आकाश – कल्पना और भाव-विस्तार का काव्य-संग्रह
धूप झरे चाँदनी – मधुर गीतों की प्रवाहमयी कृति
कोटारानी – इतिहास और संवेदना का अद्भुत संयोग, ऐतिहासिक उपन्यास
मैं इस समय का भीष्म हूँ – गीत और नवगीत की सशक्त हुंकार
छन्द-मकरन्द – दोहों की रस-सिक्त माला
वैदिक साहित्य में रामकथा – भारतीय परंपरा का गहन विवेचन
सांस्कृतिक ज्ञान-कोश, हिन्दी ज्ञान-कोश – भाषा और संस्कृति का दस्तावेज़
नैतिक शिक्षा एवं संस्कार, बेसिक नैतिक शिक्षा (5 भाग, संपादित) – पीढ़ियों के लिए मूल्य-साहित्य
बाल-काव्य-कौमुदी, किलकारी, बाल-गीत (भाग 1-2) – बालमन को संस्कारित करता साहित्य
हिन्दी माधुरी (7 भाग, संपादित) – शैक्षिक साहित्य में उनका अनुपम योगदान
इसके अतिरिक्त उन्होंने दो दर्जन से अधिक सामान्य ज्ञान और बाल पुस्तकें संपादित कीं, जो भाषा-सेवा की उनकी बहुमुखी दृष्टि को दर्शाती हैं।

संपादन का यज्ञ : ‘कविताम्बरा’ के माध्यम से भाषा की सेवा।

मधुकर जी का सबसे उल्लेखनीय कार्य है ‘कविताम्बरा’ पत्रिका का संपादन (1980 से निरंतर), जिसे हिंदी संस्थान, उत्तर प्रदेश द्वारा धर्मयुग सर्जना पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
आप संपादक नहीं, साहित्य-यज्ञ के यजमान हैं — आपनें अनगिनत नवोदित कवियों को मंच, पहचान और दिशा दी। मैं मानती हूँ कि हिंदी कविता की कई उभरती धाराएँ कविताम्बरा के किनारों से ही सिंचित हुईं।

व्यक्तित्व : धूप, चंदन और शब्द-अनुशासन का संगम

हीरालाल मिश्र ‘मधुकर’ का व्यक्तित्व शब्दों में बांधना आसान नहीं हैं । आपके शब्दों में तर्क और स्वर में आत्मीयता एक साथ झलकती थी। आँखों साहित्यिक तेज है जो मौन में भी संवाद कर लेता है।
उनका स्वभाव अत्यंत विनम्र किंतु अन्याय, सांस्कृतिक अपमान और भाषा-दूषण के विरुद्ध आपकी लेखनी तरकश से छूटे तीर की तरह सीधी चोट करती है।
मधुकर जी मानते हैं कि साहित्य समाज की पीड़ा हरने का माध्यम है, और उनका प्रिय श्लोक इसी विचार का उद्घोष करता है:

“न त्वहं कामये स्वर्गं, न मोक्षं न पुनर्भवम्।
कामये दुःख तप्तानां प्राणिनां आर्तिनाशनम्।।"

अर्थात— न मुझे स्वर्ग चाहिए, न मोक्ष, न पुनर्जन्म; मुझे केवल दुःख-संतप्त प्राणियों का कष्ट हरने की शक्ति चाहिए।
यह श्लोक उनके साहित्य का नीतिशास्त्र भी है और आत्म-दर्शन भी।

बहुमुखी प्रतिभा : साहित्य से रंगमंच तक।

आपके भीतर कवि के साथ-साथ एक कुशल अभिनेता भी है। 1965-68 के दौरान आपनें स्वयं लिखित नाटकों— रेत का गुलाब, सम्राट अलर्क, कफ़न, पृथ्वीराज चौहान— में अभिनय किया।
दूरदर्शन और आकाशवाणी से आपके साक्षात्कार और काव्य-पाठ प्रसारित हुए हैं। लोकगीतों के ऑडियो-वीडियो संस्करण भी निर्गत हुए, जिससे आपकी लोक-चेतना जन-जन तक पहुँची।

सम्मान और उपाधियाँ : साहित्य-साधना का लोक-स्वीकृत प्रमाण।

आपकी साहित्यिक साधना को देशभर की संस्थाओं ने मुक्त-हृदय से सम्मानित किया, जिनमें प्रमुख हैं:

पं. रामनरेश त्रिपाठी सम्मान – उ.प्र. हिंदी संस्थान, लखनऊ
काशी रत्न, काशी काव्य कांति, कजरी रत्न, भोजपुरी रत्न – वाराणसी की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा
विद्यावाचस्पति (मानद उपाधि) – विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, भागलपुर
हिंदी भाषा विभूषण – साहित्य मंडल श्रीनाथ, राजस्थान
साहित्य श्री, साहित्य गौरव, विशिष्ट सारस्वत सम्मान – कानपुर एवं अन्य साहित्यिक मंचों से
हिंदी साहित्य रत्न, हिंदी गौरव सम्मान – काशी कारवा फाउंडेशन, बेंगलुरु
और इनके अतिरिक्त अन्य अनेक प्रतिष्ठित सम्मान, जो यह सिद्ध करते हैं कि मधुकर जी का साहित्य केवल पढ़ा नहीं गया— स्वीकारा, जिया और सराहा गया।

निवास और संपर्क : साहित्य-सेवा के लिए सतत उपलब्ध

वे मूल रूप से ग्राम-धनवतिया, पो. बरवाँ बाजार, भदोही तथा विद्या विहार कॉलोनी, मड़ौली, भुल्लनपुर, वाराणसी में निवास करते हैं ।
उनसे संपर्क के लिए दिए गए नंबर— 9453005959 / 9415202744 तथा ई-मेल— kavitambara@gmail.com हिंदी साहित्य प्रेमियों के लिए एक खुला द्वार है, जहाँ से निराश लौटना संभव ही नहीं है।
मेरे विचार में मधुकर जी केवल साहित्यकार नहीं बल्कि हिंदी की अनवरत बहती धारा के रक्षक,भारतीय लोक-संस्कृति के भाष्यकार,और मानवीय करुणा के कवि-दार्शनिक हैं ।
आपकी रचनायें भविष्य को संदेश भेजते हुए, वर्तमान को जगाते हुए अतीत को सहेजती हैं । हिंदी कविता की असली शक्ति भाषा की शुद्धता, संवेदना की ईमानदारी तथा संस्कृति के आत्म-गौरव में है और ये तीनों तत्व मुझे मधुकर जी में एक साथ दिखाई देते हैं।
आपकी कविता में जो ओज और करुणा का संतुलन है, वही उन्हें अद्वितीय बनाता है। साहित्य को यदि हृदय की अग्नि और मस्तिष्क की शांति दोनों से लिखना हो, तो मधुकर जी इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं।

एक साहित्य साधक को नमन

हीरालाल मिश्र ‘मधुकर’ हिंदी कविता के ऐसे दीप-स्तंभ हैं, जिनसे दिशाएँ प्रकाशित होती हैं । आपनें जो लिखा, वह केवल संग्रहों में नहीं— हिंदी भाषा के रक्त में संरक्षित हो गया है ।
आप भाषा के प्रवाह में, लोकगीतों की लय में, और कविता की नैतिक पुकार में हैं ।

“विद्याऽमृतमश्नुते"— अर्थात विद्या अमृत है, जो उसे आत्मसात कर लेता है, वह अमर हो जाता है।

सादर,

डॉ. अलका दूबे
साहित्य शोधकर्ता एवं हिंदी सेविका

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